कन्द-कुण्ड की ज्योति-ज्वाला कुण्डलिनी

October 1977

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कुण्डलिनी महाशक्ति का परिचय,स्थान ओर स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है। कि वह मूलाधार चक्र के अग्नि कुण्ड में निवास करती है। अग्नि स्वरूप है। सुप्त-सर्पिणी की तरह सोई पड़ी हैं। स्वयंभू महालिंग से शिवलिंग से लिपटी पड़ी हैं। इसी स्थिति की झाँकी शिव प्रतिमाओं में कराई जाती है। योनि क्षेत्र में एक सर्पिणी शिव लिंग से लिपटी हुई प्रदर्शित की जाती हैं। शिव पूजा में इस प्रतिमा पर जल धार चढ़ाने का विधान है। रुद्राभिषेक में जल कलश के पेंदे में छिद्र करके उसे तीन टाँग की तिपाई पर स्थापित करते हैं। और उसमें से एक-एक बूँद पानी शिव लिंग पर टपकता रहता है। यह कुण्डलिनी का ही समग्र स्वरूप हैं।

सहस्रार चक्र को अमृत कलश कहा गया है। उससे सोमरस टपकने का उल्लेख हैं। खेचरी मुद्रा में इसे ‘अमृत स्राव’ बताया गया है। यह स्राव अधोमुख हैं। नीचे की दिशा में रिसता टपकता रहता है। कुण्डलिनी मूल तक जाता है।

कुण्डलिनी महाशक्ति को ऊर्ध्वगामी बनाने और अमृत सोम का आस्वादन कराने का लाभ ब्राह्मी एकता के माध्यम से ही सम्भव हैं। यही कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य है। सुप्त सर्पिणी अग्नि कुण्ड में पड़ी-पड़ी विष उगलती रहती है और उससे जलन ही जलन उत्पन्न होती हैं। वासना की अग्नि शान्त नहीं हो सकती, वह शरीर और मन की दिव्य सम्पदाओं का विनाश ही करती रहती है। इसका समाधान अमृत रस को पान करने सोम संपर्क से ही सम्भव होता है। यह तथ्य जन-साधारण को समझाने के लिए तीन टाँग की तिपाही पर कलश स्थापित करके शिव लिंग पर अनवरत जल धार चढ़ाने की व्यवस्था की जाती हैं। और इस आध्यात्मिक आवश्यकता का परिचय कराया जा सकता है कि जलन का समाधान मानसिक एवं आत्मिक अमृत रस पीने से बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कृष्टता का रसास्वादन करने से ही सम्भव हो सकता है।

रुद्राभिषेक में जल कलश के नीचे तीन टाँग की तिपाई रखी जाती है वह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का प्रतीक हैं। इन्हीं तीन आधारों के सहारे कुण्डलिनी जागरण की पुण्य प्रक्रिया सम्पन्न होती हैं। अग्नि और सोम के मिलन की आवश्यकता और उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले देवत्व का ही प्रत्यक्षीकरण रुद्राभिषेक के कर्मकाण्डों में किया जाता है।

