तीर्थ यात्रा उच्च स्तरीय पुण्य परमार्थ

October 1977

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धार्मिक पुण्य कृत्यों में यों अनेकों कर्मकाण्डों की गणना हैं, पर उनमें सर्वोपरि महत्त्व तीर्थयात्रा को यदा गया है। यों तीर्थयात्रा की महिमा सभी धर्मों में हैं, पर हिन्दू धर्म में तो उसे अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। मुसलमान धर्म में हज यात्रा को आवश्यक धर्म कृत्यों में गिना गया है और कहा गया है जिनके लिए सम्भव हो वे दूरवर्ती होते हुए भी जीवन में एकबार काबा पहुँचने का प्रयत्न करें। बौद्ध धर्मावलम्बी भगवान बुद्ध के तपः क्षेत्रों का दर्शन करने के लिए संसार के कोने-कोने से आते रहते हैं। यरूसलम आदि तीर्थों की यात्रा ईसाई धर्मावलम्बी भी बड़ी श्रद्धापूर्वक करते हैं। हिन्दू धर्म में ऋषियों, देवताओं, अवतारों एवं महामानवों के कार्यक्षेत्र तीर्थों के रूप में श्रद्धास्पद बने हुए हैं। उनके दर्शन स्नान का पुष्प-फल प्राप्त करने के लिए हर वर्ष लाखों यात्री उनमें पहुँचा करते हैं। पर्यटन में लगने वाले,धन श्रम एवं समय का प्रायः आधा भाग तीर्थयात्रा का होता है। इससे प्रतीत होता है कि अपने देश में-विशेषतया हिन्दू जनता में-इसे कितना बड़ा पुष्प कार्य माना गया है। उसके लिए कितनी श्रद्धा रहती हैं और उस प्रयोजन के लिए कितना कुछ प्रयत्न एवं त्याग किया जाता है।

विचारणीय यह हैं कि तीर्थयात्रा को इतना महत्त्व क्यों मिला? उससे किस प्रकार धर्म प्रयोजन की पूर्ति होती हैं? यात्रा प्रसंग को किस कारण पुण्य गिना गया? किसी प्रतिमा के दर्शन अथवा नदी, सरोवर में स्नान करने से परमार्थ सिद्धि कैसे हो सकती हैं? आत्म-कल्याण में यह यात्रा किस प्रकार सहायक हो सकती हैं? ईश्वर की प्रसन्नता-भगवत् कृपा का लाभ इस परिभ्रमण के साथ क्यों कर सम्बन्ध हो सकता हैं? ऐसे-ऐसे अनेक प्रश्न किसी जिज्ञासु के मन में उठ सकते हैं। अन्ध विश्वास और मूढ़ मान्यता के सहारे तो संसार में न जाने, क्या-क्या अनगढ़ प्रथा, परम्पराएँ चल रही हैं। उन्हें लकीर पीटने की तरह छाती से चिपकाए भी रहते हैं। पर विचारशीलता का उदय होते ही बुद्धि प्रत्येक कार्य एवं प्रचलन के सम्बन्ध में यह जानना चाहती हैं कि उनकी उपयोगिता क्या हैं? इसका समाधान होने पर ही बात बनती हैं अन्यथा मात्र प्रचलनों के आधार पर चल रहें ढर्रे से विवेकशीलता का समाधान नहीं होता। ऐसी दशा में उपहास से लेकर विरोध तक की प्रतिक्रिया उभरती हैं। आज भी यही स्थिति हैं। जहाँ लाखों व्यक्ति तीर्थयात्रा पर प्रचुर परिमाण में धन और समय लगाते हैं वहाँ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो इसे अन्ध विश्वास और अपव्यय की संज्ञा देते हैं। और कहते हैं कि इतनी शक्ति यदि किसी उपयोगी कार्य में लगती तो कितना अच्छा होता?

