आत्मोत्कर्ष की दिशा में चलने के लिये दो चरण

December 1976

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शरीर से कोई महत्वपूर्ण काम लेना हो तो उसके लिए- उसे प्रयत्नपूर्वक साधना पड़ता है। कृषि, व्यवसाय शिल्प, कला आदि के जो भी कार्य शरीर से कराने हैं। उनके लिए, उसे अभ्यस्त एवं क्रिया-कुशल बनाने के लिए आवश्यक ट्रेनिंग देनी पड़ती है। लुहार, सुनार, दर्जी बुनकर, मूर्तिकार आदि काम करने वाले शिल्पों को बहुत समय तक सीखते हैं, तब उनके हाथ उपयुक्त प्रयोजन के लिए ठीक प्रकार सधते हैं। गायक, चित्रकार, अभिनेता, पहलवान आदि को अपने-अपने कार्यों को ठीक तरह कर सकने की देर तक शिक्षा प्राप्त करनी पड़ती है। अस्तु शरीर को अभीष्ट कार्यों के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता सर्वत्र समझी जाती है और उसके लिए साधन जुटाये भी जाते हैं।

शिक्षा का दूसरा क्षेत्र है मस्तिष्क। मस्तिष्क का ही शरीर पर नियन्त्रण है। जीवन की समस्त दिशा धाराओं को प्रवाह देना मस्तिष्क का ही काम है। “बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निबुद्धिस्य कुतोवलम्” सूक्ति में सच ही कहा है जिसमें बुद्धि है, उसी में बल है बुद्धिहीन तो सदा दुर्बल ही रहता है। प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? हाथी को गधे जैसा लदते और सिंह तथा बन्दर को समान रूप से नाचते देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि दुर्बल काम मनुष्य अपने बुद्धिबल से किस प्रकार सृष्टि के समस्त प्राणियों पर शासन कर रहे हैं। इस प्रशासन के अन्तर्गत वे जीव भी आते हैं जो शारीरिक प्रतियोगिता में मनुष्य को हजार बार पछाड़ सकते हैं।

मस्तिष्कीय शिक्षण के लिए ज्ञान और अनुभव सम्पादित करना पड़ता है। जानकारी और अभ्यास की इसके लिए आवश्यकता होती है। इसका बहुत कुछ प्रयोजन स्कूली शिक्षा, साहित्य, सत्संग, मनन, चिन्तन आदि के सहारे पूरा होता है। मस्तिष्कीय क्षमता विकास की उपयोगिता भी सर्वविदित है। इसीलिए अपनी-अपनी परिस्थिति के अनुसार स्कूली अथवा दूसरी प्रकार की शिक्षा पद्धति अपनाई जाती है और जानकारी, समझदारी बढ़ाने के लिए यथासम्भव प्रयत्न किया जाता है शिक्षा का दूसरा चरण जानकारी की कमी को पूरा करना है। इससे विचार शक्ति बढ़ती है, बुद्धि तीक्ष्ण होती है और व्यवहार कुशलता आती है। बौद्धिक विकास के लिए शिक्षा परक जो भी उपाय किये जाते हैं, वे सभी सराहनीय हैं। शारीरिक कुशलता की ही तरह मस्तिष्कीय विकास भी आवश्यक है। अस्तु शिक्षा के इन दोनों क्षेत्रों में अधिकाधिक समावेश करने के प्रयत्नों की प्रशंसा ही की जायगी।

शिक्षा का प्रवेश प्रायः शरीर एवं मस्तिष्क तक ही सीमित रहता है, अन्तःकरण का स्तर बदलने में तथाकथित ज्ञान सम्पादन की कोई विशेष उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। यदि मस्तिष्कीय शिक्षण से आस्थाएँ बदली जा सकतीं तो हर राजनेता सच्चे अर्थों में देश भक्त होता-हर सरकारी कर्मचारी लोक-सेवा में उसी निष्ठापूर्वक संलग्न रहता जैसा कि उसे ट्रेनिंग की पाठ्य पुस्तकों में पढ़ाया गया था तब धर्मोपदेशक नीति और सदाचार का ही आदर्श प्रस्तुत करते दिखाई पड़ते। साधु-सन्तों में से हर एक को ब्रह्मवेत्ता ऋषि रूप में पाया जाता। पर सब वैसा नहीं होता। छद्म मत्सर और आडम्बर को आदर्शवाद की वकालत करने वालों में ही जब भरमार पाई जाती है तो लगता है बौद्धिक शिक्षा शरीर और मस्तिष्क को विकसित करने में कितनी ही उपयोगी क्यों न सिद्ध होती हो, अन्तः करण को उत्कृष्टता की ओर उठाने में उसका नगण्य सा ही योगदान रहता है।

