अपनों से अपनी बात- - इस वर्ष के बसन्त पर्व का विशेष उद्बोधन

December 1976

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बसन्त पर्व अपने मिशन की जन्म-जयन्ती है। जो अखण्ड-ज्योति का-उसके लक्ष्य एवं क्रिया-कलाप का महत्व समझते हैं, उनके लिए यह स्वाभाविक है कि इस पर्व की गरिमा समझें और उस अवसर पर अपनी भाव भरी अभिव्यंजना व्यक्त करें।

बसन्त पर्व यों ज्ञान और विज्ञान की देवी भगवती सरस्वती के अवतरण का दिन है। शिक्षा और विद्या की गरिमा को जन-जन के मन में प्रतिष्ठापित अभिवर्धित करने के लिए उस दिन सर्वत्र समारोह मनाये जाते हैं और विश्वास किया जाता है कि सरस्वती का अवतरण प्रकृति में बसन्ती बहार लाने के लिए ही नहीं, श्रद्धावान अन्तःकरणों में भी हर्षोल्लास भरा नव-जीवन संचार करता है। इसी आशा एवं अपेक्षा से विज्ञ जन बसन्त पर्व मनाते हैं और उस दिन संगीत साहित्य कला की भाव भरी झाँकी जन-साधारण के सामने प्रस्तुत करते हैं। पेड़-पौधे नई कोपलों से, नये पुष्पों से अपने को सजाते हैं, पक्षियों के चहकने, फुदकने में नवोत्साह देखा जाता है। मयूर कोकिल भ्रमर, तितली जैसे क्षुद्र प्राणियों का उल्लास अभिव्यक्ति देखते ही बनती है। प्राणि जगत के अन्तराल में एक उमंग उभरती है और वे उसका कोई अन्य उपयोग कर सकने में समर्थ न होने के कारण यौनाचार में उत्साह व्यक्त करके सन्तोष करते हैं। बसन्त पर्व को कलात्मक उल्लास से उभार कर सनातन मुहूर्त माना जाय तो इसमें कुछ अत्युक्ति न होगी।

अखण्ड-ज्योति की सूत्र संचालक सत्ता इस अवसर पर लगातार चिर-नवीन अनुदान प्रस्तुत करती रही है। मिशन के प्रायः सारे ही महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप इसी शुभ मुहूर्त में आरम्भ होते रहे हैं। 24 वर्षीय तप-साधना से भरी-पूरी 24 गायत्री महापुराणों की शृंखला बसन्त पंचमी को ही आरम्भ हुई। अखण्ड घृत दीप ने उसी दिन दिव्य आलोक धारण किया। अखण्ड-ज्योति पत्रिका का प्रकाशन, गायत्री तपोभूमि का शिलान्यास, युग-निर्माण योजना का आरम्भ बसन्त पंचमी को ही हुआ है। वेद,शास्त्र, पुराण आदि आर्ष ग्रन्थों के अनुवाद, सम्पादन के कार्य किसी न किसी वर्ष को बसन्त पंचमी में ही शुरू किये जाते रहे हैं। शान्ति कुँज की नींव उसी मुहूर्त में रखी गई और महिला जागृति अभियान का अंश उसी दिन फूँका गया और अनेकों प्रकट अप्रकट क्रिया-कलाप हैं, जिनका शुभारम्भ बसन्त पर्व के अवसर पर उठने वाली प्रकृतिगत ही नहीं आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उठने वाली उमंगों के सहारे ही सम्पन्न किया जाता है। अस्तु अखण्ड-ज्योति मिशन का- उसके सूत्र संचालक का जन्म-दिन इसी अवसर पर मनाया जाता है। पिछले 40 वर्षों से लगातार इस त्यौहार को ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्य अपना विशेष उत्सव मानते आये हैं और उसे एक पुनीत परम्परा के रूप में हर्षोल्लास भरे आयोजनों की व्यवस्था बनाते रहे हैं। इस वर्ष यह पुनीत पर्व सोमवार ता0 24 जनवरी 77 को है। स्वभावतः परिजन अपने-अपने ढंग से उसे मनावेंगे ही। भीतर से उठने वाली उमंग को उभारने और उसे रचनात्मक दिशा देने की दृष्टि से इस प्रकार के हर्षोत्सवों का अपना महत्व होता है, उनकी मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक प्रतिक्रियाएँ होती हैं और उपयोगी वातावरण बनता है इसलिए इन आयोजनों के लिए प्रोत्साहन एवं मार्ग-दर्शन भी दिया जाता रहता है। इसलिए उनकी आवश्यकता भी है और उपयोगिता भी। बसन्त पर्व ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्यों द्वारा छोटे बड़े रूप में जिस प्रकार मनाया जाता है कदाचित् ही अन्य किसी संगठन द्वारा उस उत्साह से मनाया जाता हो।