तीर्थयात्रा को इतना श्रेय धर्मशास्त्रों और मनीषियों ने क्यों दिया? इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। उसका प्रयोजन समझे बिना संशय की स्थिति ही बनी रहेगी।

मोटी बुद्धि से यह समझा जाता है कि किन्हीं देव प्रतिमाओं में कोई जादुई शक्ति होती हैं। उनका दर्शन करने मात्र से दर्शनार्थी का कल्याण हो जाता है। जादुई होने के कारण ही उन प्रतिमाओं के विशाल मंदिर बने हैं और यात्रियों का प्रवाह इसी शक्ति का लाभ लेने के लिए पहुँचता है। यह मान्यता नदी, सरोवरों के सम्बन्ध में भी हैं। समझा जाता है कि उनके जल में भी कोई जादुई विशेषता है जिससे स्नान करने मात्र से पाप कटते और पुण्य फल मिलते हैं। किन्हीं विशेष पर्वों पर इनकी जादुई शक्ति और अधिक बढ़ जाती हैं, इसलिए उन दिनों का दर्शन स्नान सामान्य समय की अपेक्षा और भी अधिक लाभदायक रहता है, जिन देवताओं की प्रतिमा प्रतीकों का दर्शन किया जाता है, वे इस तीर्थयात्रा को यात्री की भक्ति भावना का प्रमाण मानते हैं और उसे अपना कृपा-मात्र बनाते पुण्य-फल प्रदान करते हैं। मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भी कितने ही लोग यात्रा करते हैं। इच्छापूर्ण होने की शर्त पर कई तरह की मनौतियाँ मनाते और भेंट-पूजा चढ़ाते हैं। कई सोचते हैं कि मुण्डन विवाह आदि के उपरान्त कुल देवता का दर्शन आवश्यक हैं अन्यथा वे रुष्ट होकर कोई हानि पहुँचा देंगे। ऐसे ही ऐसे कुछ कारण हैं जिनके कारण तीर्थ यात्रा करने के लिए लोगों की भावना उठती हैं। पर्यटन का मनोरंजन साथ में जुड़ा रहने से उस सन्दर्भ में उत्साह की मात्रा और भी बढ़ जाती है। साथी संगियों की देखा-देखी दूसरों का भी मन चलता है ओर यात्रा की टोलियाँ निकल पड़ती हैं। आज की तीर्थ यात्रा का स्वरूप एवं आधार जिनके कारण इस परिभ्रमण में इतना धन ओर समय लगता है।

किसी विचारशील व्यक्ति की दृष्टि में उपरोक्त सभी बातें तथ्य रहित प्रतीत होती हैं। प्रतिमाओं का दर्शन स्नान भाव से देवताओं का प्रसन्न होना और वरदान देना ऐसी बातें हैं जिन्हें तर्क या तथ्य के आधार पर हृदयंगम नहीं कराया जा सकता । अन्ध श्रद्धा के आधार पर तो पशुबलि, नरबलि, शिशुबलि जैसे जघन्य कृत्यों की भी धर्म कृत्यों में ही गणना होती रही हैं। बुद्धिवाद की बढ़ोत्तरी ने यह माँग प्रस्तुत की हैं कि प्रचलनों की औचित्य के आधार पर समीक्षा की जाय और उनमें से उतना ही अंश स्वीकार किया जाय जो तथ्यों की कसौटी पर खरा सिद्ध हो सके।

भारतीय धर्म विवेकशीलता को प्रश्रय देने में सदा अग्रणी रहा है। उसका तत्त्वदर्शन संसार भर के बुद्धि वादियों ओर भावनाशीलों को समान रूप से प्रभावित करता रहा है। ऋषियों ने श्रद्धा को आत्म की उत्कृष्टतम विभूति तो कहा हैं, पा साथ ही उसके साथ विवेक के समन्वय पर भी पूरा जोर दिया है विवेक-विहीन श्रद्धा मूढ़-मान्यता बनती और अनर्थ उत्पन्न करती हैं। श्रद्धा रहित बुद्धि उससे भी भयानक हैं। जिससे आदर्शों और भावनाओं का समन्वय न हो ऐसी बुद्धि साक्षात् पिशाचिनी की भूमिका उत्पन्न करती हैं। उसका परिणाम घिनौनी स्वार्थ परता कुचक्री छल-छद्मता और क्रूर दुष्टता के अतिरिक्त और कुछ निकलता ही नहीं । अपराधी कारागार बन्दियों में प्रायः सभी की बुद्धि असाधारण रूप से प्रखर रही होती हैं। बुद्धि-कौशल और दुस्साहस का समन्वय हुए बिना क्रूर कर्म बन ही कहाँ पड़ते हैं। मानवी मनः तंत्र की संरचना को ध्यान में रखते हुए मनीषियों ने श्रद्धा और विवेक के समन्वय का पूरा-पूरा ध्यान रखा हैं। भारतीय धर्मशास्त्र और अध्यात्म विज्ञान का पूरा ढाँचा इन दोनों महान आधारों के समावेश सहित ही खड़ा किया गया है। तीर्थ यात्रा को इतना महत्त्वपूर्ण स्थान अकारण नहीं दिया गया है उस प्रतिपादन के पीछे श्रद्धा ओर विवेक का समुचित समन्वय रखते हुए ही इस सन्दर्भ का महात्म्य बताया और प्रसंग चलाया गया है।

