चिरप्राचीन और चिरनवीन का संगम−समन्वय

November 1974

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जीवन जीने की कला—जिसे अध्यात्म की भाषा में संजीवनी विद्या कहा जाता रहा है—मनुष्य की सर्वप्रथम चेतनात्मक आवश्यकता है। अर्थ उपार्जन करके सुविधा साधन इकट्ठे किये जाते हैं—शिक्षा सम्पादन तक अनेकानेक प्रयास जानकारी, बढ़ाने मस्तिष्क को विकसित करने के लिए किये जाते हैं—आहार−विहार की सुव्यवस्था शरीर निर्वाह के लिए करते हैं। भौतिक जीवन की आवश्यकताएँ शरीर मस्तिष्क और अर्थ साधनों को सुव्यवस्थित रखने से पूरी हो जाती हैं पर चेतनात्मक प्रखरता उस विद्या से आती है जो दृष्टिकोण को परिष्कृत करती है और चिन्तन एवं कर्त्तृत्व को सही दिशा में चलने के लिए नियंत्रित प्रशिक्षित करती है। जीवन विद्या का जिसे जितना ज्ञान अभ्यास है वह उतना ही अधिक सफल सार्थक जीवन जियेगा। अन्तरंग क्षेत्र में उसे महानता का आनन्द और बहिरंग क्षेत्र में बड़प्पन का श्रेय सम्मान मिलेगा।

कोई भी कला−कौशल मात्र सुनने, समझने से ही उपलब्ध नहीं हो जाता उसके लिए अनुभव, अभ्यास भी सम्पादित करना पड़ता है। जीवन विज्ञान को बौद्धिक रूप से जाना समझा जाय सो ठीक है—पर साथ ही यह भी जानना आवश्यक है कि उसे अभ्यास में लाने की, अनुभव में—अभ्यास में उतारने की प्रबल चेष्टा की जाय। तभी वे जानकारियाँ व्यावहारिक जीवन में उतरेंगी और आदतों का रूप धारण करेंगी। ज्ञान को व्यवहार में परिणत करने का अनवरत प्रयास साधना कहलाता है। यों साधारणतया योग और तप के क्रिया−कलापों को ‘साधना’ कहते हैं। पर वस्तुतः यह शब्द इतना सीमित नहीं है। चेतना को किसी भी प्रकार के अभ्यास में ढालने के हर प्रयास को साधना कहा जा सकता है। कला, शिल्प, व्यायाम, अध्ययन, परमार्थ आदि किसी भी क्षेत्र में अनन्य तत्परता के साथ लगना और अपने व्यक्तित्व को उस दिशा में भली प्रकार प्रवीण अभ्यस्त कर लेना साधना ही कही जायगी। जिंदगी को परिष्कृत स्तर के जीने की जानकारी को जीवन विज्ञान और उसे स्वभाव का अंग बना लेना—अभ्यास और आदतों को तदनुरूप ढाल लेना—जीवन साधना कही जायगी। वस्तुतः यह दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं। दोनों के समन्वय को ही सर्वांगपूर्ण संजीवनी विद्या कहते हैं। इसी की दार्शनिक पृष्ठभूमि ‘ब्रह्मविद्या’ के नाम से कही जानी जाती रही है।

शास्त्रों में ब्रह्मविद्या का महात्म्य और विवेचन विस्तार पूर्वक किया गया है “यह कोई कल्पना−विहार या जादुई क्रिया−कलाप नहीं है। दृष्टिकोण के चिन्तन क्षेत्र को उच्चस्तरीय पृष्ठभूमि पर अवस्थित करने की—आस्था निर्धारण की—दार्शनिक भूमिका है। योग और तप का द्विविधि क्रिया−कलाप इसी प्रयोजन को अभ्यास में उतारने की साधना है। अध्यात्म का विवेचनात्मक और साधनात्मक विशाल काय कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। ईश्वरीय जीव प्रकृति के स्वरूप का प्रतिपादन—जीवन लक्ष्य का निर्धारण, गति विधियों का निर्धारण और वस्तुओं का उपयोग एवं व्यक्तियों से व्यवहार की जो नीति मर्यादा निरूपित होती है उस मान्यता और आकाँक्षा का एक उत्कृष्ट आधार बनता है। यही है अध्यात्म का लक्ष्य। इसी को पाकर मनुष्य का व्यक्तित्व ऊँचा उठता है—देव भूमिका में विकसित होता है।

