गायत्री नगर में देव परिवार बसेगा जागृत आत्माओं को निवास आमंत्रण

April 1980

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ज्ञान की सार्थकता कर्म में है। सत्साहित्य का स्वाध्याय और सन्त सज्जनों का सत्संग असाधारण पुण्य फलदायक माना गया है। ऐसा क्यों ? इस प्रश्न का उत्तर एक ही है कि पठन और श्रवण के माध्यम से उपब्ध प्रेरणा जब सत्प्रवृतियों में परिणित होती है तो उसमें व्यक्तित्व का स्तर बदल जाता है। मनःस्थिति बदलने पर परिस्थितियाँ बदलती है। अन्तरंग सुधारने से बहिरंग में सुखद परिवर्तन होते है। यही मनुष्य को अभीष्ट भी है। सभी सुख और सन्तोष चाहते है। उसी के लिए अपने अपने ढंग से प्रयत्नरत भी रहते है, किन्तु सफलता बिरलों को ही मिलती है। दिशा विहीन श्रम से अभीष्ट की उपलब्धि तो दूर मात्र थकान ही हाथ लगती है। उपयोगी दिशा धारा प्रदान करना स्वाध्याय और सत्संग का उद्देश्य है। यदि इन दोनों प्रयासों से सन्मार्ग पर चल पड़ने का साहस मिल सके तो समझना चाहिए कि उनका जो माहात्म्य बखाना गया है, उसमें कोई अत्युक्ति नहीं। किन्तु यह स्वाध्याय पढने तथा सत्संग सुनने तक सीमित रहे और उनका प्रभाव जीवन व्यवहार में समन्वित न हो सके तो समझना चाहिए, पढने और सुनने की व्यसन भर की पूर्ति हुई। समय क्षेप का अपेक्षाकृत कुछ उपयोगी बहाना मिल गया। ऐसी दशा में न स्वाध्याय को कोई पुण्य है और न सत्संग का कोई लाभ।

अखण्ड-ज्योति पिछले तैतालीस वर्षों से इस प्रयास में संलग्न है कि स्वाध्याय के लिए श्रेयतम पाठ्यसामग्री परिजनों को उपलब्ध कराने में कुछ कसर बाकी न रहने दी जाये। कमल पुष्पों का मधु सर्वोत्तम माना जाता है। प्रयत्न यही हुआ है कि घटिया फूलों का नहीं प्रफुल्लित पारजातों का ही पराग ढूँढा जाये और उससे परिजनों की परिपोषण के सभी उपयोगी तत्वों से भर पूर खाद्य आवश्यकता पूरी कराई जाये। मधु मक्खी के श्रम को सराहा जाता है। अखण्ड-ज्योति के अध्यवसाय और प्रस्तुतीकरण का यदि मूल्याँकन हो सके तो यही कहा जायेगा कि मानवी तत्परता के अर्न्तगत जो सम्भव था उसमें कुछ उठा नहीं रखा गया है।

सत्संग इन दिनों असम्भव नहीं तो कष्ट साध्य आवश्यक है। जो इस योग्य है, उन्हें महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न हरने के कारण फुरसत नहीं। जिन्हे फुरसत है वे इस योग्य नहीं कि उनकी बात सुनी जाये। सत् परामर्श देने की क्षमता वाले व्यक्ति दूसरों से कुछ कहने से पूर्व उसे आरण में उतारते है और ज्ञान को कर्म में उतारने के लिए बिना एक क्षण गंवाये तत्पर रहते है। वे हर जगह, हर समय उपलब्ध भी नहीं रहते। ऐसी दशा में इन दिनों सत्संग का प्रयोजन भी स्वाध्याय से ही पूरा करना पड़ता है।

परिस्थितियाँ बदलती रहती है। समस्योओं का स्वरुप सदा एक सा नहीं रहता। इसलिए सामयिक समस्याओं के समाधान एवं प्रस्तुत उलझनों के हल प्रस्तुत करने के लिए ऐसे मार्ग-दर्शन की आवश्यकता पड़ती है जो जन साधारण की मनःस्थिति और सामयिक परिस्थितियों के साथ ताल-मेल खता हो। इस दृष्टि से सृजा गया साहित्य ही युग साहित्य कहलाता है। उपयोगिता उसी की होती है। हर युग में ऋषि उत्पन्न होते है और वे सामयिक चिन्तन एवं मार्ग दर्शन की आवश्यकता पूरी करते है। यह प्रस्तुतीकरण ही युग बोध कहलाता है। इसी स्तर के प्रतिपादन का स्वाध्याय सार्थक होता है।

