पंच तन्मात्राओं की साधनायें तथा सिद्धियाँ

December 1976

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ध्यान का सर्वविदित प्रयोग ‘रूप’ परक है। पंचतत्वों में अग्नि प्रचण्ड और प्रमुख है। अग्नि तत्व की तन्मात्रा ‘रूप’ है। दृश्य उसी से बनते हैं। ‘रूप’ को आधार मान कर ध्यान करने की प्रक्रिया सरल है। नेत्र इन्द्रिय ज्ञान सम्पादन का अति संवेदनशील माध्यम है। इससे बढ़कर मस्तिष्क को प्रभावित करने की क्षमता अन्य किसी इन्द्रिय में नहीं है। इसी से ‘रूप’ को लौकिक जीवन में अत्यधिक महत्व मिला है। इसी के आधार पर पदार्थों और प्राणियों के बीच अन्तर करना सम्भव होता है। आत्मिक प्रगति के लिए की जाने वाली साधनाओं में भी ‘रूप’ को ही प्राथमिकता मिली है। दर्शन झाँकी के लिए धार्मिकजनों का कितना समय, श्रम और धन व्यय होता है, इसे सभी जानते हैं। देवालयों, तीर्थों, स्मारकों, सन्तों को देखने के लिए तीर्थयात्रियों के-पर्यटकों के झुण्ड प्रायः परिभ्रमण करते रहते हैं।

ध्यान में साकार और निराकार की दोनों ही पद्धति रूप परक हैं। साकार उपासना में इष्टदेव का और निराकार में प्रकाश का ध्यान किया जाता है। यह दोनों ही ‘रूप’ वर्ग में आते हैं। इतने पर भी यह नहीं समझ लेना चाहिए कि ध्यान केवल ‘रूप’ के माध्यम से ही हो सकता है। उसके लिए अन्य तन्मात्राएँ भी काम में लाई जा सकती हैं। रस, गन्ध और स्पर्श का प्रचलन कम और शब्द का व्यवहार अधिक होता है, तो भी ध्यान की सम्भावना सभी पाँच तत्वों को पाँचों तन्मात्राओं के आधार पर सम्भव होती है। पाँच तत्वों में से प्रत्येक की एक ‘तन्मात्रा’ है। अग्नि का रूप, जल का रस, वायु का स्पर्श, आकाश का शब्द और पृथ्वी की गन्ध है। अग्नि के बाद आकाश तत्व ही अधिक व्यापक और अधिक सशक्त है इसलिए उसकी तन्मात्रा ‘शब्द’ को साधना क्षेत्र में रूप के पश्चात् अधिकतर प्रयुक्त किया जाता है।

स्वरयोग, नादयोग, शब्दयोग इसी तन्मात्रा के अन्तर्गत आते हैं। पाठ, स्तवन, जप, कथा, प्रवचन, कीर्तन जैसे साधना उपक्रम ‘शब्द’ साधना कहे जा सकते हैं। नादयोग इन सब में अधिक गूढ और अधिक रहस्यमय है। नेत्रों के बाद दूसरी विशिष्ट संवेदनशील इन्द्रिय ‘कान’ है। बहरे मनुष्य गूँगे भी होते हैं। कारण है कि कान द्वारा शब्द ग्रहण करके मस्तिष्क तक न पहुँचा सकने की कठिनाई के कारण उच्चारण के ज्ञान तन्तुओं को प्रेरणा मिल ही नहीं पाती और वे बोलने में असमर्थ ही बने रहते हैं। ज्ञान सम्पादन नेत्रों के पश्चात कान से ही सम्भव होता है। समझा बुझा कर रास्ते पर लाने का कार्य प्रधानतया शब्द शक्ति से ही सम्भव होता है। रेडियो प्रसारणों को इसी दृष्टि से अत्यधिक महत्व मिल रहा है।

