आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध

October 1977

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आत्मिक प्रगति के पथ पर अवरोध उत्पन्न करने वाली दुष्प्रवृत्तियों में तीन प्रधान हैं। इन्हें ताड़का, सूर्पणखा और सुरसा की उपमा दी जाती है। इन्हें निरस्त किये बिना असुरता के चंगुल में फँसी हुई सीता का-आत्मा का-उद्धार नहीं हो सकता। इन्हें पुत्रेषणा-वित्तेषणा और लोकेषणा कहा जाता है। वासना-तृष्णा और अहंता की प्रवृत्तियाँ ही सबल होने पर इन एषणाओं के रूप में परिलक्षित होती हैं।

इंद्रिय वासनाओं में यों सभी अपने-अपने ढंग की खींचतान करती हैं। पर उनमें रसना और कामुकता को प्रमुख माना गया है। चटोरपन के कुचक्र में पेट पर अभक्ष्य पदार्थों का अनावश्यक भार लदता है। अपच के फलस्वरूप शरीर में अगणित रोग उत्पन्न होते हैं। दुर्बलता और रुग्णता ग्रसित होकर अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। अस्वस्थता की विपत्ति ढाने में जिह्वा का चटोरापन भयंकर शत्रु से भी अधिक आक्रमणकारी और विघातक सिद्ध होता है। वासना की दूसरी प्रवृत्ति है- कामुकता। यौनाचार की कल्पना और क्रिया में उलझा हुआ मस्तिष्क अपनी अति महत्त्वपूर्ण क्षमता को ऐसे जंजाल में फँसा देता है जिसमें, पाना रत्तीभर और गँवाना पहाड़ भर पड़ता है। प्रकृति की चतुरता ही कहिए कि उसने प्राणियों की संख्या बनाये रहने के लिए कष्ट साध्य भार उठाने के लिए यौनाचार की सरसता उत्पन्न कर दी। यदि यह उन्माद न चढ़ता तो कदाचित ही कोई प्राणी प्रजनन की अति कठिन और अतीव बोझिल प्रक्रिया को अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार होता।

वासनाओं में जीभ के चटोरेपन पर रोकथाम करना आवश्यक है। पेट में कोई वस्तु तभी पहुँचने दी जाय जब कड़ाके की भूख उसके लिए तीव्रतापूर्वक माँग करती हो। सात्विक सुपाच्य पदार्थ स्वेच्छापूर्वक शान्त चित्त से सीमित मात्रा में ग्रहण किये जायें। जो खाया जाय औषधि रूप हो। स्वाद की उत्तेजना तो नशेबाजी की तरह है, जिसमें हर दृष्टि से हानि ही हानि उठानी पड़ती है।

दूसरे यौनाचार लिप्सा के सम्बन्ध में और भी गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। जो जीवन रस, हमारे ओजस्-तेजस् और ब्रह्म वर्चस् का आधार हैं उसे क्षणिक आवेश में ऐसे ही गँवाते रहने की गलती को सुधारना ही समझदारी है।

बच्चे उत्पन्न करने से पहले तो हजार बार विचार किया जाना चाहिए कि अपनी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और पारिवारिक स्थिति सुयोग्य और समर्थ नये नागरिक प्रस्तुत कर सकने की है या नहीं। यह एक बहुत बड़ा उत्तरदायित्व हैं जिसे पूरा करने का साहस मात्र समर्थ लोगों को ही करना चाहिए। प्रत्येक बच्चा अपनी माता पर शारीरिक दबाव डालता है, पिता पर आर्थिक बोझ लादता है, राष्ट्र से अपनी आवश्यकताओं के नये साधन जुटाने की माँग करता है। किसी जमाने में जनसंख्या कम थी और उत्पादन बढ़ाने के लिए नये नागरिकों की आवश्यकता अनुभव की जाती थी। आज तो स्थिति बिलकुल उलट गई। बढ़ी हुई जनसंख्या के लिए निर्वाह के साधन जुटाना अति कठिन हो रहा है।

