ध्यान-योग द्वारा आत्म-बल का संवर्द्धन

October 1977

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ध्यान योग के पीछे कितने अति महत्त्वपूर्ण प्रयोजन छिपे हुए है। इस पुण्य-प्रक्रिया को अपना कर मनुष्य अन्तर्जगत में प्रवेश करना और उसकी खोज-बीन करना सीखता है बहिरंग जगत में जो कुछ भी प्रिय लगता है, रसानुभूति होती है वह अन्तरंग की प्रतिक्रिया मात्र है। जिव्हा के रस तन्तु संवेदनशील हों तो ही भोजन में स्वाद की अनुभूति होगी। पेट ठीक हो, तो ही आहार का आनन्द मिलेगा। यही बात अन्य इन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। नेत्र ज्योति शिथिल हो गई हो तो फिर सौंदर्य की अनुभूति कैसे होगी? कान जबाब दे चुके हो तो मधुर गायन और सारगर्भित श्रवण में क्या कुछ रस रह जायेगा? नपुंसकता घेर ले तो फिर काम सेवन के सारे साधन निरर्थक है। इन्द्रियों की तरह ही ही मन की प्रखरता और संवेदनशीलता के कारण ही सामान्य परिस्थितियों में स्वर्ग जैसा उत्साह अथवा नरक जैसा असन्तोष देखा जा सकता है एक ही स्थिति, एक व्यक्ति को एक प्रकार की और दूसरे को उससे ठीक विपरीत दूसरे तरह की लगती है। यह चिन्तन और दृष्टिकोण का अन्तर ही है जिसके कारण वस्तुओं और व्यक्तियों से चित्र विचित्र प्रकार की अनुभूतियाँ होती है।

अंतर्जगत को सुव्यवस्थित बना लिया जाय तो बाह्य जगत में जो विपन्नताएँ घिरी रहती है वे देखते-देखते सामान्य एवं सुखद बन जाती है। अपना व्यवहार बदलते ही दूसरों के स्नेह सद्भाव की प्रतिक्रिया उभरने लगती है। अपना चिन्तन सुलझ जाने पर सन्तुलन बनते और तालमेल बैठते देर नहीं लगती। आत्मीयता के व्यापक होती ही सर्वत्र अपनापन फैला दीखता है और हर वस्तु अपनी दीखने के कारण रुचिकर और सुखद लगने लगती है। कण-कण में ईश्वर की झाँकी का ब्रह्मानन्द मिलने में अपनी चिन्तन विकृति के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।

अंतरंग को देखने, परखने, सुधारने-सुविकसित और सुसंस्कृत बनाने का परम पुरुषार्थ तभी बन पड़ता है जब भीतर प्रवेश करने का द्वार खुले। इसका प्रथम चरण ध्यान हैं। ध्यान द्वारा अंतर्मुखी होने की आदत पड़ती है। तत्त्वदर्शन के सम्बन्ध में मनन और चिन्तन कर सकना सम्भव होता है आत्म सत्ता की स्थिति, आकांक्षा एवं आवश्यकता को समझने और तद्नुरूप साधन जुटाने की बात तभी बनती है, जब अन्तर्जगत को ठीक तरह देख और समझ सकना सम्भव हो सके। यह कार्य ध्यान में तीक्ष्णता उत्पन्न होने पर ही बन पड़ता है