कर्णेंद्रिय की सूक्ष्म परतें दिव्य-लोकों के सन्देशों को उसी प्रकार सुन सकती हैं जिस प्रकार नेत्र गोलकों के मध्य में अवस्थित उसके केन्द्रीय उद्गम स्रोत-आज्ञा चक्र के माध्यम से ‘दिव्य-दर्शन’ सम्भव होता है। नाद योग के माध्यम से ‘दिव्य ध्वनियाँ’ सुनी जाती हैं और उस क्षमता के विकसित होने पर शरीर और मन की हलचलों का विवरण बताने वाले संकेत सुने जा सकते हैं। अपनी स्थिति को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकता है। इतना ही नहीं दिव्य लोकों में जो अति महत्वपूर्ण शब्द संवादों का प्रवाह चल रहा है उसे सुनने की कला विदित हो जाने पर वह सब समझा जा सकता है जो सर्वसाधारण के लिए सर्वथा अविज्ञात है। कूटनीतियों की-गुप्तचर की साँकेतिक भाषा होती है और वे एक दूसरे तक अपनी बाते इस प्रकार पहुँचाते हैं कि किसी को गोपनीयता का पता न चलने पाये। दिव्य लोकों के भी ऐसे ही संकेत हैं। वे शब्द तरंगों के आधार पर सूक्ष्म जगत में हमारे इर्द-गिर्द ही भ्रमण करते हैं, पर रहस्यों की जानकारी न होने से हम उससे सर्वथा अपरिचित ही बने रहते हैं। नादयोग के अभ्यास से उस रहस्य पर से पर्दा उठता है और साधक का उतना सुनना समझना संभव होता है जो सामान्य मनुष्यों के लिए शक्य नहीं है।

नादयोग की साधना का शास्त्रीय योगाभ्यास प्रक्रिया में महत्वपूर्ण स्थान है। मध्यकालीन सन्त परम्परा में उसे और भी अधिक प्रधानता मिली है। नाथ सम्प्रदाय कबीर सम्प्रदाय, राधास्वामी मत, दादू मत आदि की साधनाओं के शब्द सुरत के नाम से नाद समाधि की सुविस्तृत फल श्रुति है। विज्ञान ने विश्वव्यापी शब्द शक्ति का मूल्याँकन किया है और उसके माध्यम से भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की सम्भावनाओं का प्रतिपादन किया है।

मोटेतौर से ‘ध्वनि’ का तात्पर्य उस मोटे शब्द प्रवाह से लिया जाता है जो कानों से सुना जा सके, पर वैज्ञानिक पकड़ इससे कहीं आगे निकल गई है। यह बात भली प्रकार समझ ली गई है कि मनुष्य के कान बहुत ही भोंड़े हैं वे बहुत थोड़ी ध्वनियाँ सुन सकते हैं। उनसे अधिक तो कहीं कीड़े मकोड़ों और पशु-पक्षियों की श्रवण शक्ति अधिक तीव्र होती है। और वे अन्तरिक्ष में बहने वाली अधिक सूक्ष्म ध्वनियों को सुन सकते हैं, और इस अर्थ से मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक समर्थ सिद्ध होते हैं।

संसार की मूल-सत्ता और स्थिति को पिछले दिनों विद्युत प्रवाह के रूप में समझा गया था अब उसे एक कदम और आगे बढ़ कर ‘ध्वनि’ प्रवाह की संज्ञा दी जाने लगी है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को समझने में अब उसका प्रकाश स्वरूप अपर्याप्त समझा जाने लगा है और प्रकाश की आत्मा को ध्वनि संज्ञा दी गयी है। ‘लेसर’ किरणें कुछ समय पूर्व तक प्रकाश किरणों में गिनी जाती थीं, पर अब उन्हें ‘शब्द’ वर्ग की स्वीकार किया गया है और ताप से भी अधिक शब्द की सामर्थ्य को आँका गया है।

कर्णातीत-अश्रव्य ध्वनियाँ- जानकारी देने की दृष्टि से भले ही महत्वहीन हों, पर उनका वैज्ञानिक महत्व अत्यधिक है। क्योंकि सामर्थ्य की दृष्टि से वे कानों से सुनी जा सकने वाली ध्वनियों की अपेक्षा कहीं अधिक शक्तिशाली होती है। अस्तु उनका प्रयोग कितने ही ऐसे कामों में किया जा सकता है जो सामान्य उपायों से पूरे नहीं हो पाते।