हर समझदार व्यक्ति का कर्तव्य है कि भौतिक सुव्यवस्था एवं आत्मिक प्रगति के दोनों प्रसंगों का ध्यान रखते हुए वासना पर-संतानोत्पादन पर अधिकाधिक नियन्त्रण रखे और उस अपव्यय से सामर्थ्य को बचाकर ऐसे कार्यों में लगाये जिनसे आत्मिक प्रगति और लोक कल्याण का दुहरा प्रयोजन सिद्ध हो सके।

दूसरा अवरोध हैं-तृष्णा-वित्तेषणा। धन की उपयोगिता असंदिग्ध है। उसके उपार्जन का औचित्य सर्वत्र समझा जाता है और हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से उसकी पूर्ति भी करता है। उचित मार्ग से कमाया हुआ और उचित प्रयोजनों में खर्च किया गया धन सराहनीय ही माना जाता है। गड़बड़ी तब उत्पन्न होती है जब वह अनुचित तरीकों से कमाया जाता है और उसका उपयोग विलासिता में, दुर्व्यसनों में, उद्धत प्रदर्शनों में किया जाता है। अनीति उपार्जन की तरह अपव्यय भी निन्दनीय है। जिस समाज के हम अंग हैं उसी की स्थिति के अनुरूप औसत दर्जे का माप दण्ड अपनाते हुए सादगी की रीति-नीति अपनानी चाहिए। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के सिद्धान्त को भली प्रकार समझा जाना चाहिए। अमीरी का रहन-सहन मनुष्य को उठाता नहीं गिराता है। इससे असमानता की खाई उत्पन्न होती है। दुर्व्यसन बढ़ते हैं और ईर्ष्या-द्वेष भरा कलह संघर्ष खड़ा होता है। अस्तु उचित यही है कि कठोर श्रम पूर्वक कमाएँ और उसमें सादगी से, औचित्य की मात्रा का ध्यान रखते हुए सादगी की निर्वाह नीति अपनाएँ। जो बचता हो उसका कृपणता पूर्वक संग्रह न करें वरन् संसार से पीड़ा और पतन कम करने के लिए उदारता पूर्वक उसका उपयोग मुक्त हस्त से करते रहें। सन्तान को सुयोग्य और स्वावलम्बी बना देना पर्याप्त है। उत्तराधिकार में उनके लिए विपुल सम्पत्ति छोड़ने की बात सोचने का अर्थ है उन्हें अपाहिज और परावलम्बी बनने जैसी हीन वृत्ति का शिकार बनाना। इससे बालकों को अन्ततः हानि ही हानि उठानी पड़ती है। वे परस्पर झगड़ते हैं, आलसी, अहंकारी और दुर्व्यसनी बनते हैं। कमाई वही फलती-फूलती हैं जो नीति पूर्वक कठोर श्रम करते हुए कमाई जाती है। बच्चे इसी मार्ग पर चलते हुए अपना गुजारा करें इसी में औचित्य हैं। उनके लिए सम्पदा छोड़ मरने की कृपणता अपनाने में कोई औचित्य नहीं है। बुद्धिमत्ता इसी में है कि परिवार के भरे निर्वाह से जो कुछ बचता हो उसे समाज का ऋण चुकाने में-लोक मंगल में उदारता पूर्वक हाथों-हाथ व्यय किया जाता रहे। इस अर्थ नीति को अब युग मान्यता मिल चुकी है। साम्यवाद-समाजवाद के अंतर्गत यही व्यवस्था बनने जा रही है। प्रजातन्त्र राष्ट्र भी बढ़ी हुई सम्पत्ति को भारी टैक्सों द्वारा लोक हित के लिए बल-पूर्वक वापिस ले रहे हैं। अध्यात्म मार्ग में तो अपरिग्रह और दान पुण्य की महिमा आरम्भ से ही गाई जाती रही है। साधु, ब्राह्मण वैसी ही निर्वाह पद्धति की सार्थकता अपने ऊपर प्रयोग करते हुए चिरकाल से सिद्ध करते रहे हैं।