तीर्थयात्रा एक पुण्य प्रक्रिया है जिसका मूल प्रयोजन हैं-”विचारशील सज्जनों का सर्वसाधारण से संपर्क बनाना और आदर्शवादी प्रशिक्षण से लोकमानस को परिष्कृत बनाना।” इससे बढ़कर लोक हित दूसरा नहीं हो सकता । इससे बड़ा दान इस पृथ्वी पर दूसरा नहीं हैं। ब्रह्म दान से-सद्ज्ञान से श्रेष्ठ वस्तु इस धरती पर और कोई हैं नहीं। वृक्ष अपने फल उदारतापूर्वक बाँटते हैं। बादल धरती की प्यास बुझाने के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करते और धन्य बनते हैं। दीपक अपने को जलाते और अन्धकार में भटकने वालों को प्रकाश देते हैं। पुष्प अपनी शोभा से दर्शकों के नेत्र तृप्त करते हैं। चन्दन की सुगन्ध पवन को मिलती हैं और उस सार्थकता उन्हें इसी प्रकार नियोजित किये जाने में हैं। जीवन को धन्य बनाने वालों के लिए यही एक मात्र राजमार्ग निर्धारित हैं। तीर्थयात्रा की महत्ता इसी महान वितरण के साथ जुड़ी हुई हैं।

ज्ञानी जन तीर्थ यात्रा के लिए मण्डली बना कर निकलते थे। यह यात्राएँ पैदल होती थीं । वाहन का उपयोग साधनों को ढोने के लिए भले ही होता रहा हो-उनका माहात्म्य पद यात्रा के द्वारा ही सम्भव होता था। पद यात्रा के असंख्य लाभ हैं। स्वास्थ्य संवर्द्धन की दृष्टि सके उसका असाधारण महत्त्व है। इससे श्रेष्ठ, सन्तुलित, सरल और सर्वोपयोगी व्यायाम दूसरा नहीं है। टहलने की प्रक्रिया को अब्राहम लिंकन महात्मा गाँधी जैसे अत्यन्त व्यस्त व्यक्ति भी अपनी दैनिक जीवन-चर्या में सम्मिलित रखे रहे हैं। रोग चिकित्सा में यदि रोगी को टहलाने का उपचार भी सम्मिलित रखा जा सके तो उसे बहुमूल्य टानिकों और जीवाणुनाशी रसायनों से अधिक लाभदायक पाया जाएगा। यह टहलने का संकल्पित और क्रमबद्ध अनुष्ठान पैदल तीर्थयात्रा से सम्भव होता है और गये गुजरे स्वास्थ्य के लोग भी आश्चर्यजनक सुधार करके लौटते हैं। भिन्न भिन्न स्थानों के जलवायु का सेवन शरीर की सहन शक्ति को परिपुष्ट करता है जो एक ही जगह अड़े गढ़े रहते हैं उन्हें कहीं अन्यत्र जाने या भिन्न परिस्थितियों में रहना पड़े तो उस परिवर्तन आघात को सहन कर सकना उनसे बन नहीं पड़ेगा। आये दिन बीमार पड़ेंगे जलवायु और ऋतु प्रभाव को सहन करने से वह जीवनी शक्ति सुदृढ़ होती है जिसके सहारे प्रतिकूलताओं से निपटना और रोगों के आक्रमण को निरस्त कर सकना सम्भव होता है।

