गायत्री नगर-र्स्वग और देवत्व के अवतरण की प्रयोगशाला

April 1980

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गायत्री नगर बनाने का संकल्प इसी द्वष्टि से उठा कि धरती पर र्स्वग के अवतरण का स्वप्न छोटे रुप में साकार करके दिखया जाय। भावी सम्भावनाओं का अनुमा लगाने के लिए वर्तमान में भी कुछ प्रतीक चिन्ह तो खड़े करने ही पड़ते हैं। इमारते बनने से पूर्व उनके नक्शें बनते है। मूर्तियाँ गढ़ी जाने से पूर्व उनके माँडल खड़े होते हैं। देवताओं का र्स्वग पहले इसी अपनी भारत भूमि पर बिखरी हुई स्वर्णिम परिसिथतियों में प्रतिभाषित होता था। दसे देखकर लोग उससे भी ऊँची परिस्थितियों का अनुमान लगाते थे और मरणोतर जीवन आने पर वही पहुँचने का स्वप्न देखते थे।

घर परिवारों को र्स्वग का छोटा प्रतीत प्रतिनिधि माना जाता था। उसमें भाववात्मक षट्रस व्यंजन मिलते है। छोटे-बड़े, नर-नारी समर्थ, अविकसित मिल-जुलकर एक गुलदस्ता बनते थे और संयुक्त अस्तित्व आनन्द के निझेरे झरते थे। दीवार, छप्पर तो इन्ही दिनों जैसे होते थे। चूल्हा-चक्की, बुहारी-चारपाई तो इन दिनों जैसे ही होते थे, पर उनमें व्यवस्था और सुसज्जा की ऐसी कलाकारिता समाई होती थी कि दस आश्रम में पलने वाले र्स्वग का पूर्णभास पाते और मोद मनाते थे। जहाँ श्रमशाीलता और व्यवस्था रहेगी वहाँ दरिद्रता क्यों प्रवेश करेंगी ? जहाँ आपाधपी नहीं, वहाँ मनोमालिन्य किस बात का ? जहाँ दुद्वटता नहीं वहाँ विग्रह क्यों ? जिन कारणों से नरक पनपता है उनकी जड़ ही ना जमने पासे तो असन्तोष और सन्तोष कैसा ? भारतीय पकरवारों में आतिथ्य पाने वाले, विदेशी तक अपने भाग्य को सराहते थे। वहाँ क्या खाया-पीया तो छोटी बात थी, क्या देखा और क्या अनुभव किया, इसी की स्मृति उनके मानस पटल पर आजीवन छाई रहती थी। ऐसे थे भारतीय परिवार। उन्ही का संयुक्त रुप अपने देश की धरती पर बिखरा पड़ा था। फलतः उसे जन-जन द्वारा ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ की मान्यता और प्रतिष्ठा मिली थी।

नव-निर्माण मिशन ने अपने लक्ष्य को दो स्वरुप में चरितार्थ होने की सम्भावना घोषित की है। एक घरती पर र्स्वग का अवतरण दूसरा मनुष्य के देवत्व का उदय। यह दो आधार दो पृथक इकाइयाँ नहीं वरन् एक ही तथ्य के दो पहलू हैं। जहाँ लोगो की मनःसिथति के देवत्व की उत्कृष्टता भरी होगी, वहाँ व्यवहार में स्नेह, सहयोग, सृजन, सौर्न्दय की हलचले द्वष्टिगोचर होगी। दूसरे शब्दों में इसी प्रकार कहा जा सकता है कि जहाँ स्वर्गीय वातावरण होगा वहाँ दस प्रभाव से प्र्रभावित व्यक्ति देवत्व का आचरण करते, देवों जैसा द्वष्टिकोण अपनाते पाये जायेगे। देवताओं की निवास भूमि को र्स्वग कहते है। जितना यह कथन सत्य है उतना ही यह भी तथ्य है कि स्वर्गीय वातावरण में रहने वाले देवत्व से ही भरते चले जयेगे।