‘एचीव्स आफ फिजिकल मेडिसन एण्डरिहैबिलेशन’ में ऐसे वैज्ञानिक परीक्षणों के कितने ही विवरण छपे हैं जिनमें स्नायु-मण्डल की विकृतियों से कष्ट पाने वाले कितने ही रोगियों के उपचार अश्रव्य ध्वनियों के सहारे किये गये और वे औषधि उपचार एवं शल्यक्रिया की अपेक्षा कहीं अधिक सफल रहे।

न्यूयार्क के ‘माउण्ट सिनाई हास्पिटल में श्रवणातीत ध्वनियों का प्रयोग शल्यक्रिया की अपेक्षा अधिक सरल और सफल प्रमाणित हुआ है। पेरिस से ‘सालपेट्र हास्पिटल में श्रवणातीत ध्वनियों के आधार पर की गई चिकित्सा में अन्य उपचारों की तुलना में अधिक अच्छे परिणाम सामने आये हैं। संसार के अनेक महत्वपूर्ण शोध -संस्थानों में यह परीक्षण चल रहे हैं कि अश्रव्य ध्वनियों को चिकित्सा उपचार का महत्वपूर्ण अंग बनाने की पद्धति का सांगोपांग विकास कैसे किया गया?

विश्व-ब्रह्माण्ड में प्रवाहित सूक्ष्म ध्वनि तरंगों की जानकारी अब अपेक्षाकृत अधिक गहराई तक समझी जाने लगी है और उनके कई प्रकार के प्रयोग-उपयोग कार्यरूप में परिणत हो रहे हैं। यदि हम अपनी कर्णेंद्रिय सामर्थ्य को विकसित कर सकें तो बहुमूल्य यन्त्रों द्वारा इन श्रवणातीत ध्वनियों का ग्रहण प्रसारण किया जाता है उसी प्रकार अपने अति समर्थ तन्त्र से भी वैसे ही प्रयोजन पूरे किये जा सकते हैं तब भौतिक जगत के सूक्ष्म क्षेत्र पर अपना असाधारण अधिकार हो सकता है और जितनी सामर्थ्य इन दिनों हाथ में है उसकी तुलना में असंख्य गुनी शक्ति हाथ में आ सकती है। तब कान मात्र सुनने का प्रयोजन ही पूरा न करेंगे वह सूक्ष्म ध्वनियों को पकड़ने और उन्हें विभिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करने में भी समर्थ बन जाएंगे।

नादयोग इसी विज्ञान का नाम है। उसके आधार पर श्रवणजीत ध्वनियों के अधिग्रहण का अभ्यास किया जाता है। सृष्टि के अन्तराल में असंख्य हलचलें ध्वनि के रूप में प्रवाहित हो रही हैं। ऊर्जा तरंगें ईथर से टकराती हुई आगे बढ़ती हैं और अपनी प्रतिक्रिया ध्वनि रूप में छोड़ती हैं। हवाई जहाज उड़ता है और अपनी गति दिशा तथा सत्ता का परिचय ध्वनि में बखेरता चलता है। ठीक इसी प्रकार प्रत्येक ऊर्जा कम्पन अपनी प्रतिक्रिया ध्वनि रूप में बखेरता है। इन्हें समझ सकना सम्भव हो तो प्रकृति की हाँडी में क्या पक रहा है, उसे ढक्कन खोल कर आसानी से जाना, समझा जा सकता है।

