प्रथम धर्म-चक्र प्रवर्तन में कुछ जिज्ञासुओं को जीवन की सही दिशा में अभिप्रेरित कर तथागत ने आत्म-कल्याण के लिए सभी मुमुक्षु जनों को आह्वान किया, और हजारों लोग ‘धर्मं शरणं गच्छामि’ की प्रतिज्ञा कर आगे आये। इस आह्वान को घर-घर पहुँचाने के लिए जो उत्साही जन कृतसंकल्प हुए उन्होंने समस्त पारिवारिक और साँसारिक दायित्वों से उपराम हो कर स्वयं को लोक कल्याण के लिए समर्पित करने को आत्मदान किया।
इन्हीं लोक-सेवी उत्साही और संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठ कर लोक मंगल का कार्य करने के लिए उद्धत मनस्वी साहसियों का एक संगठन बना- भिक्षु संघ और संघ के सदस्य भिक्षु कहे जाने लगे।
एक-एक भिक्षु का तथागत को ध्यान था और यह भी कि कौन-कैसा है। एक बार उन्हें किसी भिक्षु का समाचार नहीं मिला और न ही वह दिखाई दिया। अपने समीप खड़े भिक्षु भदन्त आनन्द से उन्होंने पूछा कि अमुक भिक्षु कहाँ है तो भदन्त-आनन्द ने उत्तर दिया-वह अतिसार से पीड़ित है।’
सुनते ही तथागत बोले—‘चलो उसे देख आयें।’
भदन्त आनन्द और कुछ अन्य भिक्षु भी बुद्ध के साथ हो लिए। बुद्ध ने देखा रुग्ण भिक्षु अपनी कुटिया में अकेला बेसुध पड़ा है। किसी के द्वारा परिचर्या न किये जाने के कारण वह कुटिया में ही मल-मूत्र से लिपटा सना पड़ा था। भगवान ने उसे देख कर कहा- ‘भाई तुम्हें क्या कष्ट है।’
‘मुझे अतिसार है भगवन्’-भिक्षु ने कहा।
“क्या? कोई भी तुम्हारी परिचर्या को नहीं आया?’
‘नहीं आया भगवन्।’
‘तो भिक्षु ऐसा क्यों हुआ कि भिक्खुभाल तुम्हारी देखभाल नहीं करते?’
‘भगवन् वे सब योग साधनाओं में निरत रहते हैं मैंने यही सुना है। इसलिए उन्हें मेरी चिन्ता नहीं है, यह भी वे लोग कहते हैं।
अपने पास खड़े भिक्षुओं से कुछ न कहते हुए तथागत ने भदन्त आनन्द से कहा-‘जाओ आनन्द, जल ले आओ। हम इस भाई की सेवा करेंगे।’
‘हाँ भगवान्!’ आनन्द ने कहा और जल लेने को चल दिया। जब जल कलश आ पहुँचा तो भगवान् ने स्वयं जल डाला और अपने ही हाथों से भिक्षु का सारा शरीर धोया। तथागत को स्वयं परिचर्या करते देख वहाँ खड़े भिक्षुगण भी परिचर्या में हाथ बँटाने लगे। तथागत ने किसी से कुछ कहा नहीं।
संध्या होने को थी। साँध्यकालीन प्रार्थना के लिए सभी भिक्षुगण एकत्र हो रहे थे। परिचर्या के उपरान्त तथागत बैठक में पहुँचे और उन्होंने बिना किसी भूमिका के भिक्षुओं को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘भाइयो, क्या हममें से कोई एक भिक्खु रोगी है।
‘हाँ भगवन्, है तो!
‘उसे क्या कष्ट है।’
‘भगवन् उस भाई को अतिसार है।’
‘उसकी देख-भाल कौन कर रहा है?’
‘कोई नहीं।’
‘क्यों?’
सब चुप थे। थोड़ी देर सन्नाटा छाया रहा फिर बुद्ध ही बोले-‘‘मैं जानता हूँ। तुम सब को अपने आत्म-कल्याण की चिन्ता है, पर याद रखो योग साधनाओं से वह सम्भव है या नहीं यह तो मुझे ज्ञान नहीं, पर जो सच्चे हृदय से दुःखी जनों की सेवा निष्काम भाव से करते हैं उनकी स्वर्ग मुक्ति आत्म-कल्याण सर्वथा अक्षुण्ण है, उसे कोई भी उससे विचलित नहीं कर सकता।