कुण्डलिनी परिजप में स्नान-स्नान पर स्वयंभू लिंग की चर्चा हैं। बहुत स्थानों पर उसे कन्द’ भी कहा गया है। यह क्या है? इसे जानने के लिए स्थूल शरीर से सम्बन्धित शरीर शास्त्र और सूक्ष्म शरीर से सम्बन्धित अध्यात्म शास्त्र का पर्यवेक्षण किया जा सकता है। शरीर में यह घटक सुषुम्ना का-मेरुदण्ड का-नीचे वाला अन्तिम छोर है। प्रत्यक्ष हलचलों की दृष्टि से इस संस्थान का इतना विद्युत शक्ति का जो इस समूचे क्षेत्र के अति महत्त्वपूर्ण संस्थानों को प्रभावित एवं अनुप्राणित करती हैं। कंद का स्थूल शरीर में प्रतीक प्रतिनिधि तलाश करना हो तो दृष्टि “कार्डा इक्वाइना” पर जाकर टिकती हैं। मेरुदण्ड मस्तिष्क से प्रारम्भ होकर चेचु की अन्तिम कशेरुका तक जाती हैं ओर उसके बाद रेशमी धागों की भाँति शुण्डाकृति हो जाती हैं उसके अन्त में अगणित पतले -पतले धागे से पैदा हो जाते हैं, जिससे नाड़ी तन्तुओं का एक सघन गुच्छा तैयार हो जाता है। इसी गुच्छक को “कार्डा इक्वाँइना”कहते हैं। सूक्ष्म शरीर के ‘कन्द’ का इसे प्रतिनिधि कहा जा सकता है। शरीर शास्त्र की दृष्टि से वही स्वयंभू लिंग है। मूलाधार चक्र में ‘आधार’ शब्द इसी स्थान के लिए व्यवहृत हुआ है। रीढ़ की अन्तिम चार अस्थियों के सम्मिलित समुच्चय को भी कई मनीषियों ने ‘कन्द’ बताया है। मल मूत्र छिद्रों के मध्य स्थान पर मूलाधार बताया गया है। उसे चमड़ी की ऊपरी सतह नहीं मान लेना चाहिए वरन् उस स्थान की सीध में ठीक ऊपर प्रायः तीन तीन अंगुल ऊँचाई पर अवस्थित समझना चाहिए। मस्तिष्क में आज्ञाचक्र भी भ्रूमध्य भाग में कहा जाता है पर यह भी ऊपरी सतह पर नहीं तीन अंगुल गहराई पर हैं ब्रह्मरंध्र भी खोपड़ी की ऊपरी सतह पर कहाँ है? वह भी मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में है। ठीक इसी प्रकार मूलाधार को भी मल-मूत्र छिद्रों के मध्य वाली सीध पर अन्तः गह्वर में अवस्थित मानना चाहिए।

यहाँ एक बात हजार बार समझ लेनी चाहिए कि आध्यात्म शास्त्र में शरीर विज्ञान विशुद्ध रूप से सूक्ष्म शरीर का वर्णन है। स्थूल शरीर में तो उसकी प्रतीक छाया ही देखी जा सकती है। कभी किसी शारीरिक अंग को सूक्ष्म शरीर से नहीं जोड़ना चाहिए। मात्र उसे प्रतीक प्रतिनिधि भर मानना चाहिए। शरीर के किसी भी अवयव विशेष में वह दिव्य शक्तियाँ नहीं है जो आध्यात्मिक शरीर विज्ञान में वर्णन की गई है। स्थूल अंगों से उन सूक्ष्म शक्तियों का आभार मात्र पाया जा सकता है।

मूलाधार शब्द के दो खण्ड है। मूल+आधार। मूल अर्थात् जड़-बेस। आधार अर्थात् सहायक-सपोर्ट। जीवन सत्ता का मूल-भूत आधार होने के कारण उस शक्ति संस्थान को मूलाधार कहा जाता है। वह सूक्ष्म जगत में होने के कारण अदृश्य है। अदृश्य का प्रतीक चिह्न प्रत्यक्ष शरीर में भी रहता है। जैसे व्यि दृष्टि के आज्ञा चक्र को पिट्यूटरी और पिनीयल रूपी दो आँखों में काम करते हुए देख सकते हैं। ब्रह्मचक्र के स्थान पर हृदय को गतिशील देखा जा सकता है नाभिचक्र के स्थान पर योनि आकृति का एक गड्ढा तो मौजूद ही है। मूलाधार सत्ता को मेरुदण्ड के रूप में देखा जा सकता है। अपनी चेतनात्मक विशेषताओं के कारण उसे वह पद, एवं गौरव प्राप्त होना हर दृष्टि से उपयुक्त है। प्राण का उद्गम मूलाधार पर उसका विस्तार, व्यवहार और वितरण तो मेरुदण्ड माध्यम से ही सम्भव होता है।

