जीवन विद्या संसार की सर्वोपरि उपलब्धि

November 1974

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हम धरती के प्राणी, स्वर्ग के देवताओं की कल्पना करते हैं और उनकी क्षमता तथा सुख−सुविधाओं को मनुष्य की अपेक्षा असंख्य गुनी मानकर इस बात के लिए ललचाते हैं कि हम भी उनकी स्थिति में होते तो कितना अच्छा होता। ठीक यही बात इस संसार के अन्य प्राणी सोच सकते हैं कि हमारी तुलना में मनुष्य कितना सौभाग्यवान है यदि उसकी स्थिति हमें मिल जाती तो कितने आनन्दित होते। सचमुच बात ऐसी ही है। अन्य जीव उदर पूर्ति के लिए हर दिन घोर परिश्रम करते हैं। तनिक सी विपन्नता आने पर उन्हें भूखा रहना पड़ता है। सुविधा के नाम पर शरीर और प्रकृतिगत अन्य जीवित रहने योग्य सुविधाओं के अतिरिक्त उनके पास और कुछ भी नहीं है। तनिक सी प्रकृति प्रतिकूलताएँ उन्हें कुचल−मसलकर रख देती है जबकि मनुष्य प्रकृति की विपन्नताओं को चुनौती देता हुआ उसकी रहस्यमय शक्तियों को क्रमशः करतलगत करता चला जा रहा है।

प्राणी का यह असाधारण सौभाग्य है कि उसे मनुष्य जन्म मिले। जिसे यह सुअवसर मिला है उसे यह जानना चाहिए कि इसे किस प्रकार जिया जाय। इसका समुचित लाभ कैसे उठाया जाय। यह ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। इसे संसार के समस्त ज्ञानों में सर्वोपरि एवं सर्व प्रथम आवश्यकता का कहा जा सकता है। जिसे जीना नहीं आया कहना चाहिए उसे कुछ नहीं आया। भले ही अन्यान्य विषयों में उसकी जानकारी एवं कुशलता कितनी ही बढ़ी चढ़ी क्यों न हो। जिसे जीना आता है उसे विपरीत परिस्थितियों की—दूसरों के विरोध असहयोग की शिकायत नहीं करनी पड़ती। मनुष्य की अपनी सत्ता मूलतः समस्त सम्भावनाओं से भरी−पूरी है। श्रेष्ठता और समर्थता के समस्त बीज उसके भीतर विद्यमान हैं जिन्हें उगाकर वह अपने व्यक्तित्व को कल्प−वृक्ष जैसा समस्त सुविधाएँ सफलताएँ विनिर्मित कर सकने वाला बना सकता है। विपरीत परिस्थितियों और व्यक्तियों को सुधारने की अथवा उनके साथ ताल−मेल बिठाकर प्रसन्नतापूर्वक निर्वाह करने की व्यवस्था वह सहज ही उत्पन्न कर सकता है। उसकी शारीरिक, मानसिक क्षमताएँ इतनी प्रखर हैं कि उनका सही उपयोग करने पर अपने इर्द−गिर्द ऐसा वातावरण बना सकता है जिसे सन्तोषजनक उल्लासपूर्ण एवं उत्साह वर्धक कहा जा सके।

शारीरिक, मानसिक स्वस्थता बनाये रखना—निर्वाह के समुचित साधन जुटाये रहना एवं साथी सम्बन्धियों के साथ मधुर सहयोग की स्थिति बना लेना पूरी तरह उसकी अपने हाथ की बात है। उसी तरह उपयुक्त कामों का चुनाव एवं उसको पूरा करने की सफलता प्राप्त करना उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। इसके लिए उसे अतिरिक्त रूप से कुछ करना या पाना नहीं है मात्र जीवन जीने की कला को जानना भर है। यदि मनुष्य इतना कर सके तो सुखी, सन्तुष्ट और सफल जीवन जी सकने में कोई सन्देह नहीं रह जायगा।

