साधना से संकल्प-शक्ति की अभिवृद्धि

December 1976

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पानी का स्वभाव नीचे की ओर ढुलकना है। फैला देने पर वह बिना प्रयास के ही ढलान की दिशा में अपने आप बहने लगेगा। किन्तु यदि उसे ऊपर चढ़ाना हो तो बहुत सरंजाम इकट्ठे करने पड़ेंगे और बहुत श्रम जुटाना होगा। ढलान की ओर बिना श्रम के ही जिस तेजी से बहता है उतनी बात ऊपर चढ़ाने के प्रयास में बहुत प्रयत्न करने पर भी नहीं बन पड़ती। पतन और उत्थान की दिशा में प्रगति का क्रम भी पानी की ही तरह है। दुर्जनों का संग, दुष्कर्मों का उत्साह पतन का उपक्रम जिस तेजी और जिस उमंग के साथ चलता है। उत्थान प्रयासों में वैसी बात कहाँ बन पाती है? गड्ढे में-खंदक में कोई भी गिर सकता है, पर ऊपर चढ़ने और आकाश में उड़ने के लिए तो बहुत बल चाहिए और बहुत साधन। फिर भी प्रगति धीमे क्रम से ही होती है। उत्थान और पतन के सम्बन्ध में भी यही आकाश पाताल जैसा अन्तर पाया जाता है।

जीव लाखों योनियों में भ्रमण करते हुए क्रमिक प्रगति पर बढ़ते हुए मनुष्य शरीर पाने का अधिकारी बनता है। निम्न योनियों के लिए उपयुक्त प्रवृत्तियाँ मनुष्य के लिए निरर्थक एवं हानिकारक बन जाती हैं, अस्तु वे छूटती भी जाती हैं। सभ्यता एवं संस्कृति की रगड़ पड़ने से प्रतिगामी पशु-प्रवृत्तियों में से बहुत कुछ तो छूट जाती हैं। किन्तु फिर भी बहुत सी प्रमुख एवं जागृत स्थिति में बनी रहती हैं। इनकी जड़े अचेतन मन की गहरी परतों में घुसी होती है। चेतन की विवेकशील एवं सतर्कता के दबाव से वे प्रायः दबी ही रहती हैं, फिर भी उनका अस्तित्व पूर्णतया समाप्त नहीं हो जाता। जब भी उन्हें अवसर मिलता है, वर्षा में घास की सूखी जड़ें जिस प्रकार हरी हो जाती हैं उसी प्रकार प्रबल हो उठती हैं। कई बार तो उनकी प्रबलता इतनी उत्कट होती है कि सभ्यता के सारे आधारों को कुचल कर मन ऐसे कर्म करने लगता है जिन पर पीछे पश्चाताप ही करना पड़ता है। दृष्ट वृत्तियों में छल, क्रोध, कामुकता, लोभ जैसी कुछ अति प्रबल हैं। जब वे उभरती हैं। तो मनुष्य अनेकों अपराधी क्रूर-कर्म करता पाया जाता है। इनमें से मन्द है आलस्य और प्रमाद। पेट भर जाने पर निम्नकोटि के जीव ऐसे ही आलस में ऊँघते रहते हैं। मनुष्य पर भी शारीरिक निष्क्रियता और मानसिक दीर्घसूत्रता छाई रहती है। मनुष्यों में से जड़ प्रकृति वालों को यही स्थिति रहती है। वे कामनाएँ बहुत सी करते हैं, पर उन्हें पूरी करने के लिए जिस पुरुषार्थ की आवश्यकता है, उससे कन्नी काटते हैं। ऐसी दशा में दुर्भाग्य को रोते रहने के अतिरिक्त और कोई परिणाम निकल ही कैसे सकता है?

पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार अन्तर्मन में जितने अधिक और गहरे छाये रहते हैं, उसी अनुपात में मानवोचित प्रगतिशील जीवन-क्रम अपनाने में पग-पग पर बाधा पड़ती है। आगे बढ़ने के सामान्य प्रयासों को प्रतिगामी कुसंस्कार टाँग पकड़ कर पीछे घसीट ले जाते हैं। यही गज-ग्राह संघर्ष-देवासुर संग्राम अन्तर्गत में चलता रहता है। पौराणिक कथा-गाथाओं के अनुसार इस लड़ाई में आमतौर से असुर जीतता है और देव हारता है। पानी के ढुलकने और ऊपर चढ़ने के उदाहरण से इस तथ्य को सहज ही समझा भी जा सकता है। हारे हुए देवताओं को फिर से जीतने का अवसर तभी मिला है जब उनकी सहायता के लिए कोई दिव्य शक्ति विशेष रूप से आगे आई है। ग्राह से गज को मुक्ति भी विष्णु भगवान ने आकर ही दिलायी थी। समुद्र मंथन को सफल बनाने में कच्छप अवतार की अदृश्य किन्तु अति महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। दुर्गा ने दुर्दान्त दैत्यों को मार कर देवताओं का संकट हरा था। भगवान ने प्रायः सभी अवतारों ने देवत्व को विजयी बनाने में अपनी विशेष सहायता प्रस्तुत की। इस तथ्य को प्रगतिशील जीवन में ईश्वरीय दिव्य सहायता की आवश्यकता अनुभव करने के रूप से समझा जाना चाहिए। पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कारों का असुर निरस्त करने में ईश्वर उपासना के उस स्तर की आवश्यकता पड़ती है। जिसे योग एवं तप के नाम से जाना जाता है। पूजा-पत्री उसी की बाल कक्षा है।

मनुष्य प्रकृति की एक विशेषता है कि उसे अभ्यस्त ढर्रे पर चलने में ही रुचि होती है। शरीर और मन के सारे कुल पुर्जे जिस ढाँचे में ढल जाते हैं, उसी पटरी पर वे लुढ़कते रहने में सुविधा अनुभव करते हैं। नई बात सोचना, नये कदम बढ़ाना, नई रीति-नीति अपनाना, भले ही उज्ज्वल भविष्य का परिचायक हो, पर उसके लिए हिम्मत ही नहीं पड़ती। विशेषतया आदर्शवादिता अपनाने में तो और भी अधिक कठिनाई पड़ती है, क्योंकि उस मार्ग पर अन्य लोग चलते दिखाई नहीं पड़ते। मेले की भीड़ में तो कोई भी साथ चल देता है, पर एकाकी राह बनाना, अकेले चल पड़ने का साहस जुटाना तो किन्हीं विरलों के लिए ही सम्भव होता है। यह सर्वविदित है कि महानता के पथ पर चलना आरम्भ में ही कठिन लगता है। थोड़ा अभ्यास करने पर इतना आत्म-सन्तोष मिलने लगता है कि प्रारम्भ में जो कठिनाईयाँ दीखती थीं, वे हँसी मजाक जैसी लगने लगती हैं। आरम्भ में बीज बोने की तरह कुछ त्याग तो अवश्य करना पड़ता है, पर अन्ततः फसल की इतनी राशि उत्पन्न होती है कि उसकी तुलना प्रतीत होता है। इस मार्ग पर पाना अधिक और खोना कम पड़ता है। किन्तु लोग उलटा समझते है, उनकी मान्यता है कि परमार्थ परायणों को खोना अधिक पड़ता है और पाते कम हैं। आदर्शवादी महापुरुषों के जीवनों पर दृष्टिपात करने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि उन्होंने घाटे का सौदा नहीं किया हो दूरदर्शिता की नीति अपनाकर वे उनसे कहीं अधिक नफे में रहे जो संकीर्ण स्वार्थपरता की कीचड़ में कुलबुलाते रहने वाले कृमि-कीटकों की तरह चाहते तो बहुत थे, पर प्राप्त कुछ भी न कर सके।