मूलाधार के कुछ ऊपर और स्वाधिष्ठान से कुछ नीचे वाले भाग में शरीर शास्त्र के अनुसार ‘प्रास्टेट ग्लेण्ड’ है। शुक्र संस्थान यही होता है। इसमें उत्पन्न होने वाली तरंगें काम प्रवृत्ति बन कर उभरती हैं इससे जो हारमोन उत्पन्न होते हैं, वे वीर्योत्पादन के लिए उत्तरदायी होते हैं स्त्रियों का गर्भाशय भी यही होता है। सुषुम्ना के निचले भाग में लम्बर और सेक्रल प्लैक्सस नाड़ी गुच्छक है। जननेन्द्रियों की मूत्र त्याग तथा कामोत्तेजन दोनों क्रियाओं पर इन्हीं गुच्छकों का नियन्त्रण रहता है। यहाँ तनिक भी गड़बड़ी उत्पन्न होने पर इनमें से कोई एक अथवा दोनों ही क्रियाएँ अस्त-व्यस्त हो जाती हैं बहुमूत्र, नपुंसकता, अतिकामुकता आदि के कारण प्रायः यही से उत्पन्न होते हैं।

गर्भाशय की दीवारों से जुड़े हुए नाड़ी गुच्छक ही गर्भस्थ शिशु को उसके नाभि मार्ग से सभी उपयोगी पदार्थ पहुँचाते रहते हैं इन गुच्छकों को यह पहचान रहती है कि कितनी आयु के भ्रूण को क्या-क्या पोषक तत्त्व चाहिए। गर्भाशय के संवेदनशील नाड़ी गुच्छक उस अनुपात का-मात्रा का-पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं और बिना राई रत्ती व्यतिक्रम किये शिशु की आवश्यकता पूरी करते रहते हैं

जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए सब से प्रथम और सबसे आवश्यक क्रिया चूसने की होती है। बच्चे में यह प्रवृत्ति रिफलेक्स-उसे माता का स्तन पान करने की उत्तेजना देता है। यही प्रवृत्ति प्रौढ़ता आने पर यौनेच्छा-सेक्स रिफलेक्स के रूप में विकसित होती है। बिना किसी प्रशिक्षण के यह दोनों ही प्रवृत्तियाँ अपने-अपने ढंग से हर प्राणी में अन्तः प्रेरणा से ही उठती और प्रयोग में आती है। इन जीवनोपयोगी प्रेरणाओं का केन्द्र यही स्थान है जिस कन्द, कुण्ड या काम बीज कहते हैं।

कन्द का एक नाम कूर्म भी है। इसे कच्छपावतार का प्रतिनिधि बताया गया है। उसके पैरों को सिकुड़ने, फैलाने वाला बहन को वहाँ से निसृत होने वाली शक्ति धाराओं की ओर संकेत किया गया है। कन्द की आकृति अण्डे के समान मानी गई है। उसे कछुए की उपमा भी दी गई है। समुद्र मंथन की कथा में रई मंदराचल पर्वत बनाई गई थी। उस पर्वत के नीचे भगवान कूर्मावतार के रूप में कच्छप बनकर बैठे थे और उस भार को अपनी पीठ पर उठाया था। यह कर्म या कन्द की ही आलंकारिक व्याख्या है।

नाड़ी गुच्छकों के अतिरिक्त कन्द की व्याख्या मेरुदण्ड की अन्तिम चार अस्थियों ओर उस स्थान पर बिखरे पड़े नाड़ी संस्थानों के रूप में भी की जाती है। इसे समझने के लिए मेरुदण्ड की अस्थि संरचना को समझना होगा।

शरीर विज्ञान के अनुसार मेरुदण्ड छोटे बड़े 33 विरूपस्थि खण्डों या कशेरुओं-कट्रीब्री से मिल कर बना है। आकृति में वह सर्पाकार है। प्रत्येक दो कशेरु के मध्य में एक माँस निर्मित गद्दी सी रहती है। जिस पर प्रत्येक कशेरु टिका और सूत्रों से कसा हुआ है। इसी कारण यह लचीला है ओर अपनी धुरी पर हर दिशा में धूम सकता है। उसे पाँच भागों में बाँटा जा सकता है। (1) ग्रीवा-सरवाइकल-7 कशेरु (2) पीठ-थारेक्स-12 कशेरु (3) कटिप्रदेश-लम्बर-5 कशेरु (4) वस्ति गह्वर-त्रिक प्रदेश-सेक्रल-5 कशेरु (5) पुच्छिकास्थि-चचु-काकीक्स 4 कसेरु। सब मिला कर इन तैंतीस खण्डों की तैंतीस देवता कहा गया है। इनमें से प्रत्येक में सन्निहित दिव्य क्षमता को देवोपम माना गया है।

