मुस्कान, वैज्ञानिक क्या कहते है?

October 1977

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प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक व चिकित्सक डाक्टर पैस्किड ने अपनी प्रयोग शाला में दसियों प्रयोग किये। प्रयोग करने का उद्देश्य यह था कि चिन्ता, थकान, आवेग और शोकादि मनोविकारों का शरीर पर क्या प्रभाव होता है? इस प्रयोग के अंतर्गत एक ऐसा व्यक्ति भी उनके परीक्षण में आया जो खुशमिज़ाज और सदाबहार था। उसके शरीर में मिलने वाली विचित्र क्षमताओं को देख कर डाक्टर वैस्किड को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने ऐसे ही कई व्यक्तियों पर अपने प्रयोग और निरीक्षण किये। इन प्रयोगात्मक निरीक्षणों के परिणाम स्वयं कुछ अद्भुत तथ्य देखने में आये।

साधारण श्रमिक आरम्भ में मनुष्य शरीर की कंकाल पेशियाँ सक्रिय हो उठती है जिससे शरीर का रक्त प्रवाह बढ़ जाता है और पेशियों तक आक्सीजन अधिक मात्रा में पहुँचने लगती हैं उसी मात्रा में उसकी खपत भी बढ़ जाती है। परिणामस्वरूप रक्त में आक्सीजन की मात्रा न्यून होने लगती है यही कारण है कि थकान भी आने लगती है। थकान का एक कारण मज्जा तन्तुओं में स्फूर्ति और सजीवता का अभाव भी हो जाना है। लेकिन यह देखने में आया है कि हँसते और मुस्कराते रहने वाले व्यक्तियों के मज्जा तन्तु गम्भीर और उदास रहने वाले व्यक्तियों के मज्जा तन्तुओं की अपेक्षा शीघ्र सक्रिय और स्फूर्त हो उठते हैं। परिणामस्वरूप उनकी थकान भी बड़ी जल्दी मिट जाती है।

हँसी और मुस्कान से होने वाले शरीर पर अन्य प्रभावों का विश्लेषण करते हुए डाँ0 पैस्किड ने लिखा है-क्रोध और आवेशग्रस्त स्थिति में रहने वाले व्यक्तियों की माँस-पेशियों पर अनुचित तनाव पड़ता है और हँसने से तनाव शीघ्र मिट जाता है। मुस्कान-आन्तरिक अवयवों और माँस पेशियों और मज्जा तन्तुओं को एक राहत देती है।

श्री एस0ए॰ सूमेकर ने भी मुस्कान को थकान दूर करने का अचूक उपाय माना है। एक और पाश्चात्य वैज्ञानिक का कहना है कि हँसना-स्वभाव की एक ऐसी विशिष्टता है जो केवल मनुष्यों ही पायी जाती है। मनुष्येत्तर अन्य प्राणियों को किसी ने हँसते कब देखा है? हालाँकि प्रसन्नता और आह्लाद व्यक्त करने, हर्षित होने का सब जीवों का अपना एक अलग-अलग ढंग है परन्तु, हँसी और मुस्कान मनुष्य को मिले हुए ऐसे ईश्वरीय वरदान कह जा सकते हैं जो मेधा-प्रतिभा के क्रम में आते हैं।

विख्यात मनोविज्ञानवेत्ता ह्यूम का कहना था कि चिन्ता, आवेग और शोक तथा अन्य मानसिक विकृतियाँ मनुष्य मन पर ही आक्रमण करती हैं इसलिए उनके मुकाबले में मानवीय स्वभाव की उपज हँसी भी केवल उसी की उपलब्धि है ताकि वह इस अस्त्र से मानसिक तनाव को परास्त कर सके।

‘मनोविज्ञान की दृष्टि से हँसने को एक दवा’ घोषित करते हुए जे0 गिलबर्ट ओकले ने लिखा है कि मानवीय हृदय की संवेदनशीलता उसे स्वाभाविक ओर प्राकृतिक घटनाक्रमों के संपर्क में असामान्य रूप से प्रभावित करती है। परिणामस्वरूप अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य ही अधिक चिन्ताग्रस्त, शोकाकुल और आवेगवान रहता है। लेकिन प्रकृति की विशेषता यह है। कि विकारों के साथ-साथ उनके निष्कासन का प्रबन्ध भी वह तत्काल ही कर देती हैं इसलिए दिल खोलकर हँसना मुस्कराते रहना चित्त को प्रफुल्ल रखने की एक अचूक औषध हैं।

खेद है कि बिना मूल्य और सहज ही मिले इस वरदान को नित्य उपलब्ध रहते हुए भी हम लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं।


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