साधारण औजारों या मशीनों को चलाने के लिए उस संदर्भ में आवश्यक जानकारी एवं कुशलता उपार्जित करनी पड़ती है। एक से एक बढ़कर बहुमूल्य मशीनें मौजूद हैं पर उनका लाभ केवल वे ही उठा सकते हैं जिनको उन्हें चलाने या सुधारने की जानकारी प्राप्त है अन्यथा वे यन्त्र कूड़े के ढेर की तरह निरुपयोगी रहेंगे। इतना ही नहीं यदि उन्हें अनाड़ीपन से चलाया गया तो विपत्ति भी उत्पन्न करेंगे। मोटर कितनी ही कीमती क्यों न हो यदि चलाना न आने पर भी कोई उसे चलाने लगे तो निश्चित रूप से उसे तोड़−फोड़कर रख देगा और अपने लिए प्राण−संकट उत्पन्न करेगा। मानवी सत्ता इतनी बहुमूल्य—इतनी सम्वेदनशील और जटिल है कि इसे यदि ठीक तरह उपयोग में लाया जा सके तो उतना कुछ पाया जा सकता है जिसके आधार पर उसे सर्वथा सार्थक और सफल कहा जा सके। इसके विपरीत उसका अनाड़ी उपयोग इतने रोग−शोक जमा कर देगा कि उस विपन्न स्थिति की तुलना में पशु−पक्षियों और कीट−पतंगों की जिन्दगी को भी अच्छी कहा जा सके।

ऐसे मनुष्यों की कमी नहीं जो अगणित कष्ट संकटों से भरा विपन्न जीवन जीते हैं और हर घड़ी अपने दुर्भाग्य को रोते हैं। मौत को याद करते हैं और निरन्तर अशान्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे लोग बहुत कम मिलेंगे जो अपनी स्थिति से सन्तुष्ट हों और आनन्द, उल्लास के—सन्तोष, उत्साह के दिन व्यतीत कर रहे हैं। आश्चर्य होता है कि सृष्टि का मुकुटमणि बना हुआ—समस्त सुविधा सम्भावनाओं से भरा−पूरा मनुष्य क्यों दुख दुर्भाग्य के दिन काटता है। क्यों नहीं अपनी सर्वोपरि विभूतियों का लाभ उठाकर निरन्तर आनन्द मग्न रहता? इस प्रश्न का उत्तर ही है—जिन्दगी जीने की कला से अपरिचित होना। अपने आपे का अनाड़ीपन से प्रयोग करना। मोटर सञ्चालन से अपरिचित व्यक्ति जब उस धकापेल चलाने का दुस्साहस करता है तो स्वभावतः दुर्घटनाएँ होती हैं। टक्कर खाने, खड्ड में गिरने, किसी को कुचल देने, मशीन को तोड़−फोड़ लेने जैसी विपत्तियाँ उसके सामने आयेंगी ही। यह भी संभव है कि वह उस कीमती यन्त्र को क्षत−विक्षत करने के साथ साथ अपने ही हाथ पैर तोड़ ले अपने लिए ही प्राण संकट उत्पन्न कर ले।

हममें से अधिकाँश मनुष्य यही करते हैं और विविध−विधि रोग−शोक उत्पन्न करते हैं—अपनी करनी भोगते और अपने प्रारब्ध को रोते हैं। वस्तुतः यह दयनीय स्थिति अपनी ही पैदा की हुई होती है। जिन पशु−पक्षियों ने मनुष्य की आधीनता स्वीकारी नहीं की है उन वन्य जीव−जन्तुओं में से कोई बीमार नहीं पड़ता। सृष्टि के नियमानुसार जन्मते−मरते तो वे भी हैं, पर बीमारी का दुख नहीं भुगतते। केवल मनुष्य ही है जो आये दिन चित्र−विचित्र बीमारियों का दुख भुगतता है। इसका कारण स्वास्थ्य रक्षा के नियमों से अपरिचित होना या उनकी अवज्ञा करना ही होता है। संयम और व्यवस्था को अपनाने वाले सहज ही निरोग दीर्घजीवन प्राप्त करते हैं। आहार−विहार सम्बन्धी भूलों को समझ और सुधार लेने वाले कठिन और पुरानी बीमारियों से बिना किसी खर्चीले उपचार के सहज ही अपना खोया स्वास्थ्य प्राप्त कर लेते हैं। इसके विपरीत अप्राकृतिक रीति−नीति अपनाये रहने वाले जो लोग मात्र दवादारू के बल पर रुग्णता से छुटकारा पाना चाहते हैं उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। बीमारी और दुर्बलता भी वर्तमान सभ्यता का एक अंग बन गई है। प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहने वाली शरीर सञ्चालन रीति−नीति अपनाने का स्वाभाविक परिणाम वह है जो व्यापक रुग्णता के—अकाल मृत्यु के रूप में हमें भुगतना पड़ता है। इसमें अधिकाँश दोष अपने अनाड़ीपन का ही होता है—विपरीत परिस्थितियों का बहुत कम।