अखण्ड-ज्योति के जीवन काल की प्रायः आधी शताब्दी होने को आई है। उसने युगऋष्टि की भूमिका निभाई और स्वाध्याय की दृष्टि से उपयासेगी पाठ्यसामग्री प्रस्तुत करने में यथासम्भव कहीं कोई चूक नहीं रहने दी है। यह आहार लोगों ने अपनाया भी है और सराहा भी। यही कारण है कि उसके पाठकों की संख्या इतनी है, जिसे हिन्दी धार्मिक पत्रिकाओं में अद्वितीय ही कह सकते है। यह उसकी लोकप्रियता का चिन्ह है।

देखना यह होगा कि यह प्रतिपादन मात्र रुची ही या पढा भी। पाचन के अभाव में बहुमूल्य खाद्यसामग्री भी अपच का कारण बनती है। उससे शरीर को पोषण तो मिलता नहीं उलटा पेट पर भार ही बढता है। धन, बुद्धि, पद, प्रभाव आदि का सही लाभ उन्हीं को मिलता है जो उन्हें पचा पाते है।अन्यथा अपच से वमन विरोचन जैसी विकृतियाँ उठ खड़ी होती है। सम्पदाएँ विग्रह उत्पन्न करती है। उपलब्धियों का महत्व तभी है जब वे पच सके।

ज्ञान की सार्थकता कर्म से मानी गई है। स्वाध्याय तभी सराहा जायेगा जब वह व्यक्तित्व में चमके और आचरण में उतरे। अखण्ड-ज्योति के प्रतिपादन, और पाठकों के अध्यवसाय अध्ययन की सार्थकता इसी कसौटी पर आँकी जायेगी कि परिजनों के जीवन क्रम में उसका क्या प्रभाव पडा ? क्या परिवर्तन हुआ ? यदि ऐसा छ भी न हुआ हो तो समझना चाहिए कि मनोरंजन बेचने खरीदने वालों में एक संख्या अखण्ड-ज्योति के प्रकाशन को भी सम्मिलित हो गई। यदि ऐसा हुआ हो तो समझना चाहिए कि एक महान प्रयास चट्टान से टकराने वाली नाव की तरह दुर्घटना ग्रसित हो गया। ऐसी दशा में इस असफलता को अपने समय का एक दुःखदायी दुर्भाग्य ही माना जायेगा।

अनुमान है कि ऐसा हुआ नहीं है। कहीं कुछ अधुरापन रह गया है जिसके कारण प्रेरणा चिन्तन क्षेत्र तक घुमड़ कर रह गई, उसे कर्म के रुप में परिणित होने का अवसर नहीं मिला। पूर्ण असफलता इसलिए स्वीकार नहीं की जा सकती है कि अखण्ड-ज्योति परिजनों की आस्था, अभिरुचि एवं आकाँक्षा जन साधारण की तुलना में कहीं अधिक उत्कृष्ट पाई जाती है। यदि कोई प्रभाव न पड़ा होता तो मनःस्थिति में इतना असाधारण अन्तर कैसे आया ?

परिणिति को सफलता भी नहीं कह सकते। क्योंकि इस विशाल समुदाय में से ऐसी व्यक्तित्व सम्पन्न प्रतिभाएँ क्यों नहीं उभरी जिनकी माँग विश्व के कोने-कोने में है। सर्वविदित है कि प्रतिभाएँ ही जन मानस को प्रशिक्षित एवं परिवर्तित करती है। अवाँछनीय प्रवाहों को मोड़ने-मरोड़ने और उसे उपयेगी बना देने का कार्य व्यक्तित्वान प्रतिभाएँ ही करती रही है। आज इसी की माँग और आवश्यकता है किन्तु उसकी पूर्ति हो नहीं रही। यदि अखण्ड-ज्योति के प्रतिपादन प्रखर रहे होते तो उस समुदाय में से युग की माँग पूरी कर सकने वाली प्रतिभाएँ उभर कर आगे आई होती। यदि इस समुदाय में जीवन रहा होता, तो वे मात्र सज्जन भर बन कर न रह जाते। समय का मार्ग-दर्शन करते भी दिखते।