मानसिक स्वास्थ्य संवर्द्धन में मनोरंजन का विनोद उल्लास का कितना महत्त्व है, इसे सिद्धांततः न समझते हुए भी व्यवहार में सभी स्वीकार करते हैं। मनोरंजन के लिए सबका जी करता है। इसके लिए व्यस्तता होते हुए भी समय निकाल लिया जाता है। तंगी रहते हुए भी पैसा खर्च कर दिया जाता है। सड़क पर रीछ,बन्दरों का तमाशा आते ही बच्चे स्कूल की पढ़ाई छोड़कर देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ने का कारण वहाँ जाकर कुछ क्रिय विक्रय करना नहीं मनोरंजन ही प्रधान कारण होता है। सरकस,सिनेमा,नाचा,नाटकों में बिना बुलाये अप्रत्याशित भीड़ जा पहुँचती है। यह सब विनोद के आकर्षक प्रभाव का ही दिग्दर्शन है। प्रदर्शनियाँ इसी निमित्त लगती है। दर्शनीय सीन बनाने में यह उद्देश्य रता है कि लोग आकर्षित होकर वहाँ दौड़े और निर्माण कर्ता की स्मृति बनाये रखें। अधिकांश स्मारक इसी निमित्त बनते हैं। वहाँ मेले ठेले इसी उद्देश्य के लिए लगाये जाते हैं कि निर्माण कर्ता की स्मृति उस दर्शनीय कौतूहल के साथ जुड़ी रहने के कारण चिरकाल तक गतिचक्र के साथ लुढ़कती रहे। सौंदर्य शृंगार, शोभा, सज्जा, के अनेक साधन अपने और दूसरों का चित्त प्रसन्न करने के लिए बनाये जाते हैं। संगीत साहित्य, कला के सरंजाम खड़े करने में लोक-मंगल का गौण और लोक रंजन का प्रधान उद्देश्य रहता है। आखिर विनोद भी मनुष्य की एक भौतिक आवश्यकता और भूख है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चार जीवन लाभों में एक ‘काम’ भी है। काम का अर्थ रति कर्म नहीं क्रीड़ा या विनोद है। ओछे लोगों में विनोद का रास्ता और उथला कारण रति कर्म बन गया है इसलिए प्रचलन में काम शब्द अश्लील अर्थ में प्रयुक्त होने लगा हैं वस्तुतः यह मनुष्य की विनोद आवश्यकता की मान्यता देने की ही बात है।

विनोद के महँगे सस्ते उपायों में से परिभ्रमण का महत्त्व सर्वोपरि है। यही कारण है कि पर्यटन हर देश का एक महत्त्वपूर्ण उद्योग रहता है। सरकारें पर्यटन विभाग स्थापित करती है और दर्शकों को उसके लिए आकर्षित उत्तेजित करने के लिए विभिन्न उपाय बरतती है। अफ्रीका के क्रोनिया जैसे देश तो विदेशी पर्यटकों के आधार पर ही अपना अर्थ सन्तुलन बनाये हुए है। वे बन जन्तुओं प्राकृतिक दृश्यों को आकर्षित स्थिति में बनाये रखने के लिए प्रचुर पूँजी लगाते हैं। और उससे इतना लाभ उठाते हैं जितना अन्य किसी भी उद्योग से उपार्जित नहीं किया जा सकता। प्राचीन ऐतिहासिक स्थानों खण्डहरों की सुरक्षा के पीछे इतिहास के प्रति निष्ठा का ही नहीं दर्शकों का उधर आने का आकर्षण उत्पन्न करना भी एक कारण रहता है। सर्व विदित है कि पर्यटन उद्योग के सहारे कुर्सी, मजूर, व्यापारी वाहन मालिक, शिल्पी आदि की आजीविका लाभ मिलता है। रेलें, बसें किराये में लाभ कमाती है। यात्री कर उत्पादन कर, विक्रय कर के रूप में सरकार को लाभ मिलता है। विचारणीय है कि इतना लाभदायक पर्यटन उद्योग आखिर चल किस आधार पर रहा है। स्पष्ट है कि इसके पीछे मनुष्य प्राणी की मनोरंजन प्रवृत्ति को परितृप्त करने का उत्साह ही प्रधान के रूप में काम करता है। कहना न होगा कि विनोद, मनोरंजन में पर्यटन से बढ़कर सात्विक, सरल और सर्वोपयोगी आधार और कोई हो नहीं सकता। इसमें दृश्यों एवं परिस्थितियों की भिन्नता को देखने से कौतूहल के अतिरिक्त ज्ञान वृद्धि का भी अवसर मिलता है। अनुभव सम्पादन में पर्यटन की उपयोगिता स्वीकार करते हुए ही विद्यालयों के छात्रों की टोलियाँ परिभ्रमण के लिए निकलती है। शिक्षा विभाग उसके लिए प्रोत्साहित भी देता है और सहयोगी भी।