मस्तिष्क यों शरीर का एक अवयव मात्र है, पर उसकी क्षमता ऐसी है जिसे अद्भुत और आश्चर्यजनक कहा जा सके। उसी से हम सोचते, निर्णय करते एवं दिशा ग्रहण करते हैं। स्वभाव और आदतें इसी क्षेत्र की उपज हैं। किस परिस्थिति से क्या सम्वेदना अनुभव की जाय, यह निष्कर्ष निकालना इसी यन्त्र का काम है। असन्तोष−सन्तोष, भय−भीरुता, निर्भय, शौर्य साहस, आशंका−निश्चिन्तता, दुर्भाग्य−सौभाग्य, निराशा−आशा, खिन्नता−प्रसन्नता जैसी विपरीत मनःस्थिति वस्तुतः घटना−क्रम एवं परिस्थिति से उतनी सम्बद्ध नहीं होती जितनी कि सोचने की आदत पर निर्भर रहती है। एक जैसी परिस्थिति में रहने वाले दो व्यक्तियों में एक सन्तुलित रहता है और दूसरा अति खिन्न उद्विग्न दिखाई पड़ता है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण छात्रों में से एक उसे संयोग या आलस की प्रतिक्रिया मात्र मानकर उससे अधिक जागरूकता और श्रमशीलता की प्रेरणा प्राप्त करता है और अगले वर्ष उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण होता है। जबकि दूसरा छात्र फेल होने के आघात से तिल−मिलाकर पढ़ाई ही छोड़ बैठता या आत्महत्या जैसे कुकृत्य करने पर उतारू हो जाता है। यदि परिस्थितियों की ही यह प्रतिक्रिया रही होती तो सभी अनुत्तीर्ण होने वाले छात्रों को एक जैसे कदम उठाने चाहिए थे, पर एक ने एक तरह सोचा और कदम उठाया दूसरे ने दूसरी तरह समझा और वैसा कदम बढ़ाया। इसमें उनके चिन्तन की—मानसिक स्थिति की—भिन्नता ही मूल कारण थी। एक दुर्जनता के पथ पर चलते हुए पतन के गर्त में गिरता है और दूसरा सज्जनता की नीति अपना कर क्रमशः प्रगति के उच्च शिखर पर चढ़ता जाता है उसमें कोई अन्य कारण नहीं मात्र चिन्तन की धारा, मस्तिष्क की गतिविधि ही प्रमुख आधार होती हैं।

कुछ लोग गरीबी के बीच भी हँसी−खुशी का उल्लास भरा जीवन जीते हैं जबकि दूसरे विपुल सम्पदाओं के स्वामी होते हुए भी निरन्तर खीज और झुँझलाहट से उद्विग्न दिखाई पड़ते हैं इसका कारण धन नहीं उनका परिष्कृत अथवा विकृत दृष्टिकोण ही होता है। घटिया स्तर के कुटुम्बियों के साथी सहायकों के बीच भी कितने ही लोग ताल−मेल बिठा लेते हैं और सुधार की यथासम्भव चेष्टा करते हुए शान्ति सन्तुलन बनाये रहकर दिन गुजारते हैं इससे विपरीत कितने ही ऐसे होते हैं जो अपनी इच्छा के विपरीत किसी की राई−रत्ती भिन्नता भी सहन नहीं करते और जहाँ तनिक सा मतभेद दीखा कि आग−बबूला हो जाते हैं—मरने−मारने पर उतारू होते हैं। ऐसे असहिष्णु व्यक्ति क्रोध और असन्तोष की आग में निरन्तर जलते रहते हैं अपने को शत्रुओं से घिरा देखते हैं—जबकि दूसरे लोग घोर मतभेदों और भिन्नता के रहते हुए भी सहमति के कितने ही आधार खोज लेते हैं। जिनके साथ रहना ही है उनके साथ कामचलाऊ समन्वय स्थापित कर लेते हैं।

