परिजनों में से प्रत्येक को आमन्त्रण और आह्वान

December 1976

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हमारे साथ कुछ दूर तो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर चल लें।

एक तथ्य-एक संकल्प-

किसान की फसल उगती है, हरियाली देती है, बढ़ती है, फूलती है और अन्तिम चरण में अनाज के बहुमूल्य दाने देकर सूख जाती है। बीज का इसी में गौरव है कि वह पलने का साहस करने की दूरदर्शिता अपनाये और उसी शौर्य के बलबूते विकासोन्मुखी रीति-नीति अपनाये। अन्त में एक के स्थान पर सैकड़ों दाने अपनी स्थानपूर्ति के लिए छोड़कर हँसते-हँसाते कालचक्र की गरिमा बढ़ाता हुआ विदा हो जाये। खेत में उगे पौधे हमें जीवन का मार्ग, स्वरूप, लक्ष्य सिखाते हैं और बताते हैं कि आरम्भ से लेकर अन्त तक अपनी गतिविधियाँ क्या होनी चाहिएं? हमें सन्तोष और परिजनों को गर्व करना चाहिए कि युग निर्माण का सन्देशवाहक प्रकाश इसी क्रम से गला, उगा, बढ़ा, फूला और अब फलित होकर एक उत्साहवर्धक परम्परा स्थापित करने के साथ-साथ अपने क्रिया-कलाप का एक अध्याय पूरा करने जा रहा है।

जीवन अमर है। मृत्यु तो मात्र छोटी-सी विश्रान्ति है। गति अमर है, ठहराव तो थकान उतरने भर के लिए है। सौन्दर्य चिरन्तन है, वृद्धता तो उसके नवीनीकरण की भूमिका भर है। संग्रहीत सम्पदा के आधार पर नये उत्साह और नये साधनों के साथ नया प्रयास किया जा सके। विराम का इतना ही उद्देश्य है। पुरातन वस्त्र जरा-जीर्ण हो जाने पर नया बनाने और पहनने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। बुझते दीपक की अन्तिम लौ जिस प्रकार अति प्रकाश के साथ चमकती है, भोर होने से पूर्व जिस प्रकार अंधियारी अधिक घनी होती है। उसी प्रकार हमारे प्रयासों का यह अन्तिम अध्याय अब अधिक प्रखर होने जा रहा है। अगले थोड़े से दिनों में हमें उतना काम करना है जिसकी तुलना में सत्तर वर्ष के पिछले समय की उपलब्धियों को भारी नहीं हलका ही ठहराया जा सके। इसी योजनाबद्ध प्रक्रिया को अपनाकर हम अपने नये प्रयासों में नई तैयारी के साथ जुट रहे हैं।

शोधकार्य में समर्थ-सहयोगियों से-

कुछ बड़े अनुसंधान और प्रतिपादन हमें अगले दिनों करने हैं। ये देखने में छोटे भले ही हों, पर उनकी प्रतिक्रिया विश्वव्यापी होगी और समस्त मानव जाति को प्रभावित करेगी। स्पष्ट है कि अब बुद्धि युग आ गया अगल दिनों तर्क की ही प्रतिष्ठा होगी। प्रमाण और प्रत्यक्ष के आधार पर ही किन्हीं तथ्यों को स्वीकार किया जा सकेगा। आप्त वचनों और शास्त्र प्रतिपादनों की बात परम्परागत मान्यताओं की दुहाई देकर जन-मानस में उतारी न जा सकेगी। स्थिति को समझना आवश्यक है। अस्तु अध्यात्म विज्ञान का प्राचीन स्वरूप इस नये आधार पर ही खड़ा किया जाना चाहिए।

संसार में दो ही सत्ताएँ काम करती हैं-एक जड़ दूसरी चेतन। एक प्रकृति, दूसरी पुरुष। एक माया दूसरी ब्रह्म। जड़, प्रकृति एवं माया की क्षमता को उभारने और उपयोग करने की विद्या भौतिक विज्ञान के विकास के सहारे उपलब्ध होती है, सो हो भी रही है। दूसरा पक्ष उससे भी प्रबल है। चेतना, आत्मा एवं परमात्मा की सामर्थ्य, जड़ में अधिक है। इसलिए भौतिक विज्ञान की तुलना में अध्यात्म विज्ञान की शक्ति और उपयोगिता भी बड़ी-चढ़ी है। भारत इस तथ्य को अपने गौरवमय अतीत में प्रत्यक्ष रूप से किस प्रकार सिद्ध करता रहा है, विश्व इतिहास इसका साक्षी है। अब नये परिवेश में उनका पुनः प्रत्यक्षीकरण होना चाहिए। अध्यात्म विज्ञान का ऐसा स्वरूप निखर कर आना चाहिए जो प्रत्यक्षवाद की-भौतिकवाद की कसौटी पर भी खरा सिद्ध हो सके। हमारा प्रयास इसी के लिए है- वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की शोध और प्रतिष्ठापना इसी उद्देश्य के लिए है। यह बहुत बड़ा काम है। इसके लिए बड़े साधन चाहिए और बड़े श्रम की जरूरत है। अब तक हमारे पास समय भी बहुत था और श्रम करने में शरीर और मन की क्षमता भी साथ देती थी। पर अब वह स्थिति नहीं रही। समय कम-साधन ढीले और काम का विस्तार बड़ा। इन कठिनाईयों के कारण अब सहयोगियों की अपेक्षा की जा रही है। इन दिनों हमें ऐसे साथियों की आवश्यकता पड़ रही है, जिनकी मानसिक क्षमता शोध कार्य के लिए उपयुक्त है। जिनके पास भावना और समय भी हो। इन पंक्तियों के माध्यम से हम उनका आह्वान करते हैं और अधिक न सही पाँच वर्ष हमारे कन्धे से कन्धा मिलाकर उपरोक्त शोधकार्य में सहयोग देने संलग्न रहने के लिए बुलाते हैं।