ब्रह्म विद्या के दो चरण हैं अध्यात्म और धर्म। इन्हीं को उत्कृष्ट जीवनयापन सम्बन्धी मान्यताओं एवं रीति−नीतियों का समन्वय कह सकते हैं। हमें क्या सोचना चाहिए और क्या करना चाहिए उसी का ऊहापोह तत्व ज्ञान के साधना विधान के माध्यम से किया गया है। प्राचीन काल की यही पद्धति थी। युग के अनुरूप अब उसे सरल सुबोध बनाना पड़ेगा और आज की स्थिति के अनुरूप समझाने और व्यवहार में लाने की शैली का विकास करना होगा।

प्राचीन काल में शास्त्र निर्देश और आप्त वचन प्रमाण भूत थे। उससे आगे किसी सन्देह या तर्क की गुंजाइश नहीं रहती थी। श्रद्धा ही उन दिनों का आधार था। पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। विज्ञान के समानान्तर बुद्धिवाद भी बढ़ा है। विज्ञान ने युग को नई दिशा दी है कि जो कुछ जाना माना जाय वह प्रत्यक्ष, प्रमाणभूत एवं तर्क सम्मत होना चाहिए। इस नई कसौटी पर शास्त्र−निर्देश आप्त वचन और परम्परा प्रचलन तीनों ही अमान्य ठहरते हैं। आधार उलट गया। अब किसी को भी तर्क और प्रमाण रहित आप्त वचन स्वीकार नहीं। विज्ञान को पीछे नहीं धकेला जा सकता और बुद्धिमान से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता। अस्तु अध्यात्म को—तत्व ज्ञान को अब बुद्धिवादी युग के अनुरूप शैली से प्रतिपादित करना होगा। यही बात धर्माचरण के सम्बन्ध में भी है। प्राचीन काल में व्यक्ति को जिन परिस्थितियों में रहना पड़ता था—समाज का ढाँचा जिस स्तर का था उसके अनुरूप क्रिया−कलापों का निर्धारण तत्कालीन नीति सदाचार के रूप में हुआ था।

अब परिस्थितियों में भारी अन्तर आ गया। व्यक्ति जिस वातावरण से प्रभावित होता है और समाज ने अपना जो रूप बना लिया है उससे प्राचीन काल के प्रवचनों की तुलना करने पर जमीन आसमान जितना अन्तर दिखाई पड़ता है। ऐसी स्थिति में धर्माचरण का—आस्था निरूपण का पुराना स्वरूप यथावत् नहीं रखा जा सकता। शाश्वत सत्यों को यथावत् रखते हुए भी उनके प्रतिपादन एवं व्यवहार में समयानुकूल अन्तर आवश्यक है। ऐसे हेर−फेर अनादि काल से लेकर अद्यावधि निरन्तर होते रहे हैं। अनेक अवतारों को देवदूतों को सामयिक परिवर्तन की प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिए ही बार−बार आना पड़ता है। वे अपने पूर्ववर्ती का आदर्श तो स्थिर रखते हैं पर व्यवहार में समय की विकृतियों को संस्कृति में बदलने के लिए अपने प्रतिपादनों एवं क्रिया कलापों का ऐसा निर्धारण करते हैं जो नवीन लगता है। समय की आवश्यकता को पूरा करता है। दैवी मार्ग दर्शन का—सृष्टि सन्तुलन का यह प्रयास महान प्रतिभाओं द्वारा समय−समय पर होता रहा है और आगे भी होता रहेगा।