ध्यान का दूसरा लाभ एकाग्रता सम्पादन का है। चित्त वृत्तियाँ प्रायः अनियन्त्रित और उच्छृंखल बनी अव्यवस्थित रूप से अस्त-व्यस्त परिभ्रमण करती रहती है। इस बिखराव में बहुमूल्य मानसिक शक्तियों का अपव्यय ही होता है। बहुत करके तो चिन्तन की इस विश्रृंखलता के साथ-साथ अवांछनीय तत्त्व ही लिपट पड़ते हैं। कहते हैं कि “खाली दिमाग शैतान की दुकान।” यदि विचारों को व्यवस्थित एवं उपयोगी कार्यों में न लगाया जायेगा, तो उसके अभाव का लाभ आसुरी तत्त्व उठावेंगे और पतनोन्मुख पशु प्रवृत्तियों का मनःक्षेत्र पर अधिकार सघन होता चला जाएगा। एकाग्रता से बिखराव सिमटता है और उससे शक्ति उत्पन्न होती है। सभी जानते हैं कि छोटे से आतिशी शीशे पर फैली हुई सूर्य किरणें एक बिन्दु पर एकत्रित कर दी जाएँ तो आग जलने लगती है। बारूद की नली में सीमाबद्ध करके एक दिशा विशेष में लगाया जाय तो लक्ष्य बेध का चमत्कार उत्पन्न होता है भाव की सीमित धारा के प्रयोग से इंजन में पूरी रेलगाड़ी खींचने की शक्ति उत्पन्न होती है। सरकस के नट एकाग्रता की शक्ति से आश्चर्य भरे करतब दिखाते हैं। ध्यान से एकाग्रता का लाभ मिलता है मस्तिष्कीय बिखराव का केन्द्रीकरण मनुष्य में अद्भुत प्रतिभा एवं क्षमता का विकास करता है।

अनियन्त्रित विचार शोक, क्रोध, व्यामोह, विलाप, ईर्ष्या, चिन्ता, भय, निराशा आदि निषेधात्मक गलियों में भटकते रहते हैं और स्वल्प कारणों को लेकर भयंकर मानसिक विक्षोभ उत्पन्न करते हैं। फलतः जीवन का सारा आनन्द नष्ट हो जाता है और पग-पग पर जलने झुलसने जैसा कष्ट सहना पड़ता है। ध्यान द्वारा विचारों को पकड़ने और एक दिशा से हटाकर दूसरी में नियोजित करने की क्षमता उत्पन्न होती हैं यह कहने-सुनने में छोटी किन्तु व्यवहार में अति महत्त्वपूर्ण विशेषता है। यदि कोई व्यक्ति अपनी प्रचण्ड मनस्विता के सहारे क्रोध, शोक, कामुकता जैसे उभारों को वशवर्ती करने और चिन्तन की धारा तत्काल किसी उपयोगी प्रयोजन में लगा देने की विशेषता प्राप्त कर ले तो समझना चाहिए कि उसने भव-बन्धनों को काट लिया और स्वर्गीय आनन्द को करतल गत कर लिया।

हर कोई जानता है कि असफलताओं का कारण साधनों की कमी अथवा परिस्थितियों की प्रतिकूलता उतनी बाधक नहीं होती जितनी कि चित्त की चंचलता। आधे अधूरे मन से उपेक्षा और अन्य मनस्कता के साथ किये गये कार्य प्रायः अस्त-व्यस्त ही रहते हैं ओर उनकी प्रतिक्रिया, भर्त्सना एवं असफलता के रूप में ही सामने आती हैं यदि तन्मयता और तत्परता के साथ कार्य किये जाय तो कालिदास, वरदराज जैसे मन्द बुद्धि लोग भी उच्चकोटि के विद्वान बन सकते हैं। शारीरिक क्षमता के प्रति उदासीनता का अर्थ है-आलस्य। मानसिक दक्षता का उपयोग न करने की प्रवृत्ति को कहते है-प्रमाद। सर्व विदित है कि मनुष्य की दरिद्रता और दुर्दशा का बहुत कुछ उत्तरदायित्व आलस्य और प्रमाद का ही होता है। इन दोनों महा शत्रुओं की जननी चित्त की चंचलता है। ध्यान का उद्देश्य चंचल चित्त को मजबूत रस्सों से कसकर नियत प्रयोजन में लगा देने की दक्षता प्राप्त कर लेना है। मनोनिग्रह इसी को कहते हैं।

योग विद्या में मनोनिग्रह का बहुत महत्त्व बताया गया है। मन को वश में कर लेने पर सब कुछ वश में हो जाता है। निग्रही मन को कल्पवृक्ष कहा गया है और उसकी चमत्कारी उपलब्धियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मूर्धन्य स्तर के लोग-वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार, साधन-सम्पन्न, प्रगतिशील, श्रेयाधिकारी महामानव-मनोनिग्रह के सहारे ही ऊँचे उठे और सफलता के शिखर तक पहुँचे हैं भौतिक आत्मिक अथवा दोनों क्षेत्रों की समन्वित सफलता मानसिक दक्षता को अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित किये रह सकने की विशेषता पर निर्भर है। यही आत्म-नियन्त्रण धैर्य, साहस, संकल्प-बल, दृढ़ चरित्र आदि के रूप में सद्गुण बन कर प्रकट परिलक्षित होता है। सफलताएँ इसी मनन स्थिति के चरण चूमती रही है और यही क्रम अनन्त काल तक बना रहेगा।