यह प्रतिपादन किस हद तक सही है ? सामान्यता इसे हर व्यक्ति जानना चाहेगा ? जो वयवहार में द्वष्टिगोचर होता है , कौतूहल उसी का होता है। जादू उस प्रस्तुतीकरण को कहते है जो सामान्यतः देखा नहीं जाता। सिद्वियाँ उन विशेषताओं को कहते है, जो हर किसी में द्वष्टिगोचर नहीं होतीं। देवेता अलौकिक होते है। र्स्वग धरती से बहुत ऊपर है। इन समस्त प्रति पादनों से एक ही ध्वनि निकलती है कि जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए युग निर्माण मिशन के प्रयास चल रहा है, वे सामान्य जन-जीवन से ऊँची स्थिति है।

धरातल पर सहगमन एक जैसा होता है। मनुष्य दो पैरो से और पशु चार पैरों से चलते है, पर पक्षी आकाश में उड़ते हैं। चलने और उडाने का अन्तर मात्र है। इसर प्रकार लोक व्यवहार और आर्दशवादी अनुशासन में भी भिन्नता रहेगी। आस्थाओं और चेष्टओं में उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ जाने को ही अध्यात्म की भाषा में उर्त्कष या अभ्युदय कहते है।

सम्पदाओ को वैभव कहते है। वैभव कोई भी रख सकता है, चोर- लुच्चा भी। वह उत्राधिकार, लाटरी में या भाग्यवश अनायास भी मिल सकता है। किन्तु अभ्युदय तो हर व्यक्ति का निजी उपार्जन है। रोटी स्वयं खाई, स्वयं पचाई जाती है, काया को जीवन शक्ति उसी से प्राप्त होती है। दूसरों के खाने-पचाने से अपने शरीर में रक्त माँस नहीं बढ़ता। इसी प्रकार देवत्व और अभ्युदय के लिए वैयक्तिक प्रयास से परिशोधन और भिवर्धन का क्रम चलता है। इसी राजमार्ग पर एक-एक कदम चलते हुए जीवन लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव होता है। यही है देवत्व की उपलब्धि का स्वरुप। उसे प्राप्त करने में यों आवश्यक तो मार्गदर्शन भी होता है, वस्तुतः काम वातावरण से बनता है।

अनुभाग को प्रेरणा प्रभावी प्रतिपादन से नहीं प्रस्तुत उदाहरण से मिलती है। उत्कृष्टता के उदाहरण वहाँ देखे जा सकें उसी को वातावरण कहते हैं। इसकी व्यवस्था जहाँ बनी, समझाना चहिए कि सम्भानाओं के प्रत्यक्ष होने का साधन बन गया।

नव युग में चिन्तन किस स्तर का होगा, उसकी झाँकी करने और उसे लोकमानस में जमाने के लिए अखण्ड-ज्योति ने लम्बे समय से प्रयास किया है। प्रतिपादनों के पीछे जुड़े हुए तथ्य और सत्य ने हर विचारवान् को प्रभावित और प्रेरित किया है। चिन्तन का प्रवाह मोड़ने में उस प्रयास को उत्साहवर्धक ही नहीं आशातीत कही जाने वाली सफलता भी मिली है। इतने पर भी उसका प्रत्यक्ष प्रतिफल दृष्टिगोचर नहीं हो सका। चिन्तन चरित्र में नहीं उतरा और देव चिन्तन के रहते हुए भी देवत्व का प्रत्यक्ष अस्तिव दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इस कमी का एक ही करण है। बीजोरोपण के उपरान्त उपयुक्त खाद पानी का न मिलना।

आर्दशवादी प्रतिपादनों को बीजारोपण से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता। वह तो है पर समग्र नहीं। स्वाध्याय और सत्संग का महत्व एकपक्षीय है। बात आचरण से बनती है और उसके लिए अनिवार्य रुप से वातावरण चाहिए। उद्यान लगाने वालक सिंचाई, रखवाली, माली आदि की समस्त व्यवस्थाए बनाते है अन्यथा आपने आप तो जंगलों में झाड़-झंखाड़ ही उगते बढ़ते है। अनगढ़ता सर्वत्र है। सुसंस्कारिता के लिए तो नियोजन और अनुशासन को निरन्तर आपनाये रहना पड़ता है। उद्यान लगाना और परिवार बसाना एक ही प्रक्रिया के दो प्रयोग हैं।

