आत्मोर्त्कष का अलभ्य अवसर

April 1980

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गायत्री नगर में निवास करने वाले तथा कथित निवृत वैरागी कहे जाने वाले अकर्मण्यों जैसा जीवन नहीं जियेंगे वरन् माहेचस्त लालचियों से भी अधिक पुरुषार्थ करते दृष्टिगोचर होंगे। सामान्य परिश्रमियों और व्यस्त लोंगों में गायत्री नगर निवासियों की भिन्नता मात्र इतनी ही होगी कि उनकी गतिविधियाँ उच्चस्तरीय उद्देश्यों के साथ जुड़ी हुई होंगी। जबकि मूढ, मति स्वार्थान्ध होकर पिसते और पिघले रहते है।

शान्ति का अर्थ यदि निष्क्रियता और निराशा होता है तो समझना चाहिए कि शान्ति कुँज में वैसा कुछ भी नहीं है। वैसी परिस्थितियाँ किन्हीं सदावर्त समेत चलने वाले विरक्त निवासों में ही ढूँढनी चाहिए। एकाध घंटा उलटा पुलटा जप ध्यान करने के उपरान्त सारे दिन आलस में पड़े रहने या मटर गश्ती में इधर उधर घूमते रहने का अवसर ढूँढने वालों को, कोई अन्य आश्रम ढूँढना चाहिए। शान्ति कुँज में अशान्ति से जूझ कर शान्ति की विजय श्री धरण के निमित प्रबल पुरुषार्थ करने की ही योजना बनी है। यहाँ हर किसी को आने की तैयारी करनी चाहिए।

कहा जा चुका है कि आत्मोर्त्कष के लिए एक प्रयत्न से काम नहीं चलता, उसके लिए चार उपाय अपनाने पड़ते है। 1. साधना, 2. स्वाध्याय, 3. संयम और 4. सेवा। इन चारों को एक चार पाई के चार पाये एक कमरे के चार कौने एक धरातल की चार दिशाएँ एक धर्म के चार आश्रम, एक संस्कृति के चार वर्ण कहना चाहिए, इन्हीं चार पुरुषार्थों के परिणाम धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के रुप में फलित होते है। इन्हीं चारों को मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के अन्तःकरण चतुष्टय में बोया उगाया जाता है।

जीवित रहने के लिए अन्न, जल, साँस एवं निद्रा की आवश्यकता पड़ती है कृषि में भूमि, बीज, सिंचाई रखवाली अभीष्ट है। इमारत खड़ी करने में ईंट, चूना, लकड़ी, लोहा चाहिए। व्यवसाय में सफलता के लिए पूँजी, श्रम, अनुभव एवं खपत के चार साधन जुटाने पड़ते है। आत्म कल्याण मात्र भजन से नहीं हो सकता। बीज की तरह वह प्रमुख तो है पर पर्याप्त नहीं। जीवन को परिष्कृत करने की साधना पर जिनने ध्यान नहीं दिया और मात्र भजन करते रहे उन्हें खाली हाथ रहना पड़ा है। साधना समग्र होनी चाहिए। एकाँगी अवलम्बन से उसकी सफलता सम्भवन न हो सकेगी।

गायत्री नगर के निवासियों को यह तथ्य भली प्रकार समझना होगा। और यह मान कर आने का निर्णय करना होगा कि यहाँ उन्हें अपनी शारीरिक, मानसिक स्थिति के अनुरुप प्रत्यक्ष एवं परोक्ष पुरुषार्थ में निरन्तर निरत रहना होगा।

अन्तराल में उच्चस्तरीय आस्थाओं का उत्पादन उपासना से ही सम्भव होता है। वस्तु साधना को प्राथमिक महत्व दिया और अनिवार्य माना या है। गायत्री उपासना गौ-दुग्ध की तरह परिपूर्ण आहार है। किसे, किस स्तर की-किस प्रकार गायत्री उपासना करनी चाहिए इस का निर्धारण व्यक्ति विशेष के स्तर का देख परख कर किया जायेगा। संजीवनी बूटी भी अनुगन भेद से दी जाती है। उसकी मात्रा तथा सेवन विधि में अन्तर रहता हे। सामान्य क्रम तो सभी के लिए एक है पर अगली सीढियों पर चढते ही आवश्यकतानुसार अन्तर होने लगता है। प्राथमिक पाठशालाओं में सर्वत्र एक ही स्तर की पढाई होती है। पर जैसे-जैसे विद्यार्थी ऊँची कक्षाओं में पढता है उसे उन्हीं विषयों की गहराई में प्रवेश करने के लिये अधिक विस्तृत जानना और अभ्यास करना पड़ता है। काँलेज कक्षा में विषय थोड़े रह जाते है। किन्तु उनकी विशेष प्रवीणता प्राप्त करनी होती है। स्नातकोत्तर कक्षाओं में तो एक ही विषय रह जाता है। एम. ए. में जो भी विषय लिया जाता है। उनमें पारंगत होना पड़ता है। यही बात साधना के सम्बन्ध में भी है। आरम्भ में जप, ध्यान की सामान्य उपचार प्रक्रिया की बाल कक्षा की तरह सभी कर सकते है। पर इसके बाद छात्रों की रुचि एवं स्थिति के अनुरुप अध्ययन क्रम बदला जाता है।