तब प्रश्न उत्पन्न होता है कि व्यक्तित्व को सब अर्थों में सुसंस्कृत और समुन्नत बनाने के लिए क्या किया जाए? इसके उत्तर में एक ही तथ्य सामने आता है। आस्थाओं के सहारे आस्थाओं को उभारा जाय। जंगली हाथी पकड़ने में प्रशिक्षित हाथियों का उपयोग होता है। कांटे से काँटा निकालने और विष से विष को मारने की कहावत प्रसिद्ध है। लोहे को लोहे से काटा जाता है। डूबे को पानी में से निकालने के लिए स्वयं डुबकी लगानी पड़ती है। अन्त:करण के आस्था क्षेत्र को कुसंस्कारों से मुक्त करने के लिए सदुद्देश्यपूर्ण आस्थाओं की नये सिरे से प्रतिष्ठापना करनी पड़ती है।

जीवन के मध्य केन्द्र-मस्तिष्क को अन्तःकरण कहते हैं। उसी की स्थिति व्यक्ति को महान बनाती है और उसी के आधार पर निकृष्टता के गर्त में गिरना पड़ता है। समुन्नत और पतित व्यक्तियों में एक जैसे साधन रहते हुए भी अन्तर क्यों आया? इसका कारण ढूंढ़ना हो तो उसकी आस्थाओं में अन्तर रहना ही प्रधान निमित्त परिलक्षित होगा। धन वैभव की दृष्टि से व्यवहार, कुशलता अवसर, साधन, सहयोग आदि का महत्व हो सकता है, पर व्यक्तित्व के उत्थान पतन की बात तो पूरी तरह व्यक्ति के अन्तःकरण की स्थिति पर ही टिकी हुई है। गीताकार ने व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए ठीक ही कहा है- “श्रद्धामयोऽयं पुरुष योगच्छ्रध: स एव स” अर्थात् यह मनुष्य श्रद्धामय है। जिसकी जैसी श्रद्धा है वस्तुतः वह ठीक वही है। तात्पर्य स्पष्ट है। मनुष्य का स्वास्थ्य,ज्ञान,धन,पद उसका मूलस्वरूप नहीं, वह तो आवरण शृंगार मात्र है जिनकी कभी भी उलट-पुलट हो सकती है। स्थायित्व तो अन्तःकरण में भावास्थित आस्थाओं- विश्वासों आकांक्षाओं पर निर्भर है। वे जिस स्तर की होंगी, मनुष्य उसी के अनुरूप ढलेगा और अन्ततः उसी के अनुरूप उठने, गिरने का आधार बनेगा।

यहाँ समझने योग्य तथ्य इतना ही है कि आवरणों को सब कुछ न मानकर व्यक्ति की मूलसत्ता प्राण चेतना को ऊँचा उठाने की बात सामने हो तो फिर अन्तःकरण को परिष्कृत करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं अब प्रश्न यह उठता है कि यह किया किस प्रकार जाय? उसके दो ही उपाय हैं- 1 आत्म-विश्लेषण के द्वारा स्व सत्ता की स्थिति तथा दिशा का सही बोध कराने वाली आस्थाओं की गहन अन्तराल में प्राण-प्रतिष्ठा की जाय (2) साधनाओं के क्रिया कलाप द्वारा वंचित कुसंस्कारों को उखाड़ने और उत्कृष्ट आस्थाओं जमा सकने में समर्थ प्राणशक्ति को प्रखर बनाया जाय।

प्रथम उपाय के लिए ब्रह्मविद्या का- तत्वदर्शन का- अवगाहन करना होता है। अध्यात्म विज्ञान का ज्ञान-भाग इसी के लिए विनिर्मित हुआ है। आत्मबोध के लिए उच्चस्तरीय स्वाध्याय-सत्संग मनःचिन्तन की आवश्यकता पड़ती है। आत्म-चिन्तन और आत्म मन्थन पर विचार शक्ति को केन्द्रित करना होता है। भगवान बुद्ध और आत्मज्ञानियों को अपनी साधना का केन्द्र बिन्दु इसी को मान कर चलना पड़ा था। अध्यात्म की भाषा में इसे योग कहते हैं। योग का अर्थ है जोड़ना। यह चिन्तन पर प्रक्रिया है। आत्मा को परमात्मा से -जीव को ब्रह्म से -सामान्य के असामान्य से सम्बद्ध करने के लिए चिन्तन का उपयोग भी करना पड़ता है और भावनाओं का भी। ब्रह्म विद्या का विशालकाय-कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। योग क्रियापरक नहीं विचारपरक है। उसकी परिधि में आत्मा और परमात्मा के बीच जुड़े हुए असंख्य सूत्रों का विविध आधारों पर गहन चिन्तन करना पड़ता है। दर्शनशास्त्र की रचना इसीलिए हुई है। इसी परिधि में भावनाओं को उच्चस्तरीय प्रगति की दिशा में उभारना भी आता है। इसे भक्ति कहते हैं। प्रेम का निकृष्ट स्वरूप तो मोह और वासना के स्वरूप जैसा घटिया और घिनौना हो जाता है, पर उसकी ऊँची स्थिति आत्मीयता की संवेदनाओं को अधिकाधिक व्यापक बनाने के रूप में होती है। ‘रमो वैस’ सूत्र में सत्य ही कहा गया है। कि -प्रेम ही परमेश्वर है। इससे बढ़कर सरलता अन्यत्र कहीं है ही नहीं। जिस पदार्थ या प्राणी पर आत्मीयता बखेर दी जाती है उसी में सुन्दरता एवं सरलता की अनुभूति होने लगती है। त्याग, बलिदान, सेवा, उदारता जैसी सत्यप्रवृत्तियों का उभार तभी आता है, जब उच्चस्तरीय ‘प्रेम’ का अन्तराल में उदय होने लगे। प्रेम तत्व की संवेदनाएँ जागृत करने के लिए ‘ईश्वर भक्ति’ के रूप में भावनाएँ उभारनी पड़ती हैं। इसके लिए पूजा, अर्चा, कीर्तन, ध्यान, लीलाओं का श्रवण, दर्शन आदि उपायों को अवलम्बन करना पड़ता है। अर्जुन को विराट् ब्रह्म के रूप में ईश्वर की झाँकी जिस दिव्य दृष्टि से हुई थी उसी को अपनाने से सियाराममय सब जग जानी की श्रद्धा उभरती है और स्वार्थ संकीर्णता से ऊँचे उठ कर लोक-मण्डल की दिशा में चल पड़ने की उमंग क्रियान्वित होती है।

