स्थूल शरीर की सूक्ष्म साधना

October 1977

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स्थूल शरीर भी एक देवता है। उसकी साधना की जा सके तो रुग्ण और दुर्बलकाय व्यक्ति चन्दगीराम, सेण्डो जैसे विश्व विख्यात पहलवान बन सकते हैं। पौहारी बाबा की तरह आवश्यक पोषण आहार आकाश से ही आकर्षित करते रह सकते हैं। गंगोत्री के स्वामी कृष्णाश्रम जी की तरह दो सो वर्ष की आयु पा सकते हैं।

तप-तितीक्षा द्वारा सेती हुई शक्ति की जागृत किया जाता है। तपाने से गर्मी बढ़ती है। गर्मी से परिशोधन होता है और दृढ़ता परिपक्वता की अभिवृद्धि होती हैं धातुओं के तपाने से उनका अशुद्ध अंश विलग होता है। कुपाच्य खाद्य पदार्थों को अग्नि पर पकाकर सुपाच्य बनाया जाता है। मिट्टी के बर्तनों और कच्ची ईंटों की भट्टे में पकाने से उनकी मजबूती बढ़ती है। आयुर्वेद की रस, भस्में अग्नि संस्कार में ही विनिर्मित होती है। तप-तितीक्षा को स्थूल शरीर की साधना में ही सम्मिलित किया गया है। ब्रह्मचर्य तप है। अस्वाद व्रत उपवास को तप माना गया है। सर्दी, गर्मी सहन करने के लिए कम वस्त्र, धारण करने, जूते न पहनने, ठंडे पानी से नहाने; जैसी तितीक्षाएँ की जाती है। कोमल शैया का त्याग, भूमि शयन अथवा तख्त पर सोना इसी प्रकार की साधना है। सुविधा का लाभ लेते रहने पर प्रतिरक्षा की शक्ति नष्ट होती है। जो लोग एयरकण्डीशंड कमरों में रहते हैं, उनकी ऋतु प्रभाव सहने की क्षमता चली जाती है। जरा-सी सर्दी-गर्मी लगने पर वे तुरन्त बीमार पड़ते हैं। सहन शक्ति बढ़ाने से बलिष्ठता बढ़ती है। इसलिए तितीक्षा जहाँ आरम्भ में कष्ट कर लगती है, वहाँ उसके परिणाम अन्ततः लाभदायक ही होते हैं। व्यायाम भी एक प्रकार का तप ही है। उसे करने में शरीर पर दबाव ही पड़ता है, पर सर्वविदित है कि इस तप साधना के फलस्वरूप बलिष्ठता बढ़ती है और पहलवान बन जाता है।

सक्रियता ओर स्फूर्ति में जो उत्साह भरती है; उस चेतना को ओजस् कहते हैं। ओजस्वी ऐसे ही व्यक्ति कहे जाते हैं जिन्हें पराक्रम प्रदर्शित करने में सन्तोष और गौरव अनुभव होता है। जिन्हें अपाहिज अकर्मण्यों की तरह सुस्ती में पड़े रहना अत्यन्त कष्टकारक लगता है। सक्रियता अपनाये रहने में, कर्मनिष्ठा के प्रति तत्परता बनाये रहने में जिन्हें आनन्द आता है उन्हें ओजस्वी कह सकते हैं। आलसी के चेहरे पर उदासी, मुर्दनी छाई रहती है और उत्साही की आँखों में तेज चमकता है और चेहरा देखते ही उसकी सक्रियता जन्य चमक सहज ही दीप्तिवान दिखती है। शरीर वही रहता है, पर अकर्मण्यता और कर्मनिष्ठा की-निर्जीवता और सजीवता की-आलस्य और उत्साह की-निराशा और आशा की-प्रखरता और पराभव की परस्पर विरोधी मनः स्थितियों को मनुष्य का चेहरा देखते ही जाना ओर आँका जा सकता है। सौंदर्य, आकर्षण और प्रभाव चुम्बक मात्र शरीर की बनावट पर ही निर्भर नहीं है। उत्साह और कर्मनिष्ठा की प्रवृत्ति उसमें चार चाँद लगा देती है। स्फूर्तिवान कुरूप भी सुन्दर लगने लगते हैं। इसके विपरीत अच्छे रंग रूप वाले भी निर्जीव निष्प्राण, तेजहीन, मलिन, मुर्दनी लादे हुए दीखते हैं तो उनकी और से मुँह फेर लेने को ही जा करता है।

जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता का प्रारूप यह ओजस्विता ही बनाती है। ऐसे लोग जो भी काम हाथ में लेते हैं उसमें विशेषता की छाप छोड़ते हैं। उनके कार्य अपने में ही उत्कृष्टता की साक्षी देते हैं और बताते हैं कि हमें मनोयोग उत्साह एवं उत्तरदायित्व की भावना के साथ सम्पन्न किया गया है। स्वल्प साधनों से पुरुषार्थी लोग अपने कार्यों को अच्छे स्तर के साथ सम्पन्न करते हैं और कम समय में अधिक उत्कृष्टता के साथ निपटाते हैं। फूहड़पन उन्हीं कामों में दृष्टिगोचर होता है जिन्हें अकुशल हाथों से, उपेक्षापूर्वक, अन्यमनस्क भाव से बेगार भुगतने की तरह, भार ढोने की वृत्ति से किया गया होगा। स्थूल शरीर की साधना, मात्र श्रम एवं आहार बिहार की सुव्यवस्था तक ही सीमित नहीं है उसके साथ वह कुशलता, स्फूर्ति एवं प्रसन्नता भी जुड़ी रहनी चाहिए जिसे ओजस्विता के नाम से पुकारा जाता है। जिन शरीरों में ओजस् का समावेश करने की साधना की गई है वे बराबर की दृष्टि से सामान्य होते हुए भी असामान्य कार्य करते और विशिष्ट गौरवान्वित होते हैं।

सक्रियता देखने में तो शारीरिक अवयवों का प्रयास मात्र लगती है; पर वस्तुतः वह आन्तरिक होती है। क्रिया स्थूल है पर स्फूर्ति को सूक्ष्म ही कहा जाएगा। वह शरीर का नहीं अन्तःचेतना का उभार उत्साह एवं गुण है। शरीर तो साधारण उपकरण मात्र है जिसका विनियोग किसी कुशल कारीगर द्वारा होने पर ही कलात्मक चमत्कारी परिणाम उत्पन्न होता है।

इस संसार में प्रकृति की तीन शक्तियाँ भरी पड़ी है। इन्हीं की प्रेरणा से विभिन्न जड़-पदार्थ अपने-अपने ढंग की विविध हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं। इन तीन शक्तियों का नाम है-(1) विद्युत (2) ताप (3) प्रकाश। अगणित क्षेत्रों में अगणित प्रकार के क्रिया कृत्यों का संचार इन्हीं के द्वारा होता है। शरीर में भी यह तीन शक्तियों विद्यमान है और अपनी स्थिति के अनुरूप विभिन्न अवयवों में विभिन्न प्रकार के कार्य करती है।

स्नायु मण्डल में ‘विद्युत धारा’ का संचार रहता है। मस्तिष्क उसका केन्द्र है। इन्द्रिय केन्द्रों पर उसी का आधिपत्य है। ज्ञान तन्तुओं के द्वारा केन्द्र तक सूचना पहुँचना और वहाँ से मिले निर्देशों को अवयवों के द्वारा सम्पन्न करना इसी शक्ति का काम है। मन संस्थान की समस्त गतिविधियाँ इसी के द्वारा संचारित होती है।

विकास से संबंधित समस्त हलचलें प्रकाश तरंगों द्वारा सम्पन्न होती है। सूर्य की प्रकाश किरणें वनस्पतियों की अभिवृद्धि एवं प्राणियों में प्राण संचार का प्रयोजन पूरा करती है ओर भी बहुत कुछ उनके द्वारा होता है। आयु के साथ होने वाली अभिवृद्धि को यह प्रकाश तत्त्व ही संजोता है।

आध्यात्मिक अलंकारों में विद्युत को ब्रह्मा, प्रकाश की विष्णु और ताप को शिव माना गया है। मनःक्षेत्र में इनकी हलचलें भावना, इच्छा और क्रिया के रूप में दृष्टिगोचर होती है। यह ब्रह्माण्ड भी विराट पुरुष का एक सुविस्तृत शरीर ही है। इसमें विद्युत तत्त्व संत, प्रकाश रज और ताप को तम रूप में प्रतिपादित किया गया है।