उत्कृष्टता का मार्ग साहसी, शूरवीरों का है। उस पर चलने के लिए जैसी ही प्रचण्ड संकल्प शक्ति चाहिए जैसी कि तीव्र जलधारा को चीरते हुए प्रवाह की उल्टी दिशा में चल सकने वाली मछली में होती है। हाथी प्रवाह की दिशा में लुढ़कते, बहते चले जाते हैं, पर मछली उसे चीरती, छरछराती उसे चुनौती देती है और उलटी दिशा में तैर सकने के प्रबल पुरुषार्थ का परिचय देती है। यही संकल्प शक्ति जिन मनुष्यों में होती है वे पेट और प्रजनन की कृमि-कीटकों जैसे ललक-लिप्साओं को चुनौती दे सकने और कुछ ऐसा कर गुजरने में समर्थ होते हैं, जिससे मानव जीवन को सार्थक बना सकना सम्भव हो सके। विपन्न परिस्थितियों में जन्मे, अभावग्रस्त, सहयोग विहीन, मन्दबुद्धि और दुर्बलकाय लोगों ने प्रगति के उच्च शिखर पर पहुँच सकने- आश्चर्यचकित कर देने वाली सफलताएँ पाने के जो चमत्कार दिखाये हैं उनके पीछे एकमात्र संकल्पशक्ति ने ही काम किया है। इसी के आधार पर वे अपने कुसंस्कारों से जूझे हैं और व्यक्तित्व को इस प्रकार का बनाया है जैसा कि रसायनवेत्ता तुच्छ पारद का जारण-मारण करके उसे मकरध्वज जैसे शक्ति पुँज औषधि बना लेते हैं। यह संकल्प शक्ति ही वह चुम्बकत्व है जिसके सम्पर्क में आने वाला हर व्यक्ति प्रभावित होता है, लोहा मानता है और प्रखर प्रामाणिकता के आगे नत-मस्तक होकर भाव भरी श्रद्धा समर्पित ही नहीं करता, वरन् सच्चे मन से सहयोग भी प्रदान करता है। प्रतिकूलताएँ दुर्बल मनःस्थिति के लोगों को काल जैसी विकराल लगती हैं। आशा का दीपक बुझा देती हैं और भयभीत करके प्रयास त्यागने को विवश करती है। किन्तु संकल्प के धनी उनसे अठखेलियाँ करते हैं, आँखमिचौनी खेलते हैं और शर्त लगा कर प्रतिद्वन्द्विता खड़ी करते हैं। मनस्वी लोगों को प्रतिकूलताओं के साथ छेड़खानी किये बिना चैन ही नहीं पड़ता। कितने ही दुस्साहसी लोग दुर्गम यात्राओं पर निकल पड़ते हैं हिंसक पशुओं से भरे जंगलों में एकाकी भ्रमण करते हैं, खतरों को आमन्त्रण करते हैं और साहसिक शूरवीरता का कीर्तिमान स्थापित करते हैं। गुजारे के सुख साधन होते हुए भी उन्हें खतरों से खेले बिना चैन ही नहीं पड़ता। सृजन प्रयोजनों में जुट पड़ते हैं तो भागीरथ की तरह गंगा लाने और फरियाद की तरह नहर बनाने के चमत्कार कर दिखाते हैं।

सामान्यतया साधनों की, सहयोग की, परिस्थितियों की दुहाई दी जाती है और भाग्य को श्रेय दिया जाता है। किन्तु वास्तविकता कुछ ओर ही है। संकल्प शक्ति की दिव्य विभूति जिसके पास है वह दूसरे ही ढंग से सोचता है। नेपोलियन के शब्दों में वह कहता है- ‘दुर्लघ्य आल्पस को हमारे लिए रास्ता देना होगा अन्यथा उसे पैरों तले कुचल दिया जायगा।’ इतिहास साक्षी है कि आल्पस हारा और नेपोलियन जीता। उसे रास्ता देना ही पड़ा। एकाकी कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया था। एकाकी हनुमान ने समुद्र लाँघा था। एकाकी बुद्ध युग-क्रान्ति को सम्भव बना सके थे। एक एकाकी कहे जाने वाले लोगों के साथ उनका अत्यन्त सच्चा और सर्वसमर्थ वह मित्र कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रहा था। जिसे संकल्प-बल कहते हैं। उसी क्षमता की कमी से मनुष्य हेय परिस्थितियों में पड़े-पड़े सड़ते रहते हैं और इसी की अभीष्ट मात्रा मिल जाने से सामान्य मनुष्य असामान्य महामानवों की भूमिका सम्पन्न करते हैं।