नौकर नहीं, मिशनरी चाहिए।

पैसा हो तो नौकर हर योग्यता के खरीदे और रखे जा सकते हैं अनेक क्षेत्रों में बड़ी-बड़ी शोधें इसी आधार पर चल रही हैं। अपने पास वैसे साधन कहाँ? शोध प्रयासों में वेतन देकर किसी को बुलाने की अपनी सामर्थ्य बिलकुल भी नहीं है। हो भी तो उसका उपयोग नहीं करेंगे। कारण कि हमारे साथियों की प्रथम कसौटी यही हो सकती है कि वे श्रद्धा और तप की सम्पदा लेकर आगे आएं। ब्राह्मण और सन्त की परम्परा को अपनाये हुए हों। इससे कम मनः स्थिति के लोग हमारे काम न आ सकेंगे। मात्र बुद्धि और श्रम से नहीं, अपना सारा काम उच्चस्तरीय भावना के आधार पर चलेगा। इसलिए शोध प्रयासों में सहयोग देने के लिए ऐसे सुयोग्य साथी ही चाहिएं, जिनको आर्थिक आवश्यकता न हो। भोजन, वस्त्र का प्रबन्ध तो हो भी सकता है, पर घर के लिए मनीआर्डर भेजते रहना सम्भव न होगा। आह्वान इसी स्तर के लोगों का किया जा सकता है, जिनकी शिक्षा उपयुक्त हो, चिन्तन में प्रखरता एवं पैनापन हो, वित्तेषणा एवं शोकेषणा का जो दमन कर लें। अपने विशाल परिवार में उपरोक्त स्थिति के जो व्यक्ति हों, वो अपनी मनःस्थिति ओर परिस्थिति का परिचय देते हुए पत्र-व्यवहार कर लें।

मानव जाति का भविष्य अध्यात्मवादी दृष्टिकोण अपनाने और उत्कृष्टता की प्रवृत्तियाँ स्वीकार करने में ही है। इसका प्राचीन तत्व-दर्शन युग के अनुरूप आधार भूमि पर खड़ा किया जाना है। अपने शोध प्रयास का लक्ष्य एवं स्वरूप यही है। ग्रन्थों की खरीद भी अपेक्षित होगी। शोधकर्ताओं के लिए स्थान निवास की आवश्यकता रहेगी और जो लोग अपने घर से न खा सकेंगे, उनके लिए भोजन, वस्त्र का भी प्रबंध करना होगा। इन कार्यों के लिए अर्थ सहयोग भी अपेक्षित होगा। जो लोग बौद्धिक दृष्टि से अथवा समय की दृष्टि से इस शोध प्रयास में सहयोग नहीं दे सकते, वे अर्थ सहयोग देकर भी इस युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने वाले प्रयास में अपना योगदान कर सकते हैं।

मनोव्याधियों की यज्ञ चिकित्सा-

बढ़ती हुई शरीर व्याधि के साथ-साथ मानसिक विकृतियों का भी इन दिनों उफान आ रहा है। पूर्ण स्वस्थ कहे जाने वाले शरीर कदाचित ही कहीं दिखाई पड़ेंगे। इस प्रकार मानसिक दृष्टि से सन्तुलित एवं विवेकवान व्यक्तियों को ढूंढ़ निकालना भी कठिन है। शरीर रोगों से जितना कष्ट उठाना पड़ता है, आज के मनुष्य को मनोरोगों से - मनोविकारों से उसकी अपेक्षा कम नहीं। वरन् अधिक ही दुःखी रहना पड़ता है। मानसिक आरोग्य की रक्षा एवं उपचार की आवश्यकता पूरी कर सकने में ‘यज्ञ-विज्ञान’ का विकसित स्वरूप निश्चित रूप से बहुत अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। शरीर चिकित्सा शास्त्र ने निश्चित रूप से मानव जाति की महती सेवा की है। यदि मानसिक चिकित्सा के ऋषिप्रणीत आधार यज्ञ विज्ञान का परीक्षित और प्रामाणिक स्वरूप सामने आ सके तो यह एक बड़ी बात होगी। तब न केवल भारतीय धर्म के जनक ‘यज्ञ’ की प्रतिष्ठा उपयोगिता एवं गरिमा ही सर्व स्वीकार्य होगी, वरन् उसके आधार पर मानसिक रोगों से छुटकारा पाने वाला जन-समाज भी इस उपलब्धि को अपने युग का सर्वोपरि वरदान मानेगा। वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की ही एक शोध शाखा यज्ञ अनुसंधान भी है। उसके लिए भी इन्हीं शोध-सहायकों में से कुछ को जुटा रहना पड़ेगा। ऋषिप्रणीत आधार पहले से ही मौजूद है, हमें तो युग के अनुरूप उनका स्वरूप भर निखारना है, इसलिए कार्य कठिन दीखते हुई भी सरल है। बड़ा होते हुए भी छोटा है। अपेक्षा की जा सकती है कि जिस अगली पंचवर्षीय योजना का हम श्री गणेश कर रहे हैं। उनका मूलभूत ढाँचा इसी अवधि में खड़ा किया जा सकेगा। यों अधिकाधिक विकास एवं परिष्कार के कार्य आगे भी चलते रहेंगे।