सोचने की उत्कृष्टता का नाम ही स्वर्ग है। हँसते मुसकराते हुए सुख−चैन की जिन्दगी केवल वे ही जी सकते हैं जिनने अपना चिन्तन−दृष्टिकोण सही बना लिया। विकृत मनःस्थिति का ही दूसरा नाम नरक है। परिस्थितियाँ भली बुरी कैसी भी क्यों न हों ऐसे लोग स्वयं रोष आवेश में जल रहे होंगे और अपने सम्बन्धियों को भी जला रहे होंगे। जिसे मस्तिष्क की क्षमता को समझने और उसके सदुपयोग की कला आती है वह देवोमय स्वर्गीय जीवन जी रहा होगा। विपरीतताओं के साथ घोर संघर्ष करने में भी उसकी आन्तरिक शालीनता यथा स्थान बनी रहेगी।

शरीर और मन का सदुपयोग करने की कला में अभ्यस्त व्यक्ति निरोग और प्रसन्न चित्त पाये जायेंगे। उनका व्यक्तित्व भारी भरकम और प्रतिभा सम्पन्न दिखाई देगा। देह का परिपुष्ट या सुन्दर होना उतना आवश्यक नहीं, जितना संयम द्वारा उत्पन्न हुई स्फूर्ति। मन को प्रसन्न करने के लिए सुविधा साधनों का बाहुल्य उतना अभीष्ट नहीं, जितना दृष्टिकोण का परिष्कृत स्तर। परिस्थितियाँ अपने हाथ में नहीं, जो चाहते हैं वही उपलब्ध हो जाय यह आवश्यक नहीं। पर यह पूरी तरह अपने हाथ की बात है कि अपने शरीर और मन की गतिविधियों को दूरदर्शिता पूर्ण आधार पर निर्माण निर्धारण करें और प्रतिकूलताओं के बीच अनुकूलता को उगा सकने में सफलता प्राप्त करें। शरीर और मस्तिष्क का नियन्त्रण−सञ्चालन जिसे आ गया वह एक कुशल ड्राइवर की तरह अपनी जीवन सत्ता रूपी मोटर को प्रगति के राज मार्ग पर द्रुतगति से दौड़ता हुआ चला जायगा और सर्वतोमुखी सफलता प्राप्त करेगा। जिसे यह सब नहीं आता वह दूसरों को दोष देता हुआ रोते−कलपते मौत के दिन पूरे करेगा।

अर्थ कष्ट से अधिकाँश लोग दुखी पाये जाते हैं। वे अकस्मात अप्रत्याशित धन लाभ होने की आशा लगायें बैठे रहते हैं। यह भूल जाते हैं कि योग्यता और श्रमशीलता की वृद्धि करके ही अधिक धन कमाया जा सकता है। इस ओर से उदासीन रहकर सही स्वाभाविक अर्थोपार्जन नहीं हो सकता। शारीरिक, मानसिक श्रम सन्तुलन को अधिक प्रखर बनाकर आर्थिक प्रगति की ओर बढ़ा जा सकता है। मधुर और मिलनसार स्वभाव बनाकर ऐसे सहयोगी बढ़ाये जा सकते हैं जिनकी सद्भावनाएँ आर्थिक प्रगति में भी सहायता कर सकें। इसके अतिरिक्त आमदनी से खर्च कम रखने के सम्बन्ध में कड़ाई बरती जा सकती है। अन्धाधुन्ध बच्चे पैदा करके अपने पैरों अर्थ संकट की कुल्हाड़ी मारने से कोई भी दूरदर्शी बचा रह सकता है। ठाठ−बाठ के—व्यसन और अपव्यय के कितने ही खर्च ऐसे किये जाते रहते हैं जिन्हें हटाकर सादगी का शालीन रहन−सहन अपनाया जा सकता है और उस बचत से उपयोगी आवश्यकताएँ पूरी करते हुए सुख पूर्वक रहा जा सकता है। आमदनी बढ़ाने की क्षमता विकसित करने की अपेक्षा लोग खर्च बढ़ाने में उत्साह दिखाते रहते हैं और अर्थ संकट में फँसते हैं। यदि अर्थ व्यवस्था के सम्बन्ध में सुनियोजित दृष्टिकोण रहे तो वे लोग जो दरिद्रता का निरन्तर कष्ट भोगते रहते हैं, अपने बोये अर्थ संकट से छुटकारा पा सकते है। कम आजीविका वाले ऐसे कितने ही लोग मिल सकते हैं जो अपने लिहाफ की लम्बाई देखकर पैर पसारते हैं और सुखपूर्वक गहरी नींद सोते हैं।