गायत्री नगर में उपासना पद्धति सामान्य भी होगी और विशिष्ट भी। आश्रम की सामान्य साधना पद्धति एक होते हुए भी हर साधक को अपने स्तर का विशिष्ट साधना क्रम अलग से बताया और कराया जायेगा। अल्पकाल में सामान्य दिनचर्या, नियम मर्यादा, विधि-व्यवस्था एक रहते हुए भी हर रोगी का उपचार एवं निर्धारण अलग-अलग रहता है। यही नीति उपासना के क्षेत्र में भी अपनानी पड़ती है। गायत्री नगर के सूक्ष्म दर्शी मार्ग दर्शक साधकों का आन्तरिक विश्लेषण करने पर यह पता लगाते है कि उसके लिए क्या उपचार सरल एवं उपयुक्त पड़ेगा। कहते है कि सही निदान हो जाने से चिकित्सा का उद्देश्य पूरा हो जाता है। अन्यथा सभी साधकों को एक लाठी से हाँका जाता है। सभी धान वाईस पंसेरी के भाव तोले जाते है। सभी के लिए एक साधना बलती है। किन्तु गायत्री नगर में बसने वाले साधकों को अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुरुप साधना का मार्ग दर्शन ही नहीं अवसर भी मिलेगा।

उपासना और साधना के अन्तर को और भी स्पष्ट करने की आवश्यकता है। उपासना पूजा पद्धति को कहते है और साधना जीवन चर्या को। जीवन चर्या अर्थात् चिन्तन और क्रिया कलाप की सुनियोजित दिशा धारा। आमतौर से लोग अनढंग, उच्छ खल, अव्यवस्थित और अस्तव्यस्त जीवन जीते है। बन्दरों की तरह मचकते और कुत्तों की तरह भटकते हुए मन योग और श्रम समय की बर्बादी होती रहती है। कुसंस्कार मनुष्य को जहाँ तहाँ घसटते फिरते है। पशु प्रवृत्तियों हावी रहती है। और आदते जो चाहें से कराती रहती है। यहीं है अनगढ जीवन की परिभाषा जो आम आदमी पर पूरी तरह चरितार्थ होती देखी जा सकती है। सर्व समर्थ होते हुए कुछ बन नहीं पड़ता। सम्भावना और क्षमताओं की कमी न होते हुए भी उपलब्धियों की दृष्टि से शून्य ही रहना पड़ता है। उसका कारण एक ही है- जीवनचर्या का दिशाबद्ध, क्रमबद्ध, अनुशासित और निर्धारित न होना। इसी स्थिति को असफलता की जननी और दुर्भाग्यों की दादी कहते है। साधक को अपने मानसिक भटकाव और शारीरिक बिखराव पर नियन्त्रण करना होता है। यही साधना है। व्यवहार में सभ्यता का स्वभाव में सुसंस्कारिता का अधिकाधिक समादेश करते जाना ही आत्म साधना है। इसमें आत्म निरीक्षण, आत्म सुधार, आत्म निर्माण और आत्म विकास की चतुर्विधि प्रक्रिया साथ लेकर चलना पड़ता है। इसी साधना पद्धति के सहारे साधकों को सिद्ध पुरुष, महामानव बनने का सौभाग्य उपलब्ध होता है। गायत्री नगर में बसने वालों की जीवनचर्या में उस साधना पद्धति के समावेश का नियमित अवसर मिलेगा जिन्हे वे अब तक सिद्धान्त रुप से ही समझते रहे है पर व्यवहार में ने उतार सके।

