शब्द ब्रह्म की साधना के दो चरण!

October 1977

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स्थूल जगत में चल रही ध्वनि धाराओं के लाभ हानि से विज्ञान के विद्यार्थी परिचित हैं कि अवांछनीय कोलाहल से अन्तरिक्ष कितना विक्षुब्ध होता है और उसका भयानक प्रभाव प्राणियों और पदार्थों पर किस प्रकार विपत्ति बरसाता हैं? बड़े शहरों और कारखानों से उत्पन्न कोलाहल के दुष्परिणामों को अब भली प्रकार समझा जाने लगा हैं और उसकी रोकथाम के लिए गम्भीर विचार हो रहा है। दूसरी ओर उपयोगी ध्वनियों को लाभ उठाने के लिए भी एक से एक बढ़े-चढ़े आविष्कारों की शृंखला सामने आ रही हैं। रेडियो जैसे उपकरणों से संवाद प्रेरणा आदि के कार्य लिए जा रहे हैं। इस प्रकार ध्वनियों को समझने,पकड़ने रोकने एवं प्रेषण के लिए भी भरपूर प्रयत्न हो रहे हैं। लाउडस्पीकर, टेपरिकार्डर जैसे यन्त्रों की भरमार होती चली जा रही हैं। संगीत के प्रभाव से मनुष्यों की शारीरिक मानसिक विकृतियों के उपचार होते हैं। उनसे सुखद सम्वेदनाएँ उभारने का काम लिया जाता है। इतना ही नहीं दुधारू पशुओं का दूध बढ़ाने-बागवानी एवं कृषि कार्य के क्षेत्र में अधिक अच्छी सफलताएँ पाने के लिए लय और ताल बद्ध ध्वनि प्रवाहों का उत्साहवर्धक उपयोग हो रहा है। ध्वनि की शक्ति बारूद, भाप, बिजली, अणु शक्ति से अधिक ही आँकी गई हैं। प्रयत्नपूर्वक ऊर्जा उत्पन्न करना महंगा भी हैं और कष्ट साध्य भी। प्राकृतिक ऊर्जा जो ध्वनि प्रवाह के रूप में सर्वत्र संव्याप्त हैं उसको पकड़ने और उपयोग में लाने की आशा विज्ञान क्षेत्र में पुलकन उत्पन्न कर रही है। समझा जा रहा हैं कि इस क्षेत्र में जिस दिन विज्ञान को कुछ कहने लायक सफलता मिल सकेगी उस दिन वह अब की अपेक्षा असंख्य गुणी शक्ति का अधिपति बन जाएगा।

यह तो हुई स्थूल में चलने वाले ध्वनि प्रवाह की क्षमता एवं उपयोगिता की तनिक-सी झाँकी। इसके ऊपर सूक्ष्म जगत हैं। उसमें चलने वाले ध्वनि प्रवाह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। यद्यपि वे मशीनों की पकड़ में नहीं आते तो भी उनके अस्तित्व को चेतनात्मक उपकरणों की सहायता से समझा जा सकता है। समझा ही नहीं उपयोग में भी लाया जा सकता है। यन्त्रों से तो अब तक परमाणु का स्वरूप तक नहीं देखा जा सका। उसकी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए उसका स्वरूप कल्पित किया गया है। कल्पना की यथार्थता इसलिए मान्य की गई कि परमाणु से शक्ति उत्पादन की सफलता ने उसके समर्थन में साक्षी प्रस्तुत कर दी। सूक्ष्म जगत की ध्वनियों का विज्ञान भौतिक क्षेत्र की शब्द विद्या से कम नहीं अधिक ही महत्त्वपूर्ण हैं। शरीर से प्राण की क्षमता अधिक ही महत्त्वपूर्ण हैं। शरीर से प्राण की क्षमता अधिक होने का तथ्य सर्व स्वीकृत हैं। स्थूल जगत की तुलना में सूक्ष्म जगत की गरिमा को भी ऐसी ही वरिष्ठता देनी होगी। ध्वनि प्रवाह के सम्बन्ध में भी यही बात हैं। श्रवणातीत ध्वनियाँ विज्ञान जगत में अपनी गरिमा का प्रभाव समझा चुकी हैं। मनुष्य उनसे संपर्क जोड़ने के लिए बेतरह लालायित भी हो रहा है। सूक्ष्म जगत की ध्वनि सम्वेदनाओं का महत्त्व श्रवणातीत ध्वनियों से उच्चस्तरीय हैं। भौतिक जगत की ध्वनियों से मात्र भौतिक प्रयोजन ही सिद्ध हो सकते हैं सूक्ष्म जगत के ध्वनि प्रवाह यदि मनुष्य की समझ एवं पकड़ की सीमा में आ सके तो उसके चेतनात्मक लाभ प्रचुर मात्रा में उठाए जा सकते हैं।