व्यक्तित्व को कुछ न कुछ बना देने में समर्थ, सहयोग, साधन और परिस्थितियों को आकर्षित कर सकने में सफल सिद्ध होने वाले इस संकल्प बल को किस प्रकार उपार्जित किया जाए। इस प्रश्न का यदि उत्तर प्राप्त करना हो तो व्यायामशाला में जाकर पहलवान और पाठशाला में जाकर विद्वान बनने वालों का उदाहरण सामने रखना होगा। आत्म-बल बढ़ाने के लिए साधना की प्रक्रिया अपनाई जाय तो उससे दुहरा लाभ है। संकल्प बल तो निश्चित रूप से बढ़ता है साथ ही उस अभिवर्धन को अन्तः क्षेत्र में प्रसुप्त पड़ी हुई दिव्य विभूतियों को उभारने का भी अवसर मिलता है। यदि केवल संकल्प बल ही बढ़ाना हो और वह भी मात्र भौतिक स्तर का रखना हो तो वह प्रयोजन साहसिक कार्य करते रहने और उत्साह अनुभव बढ़ाते चलते से भी सम्भव हो सकता है। पर यदि उत्कृष्टतावादी उस आत्मबल की आवश्यकता हो, जो जीवात्मा को क्रमशः महानात्मा, देवात्मा और परमात्मा बना सके- जीवन को सार्थक बना सकने वाले आधार खड़े कर सके तो फिर साधना मार्ग पर चलते हुए उस मनोबल को, संकल्प शक्ति को प्राप्त करना होगा जिसे अध्यात्म की भाषा में ‘ब्रह्म वर्चस’ कहते हैं। चेतन सत्ता का यही सबसे बड़ा वैभव है, समस्त सिद्धियों का उद्गम स्त्रोत इसी को कहा गया है। भौतिक और आत्मिक सफलताओं को सुदूर क्षेत्र से घसीट कर चरणों में ला पटकने वाला प्रचण्ड चुम्बकत्व यही है। इसे ईश्वर का सर्वोपरि वरदान कहा जा सकता है। आत्मा के प्रबल पुरुषार्थ के फलस्वरूप मिल सकने वाला उपहार यही है। यह जिसके पास होगा वह मृत्यु को भी उत्तरायण तक ठहराने के लिए भीष्म पितामह की तरह आदेश दे सकेगा। अर्जुन की तरह बाण से भूमि को छेदकर जलधारा बहा सकने की सामर्थ्य उसमें होगी।

अन्तस् में सन्निहित क्षमताओं का विकृत स्वरूप ही असुर है और उनकी परिष्कृत स्थिति को देवता कहा जा सकता है। पेट में सड़ा हुआ अन्न विष बन जाता है और अनेकों रोग उत्पन्न करता है, यही असुरत्व हुआ। पचा हुआ अन्न रस, रक्त, शुक्र और ओजस् बनता है। यही देवत्व है। देवता की आराधना का अर्थ है अपनी प्रवृत्तियों और क्षमताओं का सधाया हुआ सुविकसित स्वरूप। असुरता से आक्रान्त होने का अर्थ है अपने चिन्तन एवं कर्तव्य में अवाँछनीयताओं की भरमार। साधना का उद्देश्य है- व्यक्ति का काया-कल्प, चेतना का परिमार्जन-परिष्कार इतना बन पड़े तो अपना आपा ही कल्प-वृक्ष बन जाता है और स्वर्गीय उपलब्धियों को सहज ही प्रस्तुत करता है। कितने ही साधकों को विभिन्न देवताओं द्वारा विभिन्न प्रकार के वरदान मिलने के कथानक कथा-गाथाओं में पढ़ने सुनने को मिलते हैं। यह वरदाता इष्टदेव अपना उच्चस्तरीय अंतस् ही है। जो कल्पना के अनुरूप वेष बनाकर सामने आ खड़ा होता है। दर्शन देता है और मनोकामनाएँ पूरी करता है। मीरा के गिरधर गोपाल, रामकृष्ण परमहंस की काली, एकलव्य के द्रोणाचार्य बाहर से नहीं आये थे, वरन् उन लोगों ने अपनी श्रद्धा को ही इन इष्टदेवों के रूप में परिपक्व किया था। श्रद्धासिक्त संकल्प ही आत्म-साक्षात्कार की -ईश्वर दर्शन की भूमिका बनाता है। स्वर्ग तक ले पहुँचने-मुक्ति प्रदान करने और सिद्ध पुरुष बना देने की शक्ति उसी में है। यदि देवाधिदेव प्रजापति कहा गया है। साक्षी, दृष्टि, निर्लिप्त, अचिन्तय परब्रह्म को मनुष्य रूप में मनुष्यों के साथ अठखेलियाँ करते और यथार्थ जैसे अस्तित्व का परिचय देते हुए देखा जाय तो समझना चाहिए कि यह साधक की अनन्य श्रद्धा का ही प्रतिफल है।

