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April 1980

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तत्वमागें यथा दीपो दृश्यते पुरुषोत्तमः। यः स्तनः पूर्वपीतस्त निष्पीडय मुदमश्नुते॥

यस्माज्जातो भगात्पूर्वं तस्मिन्ने व भगे रमन्। या माता सा पुनर्भाया या भार्यां मातरेव हि॥

यः पिता स पुनः पुत्रो यः पुत्रः से पुनः पिता। एव संसार चक्रेण कूपचक्रे घटा इस॥

भ्रमन्तो चोनिजन्मानि श्रुत्वा लोकान् समश्नुते। त्रयो लोकास्त्रयो वेदास्तिस्त्रः संध्यास्त्रयः त्वराः॥

त्रयो5ग्नयश्य त्रिगुणाः स्थिताः सर्वे त्रयाक्षरे। त्रयाणामक्षराणाँ च चो5धीते5र्प्यधमक्षरम्॥

तत्वदर्शी व्यक्ति को अपने पूर्वजन्म प्रकाश की तरह दीखते है। प्राणी एक जन्म मं जिस स्तन को पीता है, दूसरे से उसी का काम भाव से र्स्पश करता है। कभी जिस योनि से जन्म लेता है तो कभी उसी में रमण करता है। एक जन्म में जो माता होती है, वहीं कभी पत्नी हो जाती है। जो पिता होता है से पुत्र बन जाता है और पुत्र पिता हो जाता है। इस तरह सम्बन्ध बनते ही रहते है। यह संसार चक्र कुए की रहट की तरह है जिससे प्राणी एक के बाद दूसरे घड़ों की तरह आते और जाते रहते है।


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