ध्यान का तीसरा लाभ है-संकल्प शक्ति की परिपक्वता। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श के विभिन्न उपचारों से कई प्रकार के अभ्यास साधकों को कराये जाते हैं। माहात्म्य तो देवताओं, मन्त्रों दृश्यों, आवाजों को बताया जाता है ओर उनके साथ तन्मयतापूर्वक मनःचेतना को लपेटे रहने का निर्देश गुरुजनों द्वारा दिया जाता है। इसके पीछे मूल लाभ एक ही है कि विचार प्रवाह की अस्त-व्यस्तता रोक सकने वाली-सीमित बिन्दु पर ध्यान जमाने रहने वाली प्रचण्ड-संकल्प शक्ति का उद्भव किया जाय। साधारणतया विचारों की दौड़ बेलगाम होती है, जंगली हिरनों की तरह वे किसी भी दिशा में दौड़ते हैं और किसी का अंकुश स्वीकार नहीं करते। इन्हें नियन्त्रित करने के लिए ध्यान धारणा के चित्र अथवा शब्द गढ़े जाते हैं। देवताओं के तथा प्रकाश आदि के चित्रों पर अथवा नादयोग के आधार पर चित्र-विचित्र ध्वनियों पर विचार शक्ति को-कल्पना एवं भावना को-गहन श्रद्धा के साथ नियोजित किया जाता है। इसमें उतनी ही सफलता मिलती है जितनी कि विचारों पर हावी हो सकने वाली संकल्प शक्ति प्रचंड होगी। वस्तुतः ध्यान धारणा का सारा उपक्रम उस संकल्प शक्ति को प्रबल बनाना है जो रिंग मास्टर द्वारा सरकस के जानवरों को हन्टर के बल पर नचाने की तरह विचारों को किसी भी केन्द्र पर केन्द्रित कर देने में सफल हो सकती है।

यह संकल्प-बल ही प्राणबल, आत्मबल, ब्रह्मवर्चस आदि नामों से पुकारा गया है। इसी विद्युत धारा को अन्तरंग की प्रसुप्त क्षमताओं के ऊपर फेंका और उन्हें जागृत किया जाता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में एक से एक अद्भुत शक्ति संस्थान छिपे पड़े है इन्हें ढूंढ़ निकालना और परिष्कृत कर सकना इसी संकल्पों की केन्द्रीय शक्ति के लिए सम्भव है। अतींद्रिय क्षमता जगाने का यही एक मात्र उपकरण हैं एक ही बन्दूक से अनेक शत्रुओं को धराशायी बनाया जा सकता है। एक ही कलम से विभिन्न स्तर के लेख लिखे जा सकते हैं। एक ही खेत में कई प्रकार की फसलें उग सकती है। एक ही रुपये से कई वस्तुएँ खरीदी जा सकती है। एक ही मनुष्य कई तरह के कृत्य कर सकता है। ठीक इसी प्रकार एक ही प्रचण्ड संकल्प-शक्ति से अन्तर्जगत के कितने ही शक्ति संस्थानों को जगाया-उठाया जा सकता है। एक ही क्रेन कितने ही भारी भरकम पार्सलों को उठाती-चढ़ाती रहती है। मनोबल के सहारे वजनदार षट्चक्रों उपत्यिकाओं तथा अंतर्मन की गहरी दबी-गढ़ी परतों को उभारा उठाया जाता है। सूर्य उदित होता है तो प्राणधारियों में सक्रियता का संचार होता है। मनोबल का सूर्य जिस भी क्षेत्र में अपनी प्रकाश किरणें फेंकता है उसी की आभा निखरने लगती है।