आमतौर से सामूहिक गायत्री जप, हवन, कीर्तन, संगीत, प्रवचन और दीपदान के कार्यक्रम चलते हैं एकत्रित जन-समूह का मिशन की प्रगति यात्रा का परिचय कराया जाता है और भावी योजनाओं का स्वरूप बताते हुए वर्तमान में क्या किया जाना चाहिए? इस पर प्रकाश डाला जाता है। इस वर्ष भी वह परम्परा निबाही जायेगी। जहाँ जैसे बन पड़ेंगे वैसे उत्सव, आयोजन होंगे पर यह तो एक दिन की बात हुई। यदि उसी दिन उमंग उठे और उसी दिन समाप्त हो जाए तो समझना चाहिए कि यह बाल-क्रीड़ा जैसी लकीर पिटने-घर घरौंदा बनाने, बिगाड़ने जैसी चिह्न पूजा हुई। इससे वह ठोस बात बनी नहीं जो इन पर्वों की प्रेरणा के फलस्वरूप बननी चाहिए।

बसन्त पर्व हमारा आध्यात्मिक जन्म-दिन है। उसी दिन ऐसा नया आलोक मिला था जिसके प्रकाश में लम्बी मंजिल पार करते हुए-उपयोगी सफलताओं का रसास्वादन करते करते यहाँ आ पहुँचे, जहाँ आज हैं। भविष्य में भी कुछ और महत्वपूर्ण बन पड़ा तो वह उसी प्रकाश का वरदान होगा जिसे ‘अखण्ड-ज्योति’ नाम देते रहें हैं और जो घृत दीपक में ही नहीं हमारी अन्तरात्मा के मर्मस्थल में अनवरत आलोक दे रही हैं। यदि ऐसी ही प्रेरणा परिजनों को मिले, यदि ऐसे ही प्रकाश स्फुल्लिंग उन्हें प्राप्त हों तो समझना चाहिए कि पर्व का महत्व और उस पर किया गया आयोजन सार्थक हो गया।

बसन्त पर्व यदि हम अपना सर्वश्रेष्ठ त्यौहार मानते हैं और उसे मिशन के जन्म दिन तथा बढ़ते हुए प्रगति चरणों का आधार मानते हैं तो वह दिन आने से पूर्व ही यह निश्चय किया जाना चाहिए कि बसन्त वर्षारम्भ के दिन से हम क्या कोई ऐसा कदम उठा सकते हैं जो जीवन-लक्ष्य को पूरा करने में सहायक सिद्ध हो और अपने प्राणप्रिय मिशन को अग्रगामी बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण अनुदान प्रस्तुत करा सके। यह कार्य वर्तमान दृष्टिकोण और क्रियाकलाप में कुछ उत्साहपूर्वक परिष्कार करने से ही सम्भव हो सकता है। उत्कृष्टता की ओर बढ़ने की कल्पनाएँ करते रहने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, बात तो साहसिक कदम बढ़ाने से बनती है।