साधना का उद्देश्य पशु-प्रवृत्तियों के साथ देव-प्रवृत्तियों की टक्कर करना और पिछड़ेपन को उलट कर उस जगह प्रगतिशील की प्राण-प्रतिष्ठा करना है। इस प्रयास को आन्तरिक महाभारत, लंका-दहन, समुद्र-मंथन आदि पौराणिक गाथाओं के साथ जोड़ा जा सकता है। विश्वामित्र द्वारा नई सृष्टि बनाने-च्यवन ऋषि का काया-कल्प होने ओर उपाख्यानों की संगति भी साधना समर के साथ जोड़ी जा सकती है। निश्चित रूप से यही वह देवासुर संग्राम है, जिसे आत्मोत्कर्ष की विजय श्री का वरण करने वाले हर साधक को अनिवार्य रूप से लड़ना पड़ता है। भगवान का अंतरात्मा में अवतरित होने का आभास इसी से मिलता है कि उस धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में पांचजन्य बजा या नहीं, गाण्डीव खटका या नहीं, धर्म की संस्थापना और अधर्म के विनाश की दो हलचलें एक ही समुद्री हिलोर के ज्वार-भाटे जैसी दो विलग दीखने वाली किन्तु वस्तुतः अन्योन्याश्रित एकात्म गतिविधि ही समझी जानी चाहिए। साधना का उद्देश्य अन्तरात्मा में ब्रह्मसत्ता का अवतरण करना है। यह प्रयास किस मात्रा में सम्भव हो सका, इसकी परख यही हो सकती है कि पशु को देवता बनाने की गतिविधियाँ कितनी ज्वलंत हो रही हैं। अग्नि परीक्षा प्रक्रिया सीता जी की वापसी के समय हुई थी, आत्मा रूपी सीता को परमात्मा रूपी राम से मिलने के लिए इसी जाँच में होकर गुजरना पड़ता है। रावण रूपी पशुत्व का कोई प्रभाव तो शेष नहीं है,सम्भवतः यही जाँचने के लिए अग्नि परीक्षा का उपक्रम किया गया था। सोने को खरा-खोट घोषित करने से पूर्व भी अग्नि परीक्षा और कसौटी की रगड़ आवश्यक होती है। साधना की इन्हीं में से किसी के साथ तुलना की जा सकती है।

साधना को किसी समृद्ध देवता की चापलूसी करके कुछ इनाम पुरस्कार झपट लेने की तिकड़म नहीं समझा जाना चाहिए जैसा कि आजकल आमतौर से समझा जाता है। जन्त्र-मन्त्रों को जादू नहीं समझा जाना चाहिए जिनके सहारे सहज ही लम्बे-चौड़े लाभ और चमत्कार प्राप्त होने की इन दिनों बाल कल्पना की जाती रहती है। उपासना विशुद्ध विज्ञान है जिसमें आत्म-परिष्कार के लिए प्रबल प्रयत्न करना पड़ता है। यह जितना गम्भीर वास्तविक और प्रखर होता है उसी अनुपात से व्यक्तित्व निखरता है निखार के साथ ही भौतिक समृद्धियों और आत्मिक विभूतियों को ऋद्धि-सिद्धियाँ मिलती हैं।

साधना, मानवी प्रगति का अति महत्वपूर्ण आधार है। व्यक्तित्व को परिष्कृत बनाने से बढ़कर जीवन की सार्थकता सिद्ध करने वाला और कोई उपाय नहीं। अंतस् में छिपी पड़ी प्रसुप्त विभूतियों को ढूंढ़ निकालने की तुलना में और कोई सम्पत्ति उपार्जन का लाभदायक व्यवसाय इस संसार में है नहीं। इसी मार्ग पर चलकर हम भौतिक और आत्मिक प्रगति के उभय प्रयोजन सिद्ध कर सकते हैं।


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