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का उद्घोष बनाये रहने से काम नहीं चलेगा। इस मधुर कल्पना को कब तक रखे रहा जायगा ? स्वप्नों के कल्पना चित्र भी छाप छोड़ते और सम्वेदना उभारते देखे जाते हैं, पर वे प्रत्यक्ष में न उतरने के कारण अविश्वस्त और निरर्थक समझे जाते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् के महान् आदर्श में ही उज्ज्वल भविष्य की सम्भानाऐ सन्निहित हैं। एकता और ममता के ईंट-गारे से ही नव युग का भवन चुना जायगा। अस्तु उस प्रतिपादन को प्रत्यक्ष करना होगा। योजनाएँ भी दिवा स्वप्न ही होती हैं। उनमें उन्तर इतना ही रहता है कि उपलब्धि के लिए साधन जुटाने की सम्भावनाओं को जुड़ा रखते हैं जबकि स्वपनों में वैसा कुछ नहीं होता। वसुधैव कुटुम्बकम् के स्वपन चिरकाल से देखे जाते रहे हैं और उनकी पूर्ति में उज्ज्वल भविष्य का रगींन चित्र दर्शाया जाता रहा हैं। अब एक कदम आगे बढ़ने की आवश्यकता है। रात्रि स्वप्नों और दिवा स्वप्नों में जो अन्तर होता है वेसे समझा जाना चाहिए। रात्रि स्वप्न कल्पना क्षेत्र में अविज्ञात से आते और अनन्त की ओर उड़ते चले जाते है। उनके सिर पैर नहीं होते। किन्तु दिवा स्वप्नों के पीछे कार्य करण की संगति होती है। उनके पीछे क्रमबद्ध योजना बनती और साधन जुटाने की तत्परता रहती है।

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की आदर्शवादिता को अब स्वप्न लोक से नीचे लगने और व्यवहार में उतरने का समय आ गया।

गुरुकुलों, आरण्यकों और तीर्थ कल्पों की गरिमा गाथा का बखान यदि सच्चे मन से होता है तो उसमें एक कड़ी और जुड़नी चाहिए-उस त्रिवेगी के पुनर्जागरण की, पुनर्जीवन की। गंगा का आस्तित्व तो पहले भी था। पर वह र्स्वग लोक में। उसे प्रयत्नपूर्वक भागीरथ ने धरती पर उतारा। मनुष्यों को देवत्व के वरदान उपहार से लदे रहने वाली वह त्रिवेणी रुठकर दमयन्ती को लादे अपने पितृगह चली गई है। अथवा यों कहना चाहिए कि सीता की तरह अपहतं कर ली गई जो हो उसे वापिस लाया जाना चाहिए। मावनी काया में शैतान भा रहता है और भगवान भी। परिस्थितियाँ उसे हैवान बनाये रहती है किन्तु अनुकुलता मिलने पर उसका इन्सान भी प्रकट एवं प्रबल हो सकता है। इस युग सृगन में इसी प्रयास की आवश्यकता है।

इसी दूरदर्शी चिन्तन ने- समय के इसी दबाव ने गायत्री नगर बनाने को प्रेरणा दी और इस इमारत का काम चलाऊ अशं बनकर तैयार भी हो गया हैं। अब उसमें इतनी जगह हो गई है कि मन मसोस कर न बैठा जाय। जो करना है उसके लिए कुछ कर सकने के लिए कदम बढ़या जाय। देवालय, धर्मशाला बनाने की बात न कभी सोची गई और न सोची जा रही है। धनी मानी यश लिप्सा या पुण्य लूटने की दृष्टि से उस उस प्रकार के भवन बनाते रहते हैं। जितनी तेजी से, जितनी संख्या और जैसी विशालता के साथ वे बन रहे हैं, उन्हे देखते हुए कई बार तो यहाँ तक सोचना पड़ता हैं कि वस्तुतः इनकी आवश्यकता है भी या नहीं ? कहीं निर्माण सामग्री और भूमि का अपव्यय तो नहीं हो रहा है ? गायत्री नगर बनाते समय इस प्रकार का अन्धानुकरण कभी कल्पना में भी नहीं आया। उसके पीछे एक सुनिश्चित योजना रही हैं। इसी प्रेरणा से इसके साधन जुटाने में ऐड़ी-चोटी श्रम किया गया है।

भव सम्पन्नों को दिशाधारा दे सकने योग्य वातावरण बनाने की दृष्टि से ही इस निर्माण को हाथ में लिया गया। उसका ढाँचा खड़ा होने पर अब दूसरा कदम उठाना है-देव परिवार बसाने का । युग मन्च से एक गीत आरम्भ से ही गाया जाता रहा है-