अधिक साधन सहयोग की अपेक्षा-

अगले दिनों किये जाने वाले कार्यों के लिए शान्ति कुँज का आश्रम छोटा पड़ता है। स्थान को बढ़ाने की आवश्यकता अनिवार्य हो गयी तो उसके लिए नया प्रयास आरम्भ कर दिया गया है। अभी एक छोटी जमीन मिल गई है। जहाँ सात ऋषि तप करते थे, उसी गंगा तट से बिलकुल सटी हुई यह जमीन है- प्रस्तुत उद्देश्य के लिए उपयुक्त समझी गई है। अभी साधन भी इतने ही थे। अब इन्हीं दिनों उसका निर्माण कार्य आरम्भ हो रहा है। एक छोटा कमरा बनाने की लागत प्रायः तीन हजार रुपये की बैठेगी। जिनकी आर्थिक स्थिति इस योग्य है उनसे अनुरोध किया जा रहा है कि वे इस निर्माण कार्य में यथाशक्ति अपना सहयोग उदारतापूर्वक दे दें, ताकि स्थान के अभाव में काम रुकने की कठिनाई का सामना न करना पड़े। आग्रह करने और दबाव डालने की अपनी परम्परा नहीं है। संकेत को दबाव मानना चाहिए। ‘ब्रह्म वर्चस आरण्यक’ नये आश्रम के निर्माण में अनावश्यक समय नष्ट न हो, उसकी बहुत समय तक प्रतीक्षा न करनी पड़े। शोध कर्ता के लिए विशालकाय पुस्तकालय, अध्ययन कक्ष आदि बन सके इसके लिए पैसा चाहिए। थोड़े साधनों वाले थोड़ा और अधिक साधनों वाले अधिक सहयोग देकर इस सामयिक आवश्यकता को पूरी कराने में उदार योगदान करें, ऐसी अपेक्षा की गई है। ब्रह्म वर्चस आरण्यक स्थान भर अलग है, उसका स्वामित्व वेदमाता गायत्री ट्रस्ट का ही है इसलिए आर्थिक सहायता भेजने का नाम पता पुराना ही है।

विशिष्ट तप-साधना शृंखला।

अगली पंच वर्षीय योजना में शोध प्रयास के अतिरिक्त दूसरा कार्य है- तप साधना एवं लोकसेवा की गरिमा समझने वालों का व्यावहारिक मार्ग-दर्शन। इसके लिए सत्र प्रशिक्षण प्रक्रिया में कुछ नये तत्वों का समावेश किया गया है। उपयुक्त प्रक्रिया अपनाने से हर काम सफल होता है। साधनों के सम्बन्ध में तो यह बात विशेष रूप से लागू होती है। व्यस्त लोगों के लिए थोड़ा-सा अवकाश लागू होती है। व्यस्त लोगों के लिए थोड़ा-सा अवकाश निकाल कर दस दस दिन के सत्रों में पिछले दिनों शांतिकुंज बुलाया जाता रहा है। अगल पाँच वर्ष तक भी यही क्रम चलेगा। किन्तु साधना प्रक्रिया में अन्तर रहेगा। जो पिछले दिनों सीखा गया है, उसे प्रकाश की और जो अगले दिनों मिलना है उसे प्रेरणा की संज्ञा दी गयी है। पिछले को पूर्वार्ध और अगले को उसका पूरक उत्तरार्ध माना जाना चाहिए। अगले दिनों चलने वाले दस दिवसीय सत्रों में प्रत्येक शिक्षार्थी को विशेष विधि से, विशेष नियम प्रतिबन्धों के साथ एक साधना अनुष्ठान करना होगा। इसे आत्म-शक्ति सम्वर्धक तपश्चर्या स्तर का प्रयास माना जाना चाहिए इसमें शिक्षण कम होगा और तप−साधना में अधिक तत्परतापूर्वक संलग्न रहना पड़ेगा। कहना न होगा कि अब तक कोई भी शिक्षार्थी शान्ति-कुंज के प्रशिक्षण सत्रों में आने के उपरान्त खाली हाथों नहीं गया है। उसे यह शिकायत नहीं रही है कि हमारा समय और किराया भाड़ा बेकार चला गया। आगे की प्रशिक्षण प्रक्रिया पिछलों की अपेक्षा उच्चस्तरीय होगी, वस्तु उसका लाभ भी अधिक ही होना चाहिए।

दस दिवसीय सत्र लगातार तो नहीं चल सकेंगे। इन्हें वानप्रस्थ सत्रों को अदलते-बदलते चलाया जाया करेगा। महिला सत्र-वानप्रस्थ सत्र के साथ-साथ ही चला करेंगे। दोनों ही एक-एक महीने के होते रहेंगे। कौन सत्र किस महीने चलेंगे इसकी घोषणा समय-समय पर पत्रिका द्वारा होती रहेगी। अगले छः महीने का कार्यक्रम निश्चित है।