तप आत्मोत्कर्ष का दूसरा चरण है। चेतना के साथ जो तीन कलेवर लिपटे हैं वे सामान्यतया जीवन निर्वाह के आवश्यक क्रिया-कलाप पूरे करने भर के लिए मालूम पड़ते हैं, पर वस्तुतः उनके अन्तराल में शक्तियों और सिद्धियों के अजस्र भाण्डागार छिपे पड़े हैं। इस रत्न राशि को खोज निकालने और उखाड़-उभार कर ऊपर ले आने की वैज्ञानिक पद्धति का नाम तप है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों की मोटी गति-विधियां सर्वविदित है। स्थूल शरीर रक्त माँस का बना- क्रिया-कलाप के उपयुक्त और जीवन धारण की आवश्यक कार्य पद्धति पूरी करने के लिए बना है। सूक्ष्म शरीर से मन और बुद्धि के विविध कार्य सम्पन्न होते है। कारण शरीर भावनाओं का केन्द्र है- इच्छाएँ, प्रेरणाएँ, उमंगें, संवेदनाएं इसी में भरी रहती हैं। इन तीनों शरीरों की मिलीजुली गतिविधियों को जीवन का स्वरूप कहते हैं। यह सामान्य बात हुई। असामान्य को देखा खोजा जाय तो प्रतीत होगा कि शरीर की ओजस्विता-मस्तिष्क की मनस्विता और अन्तःकरण की तेजस्विता की सामर्थ्य कितनी महान है। यह चेतनात्मक ऊर्जाएँ जिसमें जितनी मात्रा में बढ़ी-चढ़ी होती हैं वह उतना ही प्रभावी, पराक्रमी, समुन्नत एवं अभिवंदनीय बनता चला जाता है। यही वह वैयक्तिक चुम्बक है जिसके सहारे सिद्धियाँ सफलताएँ, विभूतियाँ अनायास ही खिंचती चली आती हैं। सामान्य परिस्थितियों में जन्मे और गये-गुजरे साधनों से काम चलाने वाले व्यक्ति भी जब पग-पग पर आने वाले अवरोधों, अभावों, संकटों और संघर्षों का सामना करते हुए दुस्साहसी शूरवीरों की तरह प्रगति पथ पर एक-एक सीढ़ी पार करते हुए सफलता के उच्चशिखर पर जा पहुँचते हैं तो उस चमत्कार के पीछे यही चुम्बकत्व काम कर रहा होता है। इतिहास में ऐसे अनेकों महामानवों की यशगाथाएँ भरी पड़ी हैं। जो परिस्थितियों की दृष्टि से गई-गुजरी स्थिति में रहते हुए भी प्रखर मनःस्थिति के कारण आश्चर्यजनक सफलताएँ प्राप्त कर सकें। उन्हें ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने में कौन शक्ति काम कर रही है, इसकी खोज-बीन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि उनके व्यक्तित्व की प्रखरता ही शक्तिपुंज बनी रही है और उसी ने स्वल्प साधनों के सहारे महानतम प्रयोजन सिद्ध किये।