तत्त्वज्ञानी महामनीषियों को मात्र धर्मोपदेशक नहीं मानना चाहिए। वे सूक्ष्म जगत के स्वरूप को समझने और उसके साथ सम्बन्ध जोड़कर अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित करने के प्रयास में संलग्न रहे हैं। इस कल्याण और सूक्ष्म विज्ञान के अधिकरण का दुहरा प्रयास कहा जा सकता है। हमारे ऋषि ज्ञानी भी थे और विज्ञानी भी। उनकी साधनाएँ आत्म-साक्षात्कार के लिए भी थीं और सूक्ष्म जगत में प्रवेश एवं अधिकार पाने के लिए भी। योग साधना के साथ स्वर्ग मुक्ति की भावनात्मक और ऋद्धि-सिद्धि की शक्ति परक सफलताएँ जुड़ी हुई हैं।

योग साधनाओं में सूक्ष्म ध्वनि क्षेत्र से संपर्क बनाने और लाभ उठाने के दो प्रयोग रहे हैं। शब्द विद्या की दो धाराएँ मानी गई हैं, एक तो पकड़ने , समझने और उनके सहारे अविज्ञात सम्भावनाओं से परिचित रहने की हैं जिसे नादयोग कहा गया है। नादानुसंधान की महिमा योग शास्त्र में विस्तार पूर्वक बताई गई हैं। उनके सहारे सूक्ष्म जगत की हलचलों की जानकारी प्राप्त करने का लाभ बताया गया है। यह कहने सुनने में छोटी किन्तु व्यवहार में बहुत बड़ी बात हैं। स्थूल जगत की वस्तु स्थिति से जो जितना परिचित हैं, उसे उतना ही बड़ा ज्ञानवान कहा जाता है। इस जानकारी के आधार पर ही लोग विभिन्न क्षेत्रों में आशातीत सफलताएँ पाते हैं। जिसकी जानकारियाँ जितनी सीमित हैं वे उतने ही पिछड़े समझे जाते और घाटे में रहते हैं। सूक्ष्म जगत की अद्भुत जानकारियों से परिचित रहने वाले नादयोगी अति महत्त्वपूर्ण वस्तु स्थिति समझ लेते हैं और उनके सहारे खतरों से बचने एवं अवसरों से लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं। यह लाभ वे अपने लिए भी लेते हैं और दूसरों का भी हित साधन करते हैं। नादयोग के सहारे देव तत्त्वों से परब्रह्म से जो सीधा सम्बन्ध बनता है उसका अंतःक्षेत्र के परिष्कार में कितना बड़ा योगदान मिलता है, यह अनुभवों का विषय हैं। नादानुसंधान के प्रवीण अभ्यासी इस क्षेत्र में प्रवेश पाने से मिली सफलताओं से चमत्कारी परिणाम प्रस्तुत करते देखे गये हैं।

नादयोग की-सूक्ष्म जगत की दिव्य ध्वनियों के साथ संपर्क बनाने की विद्या का महत्त्व बहुत सी हैं। इस विज्ञान का लाभ , स्वरूप एवं प्रयोग समझाते हुए ऋषियों ने बहुत कुछ कहा है।

नादबिन्दूपनिषद में वर्णित हैं-

ब्रह्म प्रणव सन्धानं नादो ज्योतिर्मयः शिवः। स्वयमाविर्भवेदात्मा मेघापार्येऽशुमानिव॥

यत्र कुत्रापि वा नादे लगति प्रथमं मनः। तत्र तत्र स्थिरीभूत्वा तेन सार्ध विलीयते॥

सर्वविन्ताँ समुत्सृज्य सर्वचेष्टा विवर्जितः। नाद मेवानुसन्दध्यात्रादे चित्तं विलीयते॥