मेरु दण्ड पोला तो है पर ढोल की तरह खोखला नहीं उसमें मस्तिष्कीय मज्जा भरी हुई है। प्रत्येक कशेरु के पिछली और दाँए-बाँए अर्ध वृत्ताकार छिद्र होता है जिसमें से छोटे नाड़ी सूत्रों से निर्मित बड़ी नाड़ियाँ बाहर निकलती है। मेरुदण्ड का निचला भाग शंकु के आकार का है जिसे- फाइलम टर्मिनल कहते हैं।

चंचु प्रदेश के कशेरु जितने छोटे हैं, इतने ही चौड़े है। वे अन्दर से पोले भी नहीं है और एक-दूसरे से जुड़े हुए है। ये चार कशेरु मिल कर अण्डे की आकृति वाला अथवा फूल का तद कली के सदृश आकार बनता है। इसे ‘काकीक्स’ कहते हैं। इस गोलक को कुण्डलिनी योग में ‘कन्द’ एवं स्वयं भू लिंग के नाम से पुकारा गया है। कुण्डलिनी शक्ति इसी के इर्द-गिर्द सर्पिणी की तरह लिपटी मानी गई है।

नाड़ी गुच्छकों एवं मेरुदण्ड के निम्न भाग के अस्थि समूहों के ऊपर एक सूक्ष्म शक्ति छाई हुई है उसी को मूलाधार का, नाभिक-न्यूक्लियस समझा जाना चाहिए। उसी के प्रभाव से उस क्षेत्र में बिखरे पड़े अनेक संस्थान अपना-अपना काम कतरे और एक से एक बढ़े-चढ़े प्रभाव उत्पन्न करते देखे जा सकते हैं। कमर से लेकर पेडू और जननेन्द्रिय मूल तक का पूरा क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव के समतुल्य माना गया है और वहाँ किसी भी क्षेत्र में जो कुछ होता है उस सब पर मूलाधार का प्रभाव आँका जा सकता है। नाभि, गुर्दे, मूत्राशय, यौन संस्थान, पौरुष ग्रन्थियाँ आदि की समस्त गतिविधियों को-प्रजनन प्रक्रिया को उसी दिव्य केन्द्र को अनुदान एवं चमत्कार कह सकते हैं। जीवनी-शक्ति का, क्रियाशक्ति का उमंग उत्साह का, केन्द्र इसी को कहा गया है। कन्द के स्वरूप और महत्त्व का वर्णन अध्यात्म शास्त्रों में इस प्रकार हुआ है-

कन्दौध्वें कुण्डलीशक्ति शुभमोक्षप्रदायिनी। बन्धनाय च मूढ़ाना यस्ताँ वेत्ति स वेद्वित्॥ -गोरक्ष पद्वति

मंगलमय मोक्ष प्रदायिनी कुण्डलिनी शक्ति ‘कन्द’ के उर्ध्व भाग में अवस्थित है। वही प्रसुप्त होने पर मूढ़ मति लोगों को बन्धन में बाँधे हुए है। इस मर्म को जो जानता है वही वास्तविकता को जानने वाला ज्ञानवान है।

गुदाद्वय गुलतश्चोर्ध्व मेढैकाँगुलस्त्वधः। एव चास्ति समं कन्दं समता चतुरंगुलम्॥ -शिव संहिता

गुदा एवं शिश्न के मध्य में जो योनि है वह पश्चिमाभिमुखी अर्थात् पीछे का मुख है उसी स्थान में ‘कन्द’है और इसी स्थान में सर्वदा कुण्डलिनी स्थित है।