गायत्री नगर का दूसरा पाठ्य क्रम है स्वाध्याय। स्वाध्याय के चार चरण है। 1. अपने सम्मुख समस्याओं के समाधान के लिए उपयुक्त साहित्य का गम्भीरता पूर्वक अध्ययन। 2. ऋषियों से विचार विनिमय, परामर्श, मार्गदर्शन। इसी को प्रवचन सत्संग कहते है। 3. मनन-भूतकाल से लेकर अध्यावधि चलते आ रहे जीवन क्रम कर पर्यवेक्षण। उसमें से परिवर्तन योग्य प्रसंगों को ढूँढ निकालना। 4. चिन्तन-भविष्य के लिए नीति निर्धारण और उस अपनाने के लिए अभीष्ट उपायों का सुनियोजन। इन चारा आधारों के समन्वय से ही जीवन आत्मोर्त्कष के लक्ष्य तक पहुँचते और महती सफलता का आनन्द लाभ करते है। गायत्री नगर में बसने वालों को इसी स्तर की साधना पद्धति अपनानी पड़ती है। यही है मनोनिग्रह-आत्मविजय- स्वनिर्माण। इसी के साथ ऋद्धियों और सिद्धियों का भौतिक और आत्मिक सफलताओं का श्रेय साधन जुड़ा हुआ है।

सयम, इसी साधना पद्धति के मार्ग में आने वाली अड़चनों के साथ लोहा लेने के शौर्य साहस को कहते है। भीतर और बाहर से अनेकानेक प्रतिकूलताएँ और असफलताएँ ही परिलक्षित होती है। इन हलके भारी प्रहारों के साथ ताल-मेल बिठाने बचने और परास्त करने की रीति-नीति को सयम कहते है।

साधना, स्वाध्याय, सयम के अतिरिक्त चौथा चरण सेवा है। यह चारों ही ऐसे है जिन्हें एक साथ लेकर चलना पड़ता है। इसमें से एक भी ऐसा नहीं जिस अकेले के सहारे अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सके। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसे छोड़ने पर आत्मिक प्रगति का रथ एक इंच भी आगे बढ सके। यह चारों ही अपरिहार्य है। अस्तु गायत्री नगर में बसने वाले हर व्यक्ति को लोक सेवा की विशुद्ध साधना की तरह अपनाने के लिए तत्पर किया जाता है। यह दूसरे आश्रमों की पद्धति है जहाँ रोटी तोड़ने और माला घुमाने से काम चल जाता है। गायत्री नगर के निवासियों का उद्देश्य देव जीवन की प्राप्ति है। देवता उन्हें कहते हैं जो निरन्तर देने की ही बात सोचते और उसी पुण्य प्रयोजन में निरत रखते है। दे-सो देवता। इसी कायाकल्प के लिए गायत्री नगर में बसावट होगी अस्तु हर निवासी को स्वयं ही यह ललक रहेगी कि उसे लोक सेवा का कितना अवसर मिला इसे वह अपना सौभाग्य मानेगा।

सद् विचार तब तक मधुर कल्पना पर बने रहते है जब तक उन्हें कार्य रुप में परिणित नहीं किया जाता। विचारों और कार्यों का समन्वय ही संस्कार बनता है। सामर्थ्य-संस्कारों में ही होती है। उन्हीं के सहारे व्यक्तित्व बनता है और वे ही भविष्य निर्धारण की प्रमुख भूमिका निभाते है। संस्कार अर्थात् चिन्तन और चरित्र का अभ्यस्त .... जहाँ तक सुसंस्कारिता की उपलब्धि का सम्बन्ध है वह सत्प्रवृतियों के सम्बन्घ में निस्वार्थ भाव से निरत हुए बिना और किसी प्रकार सम्भव ही नहीं हो सकती। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए गायत्री नगर के निवासियों में से प्रत्येक के लिए उसकी योग्यता एवं स्थिति के अनुरुप सेवा कार्य करने में नियोजित किया जाता है। इसके लिए न्यूनतम चार घन्टे निर्धारित है। जिन्हें परमार्थ परायणता की देव साधना में सेवा संलग्नता में अधिक रस आने लगे उनके लिए अधिक अवसर भी उपलब्ध हो सकता है किन्तु चार घन्टे तो इसके लिए अनिवार्य ही रखे गये है। इससे छूट्टी रुग्णता जैसे अरिहार्य कारणों से मिल सकती है। स्वार्थ वर्ग में साध, स्वाध्याय, संयम ये तीन प्रयोजन आते है। परमार्थ में एक ही निर्धारण है, सेवा। एक होते हुए भी वह इतना महत्वपूर्ण है कि अन्य तीनों की आवश्यकता पूरी कर सके। संसार में कितने ही ऐसे महा मानव हुए है जिन्होने आत्म निर्माण की उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ सेवा साधना में संलग्न रह कर ही उपार्जित करली। गायत्राी नगर में इस तथ्य को पूरी तरह ध्यान में रखा जाता है कि कोई ऐसा न रहे जो अपने ही निजी गोरख धन्धो में उलझा दिन काटता रहे और परमार्थ प्रयोजनों में अरुचि दिखाये।