बसन्त पर्व पर परिजनों की मिशन के लिए एक श्रेष्ठ श्रद्धांजलि ‘अखण्ड-ज्योति’ पत्रिका की सदस्य संख्या बढ़ाने के रूप में दी जाती रही है। इस वर्ष वह उत्साह घटना नहीं बढ़ना ही चाहिए। साधना स्वर्ण जयंती वर्ष इसी बसन्त पर्व को समाप्त होगा। इसमें उपासना, भावना एवं शुभ-कामना के स्तर पर प्रायः सभी परिजन भागीदार बने हैं। इस वर्ष की पूर्णाहुति अखण्ड-ज्योति के सदस्यों की संख्या दुगनी कर देने के रूप में की जा सकती है। यह प्रकट तथ्य है कि मिशन का विस्तार पत्रिका के पृष्ठों पर लिपटे रहने वाले प्राण द्वारा ही सम्भव हुआ है। उसका सम्पर्क क्षेत्र बढ़ेगा तो अभीष्ट वातावरण बनने और समर्थ सहकर्मी मिलने की सम्भावना बढ़ेगी। जितने पाठक इन दिनों हैं उतने ही बने रहे तो समझना चाहिए कि मिशन का विस्तार जहाँ का तहाँ स्थिर होकर रह जायगा। यह भली भाँति स्मरण रखने योग्य तथ्य है कि मिशन को परिपक्व, परिपुष्ट करने के लिए अखण्ड -ज्योति की ग्राहक संख्या बढ़ाने के लिए प्रयत्न करना, बसन्त पर्व पर प्रस्तुत की गई सर्वोत्तम श्रद्धांजलि है- इसके लिए प्रयास आज से ही आरम्भ कर देने चाहिए और सहयोगियों की टोलियाँ बनाकर उसे पर्व दिन कर देने का संकल्प इसी प्रकार सम्भव हो सकेगा।

अगले वर्ष हमारे व्यक्तिगत जीवन में साधना, स्वाध्याय, संयम और सेवा इन चार आध्यात्मिक प्रगति के चार-उपचारों को अधिक प्रखर बनाने में जो उपेक्षा बरती जाती रही है उसका अब अन्त होना चाहिए। दैनिक जीवन में इन तथ्यों के लिए भाव भरा एवं सुनिश्चित स्थान रहना चाहिए। कौन, क्या, कैसे करे, यह तो व्यक्तिगत परिस्थितियों पर निर्भर है, अस्तु स्वयं निर्धारण करने और स्वयं कार्यक्रम बनाने की बात है। दूसरे परामर्श भर दे सकते हैं, पर करना तो स्वयं ही पड़ता है। अपनी मनः स्थिति और परिस्थिति के साथ उत्कृष्टता का ताल-मेल बिठाना अपना ही काम है। विज्ञ परिजन इन आधारों पर इस वर्ष की तुलना में अगले वर्ष अधिक कुछ करेंगे ऐसी आशा, अपेक्षा की जाती है।