यह वैयक्तिक चुम्बक हर व्यक्ति के भीतर न्यूनाधिक मात्रा में मौजूद है। वह आत्मा का गुण है। आत्मा की अविच्छिन्न ऊर्जा तीनों शरीरों में तेजस्, मनस् एवं ओजस् के रूप में झाँकती और काम करती देखी जा सकती हैं। जन्मजात रूप से हर व्यक्ति इस क्षमता को अपने साथ लेकर आता है। पर वह प्रमुख स्थिति में रहता है। जिनके पास पूर्व संग्रह है उनमें आरम्भ से ही इनकी अधिकता रहती है। जिनके पास ऐसा संचय नहीं है वे प्रयत्नपूर्वक उसे उभार सकते हैं। तप का प्रयोजन यही है कि व्यक्तित्व रूपी समुद्र में मन्थन क्रिया के द्वारा पौराणिक कथानक की तरह चौदह रत्नों जैसे सिद्धियाँ प्राप्त करने के मार्ग पर चलने का सरंजाम जुटाया जाय।

तप का स्वरूप है तपाना गरम करना। आग पर गरम करने से सामान्य वस्तुओं की भी उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है फिर व्यक्तित्व की प्रखरता उससे क्यों न बढ़ें? कच्चे अन्न को चूल्हे पर पका कर मिष्ठान, पकवान बनते हैं। ईंटों को भट्टे में लगाने से वे टिकाऊ बन जाती हैं। धातुओं को शुद्ध और सुदृढ़ बनाने के लिए उन्हें भट्टी में डाला जाता है। पानी को गरम करने पर जो भाप बनती हैं। उसकी सामर्थ्य से रेल गाड़ियां दौड़ती हैं। भस्में और रसायनें अग्नि संस्कारों से बनती हैं। बारूद में ताप पहुँचते ही भयंकर विस्फोट होता है। गर्मी से अण्डे पकते हैं। कृमि-कीटकों को मानने के लिए आग जलाई जाती है। प्रकाश और शक्ति का वैभव प्रकारान्तर से ताप की ही प्रतिक्रिया है। बिजली क्या है? ताप का ही एक रूप है। शरीर में तभी तक जीवन है जब तक उसका तापमान नियत मात्रा में बना रहे, उसके गिरने पर निष्क्रियता बढ़ती जाएगी और प्राणान्त होकर रहेगा। जितनी मशीनें चलती हैं वे सभी अपने-अपने स्तर के ईंधन माँगती हैं। तेल, कोयला, भाप, गैस आदि तरह-तरह के ईंधन ही अग्नि संयोग से वह शक्ति उत्पन्न करते हैं। जिससे मशीनें काम कर सकें और कारखाने चल सकें। शरीरों को यही ईंधन आहार के माध्यम से मिलता है। गतिशीलता बनाये रहने के लिए गर्मी आवश्यक है। पृथ्वी के पदार्थ और प्राणी अपनी हलचलें जारी रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से प्राप्त करते हैं।

व्यक्तित्व के अनेकानेक घटकों एवं परतों को आवश्यक ताप पहुँचा कर उन्हें उत्तेजित किया जाता है। और जो अद्भुत क्षमताएँ कण-कण में दबी पड़ी हैं उन्हें जागृत बनाकर सामान्य मनुष्यों देव दानव, स्तर तक पहुँचाने में सफल बना जाता है। सफलताएँ किसी के ऊपर आसमान से नहीं बरसतीं, उन्हें पुरुषार्थ का मूल्य चुका कर खरीदा जाता है। पुरुषार्थ को सही दिशा में, सही मात्रा में उत्पन्न एवं नियोजित कर सकने की कुशलता तपश्चर्या के आधार पर उत्पन्न की जाती है। इसलिए प्रत्येक प्रगतिशील व्यक्ति को तप करने के लिए कटिबद्ध होना पड़ता है। भौतिक प्रयोजनों के लिए भौतिक स्तर का और आत्मिक प्रगति के लिए इस प्रकार का तप करना पड़ता है। साधना विधानों की संरचना इसी निमित्त की गई है। प्रत्येक साधक को तप पुरुषार्थ करने पड़ते हैं और उसी के फलस्वरूप अनुदानों, वरदानों के महत्वपूर्ण प्रतिफल प्राप्त होते हैं।

मान्यता है कि देवी-देवताओं की मनुहार मंत्र-तन्त्रों के आधार पर करने से वे प्रसन्न हो जाते हैं और साधनारत व्यक्ति उसके मनोवाँछित वरदान प्रदान करते हैं। इस मान्यता का एक अन्धा पक्ष है दूसरा उजाला। अन्धा यह है कि देवी-देवताओं के लिए उनके मुँह में लार टपकती रही हो और प्रशंसा सुनने एवं सस्ते भेंट उपहार पाने भर से वे किसी पर लट्टू होकर ऐसे वरदान देते हों जो भारी उच्चस्तरीय पात्रता सम्पन्न व्यक्तियों को ही मिल सकते हैं। यदि यह मान्यता सही हो, तो फिर देवी-देवताओं को रिझाना ही लाटरी लगाने की तरह अत्यन्त लाभप्रद व्यवसाय है। साधना विज्ञान में छाई हुई इस मूढ़ मान्यता का कोई आधार नहीं है। न इसके पीछे कोई तर्क है और न आधार।

