भारत किसी समय उन्नति के उच्च शिखर पर था। यह पुण्य भूमि स्वर्गादपि गरीयसी मानी जाती थी। समस्त विश्व पर उसका चक्रवर्ती सांस्कृतिक शासन था। स्वर्ण सम्पदाओं का अधिपति उसे कहा जाता था। समस्त विश्व को उसने जो भौतिक और आध्यात्मिक अनुदान दिये उनसे सुविकसित, सुसंस्कृत बने लोगों ने कृतज्ञता पूर्वक उसे जगद्गुरु कहकर अपनी श्रद्धा व्यक्त की। इस देश के तैंतीस करोड़ नागरिक किसी समय संसार भर में तैंतीस कोटि देवताओं के नाम से प्रसिद्ध थे। भारत की गरिमा, ज्ञान और विज्ञान के—दर्शन और वैभव के क्षेत्र में गगनचुम्बी बनी हुई थी उसने अपने प्रकाश से सम्पूर्ण भू−मण्डल को आलोकित किया था। यहाँ का व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक जीवन इतना उच्चस्तरीय और सुख−शान्तिपूर्ण था कि सतयुग का वर्णन उस पर पूरी तरह लागू होता था।
इस विकास वैभव का सारा श्रेय यहाँ की वर्ण व्यवस्था प्रक्रिया को है जिसके अनुसार हर व्यक्ति को आधा जीवन अपने और अपने परिवार के लिए और आधा जीवन लोकमंगल के लिए निश्चित रूप से लगाना पड़ता था। भारत का सनातन वैदिक धर्म वर्णाश्रम धर्म है। इसमें भी आश्रम व्यवस्था मुख्य है। उस परम्परा के अनुसार जीवन को चार हिस्सों में विभाजित किया गया है। एक चौथाई शरीर और मस्तिष्क की परिपुष्टि के लिए ब्रह्मचर्य जिसमें खेलकूद, व्यायाम, इन्द्रिय संयम द्वारा शरीर की परिपुष्टि दूसरे चौथाई में—परिवार सँजोना और उसके भरण पोषण आदि उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए गृहस्थ में रहना—ब्रह्मचर्य व्यक्ति निर्माण और परिवार निर्माण है। इसमें आधी आयु लगती थी। शेष आधी आयु विशुद्ध रूप से समाज निर्माण के लिये निर्धारित थी। तीसरा चौथाई भाग वानप्रस्थ के लिए और चौथाई चतुर्थांश संन्यास के लिए। जीवन का उत्तरार्ध इन्हीं दो अनुशासनों में रहने के लिए नियत निर्धारित था। थोड़े से अन्तर के साथ वस्तुतः दोनों एक ही हैं, परिस्थितियों के अनुरूप थोड़ा कार्यक्रम ही भिन्न है—दिशा और लक्ष्य एक है।
वानप्रस्थ वह स्थिति है जिसमें घर−परिवार को पूरी तरह नहीं छोड़ा जाता वरन् दिशा निर्देश उसका भी किया जाता है और अधिक से अधिक समय लोक−मंगल के लिए नियत रहता है। इस स्थिति में अपने घर को ही तपोवन बनाकर अथवा तपोवन में घर आश्रम बनाकर रहा जाता है। बच्चों का उत्तरदायित्व पूरा हो जाने अथवा बड़े बच्चों द्वारा अपने छोटे भाई−बहिनों की जिम्मेदारी सम्भाल लेने पर अधेड़ व्यक्ति अपना ध्यान लोक−मंगल के विविध प्रयोजनों को पूरा करने में—उसके लिए आवश्यक क्षमता उपार्जित करने में संलग्न होता था। साथ ही परिवार से पूर्णतया सूत्र विच्छेद नहीं करता था उसकी भी देखभाल रखता था ताकि नये हाथों में परिवर्तित की गई सत्ता का दुरुपयोग न होने पाये। इस त्याग वैराग्य की स्थिति को पकने में जितनी देर लगती थी वह वानप्रस्थ की अवधि थी। इसके बाद संन्यास अर्थात् परिवार के उत्तरदायित्वों से पूर्ण मुक्ति—लोक−मंगल के लिए आवश्यक ज्ञान अनुभव एवं अभ्यास परिपुष्ट होने पर परिव्राजक रूप में जन–संपर्क के लिए धर्म यात्रा के लिए बढ़ते चलते रहना। इसी क्रिया−कलाप में जीवन की पूर्णाहुति कर देना−अपने को विश्व सम्पदा मानते हुए—विश्व नागरिक के कर्त्तव्य निबाहना।
वानप्रस्थ पीत वस्त्र धारण करते थे और संन्यासी भगवा गेरुआ। ताकि सर्व साधारण को उनकी स्थिति और जीवनयापन पद्धति का परिचय मिलता रहे। दोनों ही आत्म−कल्याण और समाज−कल्याण के उभय−पक्षीय महाप्रयोजन में तन्मयता पूर्वक संलग्न रहते थे और अपनी क्षमता का पूरा−पूरा लाभ समाज को देते थे। परिमार्जित दृष्टिकोण—भोगों से तृप्त−निवृत्त शरीर—विशद ज्ञान अनुभव—परिपक्व व्यक्तित्व जैसी अनेकों विशेषताओं से भरे पूरे व्यक्ति जब पूर्णतया निस्वार्थ भाव से−दिव्य भावनाओं से ओत−प्रोत होकर समाज को उत्कृष्ट बनाने की योगसाधना में−ईश्वर उपासना में संलग्न होते थे तो लोक−मंगल क्षेत्र पर्याप्त मात्रा में समाज के सुयोग्य निर्माताओं से भरा पूरा रहता था। उनके नेतृत्व में अनेकानेक प्रचारात्मक, रचनात्मक, संघर्षात्मक प्रवृत्तियाँ चलती थीं। जिनका लाभ देश और विश्व की