तीर्थ यात्रा में शारीरिक स्वास्थ्य-संवर्द्धन और मानसिक मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान सम्पादन जैसे अनेकों लाभ जुड़े हुए हैं। आर्थिक दृष्टि से यह पूँजी का वितरण, परिभ्रमण और उत्पादन के लिए सुसंयत उपयोग है। इससे अनावश्यक संचय को वितरण का अवसर मिलता है। पैसा घूमने से अनेकों का उत्पादन एवं श्रम नियोजन के आधार खड़े होते हैं। इससे सार्वजनिक समृद्धि बढ़ती है।

मनुष्य कूप मंडूक बना बैठा रहे तो शिक्षा सम्पन्न होते हुए भी अनुभवहीन ही बना रहेगा। अपने सीमित क्षेत्र की परिस्थितियों तक ही उसका मानसिक ढाँचा विनिर्मित होगा, ऐसी दशा में बहुमुखी दूरदर्शी चिन्तन के लिए मन चेतना प्रशिक्षित ही न हो सकेगी। बुद्धिमत्ता के विकास साधनों में व्यवस्थित परिभ्रमण को भी उच्चस्तरीय स्थान प्राप्त है। पठन-पाठन से उसका महत्त्व किसी भी प्रकार कम नहीं है। अनुभव वृद्धि कुशलता सम्पादन में यात्रा प्रसंगों का बहुत महत्त्व है। इन दिनों यात्री बसों, यात्री रेलों या जोन टिकटों के सहारे जल्दी-जल्दी मन्दिरों या दार्शनिक स्थानों को आँख से देखने भर की भगदड़ मची रहती है। इसमें थकान बहुत आती है और ज्ञान लाभ अति स्वल्प होता है। दृश्यों का ऊहापोह और परिस्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण विवेचन साथ-साथ होता चले तो ही इन यात्राओं का वह लाभ मिल सकेगा जिनके लिए इन प्रचलनों का आरम्भ किया गया और बढ़ा-चढ़ा माहात्म्य बताया गया था।

प्राचीन काल में तीर्थ यात्राएँ तमाशबीनी के उथले दृष्टिकोण से नहीं वरन् दूरदर्शी सत्परिणामों को ध्यान में रखते हुए होती थी। जल्दी जल्दी लम्बी यात्रा करने और बहुत देख लेने का लोभ किसी को नहीं होता है। खाने और पचाने की समन्वयात्मक नीति ही अपनाई जाती थी। ग्रास थोड़ा लेते हैं और उसे बार-बार चबा कर उदरस्थ करते हैं, तभी उसका रस रक्त बनता है। एक साथ मुँह में बहुत सार भर लेने और बिना चबाए निगल जाने की नीति अपनाई जाए तो वह आहार लाभ देने के स्थान पर हानिकारक बना जायेगा। यात्रा के संबंध में भी यही बात है। द्रुतगामी वाहनों के सहारे नहीं उसकी सार्थकता धीरे चलने, थोड़ा देखने, निष्कर्ष निकालने और हृदयंगम करने की प्रक्रिया अपनाने से ही सम्भव हो सकती है। प्राचीन काल की तीर्थ यात्रा का यही स्वरूप था, धर्म प्रचार के उद्देश्य से मण्डलियाँ निकलती थी। कुछ उनमें सत् वक्ता और कुछ शौनक साथी श्रोता होते थे। अनेक ऋषियों के गुरुकुल भी उसी चल पद्धति के आधार को अपनी व्यवस्था बनाते थे। गौ समूह के साथ छात्र गण अपने गुरुजनों के साथ निकलते थे। मार्ग में स्काउटों के कैंप फायर की तरह पड़ाव डालते-गौएं चराते हुए ठहरते और आगे बढ़ते थे। साथ-साथ अध्ययन अध्यापन भी चलता रहता था। वास्तविक शिक्षा में गधे की तरह छात्र पर पुस्तकों का अनावश्यक भार लाद देने का भोंडापन नहीं सर्वतोमुखी अनुभव सम्पादन का आधार जुड़ा रहता है। छात्रों को उस परिभ्रमणकारी शिक्षा में बहुमुखी लाभ मिलते थे। उपाध्याय गण स्थानीय लोगों को भी अपने धर्मोपदेशों से लाभान्वित करते रहते थे। नये छात्रों का प्रवेश भी उस मण्डली में होता रहता था। जो लोग गुरुकुल शिक्षा पद्धति का महत्त्व नहीं समझते थे उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन से प्रेरणा मिलती थी और वे भी अपनी सन्तान का उसमें प्रवेश कराते थे। इसे तीर्थ यात्रा स्तर का गुरुकुलीय प्रशिक्षण कहा जाता था। लगातार ऐसा परिभ्रमण न हो सके तो भी प्रत्येक गुरुकुल को कुछ-कुछ समय के लिए शिक्षण सत्रों की छोटी-छोटी टोलियाँ विभिन्न दिशा में भेजनी होती थी। इसमें छात्र अध्यापकों को ही नहीं संपर्क में आने वाले क्षेत्रों तथा जन-साधारण को भी बहुमूल्य ज्ञान सम्पादन का अवसर मिलता रहता था, तीर्थ यात्रा का कितना महत्त्वपूर्ण और कितना सार्थक स्वरूप या वह।