दिसम्बर 76, जनवरी, मार्च एवं अप्रैल 77 इन चार महीनों में दस-दस दिवसीय साधना सत्र चलेंगे। पहला 1 से 10 तक दूसरा 11 से 20 तक तीसरा 21 से 30 तक हर महीने चला करेगा। बीच-बीच में होली आदि के अवसर पर एक दो सत्र स्थगित भी रहेंगे। वानप्रस्थ सत्र और महिला सत्र अगले दिनों तीन हैं। फरवरी, मई एवं जून 77।

इन सभी सत्रों में सम्मिलित होने वालों को अपना पूरा परिचय भेजते हुए, किस सत्र में सम्मिलित होना है इसकी पूर्व स्वीकृति माँगनी पड़ती है। अनायास बिना सूचना दिये इन सत्रों में कोई सम्मिलित नहीं हो सकता। बारह वर्ष से छोटे बच्चों को लेकर आने का नियम नहीं है। इसी प्रकार अशिक्षित वयोवृद्ध, अशक्त रोगी, पर्यटन के उद्देश्य से आने वाले लोग इन सत्रों में सम्मिलित होकर अव्यवस्था फैलाने न पायें इसकी रोकथाम रखी जाती है।

व्यस्त परिजनों से भी अपेक्षा की जायगी कि जो पिछले पाँच वर्षों में किसी सत्र में आ चुके हैं वे भी और जो नहीं आ पाये हैं वे भी इन सत्रों में सम्मिलित होने का प्रयत्न करें। अखण्ड ज्योति के माध्यम से जो प्रकाश मिलता है उसे प्रेरणा के रूप में विकसित करने के लिए सान्निध्य की आवश्यकता है। दूरस्थ रहने और समीप पहुँचने पर क्या अन्तर होता है? स्वाध्याय और सत्संग के प्रभा में कितनी विशेषता होती है। इसका अनुभव इन सत्रों में सम्मिलित होने वाले सहज ही अनुभव कर सकते हैं।

दस दिवसीय सत्र उनके लिए हैं जो अत्यधिक कार्य व्यस्त है और निजी तथा पारिवारिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह में ही पूरा समय लगाना पड़ता है। कुछ समय के लिए वे इन सत्रों में सम्मिलित होकर अपनी आन्तरिक थकान मिटाने और नवीन स्फूर्ति प्राप्त कर सकने में इतने थोड़े अवसर का भी महत्वपूर्ण लाभ उठाते रह सकते हैं। पर जिन्हें कुछ अधिक समय मिल सकता है, जिनके सिर का भार उतना बोझिल नहीं है उन्हें एक महीने के वानप्रस्थ सत्रों में सम्मिलित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

घर में वैरागी की तरह कैसे रहा जा सकता है? घर को तपोवन बना लेने की प्रक्रिया क्या है? स्वार्थ और परमार्थ का समन्वय कैसे हो सकता है? गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्व निबाहते हुए लोक-मंडल की साधना कैसे की जा सकती है? इसका व्यावहारिक मार्गदर्शन इन वानप्रस्थ सत्रों में मिलता है। एक महीने की अवधि में प्रयत्न यह भी किया जाता है कि शिक्षार्थी को भाषण कला का अनुभव, अभ्यास हो जाए और वह जन-मानस में नवजागरण का सन्देश पहुँचाने में अपनी वाक्-शक्ति का सफल उपयोग कर सके। एक महीने का समय इतना है कि उसमें कोई साधना तपश्चर्या भी ठीक ढंग से हो सकती है। दस दिन की साधना तो अति व्यस्त लोगों के लिए रखी गई है।

सृजन शिल्पियों का सृजन

वानप्रस्थ जीवन वस्तुतः भारतीय धर्म और संस्कृत का प्राण है। इसी परम्परा ने देश को एवं विश्व को उच्चस्तरीय लोक सेवी नर-रत्नों की सृजन सेना प्रदान की थी। साधु, ब्राह्मण और गृहस्थ की यह समन्वित परम्परा सरल भी है और हर दृष्टि से सफल भी। जिनके पारिवारिक उत्तरदायित्व हलके हो गये हैं, जो उपार्जन की जिम्मेदारी से मुक्त हैं, उन्हें वानप्रस्थ क्षेत्र में प्रवेश करने के सुअवसर की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उनके लिए आध्यात्मिक ज्ञान अर्जन-तप साधन और लोकमंडल की विविध प्रक्रिया अपनानी चाहिए। इसी में ढलते जीवन का श्रेष्ठ सदुपयोग है।