तन्मध्ये लिगडरूपी द्रतुकनककलाकोमलः पश्चिमास्यो। ज्ञानध्यानप्रकाशः प्रथम, किसलयाकाररूपः स्वयम्भुः।

विद्युत्पूणेन्दुबिम्बुप्रकरचयम्निग्धसन्तानहासी काशो। वासी विलासी विलसति,सरिदावत्त रुर्प प्रकारः।

तस्योर्द्धंवे विसतन्तुसोदरलसत्सुक्ष्मा जगन्मोहिनी ब्रह्मद्वारमुख मुखेन मधुरं,सछादयन्ती स्वयम्।

शखाँवर्त्त निभा नवीनचपला-मालाविलासास्पदा सुप्ता सर्पसमा शिवोपरि,लसत्सार्द्धत्रिवृत्ताकृतिः॥ षट्चक्र निरूपण

अर्थात्-”त्रिकोण के भीतर स्वयंभू लिंग है जिसका वर्ण स्वर्ण के समान है और जिसका सिर नीचे की ओर है। उसे नूतन किसलय के समान देव का प्रकाश ज्ञान-ध्यान द्वारा ही सम्भव है। विद्युत और पूर्ण चन्द्रमा के समान ही वह स्निग्ध सौंदर्य युक्त है। इस स्वयंभू लिंग पर कमल-तन्तु के समान अति सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति सो रही है। वह जगत को मोहित करने वाली है और ब्रह्मद्वार के मुख को अपने मुख से ढके हुए है। शंख की चक्रवत रेखाओं के समान उसकी चमकीली सर्पाकार आकृति शिव लिंग के चारों ओर साढ़े तीन फेरे लिये हुए है।

कुण्डलिनी की तुलना विद्युत शक्ति, ऊर्जा एवं आभा से की गई है। “तडिल्लता समरुचिर्विद्युल्लेखेव भास्वरा” सूत्र में उसे बिजली की लता रेखा जैसी ज्योतिर्मय बताया गया है। उसी प्रकार अन्यत्र उसका उल्लेख “तडिल्लेखा तन्वी तपनशशि वैश्वानारमयी” के रूप में किया गया है। उसे प्रचण्ड अग्नि शिखा एवं दिव्य वैश्वानर के समतुल्य कहा गया है।

मूलाधारस्य ब्रह्मयात्म तेजो मध्ये व्यवस्थिता। जीव शक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकाराय तैजसी॥ -योग कुण्डलल्पुपनिषद्

मूलाधार के मध्य वह आत्म तेज, ब्रह्म तेज रूपी कुण्डलिनी निवास करती है। वही जीव शक्ति, प्राण शक्ति है। वह तेज रूप है।

आधार शक्त्याबधृतः कालाग्निरयमूर्ध्वंगः। तथैव निम्नगः सोमः शिवशक्ति पदास्पदः॥ -वृहज्जावालोपनिषद्

मूलाधार (चक्र) की शक्ति से धारण की हुई यह कालाग्नि ऊर्ध्वगामी है और उसी प्रकार सोम निम्नगामी है, जो शिव शक्तिमय कहलाता है।

मूलाधारस्थ वहवयात्म. तेलो मध्ये व्यवस्थिता। जीवशक्तिः कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी॥ -योग कुँडक उपनिषद्

कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नि तेज के मध्य में अवस्थित है। वह जीव की जीवनी शक्ति है। तेजस और प्राणाकार है।

मूलाधाराभिधं चक्रं प्रथमं समुदीरितम्। तत ध्येयं स्वरूप तु पावकाकारमुच्यते॥

स्वाधिष्ठानाभिधं चक्रं द्वितीय चोपरिस्थितम्। प्रवालाड्.कुर तुल्यं तु तत्र ध्येयं निगद्यते॥

तृतीयं नाभिचक्रे तु ध्येयं रूपं तडिन्निभम्। तुर्यें हृदयचक्रे तु ज्योतिलिंगा कृतीर्यते॥

पन्चमें कण्ठचक्रेतु सुषुम्ना श्वेतवर्णिनी। ध्येय षष्ठे तालुचक्रे शून्यचित्तलयार्थकम्॥