सज्जन होना अच्छा तो है, पर पर्याप्त नहीं। प्रखर व्यक्तित्व दूसरों पर अपनी छाप छोड़ते है और पग-पग पर अनुयायी उत्पन्न करते है। निराशा को आशा में बदलना उन्हीं काकाम है। वे पतन को रोकते ही नहीं वरन् उसे गलाते, ढालते और उत्थान में परिवर्तित करते है। हेय स्तर की प्रतिभाओं ने अपनी दुरभिसन्धियों से हर क्षेत्र में अवाँछनीयता बोई और उगाई। यदि श्रेष्ठता के क्षेत्र में भी प्रखरता विद्यमान रहती तो कोई कारण नहीं कि लोक प्रचलन में सत्परम्पराओं के उद्यान लहलहाते दृष्टिगोचर न होते।

यहाँ प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कया उत्कृष्ट चिन्तन उपलब्ध होने से जीवन क्रम बदलेगे और प्रतिभा उभरने का लाभ नहीं मिलता ? इसके उत्तर में बीज, फसल और खाद पानी का उदाहरण देना होगा। उत्कृष्ट चिन्तन बीज है। उसकी आवश्यकता अपरिहार्य है। वह न हो तो अंकुर उगने से लेकर फल लगने तक का आधार ही नहीं बनता। इस अभाव में तो पूर्ण अवरोध ही बना रहेगा। इतने पर भी यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि इस प्रसंग में बोया हुआ बीज, अंकुर भर बन सकता है। परिपुष्ट पौधे की स्थिति में नहीं पहुँच सकता। व्यक्तित्व के विकास का जहाँ तक सम्बन्ध है वहाँ उसके लिए प्रेरणाप्रद वातावरण की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। इसका प्रबन्ध हो सके तो दोष चाहे बोने वाले को दियाजाये या काटने वाले को। आवश्यक फसल काटने का अवसर तो नहीं ही मिलेगा। विचारणा चाहे भली हो या बुरी अनुकूल वातावरण में ही पलती और फलती है। इसके अभाव में हर प्रयत्न मुरझाता और सूखता दृष्टिगोचर होगा, भले ही वह अच्छा हो या बुरा। सत्संग और कुसंग की जा महिमा बताई जाती है उसे मात्र व्यक्ति विशेष के सर्म्पक तक सीमित न माना जाये। वातावरण में ही प्रभावित करने की वास्तविक क्षमता रहती है।

अखण्ड-ज्योति परिजनों को चदि उपयोगी प्रतिपादन की तरह ही प्रेरणाप्रद वातावरण मिला होता तो निश्चय ही उसका चमत्कारी रहा होता। सम्पन्न लोग अपने छोटे बच्चों को पाँच सौ रुपया मासिक खर्च वाले पब्लिक स्कूलों में पढने भेजते है, जबकि वहाँ भी ग्रामीण स्कूलों की तरह ही प्राथमिक शिक्षा का पाठ्यक्रम रहता है। पूछने पर वे अभिभावक एक ही बात कहेंगे कि उन मंहगे स्कूलों का वातावरण ऐसा होता है जिसमें बालकों में सभ्य व्यवहार की आदत पड़ सके। वातावरण की प्रभावी शक्ति को असंदिग्ध रुप से स्वीकार करना पड़ता है।