उजला पहलू यह है कि मानवी अन्तराल में एक से एक अद्भुत क्षमता केन्द्र प्रसुप्त स्थिति में पड़े हैं। यही देवी-देवता हैं। इन्हें साधना पुरुषार्थ में उसी प्रकार बलिष्ठ बनाया जा सकता है जैसे व्यायाम से माँसपेशियों को और अध्ययन से मस्तिष्कीय ज्ञानकोषों को। कारण शरीर का व्यायाम भी तप साधन है। इससे देव संस्थानों को जागृत होने का अवसर मिलता है। देवताओं की सुषुप्ति और जागृति के रोचक कथानक पुराण साहित्य में भरे पड़े हैं। आषाढ़ सुदी एकादशी देवशयनी मानी जाती है और पूरे चार महीने गहरी निद्रा का आनन्द लेकर कार्तिक सुदी एकादशी को देव उठनी(देवोत्थान) पर्व मनाया जाता है। विष्णु भगवान शेषनाग पर निरन्तर शयन ही करते रहते हैं उनकी यह निद्रा भंग न होने पाये इसलिए लक्ष्मी जी पैर दबाती और नारद जी चँवर ठुलाते रहते हैं। शरीर में कुण्डलिनी महाशक्ति सदा सोती ही रहती है बड़े प्रयत्नपूर्वक कुण्डलिनी जागरण होता है षट्चक्र तथा दूसरे शक्ति संस्थान मूर्छाग्रस्त ही रहते हैं। वेधन क्रिया द्वारा उनके स्फुरण उत्पन्न की जाती है। इन समस्त प्रतिपादनों के पीछे एक ही रहस्य है कि अणु-ऊर्जा की तरह इस समस्त विश्व के जड़ चेतन में क्षमता तो अजस्र मात्रा में भरी पड़ी है, पर उसका उपयोग तभी हो सकता है तब जागरण के लिए प्रबल पुरुषार्थ किया जाए। इसी प्रयास को तप साधना कहते हैं। तप से अपने ही अन्तस् के प्रसुप्त को जागृत किया जाता है और उसके फलस्वरूप दिव्य अनुदानों-वरदानों का प्रतिफल मिलता है। यही देवाराधन का उजाला पक्ष है। इस मान्यता के पीछे तर्क भी हैं और तथ्य भी। साधना में सिद्धि मिलने वाली मान्यता इस आधार पर पूर्णतया प्रामाणिक मानी जा सकती है।

संक्षेप में चेतना के भावपक्ष को उच्चस्तरीय उत्कृष्टता के साथ एकात्म कर देने को ‘योग’ कहते हैं। यह आस्थाओं एवं आकाँक्षाओं का परिष्कार है। योगी की मनोभूमि इसी प्रकार की होती है। वह शरीरगत तथा मनोगत वासनाओं, तृष्णाओं की उपेक्षा करता है। उन्हें तुच्छ नगण्य मानता है। तीनों ऐषणाओं से उसे सहज विरति हो जाती है। उसे कण-कण में परमेश्वर दिखाई पड़ता है। हर किसी से प्रेम करने को जी करता है। इस प्रेम में दुलार और सुधार का सन्तुलित और समुचित समन्वय दूरदर्शी विवेक के आधार पर किया गया होता है। योगी की संकीर्ण स्वार्थपरता मिट जाती है। विश्व नागरिक अपने को मानता है वसुधैव कुटुम्बकम् की दृष्टि रहती है और प्राणिमात्र के साथ आत्मीयता का सूत्र जुड़ जाता है। विचारणा में उत्कृष्टता और क्रिया पद्धति में आदर्शवादिता का अधिकाधिक समन्वय होता चलता है। व्यष्टि, समष्टि और प्रकृति के गतिचक्र को समझ लेने के कारण उसे किसी भी प्रिय-अप्रिय स्थिति में असन्तुलन ग्रसित नहीं होना पड़ता है। कमलपयवत् स्थिति बनी रहती है। खिलाड़ी की तरह- रंग-मंच पर अभिनय करने वाले नट की तरह वह अपने प्रयास तो पूरे करता है, पर हार−जीत का मान–अपमान का बोझा नहीं ओढ़ता। जब खेल ही खेलना है तो हर स्थिति में विनोद ही विनोद की मन स्थिति क्यों न रखी जाए? योगी इसी तरह सोचने का अभ्यास कर लेता है।

तपस्वी की गति-विधियों में प्रखरता की ज्योति जगमगाती देखी जाती है। शरीर में आलस्य फटकने नहीं पता। नियमितता और समय व्यवस्था का सदा ध्यान रहता है। सक्रियता और स्फूर्ति के अंग-प्रत्यंग गेंद की तरह उछलते रहते हैं। मन को प्रमाद करने का अवसर नहीं मिलता। हर काम में मनोयोग का समावेश रहने से वे सभी दर्शनीय और प्रशंसनीय बन पड़ते हैं। मन और बुद्धि का आधा-अधूरा प्रयोग करने वाले दीर्घसूत्री ही भूलें करते और भटकते देखे जाते हैं। जिसने मानसिक जागरूकता बनाये रहने का अभ्यास कर लिया है, ऐसा मेधावान् हर बात पर गहराई से सोचता है, विवेकपूर्ण दूरदर्शी निर्णय करता है और जो हाथ में लिया है उसे सफल बना कर रहता है। शरीर और मन को सरकस के जानवरों की तरह सधा लेने पर वे कितने उपयोगी सिद्ध होते हैं। इसे तपस्वी रीति-नीति अपनाने वाले का जीवन विकास क्रम देखकर सहज ही समझा जा सकता है।