हम सब के उत्साह अंशदान की नियमितता स्थिर करने और बढ़ाने की दिशा में जागृत होने चाहिए। युग निर्माण अभियान के प्रत्येक सहयोगी पर यह अनिवार्य शर्त लदी हुई है कि उसे एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य का न्यूनतम अनुदान ज्ञान यज्ञ के लिए देते रहना चाहिए। खेद है कि इस श्रद्धा परख की कसौटी की उपेक्षा की गई और एकाध माला जपकर देने का सस्ता नुस्खा ही सब कुछ मान लिया गया। अध्यात्म एक उत्कृष्ट जीवन-पद्धति का नाम है जिसमें देवत्व के एकमात्र प्रमाण देने की दिव्यता का प्रमाण प्रस्तुत करना पड़ता है। इसी का नाम अंशदान है। चूँकि अपने युग में सबसे बड़ा दुर्भाग्य सद्ज्ञान का है। किन्तु चिन्तन ने ही हर क्षेत्र में भयंकर विपत्तियाँ खड़ी की हैं और समस्याएँ उलझाई हैं। इनका उपचार-विचार क्रान्ति के अतिरिक्त दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता। ज्ञान-यज्ञ के नाम पर जन-मानस के परिष्कार का पुण्य प्रयास इसी प्रयोजन के लिए चल रहा है। भजन-पूजन के समतुल्य ही जीवन-क्रम में आदर्शवाद के इस समन्वय को भी आवश्यक समझा जाना चाहिए। इस दिशा में बरती गई उपेक्षा बताती है कि अध्यात्म को व्यवहार में उतारने की आवश्यकता नहीं समझी गई और अमुक कर्मकाण्डों को ही ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने का सस्ता नुस्खा समझने की भूल अपना ली गई।

इस बसन्त पर्व से हम में से प्रत्येक के घर में ज्ञान घट स्थापित हो जाने चाहिए। वे मथुरा से मँगाये जा सकते हैं अथवा ऐसे ही सामान्य डिब्बा काम में लाया जा सकता है। न्यूनतम राशि दस पैसा उसमें नित्य नियमित रूप से डाली जाय। जहाँ अन्नघटों की स्थापना सुगम लगती है वहाँ उसे अपनाया जाय। नित्य सत्कर्म से स्वभाव का निर्माण होता है-संस्कार बनते हैं इसलिए प्रश्न पैसों का नहीं प्रवृत्ति को हर दिन प्रखर करते रहने का है। इस पैसे को सद्ज्ञान प्रचार के लिए संगठित रूप से खर्च करना अधिक लाभदायक सिद्ध होता है। दस ज्ञानघटों पर भी एक शाखा बन सकती है। उसी संग्रहीत राशि को मासिक बजट बनाकर अपने क्षेत्र में सद्ज्ञान प्रसार का कार्यक्रम बनाया जा सकता है और उसमें वह राशि लगाई जा सकती है।

एक घण्टा समय का उपयोग भी दैनिक रूप से ही होना चाहिए। अपने सम्पर्क क्षेत्र में दस व्यक्ति इसलिए चुन लिए जाएं कि उन तक अपना सत्साहित्य पहुँचाते और वापस लाते रहने का क्रम नियमित रूप से चालू रखा जायगा। घर में, पड़ोस में, सम्पर्क क्षेत्र में ऐसे विचारशील व्यक्ति ढूंढ़ने पर मिल ही सकते हैं जिनमें सद्विचारों के प्रति अभिरुचि हो। न हो तो इन प्रेरणाओं के सहारे मिलने वाले सत्परिणामों का माहात्म्य बताते रहने से उस प्रकार की ज्ञान पिपासा जगाई जा सकती है। जब चाय का प्रचार आरम्भ ही हुआ था तो उसका चस्का लगाने के लिए चाय प्रचारक तरह-तरह के आकर्षक उपाय काम में लाये थे। उसी का परिणाम है कि चाय के बिना महलों से लेकर झोंपड़ी तक का काम नहीं चलता। सद्ज्ञान के प्रति आकर्षण उत्पन्न करने का प्रयत्न ही नहीं किया गया, अन्यथा शिक्षित लोग प्रेरणाप्रद विचारों को पढ़ने और बिना पढ़े सुनने के लिए बेतरह लालायित पाये जाते। जन-मानस के परिष्कार का लक्ष्य जन-सम्पर्क बनाने और नवयुग की प्रेरणाएँ उनके गले उतारने के अतिरिक्त और कुछ है नहीं। इस प्रयत्न को जितना उपेक्षित रखा जायगा, मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ उतनी ही धूमिल बनी रहेंगी।