नया संसार बनायेंगे, नया इन्सान बनायेंगे। नया भगवान बनायेंगे, नया परिवार बसायेंगे॥

युग सृजन के पीछे इसी तत्वदर्शन को क्रियान्वित करने की आकाक्षएँ उफनती और छोटी-बड़ी योजनाएँ बनती आई हैं। अब वह समय आ गया कि साकार और गतिशील बनाया जाय।

गायत्री नगर में क्या किया जाना है। इसकी योजना और, घोषण पिछले दिनो संक्षिप्त रुप से बताई जाती रही है। उसे युग शिल्पियों का प्रशिक्षण संस्थान बनाना है। बौद्ध बिहारों और संधारामों जैसा। बुद्ध के ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ अभियान में प्रशिक्षण के लिए बिहार और नियोजन के लिए संधाराम बने थे। उतने विशाल निर्माणों का अवसर तो नहींमिला, पर गायत्री तपो-भूमि को संधाराम एवं गायत्री नगर को बुद्ध बिहार के अनुकरण कर सकने योग्य बनाया गया है।

युग शिल्पी बारी-बारी से यहाँ आते रहें और आत्म निर्माण तथा लोकनिर्माण की उभय-पक्षीय प्रक्रिया का क्रियान्वित करने का अभ्यास करते रहे। एसी पाठ्य विधि बनाई गई है। एक-एक महीने के साधना एवं शिक्षण के बहुमुखी प्रशिक्षण सत्र यहाँ चलते। जो अधिक समय ठहरना चाहेंगे उनके लिए वैसी सुविध भी रहेगी। युग सृजन बड़ा काम है। उसकी जटिलताओं को देखते हुऐ तदनुरुप प्रशिक्षण नित्तन्त आवश्यक हैं। डाक्टर, इन्जीनियर, प्रोफेसर, वैज्ञानिक, कलाकार आदि को अपने विषय में परागत होने के लिए कई-कई वर्ष का प्रशिक्षण एव अनुभव प्राप्त करना पड़ता है तो कोई करण नहीं कि युग सृजन के समुद्र मन्थन जैसे महान् कार्य को सम्पन्न करने के लिए आवश्यक अनुभव एवं अभ्यास की आवश्यकता न पड़े। गायत्री शक्ति पीठों का चलाना रेलगाड़ी चलाने से भी अधिक पेचीदा है। संचालकों में स्तरीय प्रवीणता न हो तो वह बहुमूल्य प्रयास निरर्थक बनकर रह जायगा। तथ्य को ध्यान में रखते हुए-आवश्यकता को समझते हुए-सृजन शिल्पियों की बहुमुखी शिक्षा व्यवस्था का कार्यक्रम बना है। यह प्रत्यक्ष क्रिया-प्रक्रिया हुई। अब इससे भी पहले की बात यह सोचनी है कि छात्रों को पढ़येगा कोन ? यह प्रश्न सरल भी है और कठिन भी। सरल इस अर्थ में कि अन्य विद्यालयों की तरह निर्धारित पाठ्यक्रम को पुरा करा देने वाले अध्यापक आसानी से मिल सकते हैं। पेचीदी मशीनों को चलाने, बनाने, सुधारने की कला अब कुछ ही समय में दिखाई जा सकती हैं तो युग सृजन जैसी सीधी-सादी पाठ्यविधि को पूरा कराने में क्या कठिनाई हो सकती है। किसी भी अध्यापक स्तर के व्यक्ति को निर्धारित विषयों का अभ्यास कराने और पढ़ने में प्रवीण किया जा सकता है। इस दृष्टि से यह कार्य नितान्त सरल है।

कठिन इस अर्थ में कि इस शिक्षण प्रक्रिया में छात्रों के व्यक्तित्व को ढालना भी सम्मिलित है। उनके निजी चिन्तन, स्वभाव एवं क्रिया-कलाप में ऐसा परिवर्तन आना है कि वे सर्म्पक क्षेत्रों में अन्यान्यों का ढाल सकने काले साँचे की भुमिका निभा सकें। ‘डाई’ से पुर्जे पेन्ट्रल बनते चले जाते हैं। उसे कुशल कारीगरों के अभ्यस्त हाथ तथा अनुभवी मस्तिष्क ही सही रुप में बना पातें है। जो शिक्षार्थी गायत्री नगर में आयेगे उन्हें प्रवक्ता अध्यापक बनाना होता तो चिश्चय ही यह बहुत सरल था। कला सीखना सिखाना कठिन नहीं है, पर व्यक्तित्वों को ढालना, बदलना, हीरा तराशने और खरादने जैसा कठिन है। शिक्षार्थी ‘साँचा’ और ‘डाई’ बन सके तो ही उनके शिक्षण की सार्थकता है अन्यथा आवश्यक जानकारी तो पत्रिकाओं में छपते रहने वाले लेख ही करा देते हैं। उतने भर के लिए किसी को समय और धन खर्च की आवश्यकता क्यों पड़े ?