शरीर को शिथिल करके शांतचित्त से एकान्त स्थान में बैठक कर कानों के छेद तर्जनी अथवा अनामिका उँगलियों से बन्द कर लिये जाते हैं। इससे वायुमण्डल में सामान्य शब्दों का सुनाई देना बन्द हो जाता है। इस स्थिति में श्रवणातीत ध्वनियों में से कुछ का कुछ सुनाई पड़ना आरम्भ हो जाता है। प्रायः कई प्रकार के बाजों से मिलती-जुलती ध्वनियाँ नादयोग के साधकों को सुनाई पड़ती हैं। शंख, घड़ियाल, मृदंग, नफीरी, तुरही, ढोल, मजीरा बजने जैसी मिश्रित अथवा पृथक-पृथक प्रकार की आवाजें कान में पहुँचने का आभास होता है। बादल गरजने, झरने गिरने, आंधी तूफान आदि जैसी तीव्र और कर्कश, घुंघरू बजने पैरों के थिरकने की नृत्य जैसे मन्द और मधुर ध्वनि प्रवाह भी सुने जाते हैं।

इन शब्दों पर अधिक ध्यान देने से चित्त एकाग्र होता है और अधिक दत्त-चित्त होने के कारण ध्वनियाँ अधिक स्पष्ट एवं अधिक देर तक चलती रहने वाली प्रतीत होती हैं जब कि उथले और अस्थिर मन से सुनने पर वे आधी अधूरी अस्पष्ट और बार-बार उलटती बदलती रहती हैं।

शरीर विज्ञानियों का कथन है कि नाड़ियों में बहने वाला रक्त प्रवाह फेफड़ों से साँस का आवागमन, हृदय की धड़कन, माँस पेशियों का आकुंचन-प्रकुंचन आदि से उत्पन्न होने वाले घर्षण से जो आवाजें अन्तरंग क्षेत्र में उत्पन्न होती रहती हैं वे ही नादयोग के साधकों को बढ़े-चढ़े रूप से सुनाई पड़ती हैं और बाजे बजने जैसा आभास होता है। प्रकृति वेत्ताओं का कथन है- आकाश में बहने वाली हवा, पेड़-पत्तों तथा विभिन्न पदार्थों से टकरा कर तरह-तरह की आवाजें उत्पन्न करती है। तेज हवा चलने पर छेद वाली बाँसों के झुरमुट से वंशी या सीटी बजने जैसे ध्वनियाँ पड़ती हैं। नदियों की लहरें कल−कल ध्वनि उत्पन्न करती हैं। इन्हीं सब का दूरवर्ती मन्द प्रवाह नादयोग की साधना में अधिक स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने लगता है।

मस्तिष्क अपने आप में अगणित हलचलों का केन्द्र है। उसमें वायु का आवागमन भी रहता है। हलचलें किसी भी स्तर की हों। वायुमण्डल के सम्पर्क से ध्वनि तरंगें उत्पन्न करती हैं। मस्तिष्क संस्थान भी अपनी गतिविधियों के कारण जो शब्द उत्पन्न करता है उन्हें नादयोग के उपक्रम से सुना जाना सम्भव है।

इसके ऊपर सूक्ष्म जगत में तथा लोकान्तरों में होने वाली हलचलों का नम्बर आता है। यदि कर्णेन्द्रिय की क्षमता विकसित कर ली जाय, तो उन्हें भी पकड़ा जा सकता है।

कौन ध्वनि किस क्षेत्र से आ रही है और वह किस परिस्थिति का कितना- किस प्रकार परिचय दे रही है यह जटिल विज्ञान है। उसके लिए साधक की शारीरिक मानसिक क्षमता अधिक संवेदनशील होनी चाहिए। शब्दकोष जैसे ध्वनि अर्थ तो नहीं निकलते पर ध्वनि के साथ जुड़ी हुई संवेदना को आत्म-चेतना द्वारा समझा जा सकता है। यह ध्वनियाँ भूतकाल के किसी घटनाक्रम की वर्तमान हलचलों की तथा भावी संभावनाओं से सम्बन्धित हो सकती हैं उनके पीछे अपने व्यक्तित्व का विश्लेषण झाँक रहा हो सकता है। विश्व की परिस्थितियों का वर्तमान वातावरण का ऊहापोह उनमें घुला हो सकता है। ऐसी -ऐसी अनेक सम्भावनाएँ नादयोग में सुने जाने वाली ध्वनियों में पहेली की तरह धँसी रहती हैं। उन्हें तत्ववेत्ता खोज निकालते हैं और उस बहुमूल्य जानकारी का लाभ स्वयं उठाते तथा दूसरों को उपलब्ध कराते हैं।