जो समस्याएँ प्राचीन काल में थीं वे अब नहीं हैं। जो अब हैं वे प्राचीन काल में नहीं थीं। ऐसी दशा में प्राचीन काल के अध्यात्म और धर्म की आत्मा को यथावत् रखते हुए भी उसे समझने और करने की पृष्ठभूमि दूसरी ही तरह बन सकती है। यह प्राचीन और नवीन का समन्वय होगा। इसकी तुलना सर्प की केंचुली उतरने अथवा जरा−जीर्ण स्थिति को नव−यौवन में बदलने वाले कायाकल्प से की जा सकती है।

प्राचीन काल में समस्त शिक्षा सघन वनों के एकान्त उद्यानों में बने गुरुकुलों में होती थी। अभिभावक अपने बच्चों को पाँच वर्ष की आयु से लेकर पच्चीस वर्ष के होने तक—बीस वर्ष की लम्बी अवधि के लिए निष्णात आचार्यों को सौंप देते थे। वे ही उनके शिक्षण एवं निर्वाह का प्रबन्ध करते थे। अब वैसी शिक्षा प्रक्रिया का चल सकना कठिन है। कितने ही उत्साही गुरुकुलों ने वैसा ही कुछ सोचा और आरम्भ किया पर वह प्रयास सर्वथा असफल हो गये। अब प्रायः समस्त गुरुकुल सरकारी मान्यता प्राप्त हाईस्कूल कालेजों के रूप में हैं। कोई अपवाद हो तो दूसरी बात है। इसमें दोष किसी का नहीं परिस्थितियों का है अब परिष्कृत शिक्षा पद्धति चलेगी तो उसमें युग की आवश्यकता का समावेश करना होगा प्राचीन काल का अन्धानुकरण किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता।

व्यक्ति अपने अवकाश के समय तीर्थ स्थानों में निर्धारित पर्वों पर होने वाले धर्मानुष्ठानों में सत्र सम्मेलनों में सम्मिलित होते थे और प्रस्तुत समस्याओं को सुलझाने एवं भावी प्रगति का सामयिक प्रकाश प्राप्त करने के लिए वहाँ पहुँचते थे और निष्णात तत्व दर्शियों द्वारा आवश्यक मार्ग−दर्शन एवं प्रोत्साहन प्राप्त करते थे। अब तीर्थों का धर्मायोजनों का रूप कैसा विकृत हो गया इसे कोई भी आँख खोलकर देख सकता है। कुम्भ जैसे मेले कितना धन, श्रम, समय बर्बाद करते हैं और कितना पाखण्ड, अन्ध विश्वास फैलता हैं उसे सहज ही देखा, जाना जा सकता है। यातायात और परिवहन की सुविधा—व्यवसायी दृष्टिकोण और प्रचार प्रपंच ने मिलकर इन मेलों का जो स्वरूप बना दिया है उससे अब प्राचीन स्थिति के शिक्षण सत्रों की स्थिति में लौट सकना असम्भव हो गया है। अब उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए नये साधन ही खड़े करने होंगे।