ब्रह्म वर्चस् आरण्यक में इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि वानप्रस्थ साधना के लिए एकाकी या अपनी पत्नी समेत अभीष्ट अवधि तक निवास कर सकें। ऐसे लोगों को अपने भोजन, वस्त्र आदि का निर्वाह व्यय तो स्वयं ही उठाना पड़ता। निवास तथा प्रशिक्षण की सुविधा आश्रम में मिल जायगी। अब तक स्थान की कमी के कारण इस प्रकार की इच्छा करने वालों को इनकार ही किया जाता रहा है, पर अब नया आश्रम बनने से नई सुविधा बढ़ गई है। हिमालय क्षेत्र, गंगा तट, सज्जनों का संग, आध्यात्मिक वातावरण, प्रखर मार्ग-दर्शन के पाँचों लाभ मिलने से आत्मिक प्रगति का पथ-प्रशस्त होने में संदेह नहीं रह पाता। शारीरिक दृष्टि से रोगी-स्वभाव की दृष्टि से कुसंस्कारी और दृष्टिकोण की दृष्टि से ओछे लोगों को तो नहीं रहने दिया जाता, पर सज्जनता और अनुशासनप्रियता जैसे सद्गुण जिनमें हैं अब उनके लिए शान्ति कुंज के नये आश्रम में निवास की सुविधा रहेगी। इस लाभ से लाभान्वित होने की जिनकी स्थिति हो उन्हें भी इन पंक्तियों द्वारा आमन्त्रित किया जा रहा है।

साधना इन दिनों तो एक खिलवाड़ मात्र बन गई है। उसे जादू विद्या जैसा कुछ खेल तमाशा सोच लिया गया है। असल में वह जीवनयापन का एक विशिष्ट विज्ञान है। जिसका आश्रय लेकर सामान्य स्थिति का मनुष्य महामानव बन सकता है और देवोपम गरिमा का अधिकारी बन सकता है। मनुष्य के अंतरंग में इतनी महत्वपूर्ण विभूतियाँ एवं विशेषताएँ छिपी हुई हैं। जिन्हें जागृत कर सकने पर वह लौकिक कहलाते हुए भी अलौकिक स्तर की भूमिकाएँ सम्पन्न कर सकता है। इन्द्रिय शक्ति से सभी परिचित हैं, पर प्रसुप्त अतीन्द्रिय सामर्थ्यों का ज्ञान तथा भान कदाचित् ही किसी को होता है। साधना विज्ञान का आश्रय लेकर मनुष्य इसी जीवन में स्वर्गीय अनुभूतियों का आनन्द और उन्मुक्त जीवन का रसास्वादन कर सकता है, पर यह सम्भव उसी साधना द्वारा हो सकता है। जो तथ्यों पर आधारित हो। प्रयत्न ऐसी ही साधना सिखाने का है जो हमने प्रयत्नपूर्वक सीखी है और जिन सत्पात्रों को सिखलाने के लिए हमारा मन आकुल-व्याकुल हो रहा है। ऐसे सत्पात्रों की तलाश और परख के लिए ही विशेष रूप से इन साधना-सत्रों का आयोजन किया गया है।

धर्म मंच से लोक-शिक्षण की प्रक्रिया अपनाकर किस प्रकार जल-मानस का नव निर्माण किया जा सकता है। इसकी चर्चा समय-समय पर होती रही है। व्यक्ति, परिवार और समाज के भावनात्मक नवनिर्माण में इससे बढ़कर और कोई प्रक्रिया अपने देश में सफल नहीं हो सकती। देश ही क्यों विश्व भर के बारे में यही बात कही जा सकती है कि मानवीय अन्तःकरण के मर्मस्थल को स्पर्श करे और बदलने की जितनी क्षमता धर्मतन्त्र के सदुपयोग से सम्भव हो सकती है, उतनी और किसी प्रकार नहीं। अस्तु युग की पुकार पूरी करने के लिए ऐसे धर्म सेवियों धर्म प्रचारकों की आवश्यकता पड़ेंगी जो साधु, ब्राह्मण की प्राचीन परम्परा के आज की स्थिति के अनुरूप स्वयं को नये संस्करण के रूप में प्रस्तुत कर सकें। आज दयानंदों विवेकानन्दों, बुद्धों, रामदासों, गोविन्द सिंहों के नये संस्करणों की जितनी आवश्यकता है उतनी इससे पहले कभी नहीं रही। महामारी फैलने पर ही तो चिकित्सकों की ढूंढ़-खोज होती है। आग लगने पर ही तो पानी के बरतनों को तलाशने की हड़बड़ी मचती है। समय ने ऐसे कर्मचारी को पुकारा है जो अपने व्यक्तित्व को वासना-तृष्णा की कीचड़ में नर-कीटकों की तरह गलाने की अपेक्षा विश्व के भविष्य निर्माण में अपनी आहुति प्रस्तुत कर सकें।

ब्रह्म वर्चस आरण्यक के नये आश्रम में धर्मोपदेशकों एवं सृजन शिल्पियों की एक प्रखर सेना खड़ी की जा रही है, जो युग के अंधकार में अनाचार से जूझने में आत्मोत्सर्ग के आदर्श उपस्थित कर सके। ऐसे लोगों के लिए आवश्यक है कि उनके कन्धों पर परिवार निर्वाह का उत्तरदायित्व न हो। लोक मंगल के लिए धर्म क्षेत्र को अपनाने वालों की स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि शरीर निर्वाह मात्र से उनका काम चल जाय। घर वालों को खर्चा भेजने की आवश्यकता न पड़े। आपत्ति धर्म के रूप में कभी -कभी कोई अपवाद ऐसे भी हो सकते हैं जिनमें लोक-सेवियों की घर गृहस्थी का भी भार सार्वजनिक संस्थानों को वहन करना पड़े, पर अच्छी बात यही है कि इस क्षेत्र में अविवाहित लोग अथवा पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त लोग ही प्रवेश करें। आर्थिक शुचिता का आदर्श अच्छी तरह निभा सकना उनके लिए सरल पड़ता है अन्यथा गृहस्थी के बढ़ते हुए खर्च अधिक धन की मांग करते हैं और फिर उनके लिए उचित अनुचित तरीके अपनाने पड़ते हैं। इसलिए अच्छा यही है कि धर्म सेवा के क्षेत्र में ऐसे ही लोग प्रवेश करें जिनकी आर्थिक आवश्यकताएं अपने शरीर निर्वाह तक सीमित हों।