दाम्पत्य−जीवन को सुखद, सरस एवं सहयोग पूर्ण बनाये रहने का कितना अधिक लाभ है इसे समझा नहीं गया। उसका संयुक्त परिवार की सुव्यवस्था पर—भावी पीढ़ियों पर—अर्थ व्यवस्था पर—घर की प्रसन्नता, प्रफुल्लता एवं प्रगति पर कितना प्रभाव पड़ता है इसका लेखा−जोखा उन परिवारों की तुलना करके लिया जा सकता है जहाँ असहयोग के कारण सम्पन्नता होते हुए भी सब कुछ नारकीय बना हुआ है और सहयोग के कारण जहाँ स्वर्ग की झाँकी देखने को मिल रही है वहाँ कई बार तो रूप, यौवन, शिक्षा, कुशलता, सम्पन्नता आदि के रहते हुए यह उपलब्धियाँ दाम्पत्य−जीवन में स्नेह, सामंजस्य बना रहने के कारण ही सम्भव हुई होती हैं।

माता का अपनी सन्तान के प्रति वात्सल्य होना जिस प्रकार स्वाभाविक है उसी प्रकार पति−पत्नी के बीच भी भावनात्मक एकता की कड़ी सहज ही जुड़ी होती है। सरसता अर्थ व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था आदि कितने ही कारण एक दूसरे को घनिष्ठता की जंजीरों में जोड़ते हैं। नर नारी का प्रकृति प्रदत्त, आकर्षण और दोनों की संयुक्त उपार्जित सन्तान इस कड़ी को और भी मजबूत बनाती है। इतनी सहज स्वाभाविकता के रहते तनिक सी सावधानी उदारता और मृदुलता बरतने पर दोनों एक दूसरे के गुलाम बनकर रह सकते हैं। एक दूसरे को सुखी और सुविकसित बनाने में भारी योगदान दे सकते हैं। इस आधार पर छोटे घर घरौंदों में स्वर्ग की झाँकी देखी जा सकती है। किन्तु यह सौभाग्य कितनों को मिलता है अधिकाँश पति−पत्नी विवशता के कारण ही आपस में जुड़े रहते हैं लोक−लाज, अर्थ व्यवस्था, कामलिप्सा, सन्तान बन्धन आदि के कारण ही किसी प्रकार दिन काटते रहते है। भीतर ही भीतर उनमें घोर असन्तोष और उपेक्षा−भाव भरा रहता है—स्नेह, सद्भाव का नाम भी नहीं होता—लोक−व्यवहार मात्र निभता रहता है। इस दयनीय स्थिति से वे बच सकते हैं जिन्हें जीवन जीने की कला का ज्ञान है और यह जानते हैं कि साथी का दिल किस सद्व्यवहार से जीता जा सकता है।

