सौर्न्दय को बनावट या सज्जा के साथ जोडा जाता है और किसी को कुरुप या रुपवान ठहराने के लिए उसके द्वश्य स्वरुप को परीक्षा का आधार माना जाता है। पुष्प की शोभा हो या तरुणी की माँसलता, सौर्न्दय की परख के लिए उसकी आभा पर ही अधिक ध्यान दिया जाता है।
यह बहुत ही उथली द्वष्टि से है। तात्विक सौर्न्दय बोध, व्यक्ति की अपनी भाव-सम्बेदना पर आधारित है। स्नेह सौजन्य को अनुभव करने पर कुरुप बालक या प्रियजन भी सौर्न्दयवान लगते हैं, जबकि उपेक्षा या शत्रुता का भाव रहने पर सुन्दर समझे जाने वाले पदार्थ या प्राणी कुरुप लगते है। सचना की द्वष्टि से सिंह , व्याघ्र, सर्प आदि की काया को कुरुप नहीं कहा जा सकता। फिर भी किसी को उनमें सौर्न्दय की अनुभूति नहीं होती।
आँखे केवल प्राकृतिक उभार के दिनों की स्थिति में सुन्दरता देखती हैं। इस दृष्टि से किशोर वय को अधिक मान्यता मिली है। इन दिनों हर अवयव माँसल स्निग्ध तथा आकर्षक होता है। इसके पूर्व या पश्चात् के दिनों में वही काया सामान्य दीखती और आकर्षण रहित लगती है।
पुरातन और स्वाभाविक परम्परा यही रही है। इसके बाद सभ्यता का युग आया। उसने सजधज की श्रृंगारिता के नये-नये आधार प्रस्तुत किये। देवताओं को मुकुट, पीताम्बर, आयुध और बाहनों से सुसज्जित करने की प्रथा इसी काल की देन है।नारी को नख-शिख के सजाने वाले अलंकार इन्हीं दिनों पहनाये गये। अब तक श्रृंगार ही सब कुछ है। उसे माँसलता से भी अधिक महत्व मिलने लगा है। श्रृंगार साधनों में कुरुपता को छिपा देने, कृत्रिम सुन्दरता चिपका देने की विशेषता तो है पर अब तो उसी ने प्रधानता पकड़ ली है।
इतने पर भी सौर्न्दय का मूल उद्गम अपने स्थान पर ही स्थिर है। वह भाव सम्वेदनाओं पर आधारित है। कवि हृदय को बादलों में लहरों में, निर्झर के कल कल में, प्रभात की ऊषा में जो सौर्न्दय बोध होता है वह उन पदार्थों से उद्भूत नहीं वरन् अनुभव कर्त्ता की सम्वेदना का प्रतिफल है।
सम्वेदना स्तर शुष्क होने पर सुन्दर से सुन्दर वस्तु मात्र पदार्थ जैसी नीरस प्रतीत होती है। फूलों का व्यवसाय करने वालों को वे विक्रय की एक घास-पास जैसी वस्तु अनुभव करते हैं, जबकि किसी भावुक के लिए उन्हीं के साथ सघन श्रद्धा की अनुभूति लिपटती और आराध्य के चरणों पर समर्पित होती है।
सौर्न्दय वस्तुतः चेतना की उत्कृष्ट स्थिति का अनुभव मात्र है। उसका पदार्थ या प्राणी से इतना सम्बन्ध नहीं जितना कि दृष्टा के दृष्टिकोण का। यह सौर्न्दय बोध बिना आँखों के भी हो सकता है। सूरदास ने अपनी अनुभूतियों को जिस प्रकार कृष्ण कलेवर में लपेटा और व्यक्त किया है, उससे स्पष्ट है कि दर्शक की दृष्टि एवं दृश्य की उपस्थिति न होने पर भी आन्तरिक सम्वेदनाओं के आधार पर सौर्न्दय की अनुभूति निर्वाध रुप से की जा सकती है। वस्तुतः वह भीतर से निकलती है और प्रिय वस्तु से टकरा कर प्रतिच्छाया के रुप में दीखती और प्रति ध्वनि की तरह गूँजती है। सौर्न्दय बोध और अध्यात्म तत्वदर्शन में राई रत्ती जितना ही अन्तर हो सकता है। ईश्वर भी सौर्न्दय की तरह भीतर प्रकट होकर बाहर परिलक्षित होता है।