देवता र्स्वग में रहते है, इसलिए उनकी गरिमा अक्षुण्ण बनी रहती है। यदि उन्हें नारकीय वातावरण में रहना पड़े तो निश्चय ही उनमें से अनेकों की आदतें बदल जायेगी और साधारण लोगों जैसी बुरी आदतों से वे भी भर जावेगें। प्राचीनकाल में बालकों को शिक्षण ऋषियों के गुरुकुलों में होता था और वे नर-रत्न बनकर निकलते थे। वयस्कों को तीर्थवास में, अधेड़ों को आरण्यकों में चिरकाल तक निवास करना पड़ता था ताकि वे परिवार के अनपढ वातावरण से प्रथक होकर कुछ समय प्रेरणाप्रद परिस्थितियों में रह सकें। वानप्रस्थों की शिक्षा साधना आरण्यकों में चलती थी। यों गुरुकुलों और आरण्यकों के कोर्स को प्राइवेट पढकर गैस पैपरों के सहारे अथवा पत्राचार विद्यालय में भर्ती होकर भी पूरा किया जा सकता है। ट्यूटर निर्धारित पाठ्यक्रम का अभ्यास करा सकते है। और सरलतापूर्वक उत्तीर्ण होने का अवसर मिल सकता है। इतने पर भी छात्रों को वह लाभ नहीं मिल सकता जो उन शिक्षण संस्थओं के साथ जुड़े हुए विशिष्ट वातावरण में सन्निहित रहता था।

अखण्ड-ज्योति परिजनों को एकाँगी सौभाग्य मिल सका। उससे उपयोगी प्रेरणाएँ तो सत्साहित्य के माध्यम से मिली, किन्तु जो पढा उसे व्यवहार में उतारने के लिए सहयोगी वातावरण न मिल सका। फलतः उस अध्ययन का लाभ चिन्तन का स्तर उठाने तक सीमित बनकर रह गया। घर, गाँव और मुहल्ले का - सम्बन्धियों और कुटुम्बियों का समुदाय भी ऐसा नहीं रहा जिसमें सुसंस्कारिता गहराई तक भरी होती । ऐसी दशा में उपयोगी अध्ययन अपने जीवन्त होने का प्रमाण चिन्तन को ऊँचाई देकर समाप्त हो गया।

कभी-कभी मनस्वी ऐसे भी होते है जो बिना दूसरों का सहारा लिये निज के बलबूते ही अपने को उठाने और उछालते है। स्वनिर्मित व्याक्तित्वों को भी संसार में कमी नहीं, किन्तु यह अपवाद है। आमतौर से मनुष्य वातावरण में ढलते है। यों कोई तेजस्वी वातावरण में भी ढलते देखे गये है, पर वे जन्मजात प्रतिभावान संचित संस्कारों के धनी ही होते है। उन्हें आदर्श तो कहा जा सकता है। उदाहरण नहीं। नदी के प्रवाह यों बहते ही अधिक है। उसे रोककर बाँध बनाने और नहरों में मोड़ने में सफलता प्राप्त करने वाले तो कोई कोई ही होते है।

अखण्ड ज्योति परिजनों को प्रतिपादन, परामर्श की तरह ही यदि तदनुरुप वातावरण भी मिल सका होता तो निश्चित रुप से वे वहाँ नहीं होते जहाँ गतिरोध उन्हें रोके खड़ा है। चिन्तन में उत्कृष्टता का महत्व कम नहीं पर तथ्य यह भी है कि यदि किसी को असामान्य बनना या बनाना हो तो त्दनुरुप वातावरण उपलब्ध करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसी अभाव की यह दुखद परिणित है कि परिजन सामान्य स्तर के बने और सामान्य स्थिति में पडे हुए हैं। यदि स्थिति ऐसी न होती, अवसर मिलता तो यह पूछने बताने की आवश्यकता प पड़ती कि परिजनों के इतने बडे सूदाय में मात्र सज्जन ही क्यों दिखाई पड़ते हैं। इनमें प्रभावित करने वाले नेतृत्व की क्षमता क्यों नहीं है ? यों सृजन शिल्पियों का एक बड़ा समुदाय भी इसी परिवार में से निकला है तो भी परिजनों की संख्या और उसमें से उभरी हुई उच्चस्तरीय प्रतिभाओं की संगति मिलाई जाती है जो स्थिति निराशाजनक ही दीखती है।

