मनुष्य तुच्छ और घृणित है किन्तु दिव्यतम भी

November 1974

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मनुष्य सब कुछ है और कुछ भी नहीं—यह तथ्य परस्पर विरोधी दो धाराओं का प्रतिपादन करते हुए परिस्थिति के अनुसार दोनों ही प्रकार सही है।

अविकसित रूप में मनुष्य एक गया−गुजरा पशु है। प्रकृति प्रदत्त शारीरिक क्षमता उसकी स्वल्प क्षेत्र में है। कुत्ते जैसा सूँघना, हिरन जैसा उछलना, घोड़े जैसा दौड़ना, बैल जैसा श्रम करना भी उसके लिए अशक्य है। फिर हाथी, सिंह, व्याघ्र जैसों का तो वह मुकाबला करेगा ही और तो और बन्दर और बिल्ली की तरह पेड़ों पर भी नहीं चढ़ सकता। भार वहन में वह गधे के भी समतुल्य नहीं है। ऋतु प्रभाव को खुले शरीर पर बर्दाश्त करना अपवाद रूप में ही सम्भव है—जबकि अन्य सभी पशु बिना परिधान के जीवनयापन करते हैं। पशुओं के बच्चे जन्मते ही माँ को पहचानना और अपनी समझ से माँ के स्तन एवं भोजन स्वयं आरम्भ कर देते हैं इसमें किसी दूसरे की सहायता नहीं लेनी पड़ती इस दृष्टि से मनुष्य अपने पशु वर्ग की बिरादरी में बहुत ही पिछड़ा हुआ है।

विकसित और समर्थ वह तब बनता है जब मानसिक चेतना का विकास एवं प्रयोग करने लगता है। बुद्धिबल उसकी विशेषता है उस पर धार दूरदर्शिता की खराद पर धरी जाती है। महानता का आरम्भ वहाँ से होता है जहाँ से अपने को कर्त्तव्य मर्यादा के अंतर्गत नियन्त्रण में लाता है—संयमी बनता है और उदार दृष्टिकोण अपनाकर दूसरों के प्रति ममता, करुणा जैसी कोमल सम्वेदनाओं से भाव भूमिका को समुन्नत बनाता है। वस्तुतः इन चेतनात्मक विभूतियों से ही मनुष्यता और महानता की मानवी गरिमा अविछिन्न रूप से जुड़ी हुई है।

उसकी चेतना प्रस्तुत पड़ी है। वह मात्र आहार, निद्रा भय मैथुन जैसी पशु प्रवृत्तियों से ही प्रेरणा ग्रहण करता है उसका चिन्तन इसी छोटे क्षेत्र में अवरुद्ध रहता है। ऐसे व्यक्ति जिन्दगी तो जी लेते हैं पर वह निरर्थक स्तर की होती है। जीव−जन्तु इन्हीं कार्यों में लगे रहते हैं और सृष्टि क्रम की धुरी पर लुढ़कते हुए जन्मते, बढ़ते और मृत्यु के ग्रास बनते हैं। मनुष्य जन्म जैसा सुविधा सम्पन्न साधन प्राप्त करके भी जो नर पशु भर बना रहा उसे ‘तुच्छ’ कहा जाय तो कुछ अनुचित नहीं।

कई बार तो वह तुच्छ से भी गई−गुजरी स्थिति पर जा पहुँचता है जब वह दुष्ट, क्रूर, क्रोधी, स्वार्थी, कृपण और उद्धत बनकर मानवी शालीनता का उल्लंघन करने पर उतारू होता है। नृशंस और अपराधी मनोवृत्ति का व्यक्ति असुर या पिशाच कहा जाता है।

‘सब कुछ हैं’ के प्रतिपादन में मनुष्य का वह स्तर आता है जिसमें उसके सद्गुण और सत्कर्म सुविकसित स्थिति तक पहुँचे हुए दृष्टिगोचर होते हैं। सचमुच बीज रूप में उसके अन्दर वे विशेषताएँ भरी पड़ी हैं जिन्हें दैवी कह सकते हैं। वे विकसित हो सकें तो महामानव, ऋषि, देवता ही नहीं भगवान बन सकना भी उसके लिए सम्भव है। उसके भीतर समस्त दिव्य सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। उन्हें विकसित करने और सदुपयोग में लाने की चेष्टा में निरत रहकर वह प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँच सकता है। शास्त्रकार ने सच ही कहा है—मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं है। उसे बहुत कुछ ही नहीं सब कुछ भी कहा जा सकता है।

अनर्थमय, निरर्थक एवं सार्थक जीवन इन तीन धाराओं में से वह किसी को भी चुन सकता है और निकृष्टता से लेकर उत्कृष्टता के किसी भी स्तर पर वह निश्चित रूप से पहुँच सकता है इसलिए वह अद्भुत है और अनुपम भी उसकी चेतना की मूलसत्ता सर्व समर्थ समस्त सम्भावनाओं से भरी पूरी कही जा सकती है।

सब कुछ होते हुए भी वह कुछ नहीं, तब बनता है जब उसकी चेतना अविकसित रह जाती है अथवा कुमार्ग की ओर अग्रसर होती है। श्रेष्ठता और निष्कृष्टता के दोनों ही तत्व उसके भीतर विद्यमान हैं। पानी नीचे सहज ही ढुलता है, निम्नगामी दुष्प्रवृत्तियाँ गिराने का काम सहज ही कर लेती हैं, पर ऊँचा चढ़ाने के लिए प्रबल प्रयासों की जरूरत पड़ती है। सद्ज्ञान सम्वर्धन का—बौद्धिक आधार और सत्कर्म का−व्यावहारिक वातावरण पैदा करना जिस शिक्षा का कार्य है वस्तुतः मानवी महानता का श्रेय उसे ही दिया जा सकता है। धर्म और अध्यात्म का दर्शन उसी महानता सम्वर्धन की—सब कुछ बनाने की भूमिका सम्पन्न कर सकने के लिए बनाया गया है। मानवी प्रगति का वही सबसे बड़ा आधार है।


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