तपस्वी न्यूनतम समय और धन में निर्वाह की योजना बनाता है। फलतः उसे अपनी तृष्णा विलासिता पर खर्च होने वाली शक्तियों को बचाने और उन्हें महत्वपूर्ण परमार्थ प्रयोजनों में लगा सकने का अवसर मिल जाता है। महामानवों में से प्रत्येक को संकीर्ण स्वार्थपरता की जंजीरें तोड़नी पड़ी हैं। इसके लिए आवश्यक आत्मबल तपश्चर्या से ही उत्पन्न होता है। सेवा-धर्म अपनाये बिना न आज तक किसी को आत्म सन्तोष मिला है और न किसी की आत्मिक प्रगति हुई है। इस मार्ग पर चलना उदारता, सहृदयता और आत्मीयता से ओतप्रोत अन्तःकरणों के लिए ही संभव होता है। अन्तरात्मा में यह विशेषता तप साधना से ही उभरती है। अन्तः और बाह्य क्षेत्र में घुसी हुई अवाँछनीयताओं से संघर्ष करना- प्रतिपक्ष के आघात बिना उद्विग्न हुए सहते रहना यह शूर-वीरों और दुस्साहसियों का ही काम है। ऐसा दिव्य स्वभाव प्रायः पूत मनःस्थिति में ही उत्पन्न होता है। निकृष्टताओं को उत्कृष्टताओं के साथ जोड़ देने का प्रयोजन तभी पूरा होता है। जब तप में कष्टसाध्य परिस्थितियों से रस आने लगे और उस मार्ग पर चलने में अपना वास्तविक हित दृष्टि-गोचर होने लगे।

धातुओं के टुकड़े जोड़ने में ‘वैल्डिंग’ प्रक्रिया काम में लाई जाती है। तप को आत्मा और परमात्मा को एक सूत्र में जोड़ देने वाली बेल्डिंग पद्धति कह सकते हैं। खदान में से कच्चा लोहा निकलता है। तब उसमें मिट्टी का बहुत बड़ा भाग मिला रहता है। इसे बार-बार भट्टियों में डालकर शुद्ध किया जाता है। इसी क्रम के बार-बार चलने से उसे फौलाद स्टेनलैस स्टील- बनने का अवसर मिलता है। रसायन शास्त्री अभ्रक जैसी सामान्य वस्तु को बार-बार अग्नि संस्कार करके उसे रसायन बना देते हैं। धातुओं के जरण मरण की- विषों के संशोधन करने की-लगातार घोटने-पीसने की विधियाँ चिकित्सा क्षेत्र के रसायन शास्त्र में आती हैं। स्वभाव और संस्कारों की घुटाई पिसाई को तपश्चर्या कहा जा सकता है। एक में पदार्थ को कष्टसाध्य परिस्थिति में प्रवेश करके अपना महत्व बढ़ाना पड़ता है, दूसरे में व्यक्ति को स्वेच्छापूर्वक उच्चस्तरीय प्रयोजनों में अपने ऊपर नियन्त्रणों प्रतिबन्धों और सत्प्रयोजनों के लिए आवश्यक कठिनाइयाँ शिरोधार्य करनी होती हैं। तपस्या इसी को कहते हैं। रंगाई से पहल धुलाई आवश्यक होती है। धोबी कपड़े का मैल छुड़ाने के लिये उसे उबालने, साबुन में गलाने, पत्थर पर पीटने, धूप में सुखाने जैसे कई कठिन उपचार काम में लाता है। यदि ऐसा न किया जाय तो कपड़े की मलीनता दूर न होगी, वह धवल-उज्ज्वल दिखाई न पड़ेगा। रंग तो उस पर चढ़ेगा ही नहीं। व्यक्तित्व को निर्मल बनाने और उच्च संस्कारों से सुसम्पन्न करने की प्रक्रिया को धुलाई, रंगाई के समतुल्य माना जा सकता है। सोने को शोधने से लेकर आभूषण बनाने तक की प्रक्रिया में लगातार अग्नि सम्पर्क और हथौड़े की चोटें सहनी पड़ती हैं। इससे इन्कार करने पर उसे गले का आभूषण और मस्तक का अलंकार बनने का अवसर नहीं मिल सकता। अनगढ़ डेली को चित्राकर्षक अलंकार बना देने का श्रेय स्वर्णकार की उस कुशलता को मिलता है जिसके साथ असीम शुभकामना उज्ज्वल भविष्य की विवेकपूर्ण सम्भावना के साथ-साथ कष्ट सहन करने की विवशता भी जड़ी हुई है। प्राचीन काल में गुरुकुलों का कष्टसाध्य जीवन अमीर घर के बालकों को भी सहन करना पड़ता था। उनके अभिभावक जानने थे कि इससे कम में उनके प्राणप्रिय बालकों का भविष्य उज्ज्वल नहीं हो सकता। पहलवान को अखाड़े में-किसान को खेत में-विद्यार्थी को स्कूल में तप करना पड़ता है। यदि वे सुविधा और सरलता की बात सोचते रहें- मन की मौज को प्रधानता देते रहें तो फिर समझना चाहिए कि इनमें से एक को भी सफलता न मिल सकेगी और उनके मनोरथ किसी प्रकार पूरे न होंगे।