वित्तेषणा-तृष्णा की बढ़ी हुई मात्रा अनीति उपार्जन के लिए प्रोत्साहित करती हैं विविध विधि अपराध उसी के कारण होते रहते हैं। यदि निर्वाह के लिए उपार्जन तक सन्तुष्ट रहा जा सके तो श्रम, धन और मनोयोग की पर्याप्त बचत हो सकती है और उसे महान प्रयोजनों में लगाने पर जीवन को धन्य बनाने वाले आधार खड़े हो सकते हैं। इन उज्ज्वल सम्भावनाओं से वित्तेषणा ही हमें वंचित करती है। तृष्णा को सीमित किया जा सके तो दूसरे महत्त्वपूर्ण लक्ष्य सामने आ सकते हैं और उनमें संलग्न रह कर महामानवों जैसी गतिविधियाँ अपनाया जाना सम्भव हो सकता है।

लोकेषणा में श्रेष्ठ सत्कर्म करते हुए लोक श्रद्धा अर्जित करने का उच्चस्तर ही अपनाये जाने योग्य है। शेष नीचे की सभी उद्धत अर्हताएँ हेय मानी जाने योग्य है। अहंकार प्रदर्शन के लिए लोग अनावश्यक ठाठ-बाठ रोपते हैं। अमीरी का सम्मान पाने के लिए जितना समय और धन व्यय किया जाता है, प्रदर्शन का आडम्बर संजोया जाता है, शेखीखोरी का घटा टोप रोपा जाता है, उसे छल प्रपंच भरी विडम्बना के अतिरिक्त और क्या कहा जाय ? इस जंजाल में जितनी शक्ति खपती हैं यदि उसकी चौथाई भी महानता के सम्पादन में लग सके तो वास्तविक उन्नति का विशालकाय भवन निर्माण उतने भर से ही सम्भव हो सकता है।

आपाधापी, छीना-झपटी, लूट-खसोट, जितनी धन के क्षेत्र में होती हैं, उससे भी अधिक सम्मान के लिए मचती है। लोग श्रेय सम्मान पाने के लिए आतुर रहते हैं, पर उसके सीधे मार्ग आदर्श चरित्र और सेवा क्षेत्र में किये जाने वाले त्याग, बलिदान की कष्ट साध्य प्रक्रिया अपनाने में कतराते हैं। सस्ते हथकण्डों से उसे अपनाना चाहते हैं। किसी प्रकार प्रवचन वेदी पर जा बैठने और वहाँ दूसरों को बढ़ी-चढ़ी नसीहतें देने की कला प्रवीणता तो सम्मान पाने का सस्ता तरीका मान लिया गया है। येन−केन प्रकारेण लोगों की आँखों में अपना बड़प्पन और जानकारी में परिचय उतार देने की व्याकुलता में अनेक लोगों को नेतागिरी का ढोंग बनाते और शोक पूरा करते देखा जाता है। ऐसे लोग जिस-तिस संस्था में घुसने और किसी प्रकार उसका बड़ा पद हथियाने के जोड़-तोड़ मिलाते रहते हैं। यह चतुरता जितनी सफल होती है- उतना ही परिचय क्षेत्र बढ़ता है और उस सम्पर्क द्वारा प्रकारान्तर से अनेक प्रकार के परोक्ष लाभ उठाये जाते हैं। चन्दा डकार जाने और हिसाब किताब में गोलमाल करने की संस्थाओं में पूरी गुँजाइश रहती है। व्यक्तिगत हानि न होने से जाँच पड़ताल भी कड़ी नहीं होती। ऐसी दशा में संस्थाओं पर जिनके अधिकार होते हैं उन्हें पैसे सम्बन्धी गोलमाल करने का भी लाभ मिलता रहता है। यश, सम्मान, परिचय का परोक्ष लाभ मिलता रहता है। यश, सम्मान, परिचय का परोक्ष लाभ और पैसा जैसे लाभों को यदि मात्र स्टेज-कौशल, वाचालता, संस्था बाजी, नेतागिरी के आधार पर सस्ते मोल में खरीदा जा सकता है तो उसे कौन छोड़ना चाहेगा। इसी लूट के माल पर आपा-धापी और हाथापाई होती है। गुटबंदी खड़ी होती है। झूठे सच्चे इल्जामों की बाढ़ आती है और उस रस्सा कसी में उपयोगी संस्थाएँ भी बदनाम तथा नष्ट होती देखी गई है। किसी समय जो अमुक संस्था के प्रमुख कार्यकर्ता थे वे ही उसकी जड़ें काटते देखे गये हैं। यह सार्वजनिक जीवन का अभिशाप है। सेवा क्षेत्र को कलुषित करने में सबसे विघातक प्रवृत्ति कार्यकर्ताओं की पद लिप्सा, अधिकार लिप्सा और सस्ती वाहवाही लूटने की हेय मनोवृत्ति ही प्रधान कारण होती है।