भ्रू चक्रे सप्तमे ध्येयं दीपाड्. गुष्टप्रमाणकम्। आज्ञाचक्रेऽष्टमे ध्येय रूपं धूम्रशिखाकृतिः॥

आकाशचक्रे नवमे परशुः स्वोद्ध्व शक्तिकः। एव क्रमेण चक्राणि ध्येयरूपाणि विद्धिचं॥

अखण्डैकरसत्वेन ध्येयस्यैक्येऽप्युपाधितः। आकारा विविधायुक्ता नोपाधिश्रवेतरः स्वतः॥

विद्याशक्ति विलासेन पावकात् विस्फुलिगंवत्। अकस्मात् ब्रह्मणोऽखण्डात् विविधाकृतयोऽभवन्॥ -महायोग विज्ञान

मूसलाधार चक्र में आत्म ज्योति अग्नि रूप दीखती है। स्वाधिष्ठान चक्र में वह प्रवाल अंकुर-सी प्रतीत होती है। मणिपुर में विद्युत जैसी चमकती है। नाभिचक्र में वह बिजली जैसी चमकती है। हृदय कमल के अनाहत चक्र में वह लिंग आकृति की प्रतीत होती है। कठ चक्र में वह श्वेत वर्ण, तालु चक्र में शून्याकार एकरस अनुभव में आती है। भू चक्र में अंगूठे के प्रमाण जलती हुई दीप शिखा जैसी भागती है। आज्ञाचक्र में धूम्र शिखा जैसी और सहस्रार चक्र में चमकते हुए परशु जैसी दीखती है।

यह सभी ज्योतियाँ एक ही है। सभी आत्म ज्योति हैं। सभी परम आनन्ददायिनी हैं। विद्या शक्ति कुण्डलिनी की क्रीड़ा से एक ही अग्नि की अनेक चिनगारियों की तरह यह अनेक तरह की प्रतीत होती हैं।

अपाने चोर्ध्वगे गाते संप्राप्ते वहृनमण्डले। ततोऽनलशिखा दीर्घा वर्धते वायुना हत्ता॥

ततो यातौ वहृनयपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम्। तेनात्यन्तप्रदीप्तेन ज्वलनो देहजस्तथा॥

तेन कुण्डलिनी सुप्ता संतप्ता सप्रबुध्यते। दन्डाहतभुजंगीव निश्वस्य ऋजुताँ ब्रजेत्॥ -योग कुण्डल्युपनिषद् 1।43,44,45

उस अग्नि मण्डल में जब अपान प्राण जाकर मिलता है तो अग्नि की लपटें और तीव्र हो जाती हैं। उस अग्नि से गरम होने पर सोई हुई कुण्डलिनी जागती है और लाठी से छेड़ने पर सर्पिणी जिस प्रकार फुफकार कर उठती है वैसे ही यह कुण्डलिनी भी जागृत होती है।

प्राणस्थानं ततो वह्नि प्राणापानौ च सत्वरम्। मिलित्वा कुण्डली यति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः॥

तेनाग्निना च सतप्ता पवनेनैव चालिता। प्रसाय स्वशरीरं तु सुषुम्नाबदनान्तरे॥ -योग कुण्डल्युपनिषद् 1।65,66

अग्नि स्थान में प्राण के पहुँचने से उष्णता से संतप्त कुण्डलिनी अपनी कुण्डली छोड़कर सीधी हो जाती है और सुषुम्ना के मुख में प्रवेश करती है।

योगिनाँ हृदयाम्भोजे नृत्यन्तौ नित्यमञजसा। आधारे सर्व्वभूतानाँ स्फुरन्ती विद्यदाकृतिः॥ -शारदा तिलक

वह कुण्डलिनी शक्ति योगियों के हृदय में नृत्य ही नृत्य करती हैं। बिजली की तरह स्फुरण करती है। वही सम्पूर्ण प्राणियों का आधार है।

मूलाधारे स्मरेद्दिव्यं त्रिकोणं तेजसाँ निधिम्। शिखा आनीय तस्याग्नेरथ त्ध्य व्यवस्थिता॥