आत्मिक प्रगति के लिए तप मार्ग स्वीकार करने की आवश्यकता इसलिए है कि जन्म जन्मान्तरों के अन्तःकरण पर चढ़े हुए कुसंस्कारों को पशुप्रवृत्तियों का-मल आवरण विक्षेपों का समाधान संभव हो सके। आत्मशोधन की जितनी भी महिमा गाई जाय उतनी ही कम है। हठयोग में नाड़ी शोधन के छह कर्म प्रधान हैं। राजयोग में यम नियम की प्रमुखता है। गुण, कर्म, स्वभाव का परिशोधन प्रथम और आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण ध्यान दूसरा चरण है। जीर्ण रोगियों को चिकित्सक लोकवमन, विरेचन, स्नेन, स्वेदन के पंचकर्मों द्वारा मलशोधन कर्म करते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा का तो आधार ही यह है वस्तिकर्म है और उपवास द्वारा मल-निष्कासन करने की बात को ही रोग-मुक्ति का प्रधान आधार मानते हैं। नये घर में प्रवेश करने से पूर्व उसकी धुलाई-पुताई कराई जाती है। तप द्वारा कुसंस्कारों का निराकरण करना इसलिए आवश्यक है कि उसके बिना वहाँ दैवी सुसंस्कारों का अवतरण सम्भव ही न हो सकेगा। मलत्याग द्वारा पेट खाली कर लेने के उपरान्त ही भूख लगती है और भोजन करने का लाभ मिलता है। गन्दी साँस छोड़ने के पश्चात् ही नाक में नई स्वच्छ साँस का प्रवेश होता है। पाप-प्रायश्चितों की चान्द्रायण व्रत आदि कितने ही कष्ट साध्य उपाय तपश्चर्या में सम्मिलित किये गये हैं। अपने गुप्त पापों को किसी विश्वस्त मार्गदर्शन के सम्मुख खोलकर रख सकने का साहस भी तपश्चर्या का ही एक अंग माना गया है।

कषाय-कल्मषों का दबाव अन्तः करण पर से हट जाने पर उसमें सन्निहित दिव्य शक्तियों का उभार अनायास ही होने लगता है। दर्पण स्वच्छ कर देने पर मुख साफ दीखने लगता है। स्वच्छ जल में ही प्रतिबिम्ब देखा जा सकता है। अंगारे पर चढ़ी हुई राख की परतें यदि हटा दी जाएं तो उस पर छाई हुई कालिमा एवं तेजहीनता दूर हो जायगी और अंगारा अपनी ऊष्मा एवं आभा सहित पूर्व स्थिति में आ जायगा। जंग छुड़ा देने पर लोहा भी चाँदी जैसा चमकने लगता है। यह कार्य तप साधना से ही सम्भव होता है।

मानवी व्यक्तित्व को विभूतियों की रत्न-राशि का भण्डार कहा जा सकता है। शरीर को साध लेने वाले कितने प्रतिभाशाली, बलिष्ठ, सुन्दर एवं दीर्घजीवी होते हैं।

यह सभी जानते हैं और यह किसी से भी छिपा नहीं है कि सशक्त स्फूर्तिवान शरीर वाले कितनी साँसारिक सफलताएँ प्राप्त करते हैं। कहना न होगा कि शरीरगत दिव्य क्षमताओं को विकसित कर सकना तप साधना द्वारा सम्भव हो सकता है। शरीर के अंग प्रत्यंगों पर उसकी गतिविधियों पर नियन्त्रण कर लेने से शारीरिक विद्युत का संचय और उपयोग सीख जाने से मनुष्य अपनी इतनी विशेषताएँ- असामान्यताएँ प्रदर्शित कर सकता है। जिन्हें देखकर लोग आश्चर्यचकित होने लगें।