गायत्री नगर, ब्रह्म्, शान्ति कुँज के तीन आश्रम यों सिर, धड़, पैर की-रक्त, माँस अस्थि की तरह तीन दीखते हैं पर वे वस्तुएं परस्पर पूर्णतया गूँथे हुए हैं। तीनों को मिला कर एक पूर्ण इकाई बनती है। इनकी गतिविधियाँ बहुमुखी हैं और उनमें हर स्तर का व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त सेवा मार्ग प्राप्त कर सकता है।

ब्रह्म वर्चस् में शोध के अनुसन्धान का कार्य चलता है, साहित्य सृजन की गतिविधियाँ वहाँ चलती हैं। आगन्तुकों को आश्रम के प्रतीकों का परिचय कराते हुए अध्यात्म तत्व ज्ञान का परिचय कराने वाला लोक शिक्षण चलता रहता है।

शान्ति कुन्ज में देश-विदेश के लाखों परिजनों की जिज्ञासाओं का समाधान, व्यक्तिगत उलझनों का निराकरण, युग सृजन के लिए अभीष्ट मार्ग-दर्शन जैसे अगणित प्रसंगों पर विचार विनिमय और आदान-प्रदान चलता रहता है। यह कार्य प्रत्यक्ष परामर्श से कम और पत्राचार के रुप में विस्तारपूर्वक चलता रहता है। हजारों पत्रों का प्रतिदिन आदान-प्रदान होता है।

गायत्री नगर में प्रशिक्षण प्रक्रिया है। इसे नव सृजन की बहुमुखी शिक्षा का आकार छोटा किन्तु प्रखरता सम्पन्न विश्व विद्यालय कह सकते हैं। यहाँ की समस्त गतिविधियाँ प्रशिक्षण के आधार पर बनती हैं। छोटे बालकों की बाल-कक्षाओं से लेकर मैट्रिक तक की पढ़ाई गुरुकुल पद्धति से चलेगी। महिलाओं को परिवार निर्माण .... का सम्भव एवं प्रत्यक्ष कर दिखाने का निश्चय किया गया है।

स्मरण रहे स्थ्ज्ञान, व्यक्ति और परिस्थितियों के साथ मनुष्य बुरी तरह जकड़ा रहता है। व्यक्तित्व में क्रान्तिकारी कायाकल्प स्तर का परिवर्तन लाना हो तो उसके लिए स्थान परिवर्तन अनिवार्य रुप से आवश्य कहै। ब्रह्मचारियों को घर छोड़ कर गुरुकुल जाना पड़ता है। यद्यपि घर पर मास्टर बुला कर लड़कों को पढ़ाने में अमीरों को कोई असुविधा नहीं होती। वानप्रस्थों को घर छोडढ़ कर आरण्यकों में बसना पड़ता है। यद्यपि भजन और सेवा कार्य घर गृहस्थी के साथ-साथ भी होते रह सकते हैं। लड़की को ससुराल जाना पड़ता है, यद्यपि कोई सम्पन्न लड़की पितृ गृह में भी पति को नौकर रख सकती है। स्वयं सेवी और परिव्राजक जन-जन से सर्म्पक साधते और परिभ्रमण करते हैं यद्यपि वे दफ्तर खोलर जरुरत मन्दों को अपने घर भी बुलाते रह सकते हैं। संस्कार बदलने के लिए घर और वातावरण बदलना आवश्यक है। प्रायः सभी महामानों ने अपना कार्यक्षेत्र जन्म भूमि से हट कर अन्यत्र बनाया है। यह व्यवहारतः असुविधा जनक लगता है पर तत्यतः यह इतना आवश्यक है जिसे अनिवार्य भी कहा जा सकता है। व्यक्तित्व बदलने की आवश्यकता जो समझते हों उन्हें स्थान परिवर्तन की बात भी सोचनी होगी। जो इस प्रकार सोचे उनके लिए गायत्री नगर से बढ़ कर उपयुक्त स्थान दूसरा हो नहीं सकता।


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