नियामन समर्थोऽयं निनादो निशिताड़्कुशः। नादोऽन्तरंगसारंगबन्ध्ने वागुरायते॥

अर्थात्- नादयोग ज्योतिर्मय शिव हैं। वेदात्मा है। अशुभों का निवृत्ति कर्ता है। जब नाद के आधार पर मन स्थिर हो जाता है तो वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। इसलिए समस्त चिन्ताओं और हलचलों से छुटकारा पाकर शान्ति से नादानुसंधान करना चाहिए। इस प्रयास के फलस्वरूप जो दिव्य शब्द श्रवण की अनुभूतियाँ होती होती हैं उससे अंतःक्षेत्र की दुर्बलताओं और विकृतियों की निवृत्ति होती हैं। दिव्य क्षमता जगती हैं।

वायवीय संहिता में नाद को शक्ति का उद्भव कर्ता बताते हुए कहा गया हैं-” नादाच्छक्ति समुह्णवः”।

अन्तःकरण को निर्विषय बना लेने से उसकी दिव्य क्षमताएँ उभरती हैं मन को निर्विषय बनाने के लिए नादयोग का अभ्यास अतीव श्रेयस्कर सिद्ध होता है। कहा गया है।-

मकरन्दं पिबन् भृगों गन्धं नापेक्षते यथा। नादा सक्तं तथा चित्तं विषया हि काँक्षते॥ -हठयोग

अर्थ-जिस प्रकार पुष्पों के मकरन्द को पाने करने वाला भ्रमर दूसरे गन्ध को नहीं चाहता, उसी प्रकार नाद में आसक्त हुआ अन्तःकरण अन्य विषयों की अभिलाषा नहीं करता है।

शब्द की नाद की, अनुभूति यदि ठीक तरह होने लगे तो उसके सत्परिणाम भौतिक और आत्मिक दोनों ही क्षेत्र के मनोरथों को पूरा करते हैं-

एकःशब्दः सम्सग्ज्ञातः सुष्टु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च काम धुग भवति। -श्रुति

एक ही शब्द की तात्त्विक अनुभूति हो जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती हैं।

यह नादानुसंधान श्रवण पक्ष हुआ। शब्द विद्या का दूसरा पक्ष है-ध्वनि का अभीष्ट उद्देश्य के अनुरूप उत्पादन एवं प्रयोग। इसे मन्त्र योग कहते हैं। नादयोग से ग्रहण और मन्त्र योग से प्रेषण की क्षमता उत्पन्न होती है। दोनों को मिला देने से ही एक ऐसा स्वर विज्ञान बनता है जो सूक्ष्म जगत की ध्वनि परिस्थितियों का उभय-पक्षीय उपयोग कर सके। घरों में रहने वाले रेडियो यन्त्र मात्र ध्वनि को पकड़ते हैं। इससे एकांगी प्रयोजन पूरा होता है। टेलीफोन की तरह ग्रहण प्रेषण की उभय-पक्षीय व्यवस्था जहाँ होती है वहीं पूर्णता मानी जा सकती है। नादयोग और मन्त्र योग की दोनों ही धाराएँ मिलकर शब्द ब्रह्म की समग्र क्षमता प्रस्तुत करती है। सुने जाने वाले प्रवाह को शब्द ब्रह्म और कहे जाने वाले को परब्रह्म की संज्ञा दी गई है-

आगमोक्ता विवेकाच्यं द्विघा ज्ञानं तथोच्यते। शब्दब्रह्मा ऽऽगमयं परं ब्रह्म विवेकजम्। -अग्निपुराण

एक शब्द ब्रह्म है दूसरा परब्रह्म। शास्त्र और प्रवचन से शब्द ब्रह्म और विवेक, मनन, चिंतन से परब्रह्म की प्राप्ति होती है।

शब्द ब्रह्म, परब्रह्म भार्गेम्याँ शाश्वती तनु। -भागवत

शब्द ब्रह्म और परब्रह्म यह दोनों ही भगवान के नित्य और चिन्मय शरीर हैं।

कुण्डलिनी जागरण में मन्त्राराधन एवं नादानुसंधान के रूप में इस शब्द शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ता है। इन दोनों ही धाराओं का उपयोग करने से अन्तः ऊर्जा का प्रखरीकरण-कुण्डलिनी जागरण सम्भव होता है।