आन्तरिक स्थिति में हेर-फेर करके बाहर की स्थिति बदली जा सकती है। सभी जानते हैं कि मनःस्थिति ही भली-बुरी परिस्थितियों उत्पन्न करती है। अन्तरंग की बदलने पर बहिरंग सहज ही बदला जा सकता है। शारीरिक स्थिति में सुधार परिवर्तन करना हो तो उस उपकरण के अन्तराल में काम कर रही सूक्ष्म क्षमताओं को देखना सम्भालना होगा। कारखानों की मशीनों ठप्प हो तो समझना चाहिए कि विद्युत धारा या भाप-ताप के शक्ति स्रोतों में कहीं कुछ अड़चन उत्पन्न हो गई है। मशीनों की देखभाल करना भी उचित है, पर आधार तो शक्ति स्रोतों पर निर्भर है। शरीर गत दुर्बलता, रुग्णता को दूर करने के लिए आहार-विहार की गड़बड़ियाँ सुधारना और चिकित्सा उपचार पर ध्यान देना आवश्यक है, पर काम इतने से ही नहीं चल सकता। देखना यह भी होगा कि अवयवों के संचार करने के लिए उत्तरदायी सूक्ष्म शक्तियों की प्रवाह धारा ठीक प्रकार चल रही है या नहीं। शरीर तीन फेस पर चलने वाली मोटर है। इन सभी तारों का ठीक स्थिति में होना आवश्यक है। जिससे शक्ति संचार में अवरोध उत्पन्न न होने पाये।

अवयवों को कई प्रकार की बुरी आदतें घेर लेती हैं-इन्द्रियों की उच्छृंखलता बरतने का अभ्यास पड़ जाता है-दुर्व्यसनों को इसी प्रक्रिया के अंतर्गत लिया जा सकता है। आलस्य में अवयवों की अशक्तता का दोष कम और आन्तरिक स्फूर्ति की न्यूनता का कारण अधिक काम कर रहा होता है। इन दोष दुर्गुणों को ठीक करने के लिए मात्र शारीरिक अवयवों को दोष देना अथवा उसी की ठीक पीट करना पर्याप्त न होगा। शरीर में संव्याप्त अन्त चेतना की भी देख भाल करनी होगी। यही स्थूल शरीर का आध्यात्म विज्ञान है। यदि इस स्तर की गहराई तक पहुँचा जा सके और वहाँ सुधारने उभारने का कौशल प्राप्त हो सके तो शरीरगत दोष दुर्गुणों-दुर्बलता एवं रुग्णता को निरस्त कर सकना सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है।

जीवन के हर पक्ष को समुन्नत बनाने में दुष्प्रवृत्तियों का परित्याग और सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन अनिवार्य रूप से आवश्यक है। उच्चस्तरीय साधनाओं की सफलता के साथ तो यह तथ्य अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ है कि साधक पवित्र जीवन जिये। इसके लिए परिमार्जन-परिष्कार की दिशा में साहसिक कदम बढ़ाये जाने चाहिए। भूतकाल का परिमार्जन और भावी पवित्र निर्धारण की प्रक्रिया प्रायश्चित द्वारा ही सम्भव होती है। अस्तु आत्मिक प्रगति के लिए प्रायश्चित रूपी धुलाई आवश्यक है ताकि जीवन सत्ता पर साधना द्वारा उपयुक्त रंगाई ठीक तरह हो सके।

कर्मफली की अनिवार्यता समझी जानी चाहिए। और उज्ज्वल भविष्य की आकांक्षा यदि वास्तविक हो तो उसके लिए भविष्य की श्रेष्ठता परक गतिविधियों का निर्धारण किया जाना चाहिए।

स्वमलप्रक्षयाद्यद्वादग्नौ धास्यन्ति धावतः। तत्र पापक्षयात्पाँपा नराः कर्मानुरूपतः॥ -शिव पुराण