होना यह चाहिए था कि प्रेरणाप्रद वातावरण का प्रबन्ध होता और उसमें परिजनों को रुकने, बसने का अवसर मिलता। यदि यह प्रबन्ध किया जा सका होता तो अखण्ड-ज्योति की खदान से इतने नर-रत्न निकले होते जिनकी जगमगाहट से अगणित चहरे दमकते और उनके प्रभाव से असंख्यों व्यक्तित्व उभारते, उछलते द्वष्टि गोचर होते।

भूतकाल में गुरुकुलों और आरण्यकों ने विश्वमानव को, नर-रत्नों को अजत्र उपहार दिया है। इतिहास भारतीय गरिमा का ऋणी है। जिससे संसार के कोने-कोने में अभ्युदय और उर्त्कष के लिए भागीरथ जैसे प्रयास और आदर्श क्रिया-कलाप अपनाने वाले नर-नारायणों की यह पृष्ठभूमि स्वर्गादपि गरीयसी कहलाती थी। इस गरिमा का विशाल रुप जनसाधारण ने जिस भी रुप में देखा हो और परखने वालों ने जो भी निर्ष्कष निकाला हो, पर वास्तविकता इतनी ही है कि धरती पर बिखरे पड़े और मानवी काया में परिलक्षित होने वाले देवत्व कर उपार्जन उत्पादन गृरुकुलों और आरण्यकों में ही होता था। वे नर्सरी, खदान और फैक्टरी की भूमिका निभाती थीं। यह विधालय नहीं थे। उनमें पढ़ाई भर नहीं होती थी, ढलाई उनका प्रमुख प्रयोजन था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए पाठ्यक्रमों को गौण और वातावरण को प्रमुखता दी जाती थी। अध्ययन से मनुष्य सीखता है। वातावरण से ढलता है। पढ़ाई से जानकारी मिलती है और वातावरण से प्रतिमा उभरती है। व्यक्तित्व ढालने के जितने भी उपाय है वे सभी एकाँगी और संदिग्ध है। सुनिश्चित उपचार एक ही है कि सुसंस्कृत वातावरण में रहने का ऐसा अवसर मिले जिससे जो बनना है उसके अतिरिक्त प्रयत्तन करना पडे़। अनुकरण करने, ढरें में लुढकने और अनुशासन पालने भर से चिन्तन और चरित्र में परिवतन होता चला जाय।

प्राचीन काल में यही प्रक्रिया अपनाई गई थी। बालकों को गुरुकुलों में प्रौढ़ों को आरण्यकों में अधिक समय रहने और सीखने तथा ढलने का अवसर मिलता था। तीर्थ कल्प के माघ्यम से व्यस्त लोग कुछ समय के लिए वातावरण बदलने और देव जीवन को प्रेरणा लेने जाते थे। स्वारथ्य गडबड़ाने पर जलवायु बदलने के लिए लोग किसी उपयुक्त स्थान पर चले जाते है और कुछ दिन वहाँ निवास करने का लाभ लेकर लौटते है। प्राचीनकाल में तीर्थ सेवन द्वारा मानसिक स्वास्थ्य सुधारने, द्वष्टिकोण एवं जीवन क्रम में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया पूर्ण करते थे।

समय की माँग है कि अखण्ड-ज्योति परिवार के देव परिजनों को मात्र उत्कृष्ट स्वाध्याय का ही अवसर न मिले-वरद् उस वातावरण में रहने को भी सुविधा हो जो व्यक्तित्व को आदर्शवादी-अध्यात्मवादी ढाँचे में ढालने के लिए अनिवार्य रुप से आवश्यक है। समय को माँग-नव सृजन के लिए अपने आदर्श उपस्थित करने वाले और जन समुदाय को नेतृत्व कर सकने योग्य प्रतिभाओं का उत्पादन प्रचुर परिमाण में करने की है। उसकी पूर्ति के लिए गायत्री नगर का ढाँचा खडा किया गया है, इसमें गुरुकुल, आरण्यक और तीर्थ कल्प की तीनों ही दिव्यधारीओं का समन्वय किया गया है। इस त्रिवेणी में अवगाहन करने के लिए जागरुक प्राणवानों को अखण्ड-ज्योति के प्रखर परिजनों को- आग्रहपूर्वक आमन्त्रण किया गया है।


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