सद्ज्ञान प्रसार के लिए एक घण्टा समय और सत्साहित्य एवं अन्य प्रचार साधनों के लिए दस पैसा यदि कुछ ही निष्ठावान अपने क्षेत्र में खर्च करते रहें तो थोड़े से समय में वहाँ जन-जागृति के,रचनात्मक सत्प्रवृत्तियों के चिन्ह स्पष्ट रूप से उभरे हुए दिखाई देने लगेंगे।

टोली संगठन दस व्यक्तियों के हो सकते हैं। ‘एक से दस’ वाली प्रक्रिया यदि अपना ली जाय। सम्पर्क से प्रभावित व्यक्ति को स्वयं प्रचारक बनकर नये दस के साथ अपना स्वतन्त्र संपर्क बनाने और झोला पुस्तकालय चलाने के लिए सहमत किया जा सके तो समझना चाहिए कि नौ प्रचार पीढ़ियों में ही सारा देश मिशन के भावनात्मक प्रचार क्षेत्र के अन्तर्गत होगा। (1) एक से दस (2) दस से सौ (3) सौ से हजार (4) हजार से दस हजार (5) दस हजार से लाख (6) लाख से दस लाभ (7) दस लाख से एक करोड़ (8) एक करोड़ से दस करोड़ (9) दस करोड़ से एक अरब। अपने देश की आबादी मात्र 60 करोड़ है जिसमें बाल-वृद्ध, अपंग, रुग्ण, लोग घटा दिये जायं तो चालीस करोड़ से भी कम लोग ऐसे रह जायेंगे जो सद्विचारों को समझने, अपनाने की स्थिति में हैं। इस से दस की प्रचार प्रक्रिया को यदि अपना लिया जाय तो इस आधार पर कुछ ही समय में जन-मानस के परिष्कार का लक्ष्य अपने देश में तो पूरा हो ही सकता है। अखण्ड-ज्योति पाठकों में से प्रत्येक को नव-निर्माण के लिए अंशदान की श्रद्धा अभिव्यक्ति पूरी निष्ठा के साथ अपना लेनी चाहिए और संकल्पपूर्वक दैनिक जीवन का अविच्छिन्न अंग मानकर अनिवार्य नित्य कर्म की तरह जारी रखना चाहिए।

यों यह कार्य एक मनस्वी व्यक्ति पूर्णतया एकाकी प्रयत्न के आधार पर आरम्भ कर सकता है पर अधिक अच्छा यह है कि इसे टोलियाँ बनाकर किया जाय। कई उत्साही कार्यकर्ता जहाँ हों, वहाँ वे अपना-अपना कार्यक्षेत्र बाँट लें और एक दूसरे की टोली को टीम के आधार पर कार्यक्षेत्र विकसित, विस्तृत करते रहने में सहायता करें। एक टोली में कम से कम 10 और अधिक से अधिक 20 व्यक्ति रहें। उससे अधिक संख्या बढ़ने पर किसी उत्साही एवं प्रामाणिक सदस्य को प्रमुख बनाकर नई टोली बनायी जाय। ऐसी कई टोलियाँ जहाँ हैं वहाँ सहज ही शाखा संगठन बन जाता है और प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं सुधारात्मक कार्यक्रमों की शृंखला उत्साहपूर्वक सहज ही आगे बढ़ चलती है।

जहाँ शाखा संगठन बने हुए हैं वहाँ उन्हें हर साल वार्षिकोत्सव करने की परम्परा आरम्भ कर देनी चाहिए। जिस प्रकार कितनी ही जगह रामलीला का प्रचलन है। हर साल होती है। स्थानीय धार्मिक मेलों की भी जहाँ तहाँ परम्परा है, वह हर साल एक नियत व्यवस्था के अनुरूप सम्पन्न होते रहते हैं। ठीक इसी प्रकार जहाँ भी मिशन का ढाँचा वस्तुतः प्राणवान और जीवन्त हो वहाँ साल में एक बार वार्षिकोत्सव मनाने की परम्परा इसी साल से आरम्भ कर दी जानी चाहिए।