सन्तानें कितनों की सुसंस्कृत होती हैं यह तलाश करने पर निराशा ही हाथ लगती है। पुरानखण्डी लोग वंश चलाने, मरने पर पिण्ड मिलने जैसी थोथी बातों को भी सच मानते हैं और सन्तान न होने पर या लड़कियाँ होने पर आँसू ढुलकाते हैं। अधिकाँश की सन्तानें अनियन्त्रित काम−सेवन का अनिच्छित दुष्परिणाम मात्र होती हैं। कितने ही उनमें कौतूहल, मनोविनोद और समय काटने की बात सोचते हैं। कई इसे विधि का विधान मानते हैं कुछ बेटों की कमाई खाने और बुढ़ापे में सहारा मिलने की बात सोचते हैं, कई का अनुमान होता है समर्थ बेटे अपने छोटे भाई−बहिनों की सहायता करके उनकी जिम्मेदारियों का बोझ हलका करेंगे। बड़ी पदवी पाकर उनका गौरव बढ़ायेंगे। इसी प्रकार के अन्यान्य विचारों में उलझे हुए लोग सन्तान सुख के स्वप्नों में खोये रहते हैं और बच्चे बढ़ाने और उनके लिए अधिक कमाने के कोल्हू में पिसते रहते हैं। यही है आज की सन्तानोत्पादन विडम्बना की परिधि। लोग बच्चों के लिए अर्थ साधन जुटाते रहने भर को अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मानते रहते हैं।

ऐसे कितने लोग हैं जो सन्तान को इसलिए उत्पन्न करते हैं कि राष्ट्र को सुयोग्य, सुसंस्कृत नागरिक भेंट करके अपने को धन्य बनायें। हाड़−माँस के पिण्ड को भोजन, वस्त्र, शिक्षा, शादी आदि की व्यवस्था जुटाकर नर−पशु के रूप में बड़ा कर देना और अपने पैरों खड़ा कर देना कुछ कठिन काम नहीं है, पर यह बड़ी बात है कि गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से सुविकसित सन्तान का निर्माण किया जाय। ऐसा करना उन्हीं के लिए सम्भव है जो जीवन तत्व को और उसके साथ जुड़े हुए उच्चस्तरीय उत्तरदायित्वों का महत्व समझते हैं। सन्तान का विकास वैसा ही है जैसा किसी कुशल माली द्वार छोटे पौधों का सुरम्य उद्यान के रूप में सुविकसित करना। इसके लिए अनवरत साधना करनी पड़ती है और बच्चों के व्यक्तित्व को सुसंस्कृत बनाने पर हर घड़ी ध्यान रखना पड़ता है उन्हें उपयुक्त मार्ग−दर्शन ही नहीं परिष्कृत वातावरण भी देना पड़ता है। यह सब बहुत झंझट भरा काम है इसमें बच्चों का नहीं अपना निर्माण एक ऐसे अच्छे साँचे के रूप में करना पड़ता है जिसमें सुन्दर खिलौने ढाले जा सकें। इसकी योग्यता और तैयारी जिसकी हो सकती है जिसने जीवन के महत्व और उत्तरदायित्वों की गम्भीरतापूर्वक समझा है और उसके लिए अपने आपको तत्परतापूर्वक प्रशिक्षित किया है। उन्हीं को सन्तानोत्पादन का सच्चा प्रतिफल मिल सकता है वे ही एक सुयोग्य पिता को मिल सकने वाले श्रेय सन्तोष का लाभ ले सकते हैं।

यहाँ चर्चा सामान्य औसत दर्जे के मनुष्यों की हो रही है। शारीरिक स्वस्थता, मानसिक सन्तुलन, अर्थ सुविधा, दाम्पत्य सरसता, सुयोग्य सन्तान, वयोवृद्धों का सन्तोष, संयुक्त परिवार में सामंजस्य, विनोद सन्तोष भरा वातावरण, श्रेय सम्मान, सफलताओं का गौरव कौन नहीं चाहता, आमतौर से इन्हीं की इच्छा आवश्यकता को पूरा करने में पूरी जिन्दगी खप जाती है। किन्तु इसी एक राह पर चलने वाले असंख्यों में से कोई विरला ही मंजिल पूरी करता है अधिकाँश तो जंजाल में भटकते हुए दिन गुजारते हैं और हर क्षेत्र की असफलताओं पर खिन्न रहते—असन्तुष्ट असफल जीवन जीते मौत के मुँह में चले जाते हैं। असफलताओं का दोष परिस्थितियों पर व्यक्तियों पर थोपने से अपने को निर्दोष समझने की सान्त्वना तो मिल जाती है, पर उस आत्म प्रवञ्चना से भी कुछ बनता नहीं। थोड़ा सा जी हलका कर लेने पर भी दूसरों पर दोष मढ़ने से भी स्थिति जहाँ की तहाँ रहती हैं उसमें कुछ अन्तर नहीं आता।