सुयोग्य पति-पत्नी के जोड़े भी लोक-साधना के क्षेत्र में उतर सकते हैं और मिल जुल कर बहुत काम कर सकते हैं, पर यह सम्भव तभी है जब वे सन्तानोत्पादन के झंझट को सिर पर न ओढ़ें। बच्चे सदा अपनी माता को अपनी ही सेवा में जुटाये रहते हैं और बाप को भी उनके लिए अनेक साधन जुटाने में अपनी अधिकाँश व्यक्ति खर्च करनी पड़ती है। ऐसी दशा में उनके पास समय, श्रम, वृद्धि आदि का ऐसा कुछ बचता ही नहीं जिसे लोकमण्डल में लगा सकें। अस्तु सृजनशिल्पियों की नई पीढ़ी राष्ट्र को उठाने के अपने संकल्प के पीछे ऐसे ही लोगों को ढूंढ़ने और प्रशिक्षित करने का स्वप्न है। उनकी मनःस्थिति लोकेषणा-वित्तेषणा और पुत्रेषणा से बच सकने की हो और जो विशुद्ध अध्यात्म वृत्ति को अपना कर नव-युग के निर्माण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। जो लोग अपने को इस स्थिति में अनुभव करते हों, अपने में इस प्रकार की पात्रता देखते हों उन्हें भी इन पंक्तियों द्वारा आमन्त्रित किया जाता है। यदि उनके पास कुछ संचित पूँजी है तो उससे निर्वाह चलाये यदि नहीं हो तो उस स्थिति में मिशन की ओर से उनके लिए ब्राह्मण स्तर का निर्वाह जुटाने की व्यवस्था की जा सकती है। लोक-सेवी को न्यूनतम शरीर मात्रा जितने साधन समाज से प्राप्त करने का अधिकार भी है और औचित्य भी।

अगले पाँच वर्षों में ऐसे प्रखर लोक-सेवियों की एक साधु मण्डली खड़ी करने का-अपने उत्तराधिकारी परिवार के रूप में स्मृति चिन्ह छोड़ जाने का अपना मन है। अखण्ड-ज्योति परिवार बहुत बड़ा है। एक लाख से अधिक उनके परिजन हैं। इतने लोगों में से उपरोक्त स्तर से एक सौ व्यक्ति निकल सकते हैं। बुद्ध को भिक्षु, महावीर को श्रमण, गान्धी को सत्याग्रही बड़ी संख्या में मिल सके थे। हम अपने तुच्छ व्यक्तित्व को देखते हुए इतनी आशा और अपेक्षा तो कर ही सकते हैं कि एक सौ व्यक्तियों का ऐसा निजी परिवार बन सके जिसे हम लोक सेवा के क्षेत्र में अपने उत्तराधिकारी के रूप में छोड़ सकें। ब्रह्मवर्चस आरण्यक बनाने का आरम्भ करते हुए हमारे मस्तिष्क में यही सपने इन दिनों घूम रहे हैं। इसलिए यह पंक्तियाँ आह्वान आमन्त्रण के रूप में ही लिखी जा रही हैं और अपेक्षा की जा रही है कि जिनकी स्थिति जिस स्तर की होगी वे उस प्रकार के सहयोग देने के लिए अपनी तत्परता और उत्सुकता व्यक्त करेंगे।

शाखा संगठन जीवन्त बनें।

जहाँ इन दिनों शाखा संगठन चल रहे हैं, उनमें अगले दिनों अभिनव उत्साह का संचार होना चाहिए। जहाँ सच्ची लगन, प्रखर कर्मठता, भाव भरी उमंग और त्याग- बलिदान करने की उत्कण्ठा हो वह एकाकी व्यक्ति भी अपने स्थान एवं क्षेत्र में संगठन को जीवित रखे रह सकता है और गतिविधियों में प्राण फूँकता रह सकता है। निष्क्रियता की मनःस्थिति अर्धमृतक जैसी स्थिति है। उदासीनता, उपेक्षा और आलस्य मन में भरे रहें तो फिर जीवन के दृश्य कहाँ से, कैसे दिखाई पड़ सकते हैं? इन दिनों शाखा संगठनों में छाई हुई मूर्छना का एक ही कारण है कि उनमें दो-चार व्यक्ति भी प्राणवान दृष्टिगोचर नहीं होते। स्वयं सक्रिय तो होते नहीं दूसरों की नुक्ताचीनी करके अपने दोष को छिपाने की आत्म प्रवंचना करते रहते हैं। इस स्थिति के लिए कुछ करते रहने के व्रत लिये थे अब उन्हें अपनी वह प्रतिज्ञा नये सिर से स्मरण करनी चाहिए और सक्रियता के लिए आवश्यक प्रखरता जुटाने के लिए अपने आपको झकझोरना चाहिए। नव-चेतना की इस पुण्य बेला में अपने सभी सृजन-शिल्पी, सहचरों से हम इसी प्रकार की अपेक्षा कर रहे हैं।

