आलस और परावलम्बन (kahani)

October 1977

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तब देवताओं का युग था। मनुष्य नया-नया ही गढ़ा गया था। उन दिनों प्राणी और पदार्थ देव अवस्था के अनुरूप अपने काम चलाते थे।

आदमी ने लकड़ी काटी और उनका गट्ठा बाँधा। शाम हो चली थी, आदमी ने गट्ठे से कहा चलो घर चलें, सो वह पीछे-’पीछे चलने लगा।

कुछ दूर चलने के बाद आदमी सोचने लगा। क्यों न मैं इस बोझ पर सवारी गाँठ लूँ और बिना परिश्रम क्यों न घर जा पहुँचूँ ?

आदमी ने वैसा ही किया, वह गट्ठे को सवारी बना कर उस पर लद बैठा।

गट्ठे ने चलने से इंकार कर दिया। फिर उसने ऐसी हठ पकड़ी कि पीठ पर बिठा कर चलना तो दूर वह पीछे-पीछे जाने के लिए भी रजामंद न हुआ और अड़कर बीच रास्ते में बैठा गया।

आदमी को क्रोध आ गया। उसने कहा-’ठहर, मूर्ख! अभी तेरी अकल दुरुस्त करता हूँ।’ सो उसने एक डंडे से बोझ को पीटना शुरू कर दिया। बाँधने वाली रस्सी टूट गई और सारी लकड़ियाँ इधर-उधर छितरा कर बिखर गई।

झंझट बढ़ा तो हंगामा सुनकर देवता लोग जमा हो गये। पूरी बात समझने में उन्हें देर न लगी। फैसला यह हुआ कि आलसी आदमी इस योग्य नहीं कि गट्ठा उसका कहना मानें और सहायता कर। भविष्य में आदमी को ही गट्ठा शिर पर रखकर चलना पड़ा करेगा।

कहते हैं तभी से आदमी को  गट्ठे सिर पर ढोने पड़ रहे हैं। आलस और परावलम्बन की लत फिर भी उससे छूटी नहीं है।


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