भविष्य में अपने उत्सव, आयोजन छोटे किन्तु ठोस कार्यक्रम बनाने और उन्हें कार्यान्वित करने की दृष्टि से संपन्न हुआ करेंगे। कोई बड़ा तमाशा खड़ा करके भीड़ कभी भी इकट्ठी की जा सकती है, पर उससे प्रदर्शन के अतिरिक्त और कोई बड़ा ठोस काम नहीं होता। भावी आयोजनों में भारतीय संस्कृति के माता-पिता-गायत्री यज्ञ तो जुड़े रहेंगे, पर उनका कलेवर सामान्य रहेगा। अब कुण्डों की संख्या अधिक होने के आधार पर आयोजन के बड़े या महत्वपूर्ण होने की बात मन से बिलकुल निकाल दी जानी चाहिए। पाँच कुण्ड या नौ कुण्डों के गायत्री यज्ञ पर्याप्त हैं। अब कुण्डों की संख्या घोषित करने की कहीं कोई आवश्यकता नहीं समझी जानी चाहिए। “गायत्री महायज्ञ एवं युग-निर्माण सम्मेलन” का उल्लेख करना ही पर्याप्त है।

जीवन्त शाखा संगठनों में प्रायः बीस ज्ञानघट आसानी से चालू रह सकते हैं। इसकी आमदनी 60) मासिक अर्थात् 720) वार्षिक होती है। किफायत का बजट बना कर चला जाय तो 500) में छोटा वार्षिक आयोजन हो सकता है शेष 220) समय-समय पर होते रहने वाले छोटे आयोजनों के लिए पर्याप्त हो सकते हैं। वर्ष में दो पर्व बसन्त पंचमी और गुरुपूर्णिमा के हर जीवन्त शाखा में मनाये ही जाने चाहिए। छह-छह महीने बाद पड़ने वाले यह आयोजन स्थानीय परिजनों की मूर्छना को झकझोरने के लिए अच्छे उद्बोधन का काम करेंगे। वार्षिकोत्सव सर्वसाधारण तक मिशन के प्रति अनुराग और उत्साह उत्पन्न करने का काम देगा। इस प्रकार वर्ष में तीन समारोह जहाँ होंगे वहाँ से यह शिकायत कभी सुनने को न मिलेगी कि संगठन शिथिल हो गया और गतिविधियाँ ठण्डी पड़ गईं।

एक घण्टा समय दान का उपयोग निरन्तर तो झोला पुस्तकालय चलाने और ‘एक से दस’ कार्यक्रम के अनुसार विचार, विस्तार के लिए जन-सम्पर्क बढ़ाने के लिए है, पर उससे अतिरिक्त समय, निकालकर अथवा उसी में कटौती करके पारिवारिक आयोजनों का -क्रम जारी रखना इनमें से जिन्हें आता हो वे अपना स्थान अभी से सुरक्षित करा लें।

अगले वर्ष कन्या प्रशिक्षण में वे लड़कियाँ ली जायेंगी। जिन्हें महिला जागरण के लिए कुछ करने की उमंग तथा परिवार वालों की सहमति है। जिन्हें लोकसेवा में कोई रुचि नहीं, मात्र संगीत या उद्योग सीखने की निजी दृष्टि ही जिनमें प्रधान है उन्हें भेजने से समय और शक्ति व्यर्थ नष्ट होती है। इसी प्रकार जो लड़कियाँ मानसिक दृष्टि से अविकसित हैं उन्हें ठेल देना भी उचित नहीं। लड़कियों के अभिभावकों को उनका भोजन व्यय उठाना पड़ता है और संस्था को इस प्रशिक्षण की सुविधा सामग्री जुटाने में प्रायः हर लड़की पर 100) मासिक खर्च करना पड़ता है। इसकी उपयोगिता तभी है जब प्रतिभाशाली लड़कियाँ आयें और जो सीखा है उसका लाभ अपने अपने यहाँ महिला जागृति की उमंग उत्पन्न करने में लगा सकें।