युग-निर्माण योजना अभियान की सदस्यता के लिए अनिवार्य और प्राथमिक शर्त यह रखी गई थी कि समय और धन का न्यूनतम अंशदान दैनिक रूप से नित्य ही प्रस्तुत करते रहा जाय। यह न्यूनतम एक घण्टा समय और दस पैसा प्रतिदिन का रखा गया था। इस कसौटी पर मिशन के प्रति निष्ठा की वास्तविकता परखी जा सकती है। एक घण्टा समय ज्ञानयज्ञ के लिए नियमित रूप से लगाते रहने की बात में व्यक्ति की वास्तविकता सामने आ जाती है और जाना जा सकता है कि गहराई कितनी है। इसी प्रकार दस पैसा नित्य ज्ञानघट में डालने से ध्यान रहता है कि शरीर निर्वाह एवं परिवार पोषण की तरह समाज निर्माण का उत्तरदायित्व भी हमारे ऊपर है, जो ऐसा सोचेगा उसे दस पैसा नित्य देने में घोर निर्धनता रहते हुए भी कोई कठिनाई अनुभव न होगी। दस पैसा इन दिनों कितना कम होता है इसे हर कोई जानता है। यह एक तिहाई चाय कप की अथवा आधी रोटी की कीमत भर है। कोई दरिद्र व्यक्ति तक इतना खर्च कर सकता है। शर्त एक ही है कि लक्ष्य के प्रति निष्ठा होनी चाहिए। उसका अभाव हो तो फिर बहाने हजारों हैं। फुरसत न मिलने का -आर्थिक कठिनाई होने का बहाना बना कर युग-निर्माण अभियान की सदस्यता की शर्तों को पूरी न करने की बात इतना ही बताती है कि यह उद्देश्य के लिए निष्ठा की न्यूनता अथवा उपेक्षा रह रही है। अब नई स्फुरणा उत्पन्न होनी चाहिए और जहाँ भी संगठन जीवित हैं- आस्था और सक्रियता मिट नहीं गई है वहाँ तत्काल एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य की परम्परा चल पड़नी चाहिए और उसका बिना आलस्य-प्रमाद के अनवरत रूप से पालन होते रहना चाहिए।

जीवन का प्रमाण- सतत विकास

कहा जाता रहा है कि हममें से हर व्यक्ति एक से दस की योजना अपनाकर जन सम्पर्क बनाए और एक घण्टे का समय अपना साहित्य खरीदने में लगाया जाता रहे तो अपना घरेलू ज्ञान मन्दिर पुस्तकालय दिन दिन समृद्ध होता रह सकता है। इससे घर-परिवार के मुहल्ला-पड़ौसी के तथा सम्बन्ध परिचय के लोग लाभ उठाते रह सकते हैं। झोला पुस्तकालय योजना-विचार क्रान्ति अभियान को व्यापक बनाने के लिए जितनी समर्थ और सफल हो सकती है उसकी तुलना में और कोई प्रचार आधार खोजा नहीं जा सकता। यदि हम एक लाख व्यक्ति एक से दस तक विचार-विस्तार की योजना कार्यान्वित करने लगें और फिर उस सम्पर्क क्षेत्र में से नये कर्मठ लोक निकलने लगें तो अपने वर्तमान परिवार के इस छोटे से प्रयत्न का प्रभाव ही अत्यन्त प्रभावोत्पादक बन कर सामने आ सकता है।

शाखा संगठन को अपनी निष्क्रियता दूर करने के लिए सदस्यों के यहाँ ज्ञान-घटों की स्थापना और उनकी नियमित गतिशीलता पर पूरा ध्यान देना चाहिए। इस धन को शाखा के प्रचारात्मक क्रिया-कलापों के लिए-ज्ञान यज्ञ के लिए एकत्रित करके काम में लाया जा सकता है। जहाँ 20 ज्ञान-घट होंगे वहाँ लगभग 60) मासिक की आमदनी हो जायेगी। इतने धन से एक वार्षिकोत्सव हो सकता है। वर्ष में दो बार गुरुपूर्णिमा और गायत्री जयन्ती के स्थानीय आयोजन हो सकते हैं। सदस्यों के घरों पर उनके जन्म दिन मनाने के लिए यदि थोड़ा बहुत खर्च करना पड़े तो वह भी इसी में से पूरा हो सकता है। भविष्य में जीवित शाखाओं के वार्षिकोत्सव अनिवार्य रूप से करने चाहिएं। इसके लिए विशालकाय आयोजनों की आवश्यकता नहीं है। पाँच कुण्डी या नौ कुण्डी गायत्री यज्ञ सहित युग निर्माण सम्मेलन तीन दिन तक मितव्ययिता किन्तु सूझ-बूझ के साथ सम्पन्न किया जाय तो वह प्रायः पाँच सौ रुपये में आसानी से हो सकता है। इस अवसर पर सदस्यगण आपस में ही कुछ अधिक चन्दा कर लें तथा बाहर से भी इकट्ठा कर लें तो इतने से ही प्रचार उपकरण आसानी से खरीदे जा सकते हैं। (1) स्लाइड प्रोजेक्टर- लाउडस्पीकर, टेपरिकॉर्डर, यज्ञ उपकरण जैसी वस्तुएँ प्रायः तीन हजार के आस-पास मूल्य के यदि शाखा के पास हो तो उससे समीपवर्ती क्षेत्र में प्रचार कार्य भली प्रकार होता रह सकता है।