लोकेषणा का उन्माद यदि मन पर से उतर सके तो सार्वजनिक जीवन में ऐसे असंख्य लोकसेवी मिल सकते हैं जो नींव के पत्थर बनकर चिरस्थायी ठोस काम कर सकें और साथियों के लिए अपनी नम्र निस्पृहता के कारण प्राण प्रिय बने रह सकें। लोकेषणा ही उन्हें अनेकानेक प्रपंच सिखाती है। जिस प्रकार वित्तेषणा से प्रेरित लोग अनेकानेक दुष्कर्म अपनाकर अनीति की कमाई करते हैं, ठीक उसी प्रकार लोकेषणा प्रेरित तथा-कथित लोक सेवी साथियों को गिराने, उखाड़ने से लेकर अनेकों भ्रष्ट तरीके अपनाते और अपने तनिक से यश, स्वार्थ के कारण सार्वजनिक जीवन में नाक को सड़ा देने वाली दुर्गन्ध गन्दगी पैदा करते हैं।

व्यक्तिगत जीवन में बड़प्पन की छाप छोड़ने के लिए आतुर व्यक्ति उद्धत प्रदर्शनों में ठाठ-बाठ में, सज-धज में, शेखीखोरी में समय और धन का बुरी तरह अपव्यय करते हैं। यदि लोकेषणा का उन्माद मस्तिष्कों पर से उतारा जा सके और नम्रता, सज्जनता, सादगी, शालीनता का महत्त्व समझाया जा सके तो उपयोगी कार्यों में लगाई जा सकते योग्य ढेरों शक्ति बच सकती हैं और उससे ठोस परिणाम प्रस्तुत करने वाले रचनात्मक कार्य सम्भव हो सकते हैं। सादगी और नम्रता से भरा हुआ निरहंकारी स्वभाव हर किसी के प्राण प्रिय लगता है, ऐसे व्यक्ति की प्रशंसा विरोधियों के मुख से भी निकलती है। वे अपने लिए हर किसी के मन में अपना स्थान बनाते हैं। उच्चस्तरीय श्रद्धा, सम्मान एवं सहयोग के अधिकारी बनते हैं। उद्धत प्रदर्शनों से बड़प्पन की धाक जमाने वाले प्रपंचियों की तुलना में विनम्र सज्जनता कितनी सस्ती और कितनी प्रभावशाली सिद्ध होती है; इसे कोई भी दूरदर्शी व्यक्ति दूसरे सज्जनों की गतिविधियों के तथा अपने अनुभव के आधार पर सहज ही जान सकता है।

वासना, तृष्णा और अहंता के क्षेत्र में बरता गया अतिवाद मनःक्षेत्र को कलुषित करने में संक्रामक रोगों की तरह विघातक सिद्ध होता है। पुत्रेषणा, वित्तेषणा और लोकेषणा की दुष्प्रवृत्तियाँ चिन्तन तन्त्र को बुरी तरह लड़खड़ा देती है। यदि जीवन को सार्थक बना सकने के योग्य उच्चस्तरीय मनोभूमि का निर्माण आवश्यक समझा जाय तो उसे इन त्रिविध विनाशकारी विपत्तियों से बचाये रहना ही उचित है।


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