मनुष्य को उत्कृष्टा के ढाँचे में ढालने की कोई मशीन नहीं बनी है। वह कार्य तो प्ररेणाप्रद वातावरण और सुसंस्कारी व्यक्तित्वों के निजी प्रभाव सर्म्पक से ही सम्भव हो सकता है। नव सृजन के प्रशिक्षण में इसी अप्य की प्रमुखता रहेगी। अतएव अध्यापक ऐसे होने चाहिए जो शिक्षार्थियों को जानकारी ही नहीं दे वरन् उन्हें विकसित परिष्कृत कराने में-प्रखर प्रतिभाशाली बनाने भी योगदान दे सकें।

विद्यार्थी भर्ती करने से पूर्व अध्यपकों की नियुक्ति करनी पड़ती है। अन्यथा बिना पढ़ाने वालों का स्कूल खो अनाथालय बनकर रह जायेगा। गायत्री नगर के विद्यालय के अध्यपकों को ‘छात्राध्यापक’-की दुहरी भूमिका निभानी पड़ेगी। वे स्वयं भी पढ़ेगे साथ ही दूसरो का भी पढ़वागें। गायत्री नगर में बसने के लिए अखण्ड-ज्योति परिवार ने उन प्रबुद्ध परिजानों को आमन्त्रित किया गया है जो आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण की दूहरी शिक्षा साधना साथ-साथ करने में रुचि रखतें हों, जिन्हें सच्चा स्वार्थ साधने और सच्चा परमार्थ करने में उत्साह हो। बड़ी कक्षाओं के छात्रों में से कितने ही ऐसे भी हाते हैं जो छोटी-कक्षाओं के छात्रो के छात्रो का पढ़ाने की व्यवस्था बनाकर अपना काम चलाते हैं। गायत्री नगर में बसने वाले अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचा उठने के लिए-अपने स्तर की प्रगति करगें। साधना, स्वाध्याय, समय और सेवा की चतुविधि आत्मोर्त्कष प्रक्रिया हर श्रेयार्थी के लिए अनिवार्य रुप से आवश्यक हैं। मात्र भजन अधूरा है। किसान को भूमि, बीज, सिचाई और रखवाली की चारों व्यवस्थाओं पर समान रुप से ध्यान देना और प्रबन्ध करना पड़ता है। इसी प्रकार श्रवार्थी साधना, स्वाध्याय, संयन, सेवा के चारों विद्यान अपनी दिनचर्या में सम्मिलित करते हैं। यही रीति-नीति उन्हें अपनानी होगी जो गायत्री नगर में निवास करते हुऐ उसका वातावरण बनाने तथा उससे स्वयं लाभन्वित होने के महत्व को समझे होगें।

गायत्री नगर को धरती पर र्स्वग के अवतरण का एक छोटा नमूना बनाया जा रहा है। उसके निवासी इस प्रयत्न में निरस्त रहेंगे कि मनुष्य में देवत्व के उदय की सम्भावना को अपने निजी व्यक्तित्व में प्रकट कर सके। वसुधैव कुटुम्बकम् की आदर्शवादिता को चरितार्थ करने के लिए किन गतिविधियों को अपनाना होगा। शिक्षार्थियों और निवासियों को लाभान्वित कर सकने वाला प्रेरणाप्रद वातावरण किस प्रकार बन सकता है। इन्ही तथ्यों को उजागर करने के लिए गायत्री नगर को युग चेतना उभारने की एक सशक्त प्रयोगशाला बनाया जा रहा है। उसे सफल बनानें में छात्रों से भी अधिक योग-दान उनका होगा जो इसमें तथा उपरोक्त प्रयोजनों की पूर्ति में सत्त संलग्न रहेंगे।


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