‘रूप’ तन्मात्रा से आकृति परक और ‘शब्द’ तन्मात्रा में ध्वनि परक अनुभूतियाँ होती हैं। उन आधारों में एकाग्रता की तथा सूक्ष्म जगत में प्रवेश करके अतीन्द्रिय विभूतियों की उपलब्धि होती है। ऐसा ही उपयोग अन्य तन्मात्राओं का भी हो सकता है।

गन्ध तन्मात्रा के सहारे ध्यान करने की विधि यह है कि कोई पुष्प, इत्र या तीव्र गन्ध का कोई अन्य पदार्थ लिया जाय, कुछ क्षण उसे सूँघ कर हटा दिया जाय कि उस वस्तु की गन्ध अभी भी आ रही है। इसे गन्ध त्राटक कह सकते हैं।

रस तन्मात्रा के सहारे ध्यान की विधि यह है कि जिह्वा पर कोई तीक्ष्ण स्वाद की वस्तु रखी जाय, उसे चखा जाए। पीछे उसे जीभ पर से हटा दिया जाय और बिना उस वस्तु के ही वह स्वाद जिह्वा को मिल सके, ऐसा भावनापरक ध्यान किया जाय। मिश्री की डली, काली मिर्च, नीबू, सेंधा नमक, नीम की पत्ती जैसे तीव्र स्वाद वाले पदार्थ इस प्रयोजन में अधिक उपयोगी होते हैं। मन्द स्वाद की वस्तुएँ तो विस्मृत हो जाती हैं, पर तीव्र स्वाद देर तक बने भी रहते हैं और स्मरण करने में सरल पड़ते हैं। वह ‘रस त्राटक’ कहा जायगा।

स्पर्शेन्द्रिय के माध्यम से किये जाने वाले ध्यान में सामान्य स्तर से अधिक ठण्डी या अधिक गर्म वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। शरीर के किसी भाग से सहउष्णता का कोई धातु खण्ड स्पर्श कराया जाय और फिर हटा दिया जाय। तदुपरान्त उस वस्तु की तथा उसके स्पर्श की अनुभूति उस स्थान पर होती रहे, ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए। बर्फ के स्पर्श से ठण्डक अनुभव हो सकती है। कोई मुलाकात या कठोर वस्तु भी त्वचा को प्रभावित कर सकती है। संसर्ग का अनुभव लेकर उस पदार्थ को हटा दिया जाय और कल्पना क्षेत्र में भी यह अनुभव होने दिया जाय कि वह पदार्थ अभी भी त्वचा का स्पर्श करके उसे पहले की ही तरह प्रभावित कर रहा है यह स्पर्श घातक हुआ।

स्पर्श, रस और गन्ध की चेतन सम्वेदनाएँ अब शिथिल पड़ गई हैं। यद्यपि अन्य प्राणियों में उन्हीं की प्रधानता है। गन्ध के सहारे से कृमि, कीटक और वन्य पशु अपने जीवन क्रम की अधिकाँश आवश्यकताएँ पूरी करते हैं, पर मनुष्यों द्वारा उसका उतना उपयोग न होने से निष्क्रिय होती चली गई है। रस और स्पर्श के सम्बन्ध में भी यही बात है। स्वादिष्ट वस्तुओं के स्वाद ले सकने की और स्पर्श के आधार पर मिलने वाली गुदगुदी का भी अब बहुत ही स्वल्प एवं थोड़ा अनुभव होता है, पर यदि इन अनुभूति केन्द्रों को-इन्द्रिय समुच्चय में सन्निहित तन्मात्राओं को जागृत-जीवित किया जा सके तो इन माध्यमों से स्थूल और सूक्ष्म जगत की अनन्त विभूतियों के अधिकारी बन कर हम मनुष्य जीवन का उच्चस्तरीय आनन्द ले सकते है।


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