मनुष्य में जन्मजात रूप से ईश्वरीय अंश उतना ही जागृत रहता है जिससे पेट प्रजनन का सामान्य निर्वाह क्रम सरलतापूर्वक चलता रह सके। शेष दिव्य क्षमताओं के भण्डार प्रसुप्त स्थिति में पड़े होते हैं, उन्हें प्रयत्नपूर्वक जागृत करना पड़ता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं की आये दिन चर्चा होती रहती है। बहुत से व्यक्तियों में कितने ही प्रकार की अलौकिकताएँ पाई जाती है। यह उनके साधना प्रयासों द्वारा अथवा पूर्व संचित जागरण प्रयत्नों का प्रतिफल होता है। जीवात्मा क्रमशः महात्मा, देवात्मा परमात्मा स्तर पर विकसित होती है और लघु से महान बनती है। यह सफलताएँ किसी दूसरे का दिया हुआ अनुग्रह उपकार नहीं होता वरन् आत्म-सत्ता के क्रमिक विकास की प्रतिक्रिया ही होती है। जिस उपकरण के माध्यम से यह प्रगति क्रम अग्रसर होता है उसे मनोबल ही कह सकते हैं इस पेट्रोल के बिना कोई मोटर किसी भी सड़क पर दौड़ लगाने में असमर्थ रहती है।

मनुष्य के स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में एक से एक अद्भुत शक्ति केन्द्रों के समुच्चय विद्यमान है। अल्पज्ञ जीव सर्वज्ञ बन सके और असमर्थ दीखने वाला व्यक्ति सर्व समर्थ स्तर तक पहुँच सके ऐसी सम्भावनाएँ। मौजूद है। प्रश्न प्रसुप्ति को जागृति में बदलने का है। इसी प्रयत्न पुरुषार्थ को योग साधना कहते हैं। योग साधना की प्रधान क्षमता मनोबल है। संकल्प बल के प्रहार से शक्ति संस्थानों का समुद्र मन्थन होता है और उसी में से सिद्धियों की रत्न राशि निकल कर ऊपर आती है।

ध्यान एक प्रकार का व्यायाम है जिसमें प्रत्याहार और धारण के उभय पक्ष पूरे करने पड़ते हैं। प्रत्याहार का अर्थ है-अनुपयुक्त चिन्तन का बलपूर्वक प्रतिरोध करना और धारणा का तात्पर्य है जो अभीष्ट है उसे अंगीकार करने के लिए अतिशय आग्रह करना। यह सरकस में वन्य पशुओं को प्रशिक्षित करने जैसी प्रक्रिया है। ताड़ना और प्रलोभन की उलटी-सीधी चालें चलकर उद्दण्ड पशुओं को साधना पड़ता है। चित्त वृत्तियों की स्थिति भी लगभग वैसी ही है। साधने की सफलता में उन पशुओं को भी यश मिलता है और शिक्षक की कुशलता भी सराही जाती है। इन साधकों और सिद्धों की उपयोगिता बढ़ती है और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्यांकन होता है। यह ध्यान का ही चमत्कार है कि प्रत्याहार और धारणा की दण्ड-बैठक करते हुए साधक को मनोबल सम्पन्न बनने का अवसर मिलता है। चक्र-वेधन ‘कुण्डलिनी जागरण, अतीन्द्रिय उन्नयन, व्यि आभास, शक्ति संचरण जैसी आध्यात्मिक उपलब्धियों का आधार बढ़ा हुआ संकल्प बल ही होता है। ध्यान साधना का यही सबसे बड़ा लाभ है।

ध्यान के यह प्रमुख लाभ है। व्यायामशाला में जाकर शरीर बल उपार्जित किया जाता है और फिर उससे निरोग काया, दीर्घ-जीवन, प्रतियोगिता विजय अधिक उपार्जन, प्रभाव, वर्चस्व जैसे कितने ही लाभ मिलते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार ध्यान की मानसिक व्यायाम प्रक्रिया से संकल्प-शक्ति प्रखर एवं परिपक्व होती है और उससे चेतना की विशिष्टता का परिचय देने वाले अनेकानेक सत्परिणाम सामने आते हैं। समृद्धियों और विभूतियों के जीवन को सुख-सम्पदा से-शान्ति-सन्तोष से-वैभव-वर्चस्व से भर देन वाले अवसर जिस आधार पर मिलते हैं, उनमें शरीर बल से भी बढ़कर मनोबल का स्थान है कहना न होगा कि इस महान उपलब्धि के अभिवर्धन में ध्यान साधना से बढ़कर और कोई दूसरा सरल एवं सफल उपाय नहीं है।