सन्तों की मण्डलियोँ प्रायः इसी प्रकार परिभ्रमण करती रहती है। आश्रम बनाकर एक ही स्थान पर जमे रहने वाले आचार्य तो केवल वे ही होते थे जो शोध कार्य चलाते थे, ग्रन्थ लेखन करते थे या अन्य किसी योजनाबद्ध कार्य में निरत रहते थे। उन्हीं के लिए स्थान विशेष पर अपना अन्वेषण केन्द्र, प्रयोग परीक्षण चलाने की सुविधा मिलती थी। शेष सभी सन्त, धर्म प्रचारक की भूमिका निभाते थे। परिव्राजक स्तर का ही उनका स्वरूप और कार्यक्रम रहता था। भक्ति काल के प्रायः सभी सन्तों की जीवनचर्या प्रायः इसी प्रकार की रही है। सन्त ज्ञानेश्वर, चैतन्य महाप्रभु, कबीर, दादू रैदास, नामदेव, तुकाराम, रामदास, नानक, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माध्वाचार्य आदि किसी भी सन्त की धर्म सेवा को जीवन चरित्र उठाकर देखा जा सकता है उसमें धर्म प्रचार की तीर्थ यात्रा पद्धति अविच्छिन्न रूप से जुड़ी होगी। बुद्ध और महावीर एक स्थान पर नहीं बैठे स्थान-स्थान पर पड़ाव डालते और परिभ्रमण ही करते रहे। मीरा के घर से बाहर निकलने के आग्रह से स्पष्ट होकर उनके कुटुम्बियों ने बहुत त्रास दिये थे तो भी उन प्रतिबन्धों को तोड़कर वे परिव्रज्या के लिए अन्ततः निकल ही पड़ी थी।

बौद्ध धर्म में परिव्रज्या को आत्मा साधना में सर्वोपरि महत्त्व दिया गया था। विहारों में परिव्राजकों को प्रशिक्षित करने की ही व्यवस्था थी। नालन्दा, तक्षशिला आदि के विश्व विद्यालयों में अर्थ उपार्जनी शिक्षा का नहीं लोक शिक्षण के लिए प्रतिभाएँ विनिर्मित करने वाली उच्चस्तरीय ब्रह्म विद्या पढ़ाने का ही प्रबन्ध था। तपस्वी और तेजस्वी बनाने के लिए योगाभ्यास और तपश्चर्या को भी उसी प्रशिक्षण को अंग बनाकर रखा गया था। जैन धर्म के चैत्य भी उसी पृष्ठ भूमि पर बने और चले। इन संस्थानों से निकली हुई महान प्रतिभाओं ने अपने समय में भारत के कोने-कोने को सद्ज्ञान के आलोक से प्रकाशवान बनाया था। वे इस दिशा की सीमाएँ पार करके एशिया भूखण्ड के प्रायः सभी देशों में ज्ञान विज्ञान की सम्पदा बरसाने के लिए बादलों की तरह उड़ते हुए पहुँचे और घटाओं की तरह बरसे थे। उनने इस पृथ्वी को कोई भाग ऐसा नहीं छोड़ा था जहाँ दुर्गम पथों की पार करते हुए वे महाभाग न पहुँचे हों और अपनी सेवा साधना से असंख्य पिछड़े क्षेत्रों की समुन्नत न बनाया हो।