चल पुस्तकालय की धकेल गाड़ी बना लेने से उसके द्वारा साहित्य विक्रय तथा पढ़ाने का दुहरा प्रयोजन सिद्ध होता है। दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन एवं साइकिलों से अथवा पैदल ही तीर्थयात्रा की प्रचार टोलियाँ गाँव-गाँव में अलख जगाने जा सकती है। इसी प्रकार अन्यान्य प्रचारात्मक, रचनात्मक, सुधारात्मक कार्यक्रम चलते रह सकते हैं और धर्ममंच में लोक शिक्षण की आवश्यकता को सुचारु रूप से पूरा किया जाता रह सकता है।

जहाँ युग निर्माण शाखाएँ है वहाँ के सदस्यों को अपने घरों की महिलाओं को आगे धकेल कर महिला जागरण शाखाएँ संगठित कर देनी चाहिएं। उनके नियमित रूप से साप्ताहिक सत्संग चलने लगें तथा परिवारों में गोष्ठियों का सिलसिला बन पड़े तो समझना चाहिए, नव-निर्माण का एक नया और अति महत्वपूर्ण आधार खड़ा हो गया।

जहाँ भी शाखा संगठन हैं वहाँ इन थोड़े से कामों को तुरन्त हाथ में लिया जाना चाहिए और जहाँ भी सुस्ती फैल गई हो वहाँ नये सिरे से चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए। धरती पर स्वर्ग के अवतरण और मनुष्य में देवत्व के उदय का स्वप्न साकार करने के लिए हमें संगठित रूप से प्रयास करने चाहिएं। इसलिए सुस्ती और काहिली का अविलम्ब अन्त करके उसके स्थान पर ज्वलन्त स्फूर्ति का वातावरण उत्पन्न करना चाहिए।

छल छद्म का उन्मूलन

इन दिनों जिस चेतना का संचार हम सब में होना चाहिए उसमें एक विशेष स्मरणीय तथ्य यह है कि भीतर और बाहर जहाँ भी छद्मवेशी अथवा प्रकट दुष्टता का सिर उठ रहा हो उसके उन्मूलन में हमारा रोष-आक्रोश जीवित रहना चाहिये। अनाचार का सहयोग समर्थन हम कदापि न करें, भले ही वह अपने निकटवर्ती अथवा संबंधी द्वारा ही क्यों न किया गया हो! दुष्टता को सहन करना उसे संरक्षण अथवा समर्थन देना प्रकारान्तर से उसका परिपोषण करने ओर बढ़ाने के समतुल्य ही निन्दनीय है। हममें से प्रत्येक को जहाँ धर्म स्थापना के लिए रचनात्मक कार्य करना है वहाँ अधर्म उन्मूलन की प्रखरता एवं तेजस्विता को भी अक्षुण्ण बनाये रहना है। यदि यह नीति न अपनाई गई तो एकांगी धर्म प्रचार मात्र निर्जीव खिलवाड़ बन कर रह जायगा उसमें शौर्य और साहस का वह पुट न रहेगा जिसके आधार पर धर्म को सशक्त और सजीव बनाये रहने की क्षमता बनी रहती है।

क्या हम सचमुच प्रेरणा पा सके?

विगत जल उपवास के माध्यम से हमने इन्हीं आवश्यकताओं अपेक्षाओं की ओर पूरे परिवार का ध्यान आकर्षित किया है। जिन्हें उससे सचमुच ही कुछ प्रेरणा मिली हो उनके लिए आवश्यक है कि इन तथ्यों की ओर भी ध्यान दें जो हमारे अन्तःकरण में इन दिनों हिलोरें से रहे हैं। हम चाहते हैं कि अखण्ड-ज्योति परिजनों में से प्रत्येक को यह उद्बोधन झकझोरे और उसे हमारे कन्धे से कन्धा मिला कर साथ देने और कदम से कदम मिला चल चलने की प्रेरणा दे। हम अपने मार्ग-दर्शक के साथ नहीं तो पीछे अवश्य चले हैं। हमारी अपेक्षा है कि परिवार के भावनाशील लोगों में इन्हीं दिनों कुछ ऐसी उमंगें उठें जिनके सहारे युग की महती आवश्यकताओं की पूर्ति में उनका कुछ करने लायक योगदान सम्भव हो सके। आवश्यक नहीं कि हर परिजन प्रत्येक विषय में सक्रिय हो, किन्तु अपनी रुचि एवं क्षमता के अनुसार हर व्यक्ति किसी न किसी धारा में कुछ उल्लेखनीय कार्य कर दिखाने के लिए कमर कस कर कार्यक्षेत्र में कूद पड़ने का साहस तो करे ही।


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