छान्दोग्य उपनिषद् के सप्तम अध्याय के छठे और सातवें खण्ड में ध्यानयोग को उपासना की उच्च कक्षा कहा गया है। नामोच्चार से बढ़कर वाक्, वाक् से भी बड़ा मन, मन से अधिक महत्त्वपूर्ण संकल्प और संकल्प से बलवत्तर चित्त को कहा गया है चित्त से भी बढ़कर ध्यान का बताया गया है। नाम, जप, वाक्-संयम, मनोनिग्रह, संकल्पोद्भव, चित्त निरोध, ये सब उपासना की क्रमिक भूमिकाएँ हैं ध्यान इन सबसे ऊपर है।

मन को एक विशेष परिधि में दौड़ाने के लिए साधना ध्यान है। निर्धारित परिधि के अंतर्गत ही ध्यान-चेष्टाएँ केन्द्रित रहना साधना क्रम की सही दिशा का संकेत है। मन की चंचलता से यदा-कदा उल्लंघन तो होगा, पर सतत् प्रयत्न से यह उल्लंघन घटता जायेगा ओर मन सधता जायेगा।

आवश्यकता नहीं है कि ध्यान साधना देवी-देवताओं और मंत्र-तंत्रों के आधार पर ही की जाय। यह सार्वभौमिक एवं सर्वजनीन प्रक्रिया है। आस्तिक-नास्तिक सभी इसे अपनाकर समान रूप से अपना मनोबल बढ़ा सकते हैं। चित्त की चंचलता का समाधान, एकाग्रता का अभिवर्धन जिस उपाय से बन पड़े उसे ध्यान कहा जा सकता है अंतःक्षेत्र में घुसी हुई पशु-प्रवृत्तियों के स्थान पर दैवी तत्त्वों की स्थापना के लिए जो प्रयत्न किया जाय उन्हें धारणा वर्ग का कहा जाएगा। इसके लिए किसी पुरुष को भी माध्यम बनाया जा सकता है। देवताओं के स्थान पर किन्हीं महामानवों के व्यक्तित्व एवं चरित्र को ध्यान धारणा के लिए चुना जा सकता है।

एकान्त कोलाहल रहित स्थान में जहाँ शान्ति हो, ध्यान का अभ्यास किया जाता है प्रारम्भ में ध्यान का आधार किसी भौतिक माध्यम को भी बनाया जा सकता है। हम गुलाब के फूल से शुरू कर सकते हैं। एक चौकी पर हरे या नीले रंग का कपड़ा बिछाएँ। उस पर खिला हुआ गुलाब का फूल रखें। फूल की पंखुड़ियों की बनावट तथा रंगों के उतार-चढ़ाव और मध्यवर्ती पराग को गहराई के साथ देखते हुए बारीक विश्लेषण जैसा करते हुए एक-एक चीज मस्तिष्क में स्थिर करते जाएँ, मानों थोड़ी देर बाद परीक्षा में ये सब विवरण पूछे जाने वाले है। जब फूल देखते-देखते मन ऊबने लगे तो फिर गुलाब से बनने वाली वस्तुओं की बाबत सोचें-गुलाबजल, इत्र, गुलकन्द, फूलमाला आदि के बनने की विधि एवं इनके स्वरूप का स्मरण-मनन करें। गुलाब पुष्प कोमल शीतल, सुगन्धित, कब्ज निवारक, वायु विकार नाशक आदि गुणों का स्मरण करें, विचार करें। गुलाब की खेती, उसे लाभ, गुलाब की आध्यात्मिक प्रकृति-काँटों के बीच सन्तोषपूर्वक रहना, हँसना-हँसाना, खिलना खिलाना, परिवेश का सौंदर्य बढ़ाना, सुगन्ध और पराग का दान, प्रभु चरणों में समर्पण आदि का विचार करें। तात्पर्य यह कि घंटों गुलाब पुष्प पर ही सोचते रहें। उद्देश्य है-मन की अस्त-व्यस्त घुड़दौड़ को परिधिबद्ध व व्यवस्थित करना। अभ्यास से एकाग्रता बढ़ेगी, मन की भाग दौड़ घटेगी।

