शक्तियों का दुरुपयोग रोका जाय

October 1977

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धन और बुद्धि जैसे सर्वोपरि साधनों के दुरुपयोग से जब व्यक्ति और समाज का भारी अहित हो सकता है तो विज्ञान की उपलब्धियों से हस्तगत हुए अति शक्तिशाली साधनों से तो अकल्पनीय हानि की ही सम्भावना उत्पन्न होगी। शक्ति पर विवेक और नीति का नियन्त्रण रहे तभी उसकी उपयोगिता है अन्यथा दुष्टता के साथ उसकी दुरभिसन्धि जुड़. जाने पर तो विकास के स्थान पर विनाश के ही दुष्परिणाम सामने प्रस्तुत होंगे।

विज्ञान की सृजनात्मक उपलब्धियाँ जो मिल चुकीं उन पर सन्तोष किया जा सकता है,जो आगे मिलने की सम्भावना है, उसके लिए हर्ष भी है और उत्साह भी। यह प्रसन्नता का विषय है; किंतु चिन्ता तब होती है जब उसके दुरुपयोग से उत्पन्न विभीषिका सामने आकर खड़ी होती है। सरसरी नजर से घटना क्रम पर उपेक्षा पूर्वक देखने से तो दैनिक जीवन सामान्य ढंग से चलता दिखाई पड़ता है और कोई बड़ी बात ध्यान में नहीं आती; पर गम्भीरतापूर्वक विश्व की वैज्ञानिक हलचलों के विघातक पक्ष पर दृष्टि डालने से प्रतीत होता है कि दुर्बुद्धि और असीम शक्ति का सम्मिश्रण मानवी प्रगति को ही नहीं उसके अस्तित्व को भी संकट में डालेगा। निर्माण कष्ट साध्य और समय साध्य होता है; पर विनाश तो कोई मूर्ख एक माचिस के सहारे भी उत्पन्न कर सकता है। विनाश के बढ़ते हुए साधन किस निमित्त विनिर्मित किये जा रहे हैं; यह हर कोई जानता है। आपसी झगड़े तो न्यायोचित विचार विमर्श और पंच फैसले से भी हल हो सकते है; उस ओर ध्यान देकर जब सर्वनाशी वैज्ञानिक प्रयोगों पर असीम सम्पत्ति झोंकी जा रही हो तो समझना चाहिए कि दुर्बुद्धि के हाथों यह क्षमता बनी रहने पर कभी न कभी इसका प्रयोग होकर रहेगा। यदि ऐसा हुआ तो समझना चाहिए आक्रामक सहित मनुष्य जाति को सामूहिक आत्म हत्या कर लेने के अतिरिक्त और कोई रास्ता शेष ही नहीं रहेगा।

अणु आयुधों को विभीषिका अब बहु-चर्चित और पुरानी बन गई। नये प्रयोग अन्तरिक्ष की हलचलों पर अधिकार पाने और आकाश पर आधिपत्य करने के चल रहे हैं। थल और जल के क्षेत्र भावी महा-युद्ध के लिए अपर्याप्त और झंझट भरे माने जाने लगे हैं और सोचा जाने लगा है कि आकाश जिसके हाथ में होगा वह बिना प्रतिरोधक का आक्रमण कर सके और जिस क्षेत्र पर भी चाहे विनाश बरसाने आधिपत्य जमाने में सफल हो सकेगा। इन दिनों अन्तरिक्षीय शोधों को बड़े राष्ट्र प्रमुखता दे रहे हैं और उस पर इतनी सम्पत्ति, इतनी बुद्धि-खर्च कर रहे हैं कि आश्चर्य से चकित रह जाना पड़ता है। अन्तरिक्ष यानों की धूम है। सोचा जा सकता है,गरीबी, बीमारी, बेकारी, अशिक्षा, पिछड़ेपन जैसे अनेक कष्टों को दूर करने के लिए जब कि साधनों की भारी आवश्यकता है तब अन्तर्ग्रही खोजों पर इतने साधन लगाने की क्या आवश्यकता पड़ गई; जितने से समूची मनुष्य जाति का भाग्य बदलने की उत्साहवर्धक भूमिका निबाही जा सकती थी।

