हम अपना देवत्व विकसित कर सकते हैं।

October 1977

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कहते हैं कि विधाता ने मनुष्य का निर्माण करने से पहले राक्षसों और देवताओं की सृष्टि की। इसके बाद उसने सब प्राणियों को रचा। देवों ओर दानवों सहित समस्त प्राणियों की सृष्टि कर लेने के बाद भी विधाता को सन्तोष नहीं हुआ और उसने मनुष्य के शरीर का निर्माण किया। फिर देवों और दानवों दोनों से कहा कि तुम लोग इस शरीर में प्रवेश कर जाओ। देव और दानव अब मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर गये ओर मनुष्य का निर्माण पूरा हो गया तो विधाता ने सन्तोष की साँस ली और मनुष्य को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी घोषित किया।

इस कथा का निष्कर्ष यह है कि मनुष्य में देवत्व का भी निवास है ओर असुरत्व का भी। वह देवता भी है और दानव भी। जब वह आदर्शों के प्रति निष्ठावान, सद्भावना-सम्पन्न, परहित के कार्य में निरत और दूसरों के कल्याण का चिन्तन कर रहा होता है तो वह देवोपम बन जाता है। तथा जब वह आत्यन्तिक स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों के लाभ-अलाभ की परवाह किये बिना अपने ही भले की बात सोचता और कतरा है तो उसमें असुरता के लक्षण प्रकट होते हैं। देवताओं का जैसा चित्रण शास्त्र-पुराणों में मिलता है वह पढ़ सुनकर हर किसी का मन लुभा जाता है। स्वतः ही यह आकांक्षा उठने लगती है कि काश हम भी देवता हुए होते।

देवताओं की आकृति, सुविधा एवं शक्ति का आलंकारिक वर्णन पुराणों में हुआ है। यह देवत्व की फल श्रुति है। वस्तुतः देवत्व एक वृत्ति है जो मनुष्य के अन्तरंग में रहती है। अग्नि जहाँ रहेगी वहीं गर्मी पैदा करेगी। देवत्व का आनन्द व्यक्ति के अन्तःकरण की गरिमा के अनुरूप उसे स्वतः ही मिलता रहता है। सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की सुगंध कस्तूरी के हिरन की तरह सर्वप्रथम उत्पादन कर्ता को ही मिलती है। इसके उपरान्त संबंधित लोग उससे प्रभावित होते हैं। विकसित व्यक्तित्वों को साँसारिक सुविधाओं की भी कमी नहीं रहती, भले ही वे उन उपलब्धियों को अपने काम न लाकर दूसरों को बाँटते रहें। उपभोग की उपेक्षा सत्प्रयोजनों के लिए वितरण करने में कितना आनन्द होता है इसे वर्षा के बादलों जैसा उदार अन्तःकरण रखने वाले ही जानते हैं। देवत्व की सत्प्रवृत्तियाँ स्वर्गीय सुखद परिस्थितियों उत्पन्न करे तो इसे उचित एवं उपयुक्त ही समझा जा सकता है।

वस्तुतः देवता बनना जरा भी कठिन नहीं है। कठिन है तो यह विश्वास करना कि बना जा सकता है। देवताओं का जिस तरह वर्णन किया जाता है और उनके संबंध में जो बातें कही जाती है उन्हें प्रत्यक्षतः किसी ने नहीं देखा। वे बातें या वे विवरण ही आँखों के सामने ऐसा चित्र खींचते हैं जिससे मन में यह लालसा उत्पन्न होती है कि सम्भव हो तो देवता बनना चाहिए। ऐसी कौन-सी विशेषताएँ है जो देवताओं को मनुष्य से श्रेष्ठ और ऊँचा सिद्ध करती हों, उनके जो भी विवरण पढ़ने और सुनने में आते हैं उनसे यह स्पष्ट होता है कि कुछ विशेषताएँ ही देवताओं को मनुष्य से ऊँचा सिद्ध करती है। उन विशेषताओं में कुछ इस प्रकार हैं-(1) देवता अमर होते हैं (2) वे कभी वृद्ध नहीं होते सदा युवक बने रहते हैं (3) देवता स्वर्ग में रहते हैं (4) जन-साधारण उनके प्रति श्रद्धा रखता है तथा (5) वे अपनी शक्तियों और साधनों से लोगों को लाभान्वित करते हैं।

ये पाँचों विशेषताएँ अर्जित करना मनुष्य के लिए जरा भी असम्भव नहीं है। सर्वप्रथम हम इस बात की ले कि देवता अमर होते हैं तो मनुष्य भी क्या अमर हो सकता है? वह ऐसी स्थिति प्राप्त कर सकता है जिससे मृत्यु उसका स्पर्श न कर सके। मनुष्य का शरीर तो मरणधर्मा है, उसे मरने से बचाया नहीं जा सकता। जो चीज नष्ट होने की है, जराजीर्ण हो जाती है उसे बनाये रखने से फायदा भी क्या? उदाहरण के लिए वस्त्र पुराने हो जाते हैं, फटने लगते हैं तो उन्हें बदलना ही पड़ता है। फटे हुए, पुराने और जीर्ण कपड़ों को तो आदमी बदलने के लिए तैयार रहता है। फिर शरीर को हमेशा चलाते रहने की इच्छा क्यों? शरीर के प्रति यह मोह तभी तक रहता है जब तक आत्म-ज्ञान का प्रकाश नहीं होता। आत्म-ज्ञान का प्रकाश होते ही अपनी अमरता के प्रति व्यक्ति आश्वस्त हो जाता है और फिर शरीर को अमर रखने की आकांक्षा नहीं उठती। क्योंकि मनुष्य यह समझ जाता है कि अपना चेतन-आत्मा, मूल अस्तित्व तो मृत्यु से अछूता है ही।

