सुखी जीवन का एक मात्र आधार धर्म

October 1977

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जीवन का अर्थ है संघर्ष, परिस्थितियों का आरोह, अवरोह; जिसे परिवर्तन भी कहा जा सकता है। अर्थात् परिवर्तन ही जीवन है और जीवन ही परिवर्तन। जीवन में दैत्यता, कुटिलता के आकस्मिक एवं अप्रत्याशित आक्रमणों को सहन करना अस्वाभाविक नहीं। परेशानियों, कष्टों और आपदाओं की बाँधी आती है तो मानव शक्ति को कुण्ठित कर देती है, फलस्वरूप बुद्धि निष्क्रिय हो जाती है, नैराश्य पूर्ण मानसिकता मनुष्य को किंकर्तव्यविमूढ़ बना देती है, ऐसी विषय परिस्थिति में असहाय, निस्सहाय व्यक्ति यह चिन्तन करता है कि हमारा सहायक कौन हो सकता है? हमारी रक्षा कौन कर सकता है? हमारा उद्धार कौन कर सकता है? साथ ही सत्पथ ज्ञान कौर करा सकता है? उत्तर एक ही है-धर्म। सुख-शान्ति की परिस्थितियों का जनक भी धर्म की समाप्ति हो जाएगी उस दिन सर्वनाश को कोई न रोक सकेगा। पाश्चात्य मनीषी खामसन अपनी समष्टि दृष्टि से धर्म को परिभाषित करते हुए कहता है कि “सम्पूर्ण विश्व मेरा देश, सम्पूर्ण मानवता मेरा बन्धु है और सम्पूर्ण भलाई ही मेरा धर्म है।”

वर्तमान युग में धर्म के प्रति लोगों की अनास्था बढ़ रही है जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नैतिक एवं साँस्कृतिक मूल्यों, मान्यताओं में भी अवमूल्यन निरन्तर होता जा रहा है। ड़ड़ड़ड़ के कारण मनुष्य की सुख-शान्ति भंग होती जा रही है, सर्वत्र असन्तोष का वातावरण व्याप्त है।

चतुर्दिक् भटकने के उपरान्त, दृष्टि में एक ही उपाय परिकरण में सहायक सिद्ध हो सकता है- धर्म। वेद, उपनिषद्, स्मृति, पुराण आदि धर्मशास्त्रों में इसी तथ्य का निरूपण हुआ है। धर्म प्रधान युग अर्थात् सत्प्रवृत्तियों की बहुलता वाला युग ‘सतयुग’ कहलाता है, सतयुग में सुख और सम्पन्नता का आधार धर्म होता है।

भगवान् राज जब वन-गमन के लिए तत्पर हुए तो जीवन रक्षा की कामना से उन्होंने माता कौशल्या से आशीर्वाद की आकांक्षा व्यक्त की। विदुषी माता ने उस समय यह कहा कि-”हे राम ! तुमने जिस धर्म की प्रीति और नियम का पालन किया है, जिसके अनुसरण से तुम बन जाने को तत्पर हुए हो, वही धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा।”

“घृयते इति धर्मः” अर्थात् जो धारण किया जाये वही धर्म है। ‘धर्म’ शब्द “ध्वै’ धातु से बना है जिसका अर्थ है-’धारण करना’ अर्थात् जो मनुष्य को धारण करे, शुद्ध और पवित्र बनाकर उसकी रक्षा करे, वही धर्म है। वास्तविक धर्म में व्यक्ति जिन तत्त्व की साधना करता है वह है परोपकार, दूसरों की सेवा, सत्य, संयम और कर्तव्य-पालन आदि। ‘धर्मचर’ का अभिप्राय भी तो यही है कि सदाचरण, धर्माचरण, सत्याचरण आदि मानव जीवन में व्यावहारिक रूप पा सकें।

जो व्यक्ति धर्म का पालक, पोषक होता है वही सच्चा धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धर्म-निष्ठ व्यक्ति के अन्तःकरण में वह शक्ति होती है जो असंख्य विघ्न−बाधाओं, प्रतिगामी शक्तियों को पराजित कर देती है। धार्मिक मनुष्य के जीवन में एक विशेष प्रकार का विलक्षण आह्लाद भरा रहता है, वह सर्वत्र सौरभ बिखेरता चलता है, उसकी उमंग एवं उल्लास से आस-पास का वातावरण भी प्रभावित होता है। धर्म की प्रणवता निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ होती है। ‘जीवट’ सच्चे धार्मिक का प्रधान लक्षण होता है। वस्तुतः धर्म मनुष्य का वह अग्नि तेज है जो प्रकाश उत्पन्न करता है उसमें क्रियाशीलता एवं जिजीविषा जागृत रखता है। धर्मशील व्यक्ति विभिन्न विपदाओं, विघ्न−बाधाओं में भी हिमालय के समान अटल एवं समुद्र के सदृश धीर गम्भीर रहता है। संक्षेप में कहा जाय तो धर्म जीवन का प्राण और मानवीय गरिमा का पर्याय है उससे ही मानव जाति की सुख-शान्ति और व्यवस्था अक्षुण्ण रह सकती है।


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