चैतन्यं सर्व भूतानाँ शब्द ब्रहमेति में मतिः। तत्प्राप्य कुण्डली रूपं प्राणिनाँ देह मध्यगम्॥ -योग वशिष्ठ

समस्त प्राणियों में यह शब्द ब्रह्म चेतना बनकर विद्यमान है। उसे कुण्डलिनी जागरण द्वारा पाया जाता है।

मन्त्र शक्ति का महात्म्य असीम बताया गया है। उसके उपयोग से आत्मोत्कर्ष और लोक कल्याण के उभय पक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। अनुभवी साधना विज्ञानियों ने प्रामाणिक शास्त्र साक्षियों ने मन्त्र की गरिमा समान रूप से प्रतिपादित की है। इससे उच्चस्तरीय शब्द विज्ञान द्वारा उत्पन्न ध्वनि की महत्ता पर प्रकाश पड़ता है-

अस्मानं चिद् ये विभिदुर्वचोंभिः। -ऋग्वेद 4।16।6

उन शक्ति सम्पन्न उच्चारणों ने पत्थरों को भी फोड़ डाला।

तामेताँ वाचं यथा धेनुँ वत्सनोपसृज्य प्रत्ताँ। दुहीतैवमेंव देवा वाचं सर्वान् कामान् अदुहृन्॥ -जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण

जिस प्रकार बछड़ा गया का दूध पीता है उसी प्रकार देव पुरुष दिव्य वाणी का आश्रय लेकर समस्त कामनाएँ पूर्ण करते है।

जिहृा ज्या भवति कुल्मलं वाड्, नाड़ीका दन्तास्तपसाभिदिग्धाः। तेभिब्रंह्या विध्यति देवपीयन्, हृद्बलैर्घनुभि देंवजूतैः॥ -अथर्व 1।18।5

आत्मबल रूपी धनुष, तप रूपी तीक्ष्ण बाण, लेकर तप और मृत्यु के सहारे जब यह तपस्वी ब्राह्मण मन्त्र शक्ति का प्रहार करते हैं तो अनात्म तत्त्वों को दूर से ही बेध कर रख देते हैं।

वाक्य सिद्धिद्धिधा प्रोक्ता शपानुग्रह कारिका। -शक्ति पंचकम्

वाक् सिद्धि दो प्रकार की होती है एक शाप देने वाली दूसरी वरदान देने वाली।

यत् त आत्मनि तम्वाँ घोरमस्ति सर्वं तद्वाचापहन्मो वयम्। -अथर्व 1।18।3

तेरे शरीर में जो अनिष्ट हैं उन्हें मंत्रपूत वाणी से हम नष्ट करेंगे।

साधना द्वारा सधा हुआ शब्द साक्षात् ब्रह्म ही है। उसके सहारे ब्रह्म संपर्क सरलतापूर्वक सम्भव होता है। शत पथ ब्राह्मण की श्रुति है-

“शब्द ब्रह्माणि निष्णान्तः पर ब्रह्माधि गच्छति।’

अर्थात्-शब्द ब्रह्म का निष्णात परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है।

योग विभूति में शब्द साधना से प्राणियों की अविज्ञात अन्तः स्थिति का परिचय प्राप्त करने की सिद्धि मिलने का उल्लेख है। कहा गया है-

“शब्दार्थ प्रत्ययानामित रेतराध्यासात् संकरस्त म्प्रतिभाग संयनात् सर्व भूतरुत ज्ञानम्।’

अर्थात् शब्द के तत्त्व का अभ्यास करने से अभेद भासता है और प्राणियों के शब्दों में निहित भावनाओं का ज्ञान होता है।

मन्त्राराधन में प्रयुक्त होने वाली वाणी मुख यन्त्र की हलचलों से उत्पन्न होने वाली शब्द शृंखला नहीं है। इतने भर से कुछ बड़ा प्रयोजन पूरा नहीं हो सकता। कुछ न कुछ अन्ड-बन्ड उच्चारण तो जीभ दिन भर करती रहती है। उससे जानकारियों का आदान-प्रदान विनोद मनोरंजन जैसे सामान्य कार्य ही बन पड़ते हैं। मन्त्र साधना जिह्वा संचालन द्वारा कुछ शब्दों की पुनरावृत्ति करते रहने भर से सम्भव नहीं हो सकती। उनके लिए परिष्कृत वाणी चाहिए; जिसे ‘वाक्” कहते हैं। वाक् से शब्दोच्चार के कलेवर का उत्कृष्ट व्यक्तित्व और प्रचण्ड मनोबल जुड़ा रहता है। गहन श्रद्धा और पवित्र अन्तरात्मा के समन्वय की शक्ति ही मन्त्र की शब्द शृंखला में प्राण भरती हैं और उसकी के सहारे मंत्र का प्रहार शब्द बेध की-लक्ष्य बेध की भूमिका सम्पन्न करता है। इसी समन्वय से साधा हुआ शब्द ‘ब्रह्म’ शक्ति से सुसम्पन्न बनाता है।