देवता अपने व्यक्तित्व के साथ अमर रहते हैं। हम भी चाहें तो अपने व्यक्तित्व सहित अमर हो सकते हैं। जिस व्यक्ति की सत् कीर्ति अमर है वह शरीर को छोड़ देने पर भी अपने व्यक्तित्व और कर्तव्य के बल पर अमर हो जाता है। बुद्ध और ईसा के हुए लगभग दो-ढाई हजार साल हो गये, पर व अब भी जीवन्त है। आगे हम सब नहीं रहेंगे तब भी वे अमर होंगे। वे अपने सत्कार्यों, उच्च मानवीय आदर्शों और लोकसेवी क्रियाओं के कारण अमर है। उनकी कीर्ति अक्षय है। यदि हम भी अपने व्यक्तित्व का विकास करें और सत्कर्मों में प्रवृत्त हो तो देवत्व का यह गुण आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। वस्तुतः तो मरते वे हैं जो शरीर के लिए जीते हैं, जो शरीर के सुख और इन्द्रिय वासनाओं की तृप्ति के लिए रात-दिन खपते रहते हैं, उन्हीं की मृत्यु होती है।

दूसरी विशेषता जो देवताओं के साथ जुड़ी हुई है वह यह कि वे कभी वृद्ध नहीं होते सदा युवक की बने रहते हैं। चिर-यौवन उनकी विशेषता है। यौवन और वार्धक्य किसी अवस्था विशेष का नाम नहीं है। इस कल्पना ने हमें बड़ी हानि पहुँचायी है कि इस उम्र के बाद आदमी की ढलती अवस्था शुरू होती है और जीवन शक्ति कम होने लगती है। बुझा हुआ दिन, गिरा हुआ मन, निस्तेज मुख ओर अशक्त शरीर हो जाने से बुढ़ापा आकर घेर लेता है। यह धारणा ही मनुष्य को असमय बुढ़ापे में धकेलती है। नियमित व्यायाम, शारीरिक और मानसिक उन्नति के लिए समुचित प्रयास तथा अपने कार्यों को ईमानदारी एवं मनोयोग कसे करने की निष्ठा व्यक्ति के यौवन को चिरस्थायी बनाती है। यदि उत्साह में शिथिलता, प्रयत्नों में प्रमाद और आलस्य के कारण अपने कामों में थकान आने लगे तो समझना चाहिए यही वृद्धावस्था है।

देवता स्वर्ग में रहते हैं। स्वर्ग अर्थात् ऐसी परिस्थितियाँ जिनमें मनुष्य आनन्द निमग्न और सुखी रहे। सुख और आनन्द परिस्थितियों पर निर्भर हो तो वे चिरस्थायी रह ही नहीं सकते। क्योंकि परिस्थितियों का अर्थ ही है जो स्थिति परिवर्तनशील हो। सुख और आनन्द का आधार मनःस्थिति है। देवताओं की परिस्थितियाँ निरन्तर बदलती रहने पर भी वे अपना मनःस्थिति को इस प्रकार का बना लेते हैं कि उनमें भी सुख-सन्तोष और आनन्द का रसपान कर लें। देवता अपनी मनः स्थिति में परिवर्तन करते हैं या नहीं यह तो नहीं मालूम पर मनुष्य अपनी मन स्थिति को इस तरह ‘ढाल’ कर निश्चित रूप से सुखी और आनन्दित बने रहते हैं।

एक और विशेषता है देवताओं की-वह यह कि वे लोगों के श्रद्धास्पद बने रहते हैं तथा उन्हें निरन्तर अपनी शक्तियों और क्षमताओं द्वारा लाभ पहुँचाया करते हैं। मनुष्य अपनी स्थिति वैसी नहीं होने का बहाना कर कुछ देना भी नहीं चाहता और मुफ्त में लोगों के सम्मान भी प्राप्त कर लेने की इच्छा करता है। ये दोनों बातें एक साथ नहीं बनती कि कुछ देने की उदारता भी न बरती जाए और लोगों का श्रद्धा पात्र भी बना जाए। यदि हम देना चाहें तो अकिंचनतम स्थिति में भी बहुत कुछ दे सकते हैं। देववृत्ति स्थूल साधनों से मजबूर नहीं है। सेवा, ज्ञानदान, सत्परामर्श, सहयोग के सैकड़ों अवसर हमारे सामने आते रहते हैं जिनका उपयोग कर हम भी लोगों के श्रद्धा केन्द्र बन सकते हैं। इस प्रकार मनुष्य के लिए देवता बन पाना कोई असम्भव नहीं है। वह देवताओं के समान साधन और क्षमताएँ सरलता से प्राप्त कर सकता है, यदि प्राप्त करना चाहें तो।


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