तस्याः शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः। स ब्रह्मा स शिवः सेन्द्रः सोक्षरः परमः स्वराट्॥

स एव विष्णुः स प्राणः स कालोऽग्निः स चन्द्रमाः। इति कुण्डलिनी ध्यात्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ -कलिकोपनिषद्

मूलाधार में दिव्य त्रिकोण तेज-पुंज, ऊर्ध्वगामी तेज-शिखा के मध्य, परब्रह्म अवस्थित है। वह तेज ही ब्रह्म, विष्णु, शिव, इन्द्र, अक्षर, काल, अग्नि, चन्द्रमा, प्राण आदि है। ऐसा कुण्डलिनी ध्यान करना चाहिए।

ध्यात्वैतन्मूलचक्रान्तरविवरलसत्कोटिसूर्यप्रकाशाँ वाचामीशो नरेन्द्रः स भवति सहसा सर्वविद्याविनोदी। आरोग्यं तस्य नित्यं निरवधि च महानन्दचित्तान्तरात्मा वाक्यैः काव्यप्रबन्धैः सकलसुरगुरुन् सेवते शुद्धशीलः। -षटचक्र निरूपणम 14

मूलाधार चक्र में कोटि सूर्य जैसे प्रकाश से युक्त कुण्डलिनी शक्ति का ध्यान करने पर वाणी की सिद्धि होती है, वह मनुष्यों का नेतृत्व करता है। विद्यावान् बनता है। आरोग्यवान् बनता है। चित्त में आनन्द रहता है। ऐसा शीलवान साधक देवताओं द्वारा पूजित होता है।

निर्वाणाभ्यन्तरगता वह्निं रूपा निवोधिता। नारोऽव्यक्तस्त दुपरिकोट्यादित्य सन्निमा। अत्रैव कुण्डली शक्ति विहरेत विश्वव्यापिनी॥ -कौलामृत

वह कुण्डलिनी शक्ति अग्नि रूप है। कोटि सूर्य के समान चमकती है। वह परम शक्ति है। विश्व में विस्तृत विहार करती है।

मूलाधारे मूल विद्याँ विद्युत्कोटि सम प्रभाम्। -ज्ञानाणंव तन्त्र

मूलाधार चक्र में वह मूल विद्या कोटि विद्युत के समान चमकती है।

कोटि सौदामिनीभासाँ स्वयंभू लिंग वेष्टिनामू। -तन्त्रसार

स्वयंभू लिंग में लिपटी हुई वह कुण्डलिनी शक्ति कोटि विद्युत की तरह चमकती है।

हिमाचल प्रदेश में ज्वालामुखी पर्वत पर निकलने वाली अग्नि शिखा को देव स्थान की शक्ति पीठ माना गया है। वहाँ आराधना, उपासना के लिए दूर-दूर से भक्त जना जाते हैं। अग्नि ज्वाला को दैवी शक्ति मानने के पीछे यह कुण्डलिनी अग्नि का ही तारतम्य है। यज्ञाग्नि में अग्निहोत्र करने, धृत धारा चढ़ाने के पीछे भी अग्नि एवं सोम के संयोग की आवश्यकता का प्रतिपादन है। ब्रह्माग्नि और आत्माग्नि के संयोग को कुण्डलिनी साधना कहा गया है।

अग्नि की उत्पत्ति का स्कन्द पुराण में एक मनोरंजक उपाख्यान आता है। सनत्कुमार की अग्निजन्य जिज्ञासा का समाधान करते हुए महर्षि व्यास कहते हैं-प्रजापति ने सृष्टि के आदि में दिव्य शत वर्षों की अवधि तक महान तप किया। इसमें ‘भूः भुवः स्वः शब्द उत्पन्न हुआ। इसका मन के साथ समावेश होने से अग्नि उत्पन्न हुई। वह नीचे गिरा तो भूमि जलने लगी, ऊपर उठी तो आकाश जलने लगा। वह शब्द रूप स्फुल्लिंगों से युक्त, स्वर्णिम आभा वाला परम दिव्य था।