अन्तरिक्षीय शोधों के पीछे आकाश की स्थिति का युद्ध प्रयोजनों के लिए किस प्रकार उपयोग हो सकता है यह जानना भी एक बड़ा उद्देश्य है। यह आशंका सामान्य बुद्धि की भी समझ में अपना स्थान बनाती है। वस्तुतः यह आकाश की परतों का अध्ययन है। जिन पर अधिकार प्राप्त करने के बाद पृथ्वी को-उसके किसी भाग को-इच्छानुसार प्रयोग में लाया जा सकता है। यह एक प्रकार से युद्ध क्षेत्र का नया निर्माण है। अन्तर्ग्रही अन्तरिक्षीय शोधों में जहाँ मानवी ज्ञान क्षेत्र में एक नये अध्याय का समावेश होने की प्रसन्नता हो सकती है वहाँ यह आशंका भी बनी हुई है कि दुर्बुद्धि की दुरभिसंधियाँ इस ज्ञान एवं क्षेत्र का युद्ध प्रयोजनों में उपयोग कर सकती हैं और मानवी अस्तित्व के सामने चुनौती प्रस्तुत कर सकती हैं।

रूसी वैज्ञानिक एवगेनी क्योदोरोव ने ‘न्यू टाइम्स’ पत्रिका में अपने लेख में विश्व-शक्तियों द्वारा की जा रही ‘मौसम युद्ध’ की तैयारी का अति भयंकर निरूपित किया है। तथा इस पर विश्व भर में पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का आग्रह किया है। श्री क्योदोरोव का कहना है कि ऊपरी वायुमंडल के साथ ये छेड़खानियाँ सर्वनाश का कारण बनेगी।

सैकड़ों किलोमीटर ऊपर वायुमण्डल में पदार्थ का घनत्व अत्यल्प होता है और उसकी अवस्था में सौर विकिरण के कारण भारी परिवर्तन होता है। ऋतु वैज्ञानिक स्थितियाँ यहीं विनिर्मित होती हैं, जिनसे कि धरती का मौसम बनता है। यहाँ प्रत्येक क्रिया की तीव्र संवेदनात्मक प्रतिक्रिया धरती पर होती है। तनिक से फेर बदल से मौसमी परिस्थितियों में भारी अन्तर उत्पन्न हो जाता है।

यदि किसी क्षेत्र पर से भाप, रज-कण एवं दूसरे रासायनिक पदार्थों से बने दृश्य-अदृश्य बादलों का प्राकृतिक आच्छादन कृत्रिम वैज्ञानिक प्रयासों द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया जाए, तो उस क्षेत्र में दिन में पृथ्वी के धरातल तक पहुँचने वाली सौर-ऊर्जा में प्रायः 20 हजार किलोवाट प्रति वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हो सकती है। परिणामस्वरूप वहाँ की जलवायु भीषण रूप से विषम हो उठेगी।

प्रयोगों से ज्ञात हुआ है-कि 50 हजार किलोमीटर क्षेत्र में यदि यह गैसीय मेघाडम्बर छिन्न-भिन्न कर दिया जाए, तो वायुमण्डल की निचली तह में ऊष्मा-ऊर्जा का प्रवाह 50 करोड़ किलोवाट से बढ़कर 1 अरब किलोवाट तक पहुँच जाता है। स्पष्ट है कि इससे जीवधारियों का अस्तित्व संकट में पड़ जाएगा और भयंकर विनाश-लीला मचेगी।

इन दिनों सभी महाशक्तियाँ अन्तरिक्षीय पर्यावरण में परिवर्तन का प्रयोग सैनिक उद्देश्यों के लिए कर रही हैं। उपरोक्त रूसी वैज्ञानिक एवगेनी-क्योदोरोव ने इसी लिए इस प्रसंग पर प्रकाश डालते हुए इस तथ्य का स्मरण दिलाया है कि यह अस्त्र-शक्ति का विकास मात्र नहीं है। माना कि इससे एक नया कारगर अस्त्र प्राप्त हो जाएगा। लेकिन यह अत्यधिक -अमानवीय होगा। इसकी कार्यवाही से जो परिणाम होगा, उसमें शत्रु राष्ट्र के सैनिक ही नहीं मरेंगे, बल्कि भारी पैमाने पर असैनिक आबादी भी नष्ट हो जाएगी।