मस्तिष्कीय शक्तियों की खोज बीन करने वाले वैज्ञानिक खोपड़ी में रखे हुए इस छोटे से किन्तु अत्यन्त रहस्यमय कम्प्यूटर की महत्ता और सम्भावना पर विचार करते-करते दंग रह जाते। साधारणतया मस्तिष्क सोचने समझने के काम आने वाला अवयव मात्र है, पर गम्भीरता से देखने पर पता चलता है कि दैनिक जीवन में तो मस्तिष्क का सात प्रतिशत भाग ही काम आता है। शेष 63 प्रतिशत चेतन-अचेतन की परतें इतनी चमत्कारी हैं कि उनकी सम्भावनाओं का कोई अन्त नहीं। इन दिनों मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमता के सम्बन्ध में पैरासाइकोलॉजी-न्यूरोलॉजी-मैटाफिजिक्स-ऑकल्ट साइन्स आदि के क्षेत्रों में गहरी खोजे हो रही हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मानवी मस्तिष्क जादू का पिटारा है। उसमें भरे हुए रहस्य-घटकों को समझा उभारा जा सके तो अब तक हुई भौतिक प्रगति से असंख्यों गुने आधार हर व्यक्ति में भरे-पूरे पाये जा सकते हैं। त्रिकालदर्शी ऋषियों ने अपने भीतर असंख्य ऋषि-सिद्धियों के भण्डार तप साधना द्वारा जागृत किये थे। ध्यान, धारणा प्रत्याहार और समाधि यह चार साधनाएँ मस्तिष्कीय संस्थान के परिशोधन का उद्देश्य पूरा करती हैं।

अन्तःकरण-कारण शरीर-जीव और ईश्वर के मिलन संगम का केन्द्र है। तप साधना द्वारा अन्तरात्मा को परमात्मा स्तर तक पहुँचाया जा सकता है। और वह स्थिति पैदा की जा सकती है कि ईश्वर साक्षात्कार का आत्मसाक्षात्कार का परमानन्द लाभ लिया जा सके। ईश्वर ही इस सृष्टि का अधिपति और यदि गहन सम्पर्क सम्भव हो सके- आत्मीयता जुड़ सके- तो फिर पारस्परिक आदान-प्रदान में कोई कमी-कोताही नहीं रहती। व्यक्ति आत्म-समर्पण करके ईश्वर को अपना सब कुछ सौंपता है। साथ ही जो उसके पास है वह सब कुछ प्राप्त भी कर लेता है। यह उभयपक्षीय सौदा पटाने में अन्तरात्मा को तप प्रक्रिया द्वारा उच्चस्तरीय बनाया गया है। पार्वती ने शिव को पाया। भागीरथ ने गंगावतरण सम्भव किया-आगस्त्य ने समुद्र को सुखाया जैसे पौराणिक उपाख्यान तपश्चर्या के फलस्वरूप मिलने वाले देव वरदानों की ओर संकेत करते हैं। प्राचीनकाल की ऋषि परम्परा में तपश्चर्या ही वह अस्त्र था जिसके सहारे उन्हें इसी माँस पिण्ड में देवात्मा के अवतरण का सुयोग-सौभाग्य मिल सका।

चेतना का परिष्कार एवं उत्कर्ष मानव जीवन का सबसे बड़ा लाभ एवं पुरुषार्थ है। अपूर्णता से पिण्ड छुड़ाकर पूर्णता प्राप्त करना- भवबन्धनों को काट मुक्ति के अधिकारी बनना-आत्मा और परमात्मा की एकता सम्भव करना यही तो जीवन लक्ष्य है। यह प्रयोजन आत्म विकास से भी सम्भव होता है। पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करके ही हम महत्वपूर्ण एवं स्थायी उपलब्धियाँ प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए योग तप का साहचर्य लिये बिना और उपाय नहीं। योग से चेतना को, चिन्तन को, आस्था-आकाँक्षा को, आत्मसत्ता को उस महानता के साथ जोड़ा जाता है जो सर्वसमर्थ और सर्वोपरि है। विषयानन्द की नगण्य सी अनुभूति से यह आभास मिल सकता है कि ब्रह्मानन्द कितना अधिक उल्लासपूर्ण हो सकता है। यह उपलब्धि योग साधना का ही प्रतिफल है। नाला गंगा में मिल कर गंगा बनता है-बूँद समुद्र में मिल कर समुद्र हो जाती है। स्त्री आत्म-समर्पण करके पति की प्राणबल्लभा बनती है। आत्मा ईश्वर में जुड़कर परमात्मा बनता है। योग का लक्ष्य है आत्मा को परमात्मा से जोड़ देना। यह भाव प्रक्रिया है इसमें करना कुछ नहीं पड़ता मात्र चिन्तन और भाव संवेदन से समुद्र में अधिकाधिक गहराई तक प्रवेश करते ही चला जाना पड़ता है।

तप में तीनों शरीर तपाने पड़ते हैं। उन पर चढ़े कल्मषों का निराकरण और दबे हुए शक्ति स्रोतों का जागरण यही है तपश्चर्या का उद्देश्य। हम योग और तप का महत्व समझें उनकी ओर कदम बढ़ाएं तो इसी जीवन में उतना कुछ प्राप्त कर सकते हैं जिस पर संसार भर के विलास-वैभव को निछावर किया जा सके।


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