धातुओं के मैल को हटाने के लिए जैसे उन्हें तीक्ष्ण अग्नि में रखते हैं उसी तरह पापी प्राणियों को पाप-नाश के उद्देश्य से ही अपने कर्मों के अनुसार ही नरकों में गिराया जाता है।

यौनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थानणुमन्ये ऽनुसंयनित यथाकर्म यथाश्रुतम्॥ -गरुड़ पुराण

जिसने श्रवण-मनन द्वारा जैसा मनोभाव प्राप्त किया है उसी के आधार पर अपने-अपने कर्मों के अनुसार कितने ही जीवात्मा देह धारणार्थ विभिन्न योनियों को प्राप्त होते हैं और अनेकों जीवात्मा अपने कर्मानुसार वृक्षलता पर्वत आदि स्थानों पर पदार्थों के यप में ग्रहण कर लेते हैं।

ज्ञानिनस्तु सदा मुक्ता स्वरूपानुभवेन ड़ड़ड़ड़। अतस्ते पुत्र दत्तानाँ पिण्डापनाँ नैव काँक्षिण॥ -महाभारत

ज्ञानी मनुष्य तो अपने सच्चे स्वरूप को समझकर और तद्नुसार आचरण करके सदा ही मुक्त होते हैं। उनको पुत्रों द्वारा दिये गये पिण्डों की आकाँक्षा कभी नहीं होती।”

यमनियमविधूतकल्मषाणामनुदिनमच्युतसक्तमानसानाम्। अपगतमदमानमत्सराणाँ त्यज भेट दूरतरेण मानवानाम् 26॥ -विष्णु पुराण

जिनके पाप समूह यम नियमों के पालन से नष्ट हो गये है। जिन्होंने मत्सर और अहंकार छोड़ दिया है; उन सच्चे भगवद् भक्तों को हे यमराज! नरक में मत ले जाना।

योग वशिष्ठ में शारीरिक रोगों को व्याधि और मानसिक कष्टों को आधि कहा है। यह दोनों ही प्रकार के दण्ड उभय क्षेत्रों में अनाचरण बरतने के परिणाम हैं आन्तरिक विकृतियों को हटा देने पर इन दोनों ही विपत्तियों से छुटकारा मिल सकता है। इस तथ्य का उल्लेख इस प्रकार हुआ है-

देहदुःख विदुर्व्याधिमाध्यख्यं वासनामयम्। मौर्ख्यमूले हिते विद्यात्तत्त्वज्ञाने परिक्षयः॥

भृशं स्फुरन्तीष्विच्छासु मौर्ख्ये चेतस्यानिर्जिते। दुरान्नाभ्यवहारेण दुर्देशाक्रमणेन च॥

क्षीणत्वाद्वा प्रपूर्णत्वान्नाडोनाँ रन्ध्रसंततौ। प्राणे विधुरताँ याते काये तु विकलीकृते॥ दौस्थित्यकारणं दोषाद्वचाधिर्देहे प्रवर्तते॥ -योग वशिष्ठ

दुःख के दो कारण है एक आधि दूसरा व्याधि। मनोविकारों से आधि और शरीरगत विकृतियों से व्याधि उत्पन्न होती है। दोनों मूर्खता से उत्पन्न होती है और तात्त्विक दृष्टि उत्पन्न होने से समाप्त भी हो जाती है।

अनुचित इच्छाओं से, मूर्खताओं से, कुधान्य खाने से, मर्यादाएँ उल्लंघन करने से, शरीर एवं मन क्षीण होते हैं और नस-नस में मलीनता भर जाती हैं इससे प्राण बिकल रहते हैं और शरीर व्याधियों से भर जाता है।

इन मलीनताओं का परिशोधन करने के लिए प्रायश्चित किया जाता है। इसमें जहाँ उपवास आदि की तितीक्षा आवश्यक मानी गई है वहाँ व्यक्ति एवं समाज को पहुँचाई गई क्षति को पूरा करने के लिए इच्छापूर्ति अधीन पुण्य परमार्थ द्वारा खोदे गये गड्ढे को भरना भी आवश्यक माना गया है।

पातकी च तदर्धेन शुध्यते वृत्तवान्यदि। उपपातकिनः सर्वे तदर्धेनैव सुव्रताः। -लिंग पुराण