मन्त्र शक्ति की महत्ता ‘वाक्’ शक्ति पर निर्भर है। इस वाक् का स्वर भी कहते है-साम भी और सरस्वती भी। यदि इसे शुद्ध कर लिया गया तो फिर मन्त्र के चमत्कार का प्रकट होना सुनिश्चित है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए मन्त्र से भी बढ़कर ‘वाक्’ की प्रशंसा की गई है। कारण स्पष्ट है । परिष्कृत वाक् ही मन्त्रों की सार्थकता बनाता है। भ्रष्ट वाणी से किये हुए मन्त्रानुष्ठानों को सफलता कहाँ मिलती है?

अस्थि वा ऋक्। -शतपथ 7।5।2।25

मन्त्र तो हड्डियाँ मात्र है।

तथ्य को और भी स्पष्ट करते हुए कहा गया है-

वाक् वै विश्व कर्मर्षि वर्चाहीदं सर्व कृतम्। शतपथ,

वाणी जब उच्चारण मात्र से ही सब कुछ उत्पन्न और सम्पन्न करती है तब वह विश्वकर्मा ऋषि बन जाती है।

स यो वाचं ब्रह्मेत्वपास्ते यावद्धाचों गत तत्रास्य यथा कामचारी भवति। -छन्दोग्य

जो वाणी को ब्रह्म समझकर उपासना करता है उसकी वाणी की गति इच्छित क्षेत्र तक हो जाती है।

सक्तुमिव तित्तउना उनन्तो,यत्र धीराँ मनसा वाचमक्रत। अन्नासखायः सख्यानि जानते, भद्रैषाँ लक्ष्मी र्निहिताधि वाचि॥ -ऋग्वेद0

जिस तरह चलनी से सत्तू को शुद्ध करते हैं, उसी तरह जो विद्वान ज्ञान से वाणी को शुद्ध कर उसका प्रयोग करते हैं, वे लोक से भिन्न होते हैं। भिन्नता का सुख पाते हैं, उनकी वाणी में कल्याणमयी रमणीयता रहती है।

शास्त्र में जिस ‘वाणी’ शब्द का मंत्र साधना में प्रयोग किया है वह परम पवित्र ‘वाक्’ शक्ति ही है। वह अन्तःकरण के गहन अन्तराल से निकलती है। जिह्वा तो उसका संचार भर करती है। मुख का उपयोग तो उसके परिप्रेषण यंत्र की तरह ही अकिंचन होता है। संकल्प बल द्वारा ही सम्भव होता है। ऐसी वाणी को ही ब्रह्मतुल्य कहा गया है उसकी गरिमा मुक्त कंठ से गाई गई है। उसी का उत्पादन और प्रयोग कर सकने पर मन्त्र साधना सफल बनती है। ऐसी ही वाणी अभिनन्दनीय और शक्तिशाली होती है।