अवतारों के-महामानवों के प्रेरक घटनाओं के स्मारक स्थान-स्थान पर अभी भी तीर्थ स्थानों के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। वहाँ नदी, पर्वत, देवालय आदि के स्मारक विद्यमान है। पर धर्म और संस्कृति के प्राण समझे जाने वाले ऋषियों के आश्रमों एवं गुरुकुलों के भग्न खण्डहर कही भी दिखाई नहीं पड़ते। बौद्ध काल में विहारों की परम्परा चली तो जनता ने उसके लिए प्रचुर धन दिया। इतने बड़े भवन बने कि उनके संसार भर में फैले हुए खण्डहर अभी भी आश्चर्यचकित करते हैं, फिर क्या कारण है कि ऋषियों की लाखों वर्षों तक चलती रही ज्ञान साधना का परिचय देने वाले स्थानों या खण्डहरों के कोई अवशेष कहीं नहीं है। ऋषियों की गरिमा उनकी शिक्षा की प्रखरता-प्रशिक्षण की व्यापकता से इनकार नहीं किया जा सकता। वही तो अपनी संस्कृति की रीढ़ रही है। फिर उसका स्थान परिचय क्यों नहीं मिलता? इस असमंजस का उत्तर एक ही है कि उन दिनों सन्तों और ऋषियों को क्रिया पद्धति में ‘परिव्रज्या’ अनिवार्य अंग थी। जितने दिन जहाँ ठहराना हुआ वहाँ उतने दिन के लिए पड़ाव पड़ गये। आगे चल तो वह घास फूँस के आच्छादन समाप्त हो गये। फिर स्मारक कहाँ से बनते?

यह सनक तो आज के तथाकथित सन्तों पर ही सवार है कि उनमें से प्रत्येक का एक अलग आश्रम बनना चाहिए। इसके बिना किसी सन्त को चैन नहीं। जब गृहस्थ लोग अपने निवास के लिए निजी मकान बनाते सजाते हैं तो सन्त उनसे पीछे क्यों रहें? आश्रमों में हलचल चलाने तथा सुविधा सुरक्षा जुटाने, वहाँ की शोभा बनाये रहने के लिए कितने अधिक साधन जुटाने पड़ते हैं, कितनों की कितने प्रकार मनुहार करनी पड़ती है यह सर्वविदित है। सन्तों को एक भरे-पूरे गृहस्थ की भूमिका निभानी पड़ती है और साधना का-वैराग्य का-धर्म सेवा का उद्देश्य भी पीछे छूट जाता है। प्राचीन काल में तीर्थ यात्रा भी सामान्य सन्तों की क्रिया-पद्धति थी। उनके सूत्र संचालन, मार्गदर्शन, आधार निर्धारण के शोध कार्य, ग्रन्थ लेखन के लिए उँगलियों पर गिनने लायक ही संस्थान बनते थे। व्यास, चरक, सुश्रुत नागार्जुन, पापिनी, पातंजलि, जैसे कुछ ही दार्शनिक तत्त्वदर्शी अपने शोध संस्थान स्थिर रूप से चलाते थे। तीर्थ यात्रा ही हर सन्त की क्रिया-पद्धति थी। तीन-तीन वर्ष में एक बार उनके विशाल सम्मेलन कुम्भ पत्रों के रूप में होते रहते थे जहाँ उन सबका मिलन और विचार विनियम हो जाता था इसके बाद वे जन-संपर्क के लिए फिर बिखर जाते थे। कुम्भ पर्व अभी भी तीन, तीन वर्ष बाद उज्जैन, नासिक, हरिद्वार एवं प्रयाग में मनाये जाते हैं। पर उनने मेले ठेले का रूप ले लिया है। भूल प्रेरणा और दिशा धारा का दर्शन उनमें कहाँ होता है।