बोस्टन के लेमिंगटन की वेधशाला में व्रो0 लुई स्मलिन के नेतृत्व में लेजर किरणों की युद्ध में भूमिका का निर्णय पहले ही किया जा चुका है। अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपणास्त्रों को नष्ट करने में ये किरणें समर्थ हैं और रूस, अमरीका, दोनों ही उन लेजर बन्दूकों का निर्माण कर चुके हैं, जो देखने में तो छोटी हैं, पर किसी भी हवाई आक्रमण की योजना को ‘हवाई’ बना देने में पूर्ण समर्थ हैं। फ्रंकफोर्ड शस्त्रागार की लेजर बन्दूक द्वारा एक सेकेण्ड में धरती के इस छोर में बैठे-बैठे, उस छोर तक कहीं भी अचूक निशाना साधा जा सकता है।

मृत्यु किरण बम बन ही चुके हैं। लेजर किरणों का युद्ध अणु युद्धों से सस्ता पड़ेगा और पलक झपकते ही अभीष्ट क्षेत्र के सैनिक और नागरिक ही नहीं, वृक्ष, फसल, घास-पात सब भस्म हो जायेंगे।

एक ओर तो इन्हीं लेजर किरणों के रचनात्मक उपयोग से कैन्सर जैसे कुटिल रोगों पर काबू पाने में कामयाबी मिल सकेगी, राकेटों को अन्तरिक्ष में इच्छित ऊँचाई पर आसानी से उछाला जा सकेगा, पृथ्वी से ही इन अन्तरिक्षयानों को शक्ति एवं गति दी जा सकेगी। आँख की पुतली में या किसी भी कोने में ट्यूमर आदि होने पर एक सेकेण्ड के हजारवें भाग में आपरेशन द्वारा रोगी को चंगा किया जा सकेगा। दूसरी ओर इन्हीं लेजर किरणों का विध्वंसक उपयोग महाविनाश का मार्ग सरल कर देगा। वह जादुई चिराग है, जो सृजन व विनाश, दोनों क्षेत्रों में विस्मयकारी भूमिका निभाते में सर्वत्र समर्थ हैं। रूस ओर अमेरिका दोनों के हजारों वैज्ञानिक सैकड़ों प्रयोगशालाओं में इस महाशक्ति की साधना में अहर्निश जुटे हैं।

पहले तो लेजर किरणों का उत्पादन अति जटिल प्रक्रिया द्वारा ही सम्भव था, पर अब उन्हें रासायनिक क्रियाओं द्वारा भी उत्पन्न किया जा सकता है। भारी उद्विजन गैस, फ्लोरीन गैस और कार्बनडाइ-आक्साइड गैस के मिश्रण से इनको उत्पन्न किया जाता है। अस्तु उसका उत्पादन सस्ता भी हो गया है। यह तो हुई एक अन्तरिक्षीय किरण की बात। ऐसी अनेक अति महत्त्वपूर्ण शक्तिधाराएँ आकाश में भरी पड़ी हैं, जिन पर अधिकार पाकर प्रकृति के प्रवाह-क्रम को इच्छानुकूल गति एवं दिशा दी जा सकती है। भौतिक विज्ञानी इस दिशा में निरन्तर सचेष्ट हैं।

मद्रास के पगवास विज्ञान सम्मेलन में कृत्रिम प्रकृति प्रकोप उत्पन्न कर सकने की वर्तमान वैज्ञानिक उपलब्धियों की एक लम्बी सूची चर्चा का विषय बनी रही। युद्ध-सेन का यह अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करने के स्थानों पर मात्र वैज्ञानिक प्रयोगशालाएँ किसी क्षेत्र का सर्वनाश कर सकने में समर्थ रहेंगी और युद्ध के चिह्न भी दृष्टिगोचर न होंगे। समझा यही जाता रहेगा कि यह कोई प्रकृति प्रकोप था। युद्ध में कुछ ठिकाने, कुछ मनुष्य और कुछ साधन ही नष्ट होते हैं, पर प्रकृति आतंक का उपयोग करके तो पूरे क्षेत्र ही मटियामेट किये जा सकते हैं।

एक और प्रकृति विशेषज्ञ वी0एम॰ जसानी के अनुसार भविष्य में सम्भवतः अणु आयुधों का खर्चीला और विकिरण से, अत्यन्त भी हानि फैलाने वाला प्रयोग करने के स्थान पर प्रकृति प्रकोप की शक्ति को काम में लाया जाएगा। यह इतना भयंकर होगा कि प्रतिरोध की परम्परागत क्षमता उसके आगे टिक न सकेगी और समर्थ युद्ध कौशल भी असहाय बन कर रह जाएगा।

अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति शोध अनुसंधान संस्थान के निर्देशक डा0 फ्रेंक वारनेवी ने संसार को चेतावनी दी हैं कि जिस क्रम और उत्साह से प्रकृति विजय के अंतर्गत मारक शक्तियाँ विकसित और उपलब्ध करने की होड़ चल रही है उसके घातक परिणाम उत्पन्न होंगे।

अब तक की उपलब्धियों के अंतर्गत आकाश में चमकने वाली बिजली को किसी भी ठिकाने पर गिराया और उस क्षेत्र को भस्म सात किया जा सकता है। समुद्री और स्थानीय तूफानों का रुख किसी भी दिशा में मोड़कर उन्हें वहाँ तक पहुँचाया जा सकता है जहाँ महाविनाश करना अभीष्ट हो। अदृश्य विद्युत तरंगों का प्रवाह कुछ इस प्रकार का बनाया सकता है, जिससे अमुक क्षेत्र के व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठें और मनोरोग ग्रस्तों की तरह विक्षिप्त करने लगें।

विश्व के मूर्धन्य विज्ञान वेत्ता जोसेफ गोल्ड व्लाट की चेतावनी भी इसी से मिलती-जुलती है। वे कहते हैं। विज्ञान के हाथ में अब ऐसी शक्तियाँ आ गई हैं जिनके सहारे फैक्ट्रियों में विनिर्मित अस्त्र-शस्त्रों का खर्चीला और संदिग्ध प्रयोग करने की अपेक्षा प्रकृति की हलचलों से ही व्यापक क्षेत्र का सर्वनाश किया जा सकता है। अब शत्रु को घुटने टिकाने के लिए शस्त्र प्रहार की योजना बनाना आवश्यक नहीं रहा, यह कार्य तो प्रकृति की सामान्य हलचलों को ही इधर से उधर मोड़ देने भर से सम्पन्न हो जाया करेगा। नित्य उठते रहने वाले तूफानों का उपयोग अब शत्रु के बन्दरगाह समुद्री बेड़े तथा वायुयानों को अपंग बना सकते हैं। हिम नदी का ऐसा प्रयोग हो सकता है, कि पहाड़ी दर्रों में होकर यातायात ही सम्भव न रह सकें। नदियों को सुखाया जा सकता है या उनमें उफनती बाढ़ लाई जा सकती हैं। अदृश्य किरणें किसी भी देश के तार, रेडियो जैसे संचार साधनों को ठप्प करने के लिए प्रयुक्त हो सकती हैं और उनका प्रयोग कहीं भी अग्निकाण्डों के लिए किया जा सकता है कृत्रिम जल, वर्षा में जो सफलता मिली हैं उसके आधार पर यह मार्ग भी मिल गया है कि आकाशीय बिजली की धरती पर भी वर्षा हो सके।

दुर्बुद्धि के साथ वैज्ञानिक उपलब्धियों का सम्मिश्रण होने पर उसके जो सर्वनाशी परिणाम हो सकते हैं वे सामने हैं। मानवी विवेक को इन परिस्थितियों ने चुनौती दी है कि उसे संगठित और प्रबल प्रयत्नों द्वारा इस प्रकार के गठबन्धन को रोकना चाहिए। शक्ति का स्तर और विस्तार कितना ही अधिक क्यों न हो उसका नियन्त्रण सद्भावना के हाथों में ही रहना चाहिए। अन्यथा अति परिश्रम पूर्वक भी जो प्राप्त किया जाएगा वह अन्तरिक्षीय उपलब्धियों की तरह सर्वनाश की चिन्ता और आशंका ही उत्पन्न करेगा। विज्ञान की ही तरह यही तथ्य धन,बल,बुद्धि, प्रतिभा आदि के सम्बन्ध में भी लागू होता है। उपलब्धियाँ बढ़े तो कितनी ही-पर उन्हें दुर्बुद्धि के हाथों न पड़ने दिया जाय। यह आध्यात्मिक तथ्य विज्ञान सहित सभी क्षेत्रों में प्रयुक्त किया जा सके तभी उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ साकार हो सकेंगी।


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