इस संदर्भ में अन्यत्र भी श्रुति वचन उपलब्ध होते हैं।

वाचा हीदं सर्व कृतम्।

इस वाक् से ही विश्व की रचना हुई है।

आयो वागेवेद सर्वम्।

यह समस्त संसार वाक् ही है।

वचीमा विश्वा भुयनान्यर्पिता।

यह समस्त विश्व वाक् से समर्पित है।

वाच इत्सव्रममृतं यच्चमर्त्यम।

वाक् ही अमृत है तथा जो अमर है वह भी है।

यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक्।

जितना ब्रह्म का विस्तार हैं। उतना ही वाक् का भी है।

वागेव विश्वा भुवनानि जसे।

यह समस्त लोक वाक् से ही विनिर्मित हुआ है।

तद्यत किंचार्वाचीनं ब्रह्मणस्तद् वागेव सर्वम्। --जै0 उ॰ 1।13।1।3

ब्रह्म के पश्चात् जो कुछ है सो वाक् ही है।

वाग् वै त्वष्टा। -ऐत0, 2।4

वाक् ही त्वष्टा देवता है।

वाक् वैविश्वकर्मषिः वाचाहीदं सर्व कृतम्। -शतपथ 8।1।2।9

यह वाक् ही विश्वकर्मा ऋषि है। इसी से यह सारा संसार रचा गया।

यो वै ताँ वाचं वेद यस्मा एब विकारः स सम्प्रतिविदकारी वै सर्वा वाक्। -ऐ0ब्रा0 2।3।6

जो उस आदिमूल वाक् को जानता है वह सम्पत्तिविद् सिद्ध पुरुष कहलाता है।

प्रजापतिर्वा इदमेंक आसं तरु वागेव स्वामासीत् वाग् द्वितीया स ऐक्षतेनामेव वाच विसृजा। इयं वा इदं वा सर्वं विभवन्त्येष्यतीति। -ता0 ब्रा0 20।14

प्रजापति अकेले थे। उनके पास वाक् ही एक सम्पत्ति थी। उनने विचार किया मैं इस वाक् को ही प्रखर करूँ। यही सब कुछ बन जाएगी।

यामाअर्वाचं कवयो विराजम् । -अथर्व 7।2।5

समस्त संसार का निर्माण करने वाला यह विराट् वाक् ही है।

विराट् वाक्। अथर्व0 9।15।24

यह वाक् विराट् है।

स्वरूप ज्योति रेवान्तः परग्वागत् तपायिनी। -महाभारत

यह वाक् ज्योति रूप में परिलक्षित होती है।

तिस्रो वाचो प्रवद ज्योति राभा। -ऋग॰ 7।101।1

उस वाक् का ज्योति रूप में दर्शन होता है।

यावद् ब्रह्म विष्ठितं तापती वाक्। -ऋग॰ 10।114।8

जहाँ तक ब्रह्म विस्तृत है, उतना ही वाक् भी विस्तृत है।

यह ‘वाक्’ शब्द शृंखला एवं ध्वनि प्रवाह भर न होकर साधन के व्यक्तित्व का प्रतिनिधि रहती है। इसलिए किसकी वाणी क्या काम करेगी इसका निश्चय करते समय उच्चारणकर्ता के व्यक्तित्व को देखना होता है।

कोषीतकि उपनिषद् में कहा गया है-

न वाचं विजिज्ञासीत्। वक्तारं विद्यात्।

वाणी के उच्चारण को मत देखो। उच्चारण कर्ता के व्यक्तित्व को समझो।

शब्द विद्या के दो आधार, दो साधन नादयोग और मन्त्र योग के नाम से प्रसिद्ध है। दोनों विधि-विधान और कर्मकाण्ड सुविदित, सर्वसुलभ और अभ्यास में अति सरल है। किन्तु बहिरंग आवरण ही समझा जाना चाहिए। इनमें प्राण संचार जीवन साधना द्वारा उपार्जित की गई उत्कृष्ट अन्तः स्थिति से ही सम्भव होती है। मस्तिष्क में दुर्बुद्धि-अचिन्त्य चिन्तन-विकृत विचार प्रवाह का निराकरण करने से उत्पन्न हुई चित्त स्थिरता से नादानुसंधान में सफलता मिलती है। व्यावहारिक जीवन में सत्कर्म परायणता-सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन एवं आदर्श वादी चरित्रनिष्ठा से उस वाक् शक्ति का उदय होता है जो मन्त्रों को लक्ष्य बेधी बाण की तरह सामर्थ्यवान बनाती है। साधना विधियाँ सरल हैं, कठिन तो वह प्रक्रिया है जिसमें क्रिया, विचारणा और भावना को परिष्कृत परिमार्जित करने के लिए निरन्तर आत्म संघर्ष करना पड़ता है। शब्द विद्या का लाभ उठाने के लिए उसके लिए उपयुक्त यन्त्र उपकरण अपना परिष्कृत व्यक्तित्व ही होता है। शब्द को शब्द-ब्रह्म बना सकना ऐसे ही व्यक्तित्व सम्पन्न साधकों के लिए सम्भव होता है।


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