यही अभ्यास किसी महापुरुष के जीवन-वृत्तांत को चिन्तन की परिधि बनाकर किया जा सकता है। किसी गीत या श्लोक के भावार्थ, संगीत की किसी धुन के विवेचन, किसी गुण विशेष जैसे ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा, संयम, उदारता आदि का सुदीर्घ विश्लेषण-मनन आदि कोई भी आधार लिया जा सकता है।

आत्मोत्कर्ष साधना में ईश्वर भक्ति का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘परिपूर्ण व्यक्तित्व’ के रूप में ईश्वर की अन्तःकरण में प्रतिष्ठापना की जाती है और फिर उसमें आत्म-सात होने का भावभरा उपक्रम चलता है। इष्टदेव का अर्थ हे-अपने विकास का अन्तिम लक्ष्य। हम राम, कृष्ण, हनुमान, सूर्य, आदि नर रूपकों में अथवा गायत्री, सरस्वती, लक्ष्मी आदि नारी कलेवरों में इष्टदेव का निर्धारण करते हैं और आत्मोत्कर्ष की उस शिखर तक पहुँचने का संकल्प करते हैं। इष्टदेव के साथ तन्मय अविच्छिन्न-एकाकार हो जाने की साधना ‘लय-योग कहलाती है। भक्ति मार्ग में इसी दिशा में बढ़ा जाता है। द्वैत को मिटाकर अद्वैत बन जाने की आकांक्षा को आत्म-समर्पण, ईश्वर प्राप्ति कहा जाता है। दीपक पतंगों का उदाहरण इसी प्रयोजन को समझाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

आत्म समर्पण स्तर की साधना में अपने अस्तित्व को भगवान की सत्ता में समर्पित होने का ध्यान करना होगा। परमेश्वर के विराट् रूप का चिन्तन-विवेचन इसमें सहायक होगा। विराट् ब्रह्म को इस चराचर जगत का शरीर मानते हुए कल्पनाएँ की जाए। इस विराट ब्रह्म का एक क्षुद्रतम घटक है अपना ‘अहम्’। इसका स्वतन्त्र क्या अस्तित्व? हमारी सत्ता ब्रह्म सत्ता कह ही एक इकाई है। अतः विराट ब्रह्म-विश्वमानव के लिए हमें अपने अस्तित्व का समर्पण करते हुए ही जीवन यापन करना चाहिए। विराट् ब्रह्म की ध्यान-धारणा का यही निष्कर्ष है। आत्मा की शरीर से भिन्न सत्-चित् आनन्द स्वरूप मानना और शरीर तथा आत्मा की भिन्नता की गहराई से अनुभूति करना तथा मात्र शारीरिक सुविधाओं में जुटे रहने की व्यर्थता का स्मरण कर आत्मकल्याण का सोत्साह संकल्प भी ध्यान-प्रक्रिया का एक प्रयोजन है।

प्राणि-जगत तथा पदार्थ मात्र में एक ही चेतन-तत्त्व परिव्याप्त है। समस्त विश्व चेतना-तत्त्व परिव्याप्त है। समस्त विश्व चेतना-सत्ता का स्वरूप है। व्यापक चेतना के साथ एकाग्रता होने पर ऐसी अनुभूति का सातत्य ही भागवत्-प्राप्ति का स्वरूप है।

इस समस्त विश्व को ईश्वर का विराट् रूप मानकर उसमें अपने आपको समर्पित कर देना साधु और ब्राह्मण जीवन की परम्परा है। विश्व पीड़ा की अपनी पीड़ा मानना और अपनी सुख-सम्पदा को लोक हित में होम देना लोक-सेवियों की परमार्थ साधना रही है। संकीर्ण स्वार्थपरता की छोड़कर अपने को विश्व परिवार का सदस्य मानना-वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना से ओत-प्रीत रहकर लोकहित के क्रिया-कलापों में निरत रहना भी आत्म-समर्पण का ही एक अति महत्त्वपूर्ण योग साधना है।


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