प्राचीन काल की कथा−शैली कीर्तन पद्धति−चले, पर उसमें देवताओं के गुणानुवाद गाने भर से काम नहीं चलेगा। इन्हें व्यक्ति और समाज की आवश्यकता पूर्ण कर सकने की क्षमता एवं प्रेरणा से भरा−पूरा बनाना पड़ेगा। षोड्श संस्कारों को, परिवार निर्माण की समग्र शिक्षा देने के लिए और पर्व त्यौहारों के उत्सव आयोजनों को, समाज निर्माण के लिए लोक मानस में उभार उत्पन्न करने के लिए उपयोगी बनाना होगा। उपासना की प्रक्रिया आस्थाओं के अभिनव निर्माण के लिए नियोजित की जाय। योग और तप जैसी साधनाएँ आदतों में घुसी विकृतियों को निरस्त करके परिष्कृत व्यक्तित्व के अनुरूप गुण, कर्म स्वभाव ढालने की मनोविज्ञान सम्मत शैली के अनुरूप विकसित की जायें। इसमें नवीन कुछ नहीं है। लक्ष्य वही है जो उस धर्म कलेवर को खड़ा करने वालों का था, नवीनता केवल समय की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए उसे युग के अनुरूप बना देने भर की है। इस परिवर्तन के बिना यथा स्थिति में खड़ा पड़ा रहने वाला हमारा “घोड़ा अड़ेगा—पान सड़ेगा।” कहावत है− घोड़ा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यों? उत्तर प्रख्यात है— ‘फेरा नहीं गया था।’

अध्यात्म चिन्तन और धर्म कर्तृत्व को युग के अनुरूप बनाने के लिए हम प्रबल प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए चार कार्य पद्धति अपनाई गई हैं। (1) वाणी द्वारा−सत्संग व्यवस्था के अनुरूप सत्र शिक्षा पद्धति (2) अपने घरों पर स्वाध्याय कर सकने योग्य विचारोत्तेजक स्वाध्याय सामग्री (3) आयोजनों और सम्मेलनों द्वारा जनमानस को उद्वेलित करने वाला लोक शिक्षण (4) रचनात्मक और संघर्षात्मक आन्दोलन का सुव्यवस्थित अभियान। यह सारी प्रक्रिया पिछले दिनों गायत्री तपोभूमि मथुरा में स्थापित युग−निर्माण योजना द्वारा संचालित होती रही है। भविष्य में भी सुविस्तृत क्रिया−कलाप वहीं से चलेगा। इसमें से थोड़े से विशिष्ट कार्य अब हरिद्वार में आरम्भ किये जा रहे हैं। इसे अधिक बढ़े हुए कार्य का वर्गीकरण विभाजन भी कह सकते हैं और यह भी कहा जा सकता है कि व्यक्ति द्वारा व्यक्ति को उच्चस्तरीय प्रशिक्षण की आवश्यकता पूरी करने वाली थोड़ी सी गतिविधियों का संचालन शान्ति कुँज के नये आश्रम से होगा।

दस−दस दिवस के जीवन साधना सत्र—दो−दो महीने वाले वानप्रस्थ प्रशिक्षण सत्र—तीन−तीन महीने के महिला जागरण सत्र—तीन−तीन महीने के संगीत अभिनय सत्र, पन्द्रह−पन्द्रह दिन के लेखनी सत्र−शिक्षण प्रक्रिया को अध्यात्म और धर्म की सनातन ज्ञान गंगा का युग संस्करण ही कहा जाना चाहिए। इसे चिर प्राचीन और चिर नवीन का संगम समन्वय कहा जा सकता है। इस पद्धति को संजीवनी विद्या का नाम दिया जा सकता है। मृतक को जो जीवित बनादे वह संजीवनी, जीवन के रहस्यों का उद्घाटन करने के साथ−साथ जो उसे विकसित परिष्कृत बनाये वह संजीवनी, संजीवनी विद्या का शुभारम्भ इस युग की एक अत्यन्त महत्व पूर्ण घटना कही जा सकती है। इसका श्री गणेश कितना ही छोटा क्यों न हो आशा की जानी चाहिए कि यह चिनगारी अगले दिनों प्रचण्ड दावानल का रूप धारण करेगी और युग की विकृतियों को भस्मसात करके छोड़ेगी। इस शिक्षा प्रक्रिया को नवयुग की एक क्षीण किन्तु सूर्योदय की सुनिश्चित सम्भावना की घोषणा कहा जा सकता है। समय बतायेगा कि यह सुखद कल्पना नहीं वरन् एक सुनिश्चित सम्भावना का उद्घोष हैं।


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