तीर्थ यात्रा में कुछ स्थानों का महत्त्व बताया गया है और वहाँ केन्द्र देवालय बनाये गये है। निर्माताओं का लक्ष्य इस निर्माण में यह राह है कि तीर्थ यात्रा मंडलियों को उन स्थानों पर कुछ समय विराम, विश्राम का अवसर मिले और जो साधन कम पड़ जायें वे वहाँ से उपलब्ध हो सके। श्रद्धालु लोग इन तीर्थों के देवालयों पर धन दान के रूप में श्रद्धांजलि चढ़ाते थे। वह राशि, तीर्थ, मण्डलियों कि लिए सुविधा साधन जुटाने के लिए निर्धारित रहती थी। वस्त्र, पात्र, ग्रन्थ, औषधि आदि जो भी साधन धर्म प्रचारक टोलियों को आवश्यक होते थे इन तीर्थ देवालयों से मिल जाते थे और धर्म प्रचार की व्यापक व्यवस्था यथावत् चलती रहती थी। धर्मशालाएँ तीर्थों में या अन्यत्र बनाई जाती थी, वे धर्म प्रचारकों के लिए आश्रय स्थल होती थी। ‘धर्मशाला’ नामकरण ही धर्म प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाले स्थान के लिए हुआ है। आज तो वे हर ऐरे-गैरे के लिए मुफ्त की सराय होटलों का रूप बनी हुई है। आरम्भ में उनका निर्माण धर्म प्रचार के निमित्त ही हुआ था।

तीर्थों में धर्म शिक्षा की सत्संग व्यवस्था रहती थी किन्हीं न किन्हीं तत्त्वदर्शी ऋषि का पड़ाव वहाँ बना ही रहता था ऐसी दशा में उन स्थानों पर अपनी सुविधा के समय जा पहुँचते और उपयुक्त प्रकाश पा सकने की सुविधा रहती थी प्राचीन काल की किसी प्रेरणाप्रद घटना की स्मृति उन स्थानों के साथ जुड़ी रहने से तीर्थों की महिमा और भी बढ़ जाती थी। प्राकृतिक दृश्य-यातायात के सुविधा साधन, धर्म प्रचार क्षेत्रों का भौगोलिक विभाजन आदि को ध्यान में रखते हुए मनीषियों ने तीर्थ केन्द्रों का निर्धारण एवं निर्माण किया था।

भारत भूमि के चारों सिरों को तीर्थ यात्रा सूत्र में बाँध कर देश-व्यापी साँस्कृतिक एकता बनाये रहने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए भगवान आद्य शंकराचार्य ने चारों धामों का जीर्णोद्धार कराया और उन्हें अभिनव स्वरूप दिया था। बद्रीनाथ-जगन्नाथ, रामेश्वर और द्वारिका यह चार धाम भारत में चार दिशाओं के चार कोनों पर अवस्थित है। चारों धाम की यात्रा करते का अर्थ है-पूरा भारत भ्रमण। सुविस्तृत मातृभूमि के प्रति एकनिष्ठ श्रद्धा बनाये रहने में इन चारों धाम ने महती भाव भूमिका सम्पन्न की है। क्षेत्रीय विभेद के आधार पर पनपने वाली विलगता और विश्रृंखलता को रोकने में इस धाम स्थापना ने उनकी परिभ्रमण परिक्रमा ने दूरगामी सत्परिणाम प्रस्तुत किये है।

तीर्थयात्रा के इन मूल भूत प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए, उनका समावेश करते हुए यदि उस पुण्य प्रक्रिया को गतिशील रखा जा सके तो उसे धर्म धारणा के फलवती होने का अवसर मिलेगा। तदनुसार तीर्थ यात्री को उसका शास्त्रोक्त पुण्य प्रतिफल भी मिलेगा। इसके बिना निरुद्देश्य पर्यटन से तीर्थ यात्रा का न तो उद्देश्य पूरा होता है और न पुण्य फल मिलता है। हिन्दू धर्म में ही नहीं, संसार के अन्य धर्मों में भी जिस तीर्थ यात्रा को उच्चस्तरीय महत्त्व दिया गया है उसके पीछे छिपी हुई धर्म भावनाओं को जन-मानस में जागृत एवं समुन्नत बनाने की योजना को प्रमुखता मिलनी चाहिए। इसमें पैदल यात्रा को-संपर्क को महत्त्व दिया जाना चाहिए। जो जन-मानस को परिष्कृत करने की प्रवचन शैली से परिचित हो-उन आदर्शों का व्यावहारिक जीवन में समावेश कर चुके हों, वे उस मंडली के प्रवक्ता बन कर चलें। मण्डली के शेष सदस्य कीर्तन आदि में सहयोग दें। स्वयं श्रवण मनन करें और धर्म प्रचारक का प्रशिक्षण प्राप्त करें। यह यात्राएँ आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक है। उनसे यात्री की तपश्चर्या और युग की माँग पूरी करने के दोनों ही उद्देश्य समान रूप से पूरे हो सकते हैं।


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