पातकी पुरुष उसी आधी प्रायश्चित की विधि से भी शुद्ध हो जाता है अगर वह पुरुष चरित्रवान् होता है। हे सुब्रतो! जो उपपातक करने वाले है वे उसके भी आधे प्रायश्चित से शुद्ध हो जाया करते हैं।

प्रहीता हि गृहीतस्य दानाद्वै तपसा तथा। पापसंशोधनं कुर्यादन्यथा रौरवं व्रजेत्॥

जो धन अनीति पूर्वक लिया है उसे दान द्वारा लौटा देना चाहिए और तपश्चर्या द्वारा उस कुकर्म का प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा न करने पर वह संचित पाप रौरव नरक में धकेलता है।

ग्निहोत्रंतपः सत्यंवेदानाँचैवसाधनम्। अतिथ्यवैष्वदेवंइष्टमित्यभिधीयते॥

वापीकूपतडागानिदेवत यतनानिच। अन्प्रदानमर्थिभ्यः पूर्त्तभित्यभिधीयते॥ -मार्कण्डेय पुराण

अग्नि होत्र, तप, सत्य वेदाध्ययन, तथा अतिथि सत्कार यज्ञ कर्म ‘इष्ट’कर्म कहे जाते हैं। कुँआ, बावड़ी, मन्दिर, अन्न, वस्त्र आदि का दान यह पूर्ति कर्म है। इष्ट और पूर्ति कर्म सदा करते रहने चाहिए।

साधना विज्ञान में भी शारीरिक, मानसिक मलीनताओं के निष्कासन पर जोर दिया गया है। आयुर्वेद में विकार-ग्रस्त शरीरों के मल-शोधन की प्रक्रिया के उपरान्त चिकित्सा का समुचित प्रतिफल मिलने की बात कही गई है। हठयोगी नेति, धोति, वस्ति, नौलि, ड़ड़ड़ड़, कपालभाति, आदि क्रियाओं द्वारा मल-शोधन करते हैं। आयुर्वेद में वमन, विरेचन, स्वेदन, नस्व, आदि शोधन कर्म करके संचित मलों का निष्कासन किया जाता है प्राकृतिक चिकित्सा में यही कार्य उपवास एवं एनीमा के द्वारा किया जाता है। राजयोग में यम, नियमों का विधान है। कुण्डलिनी योग में नाड़ी शोधन की अनिवार्यता है। यों उसका वाहन विधान प्राणायामों की विशेष प्रक्रिया पर आधारित है, पर उसका मूल उद्देश्य शारीरिक और मानसिक क्षेत्र में घुसी हुई विकृतियों का निराकरण ही है-

नादाभिव्यक्ति रारोग्यं जीयते नाडी शोधनात्। -हठयोग. प्र0

नाड़ी शोधन से आरोग्य की प्राप्ति होती है और नादानुसंधान की अभिव्यक्ति ठीक तरह होती है।

द्वासाप्तति सहस्राणाँ नाडीनाँ मलशोधने। कुतः प्रक्षालनोयामः कुण्डल्यभ्यसनाहते॥ -हठयोग

नाड़ियों में भरे मल का प्रक्षालन ही कुण्डलिनी जागरण का आधार है।

नाड़ी शुद्धि समासाद्य प्राणायामं समभ्यसेत्। -घेरण्ड संहिता

नाड़ी शोधन के लिए प्राणायाम का अभ्यास करें।

सूर्यभेदन अनुलोम विलोम प्राणायाम को नाड़ी शोधन के लिए मल शोधन के लिए प्रतीक अभ्यास के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। उससे श्वसन संस्थान की शुद्धि एवं शरीर में अन्यत्र भरे मलों के निष्कासन में सहायता मिलती है, पर उतने से ही सब कुछ सम्भव नहीं हो जाता। यह साधन संकेत यह बताता है कि आत्मिक प्रगति के लिए जितनी साधन सम्पदा संग्रह करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता है उतनी ही संचित कुसंस्कारों का निराकरण करने के लिए प्रायश्चित प्रक्रिया की भी। प्रायश्चित विधान वस्तु मल-शोधन नाड़ी शोधन का ही जीवन व्यवहार में प्रयुक्त होने वाला अति महत्त्वपूर्ण प्रयोग है।


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