इन सब बातों को ध्यान में रखकर ही अगली जुलाई से आरम्भ होने वाले कन्या प्रशिक्षण सत्र में छात्राओं को प्रवेश दिया जायेगा। अच्छा तो यह है कि स्थानीय शाखाएँ ही इस प्रकार का चुनाव करके भेजे ताकि प्रशिक्षण पर लगने वाली शक्ति का समुचित लाभ समाज को मिल सके।

यह बसन्त पर्व हममें प्रत्येक के अन्तःकरण में नव जीवन संचार की उमंगें उत्पन्न करे, ऐसी प्रार्थना और अपेक्षा की जा रही है। शीत ऋतु में वृक्षों के पत्ते गिर जाते हैं। और वे पतझड़ के कुरूप ठूँठ जैसे दिखाई पड़ते हैं। किन्तु जब बसन्त की उमंग प्रकृति के अन्तराल में उभरती है तो हर वृक्ष में नई कोपलें फूटती हैं, नए पत्ते निकलते हैं, नये फल उमंगते हैं और देखते देखते वे मधुर फलों से लद जाते हैं, पशु-पक्षियों से लेकर कीट-पतंगों तक में उभरती हुई उमंगें प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती हैं और वे उसकी अभिव्यक्ति अपने अपने ढंग की उत्साहवर्धक हलचलों के साथ प्रकट करते दिखाई पड़ते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्यों के भाव भरे अन्तःकरणों में उत्कृष्टतावादी प्राण की मूर्छना जागनी चाहिए और नव-जीवन का आलोक जगना चाहिए तभी इस बार के बसन्त पर्व की सार्थकता है। ‘इस बार’ शब्द में विशेष उद्बोधन है। साधना स्वर्ण-जयंती वर्ष की इसी अवसर पर पूर्णाहुति है। 24 दिन के जल-उपवास में प्रत्येक प्राणवान परिजन से निरन्तर एक ही अनुरोध किया जाता रहा है कि वे युग संध्या की इस विशिष्ट बेला में वे अपने विशिष्ट अवतरण का महत्व समझें लोभ, मोह की पशु-प्रवृत्तियों से ऊँचे उठें। वासना−तृष्णा के बँधनों से उतने न जकड़े रहें जितने कि पिछले दिनों जकड़े रहे हैं। उन्हें ढीले करें। उपलब्ध मनुष्य जीवन के महत्व, स्वरूप एवं लक्ष्य को समझें। शरीर निर्वाह की तरह आत्मा की आवश्यकताओं को भी समझें और पूरी करने के लिए भी कुछ कदम उठावें।

यदि साधना स्वर्ण-जयन्ती वर्ष के-उपवास उद्बोधन के सन्दर्भ में परिजनों ने यदि कुछ उभार अपने भीतर भी अनुभव किया हो तो उसे ऐसे ही-पानी के बुलबुले तरह ठण्डा न हो जाने दिया जाय, वरन् उपलब्ध चिनगारी की तरह उसे अधिकाधिक ज्वलन्त किया जाय। उठती हुई भावनाओं का, यथार्थता और सशक्तता मूल्याँकन कर्म की कसौटी पर ही होता है। जिन अंतःकरणों में इस बसन्त पर्व पर ऐसी हलचलें उठें, उनके सामने उपरोक्त न्यूनतम कार्यक्रम प्रस्तुत है। इसमें से जिससे जितना बन पड़े उसे कर-गुजरने का साहस संजोये और संकल्पपूर्वक वैसा कुछ करने में जुट जाय, जिससे बचे खुचे जीवन की सार्थकता सिद्ध हो सके।


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