धर्म, अध्यात्म, परलोक इससे आगे का विषय है। अन्तःक्षेत्र में प्रसुप्त पड़ी हुई रहस्यमय क्षमताओं का विकास करने से मनुष्य अतीन्द्रिय क्षमताएँ प्राप्त करता है और अति मानव स्तर पर जा पहुँचता है जहाँ उसे महामानव, ऋषि अथवा देवता कहा जाने लगता है। अपने समय के समाज को मोड़ता है—युग का नेतृत्व करता है और उलझी हुई गुत्थियों को सुलझाता है। आत्मबल, मनोबल का अपना महत्व है। मनस्वी क्या नहीं कर गुजरते। ओजस्वी लोगों के लिए क्या कुछ कठिन होता है। आत्मबल चेतन जगत का सबसे बड़ा बल है। उसे प्राप्त करके मनुष्य इतना बलवान हो जाता है जिसकी तुलना में कोई बलिष्ठ से बलिष्ठ सत्ता ठहर नहीं सकती। इन उपलब्धियों को उपार्जित करने के लिए भी जीवन साधना ही करनी पड़ती है। लोगों का यह भ्रम नितान्त मिथ्या है कि अमुक कर्मकाण्डों के विधि−विधानों से जादुई जप−तप करने से चमत्कारी, आत्म−शक्तियाँ प्राप्त होती हैं अथवा कोई देवी−देवता सिद्ध होकर मनोवाँछित वरदान प्रदान करते हैं। वस्तुतः उपासनात्मक कर्मकाण्डों और विधि−विधानों के पीछे छिपी हुई साँकेतिक प्रेरणा यही है कि जीवन का अन्तरंग और बहिरंग स्वरूप निखारा जाय। उस पर चढ़े कषाय कल्मषों का आवरण उतारा जाय। यह प्रक्रिया पूजा−पाठ से या जिस भी उपाय से पूरी हे सकेगी उसी से आत्मोत्कर्ष का—आत्म−साक्षात्कार का—अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित करने का प्रतिफल प्राप्त होगा। उसी से वे लाभ प्राप्त होंगे जो विभिन्न उपासनाओं के फल महात्म्य रूप में गाये बताये गये हैं। वस्तुतः योग और तप का प्रयोजन व्यक्ति की आस्था, आकाँक्षा, भावना, दृष्टि, मान्यता एवं तत्परता को उत्कृष्टता के स्तर तक पहुँचाता है। इस स्थिति पर पहुँचते हुए मनुष्य का आत्मा ही परमात्मा की पदवी प्राप्त करता है और वही आत्मपरिष्कार का—युग सन्तुलन का महान् प्रयोजन पूरा करता है।

निस्सन्देह मानव जीवन एक दिव्य उपहार है। ईश्वर के पास इससे बड़ा और कोई वरदान प्राणी को देने के लिए है नहीं। समस्त संसार की प्रकृति सम्पदा एक ओर और मानवी सत्ता में बीज रूप से प्रसुप्त सम्भावनाएँ एक ओर रखकर यदि तोली जाँय तो मनुष्य की चेतनात्मक गरिमा ही भारी पड़ेगी। महर्षि व्यास की यह उक्ति अक्षरशः सत्य है कि−”एक रहस्य बताते है—मनुष्य से बढ़कर इस संसार में और कुछ श्रेष्ठ नहीं है।” पर यह भी स्मरण रखना चाहिए कि यह श्रेष्ठता जीवन विद्या के आधार पर ही जीवित जाग्रत है और प्रखर हो सकती है। इस संजीवनी विद्या का सीखना और सिखाया जाना इतना महत्वपूर्ण है कि इससे बढ़कर और कोई श्रेय साधन हो ही नहीं सकता।


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