अग्नि ने ब्रह्माजी से कहा-’मैं भूख से स्वयं जला जा रहा हूँ। मुझे आहार दीजिए।’ ब्रह्माजी ने अपने शरीर के एक-एक करके सभी अवयव उसे खिला दिये। तो भी उसकी तृप्ति नहीं हुई और भूखा-भूखा ही चिल्लाता रहा। कोई और उपाय न देखकर ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा-जो व्यक्ति कामुकता से अभिभूत हो तो उनकी देह में घुस जा और उनकी समस्त धातुओं का भक्षण किया कर।

रोरुयमणि चाग्नौ तु पुनर्ब्रह्मा कृपान्वितः आह कामाभि भूतानाँ भुक्ष्व त्वं देह धातवः। ते काले लब्ध कामस्य सावृत्तिः सम्प्रकल्पिता। -स्कन्द पुराण

रुदन करते हुए अग्नि से ब्रह्माजी ने कृपा पूर्वक कहा तू कामुकों के शरीर में घुल कर उनके धातु संस्थान को खालिमा कर।

अग्नि ऐसा ही करने लगा किन्तु तो भी उसकी तृप्ति न हुई। इस पर ब्रह्माजी ने उसे मुनियों और देवताओं के अन्तःकरण में प्रवेश करने के लिए कहा। तब कहीं अग्नि की तृप्ति हुई और शान्ति मिली।

ब्रह्मातमाहत्वमपि यथेष्टाँ वृत्तिमाश्रय। देवमध्ये वहिर्वापि मुनीनामश्रयेष च। इत्येव मुक्त स्तेनाशु वृत्ति मेताम रोचयेत्॥

तब ब्रह्माजी ने अग्नि से कहा- तू ऋषियों के आश्रम में रह। देवों के भीतर और बाहर निवास कर। इस आदेश को प्राप्त कर अग्नि प्रसन्न हुआ और सन्तोष पूर्व रहने लगा।

यही जीवन सत्ता में ओत-प्रोत प्राण शक्ति-कालाग्नि एवं कामाग्नि है। इसको अधोगामी बनाने से मनुष्य जलता और गलता है। किन्तु यदि उसे ऊर्ध्वगामी बना लिया जाय तो वही ब्रह्म तेजस् बन कर योगाग्नि एवं प्राणाग्नि बनकर प्रज्वलित होती है। जीव को परम तेजस्वी बनाती है उसे लौकिक, भौतिक एवं आत्मिक विभूतियों से सुसम्पन्न बनाती है। महाशक्ति कुण्डलिनी का स्तवन करते हुए शक्ति उपासक तत्त्ववेत्ता की अभिव्यक्ति हैं-

मेरुदण्डे वह्निना शब्दात् पदं तेजोमयोति च। सिद्धिः प्राप्ति पदात् सिद्धिः सर्वकाम पदात् पुनः। सर्वेशा परिपूरेति चक्र स्वामिनीति च। अबु्रवन् परुषं किचद् असतोऽनर्चयंस्तथा॥

सर्व मन्त्रमयीत्युक्ता सर्व द्वन्द्व क्षयकारी। सर्व सौभग्यदाचेति सर्व विघ्न निवारिणी। सर्वज्ञानमयो त्युक्तत्त्वा सर्व व्याधि विनाशिनी। सर्व नन्दमयी देवि, सर्व रक्षा स्वरूपिणी। महाशक्ते महागुप्ते ततश्रवैव महा-महा। कुल कुण्डलिनी देवि, कन्दे मूले निव सिनी। -स्तोत्र समुच्चय

मेरुदण्ड में अग्नि रूप, शब्द पद, तेजोमयी, सिद्धि प्रदान करने वाली, काम पद, सर्वव्यापक, चक्र संस्थानों की स्वामिनी, गुप्त योनि, काम शक्ति, अनग मेखला, समस्त मन्त्रों की शक्ति युक्त, समस्त द्वन्द्वों का क्षय करने वाली, आनन्दमयी संरक्षक, महाशक्ति, रहस्यमयी, महानतम कुल कुण्डलिनी देवी, कन्द मूल में निवास करती है।

‘समाप्त’


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