जनता को पूरी तरह मिलता था। जहाँ बहुत बड़ी संख्या में सुयोग्य, परिष्कृत और परमार्थ परायण, लोक−सेवी अपना पूरा जीवन अनन्य निष्ठा के साथ खपाये हुए हैं वहाँ सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन में कोई कमी न रहेगी। निश्चित है कि ऐसी स्थिति में ज्ञान−विज्ञान वैभव की−सुख−शांति की−प्रगति और समृद्धि की परिस्थितियाँ ही उमगती रही हैं, रहेंगी। आज सरकार को−संस्थाओं को−वेतन भोगी और खाना−पूरी करने वाले कर्मचारी ही मिल पाते हैं जो आधा चौथाई श्रम मनोयोग लगाकर उतने में भी लूट खसोट की दृष्टि रखकर जो काम करते हैं वे चिह्न पूजा भर के होते हैं। प्राचीन काल में समाज कल्याण की समस्त आवश्यकताएँ वानप्रस्थ संन्यासी सहज ही पूरी कर देते थे राज सत्ता के हाथ में तो मात्र सीमा सुरक्षा और दंडाधिकारी जैसे थोड़े और छोटे काम रहते थे।
यही है वह रहस्य जिसके आधार पर भारत अपनी सर्वतोमुखी प्रगति के लिए प्रख्यात बना था। उसकी प्रतिभा और उदारता का भरपूर लाभ समस्त संसार ने उठाया। आज वह वर्ण आश्रम अनुशासन नष्ट हो गया। मानवी गरिमा सिमट कर संकीर्ण स्वार्थपरता में सीमाबद्ध हो गई। छोटी आयु से ही लड़के कामुक रसोपयोग में रुचि लेते हैं और गृहस्थ की मानसिक, शारीरिक भूमिका में गुप्त−प्रकट रूप से प्रवेश पा लेते हैं यह क्रिया शारीरिक न सही मानसिक रूप में मरण क्षण तक चलती रहती है। होश सम्भालने के दिन से होश गँवाने के दिन तक लोग गृहस्थ ही बने रहते हैं। अब एक ही आश्रम बचा है—गृहस्थ। शेष तीनों समाप्त हो गये। इसी प्रकार चार वर्णों में से एक ही वर्ण जीवित है—वैश्य। लोग आजीवन धन का उपार्जन, संग्रह, अभिवर्धन एवं उपयोग करने की एक ही बात पर अपनी सारी शक्तियाँ केन्द्रीभूत किये रहते हैं। यह कैसी दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना है कि हिन्दू धर्म जीवित तो है—उसके अनुयायी भी करोड़ों हैं। पर उस महान् तत्व−दर्शन का प्राणी एक प्रकार से निकल ही गया है। निर्जीव लाश सड़ भर रही है। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की—ब्राह्मण और क्षत्रिय की तेजस्विता न जाने कहाँ चली गई। ज्ञान चेतना की ज्योति जलाये रहने वाले ब्राह्मण और अनीति के विरुद्ध लड़ते हुए मर खप जाने वाले क्षत्रिय अब कहीं ढूँढ़े नहीं मिलते। पाखण्डपूर्ण विडम्बनाओं में उलझे उलझाते भिक्षावृत्ति परायण लोग अपने को ब्राह्मण और उच्छृंखल आततायी, अहंकारी व्यक्ति अपने को क्षत्रिय बताते जरूर देखे सुने जाते हैं पर इन आश्रमों के महान उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने वाले उदार चेता महामानव आज कहीं ढूंढ़े नहीं मिलते। यही है हमारा—हमारी पुण्य भूमि और धर्म संस्कृति का महान् दुर्भाग्य जिसने हमें दयनीय दुर्दशा में धकेल दिया। प्राचीन काल की और आज की अपनी स्थिति की जब तुलना करते हैं तो रोना आता है। लज्जा से सिर नीचा हो जाता है।
स्थिति को बदला जाना चाहिए। अगति के गर्त से उबरना चाहिए। युग की सर्वनाशी विभीषिकाओं से जूझना चाहिए और अपनी प्राचीन गरिमा को पुनः प्राप्त करने के लिए अभिनव साहस सँजोना चाहिए। इस संकल्प के साथ हम आगे बढ़े तो एक ही प्रमुख आवश्यकता सामने आ खड़ी होती है—परिष्कृत स्तर का—लोक सेवियों का बड़ी संख्या में पुनर्निर्माण। वानप्रस्थ अनुशासन का पुनः प्रचलन। ढलती आयु के लोग सुयोग्य व्यक्ति अपना जीवन लोक−मंगल के लिए लगा देने के लिए तत्पर किये जा सकें तो उस सृजन सेना के द्वारा मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न साकार किया जा सकता है−लक्ष्य पूरा हो सकता है।
आज की स्थिति में मनुष्य भयंकर रूप से स्वार्थी हो गया है लोभ और मोह ही उसका लक्ष्य है। पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और किसी बात में उसका उत्साह नहीं। दो ही आकाँक्षाएँ मन में रहती हैं एक वासना दूसरी तृष्णा। धर्म और अध्यात्म जीवित तो हैं, पर उनका स्वरूप एक प्रकार से घिनौना ही दृष्टिगोचर हो रहा है। मनुष्य में आदर्शवादी तेजस्विता उत्पन्न करने की क्षमता वे पूरी तरह खो बैठे हैं। अन्ध−विश्वास, पाखण्ड, पलायनवाद, परावलम्बन, अकर्मण्यता, भिक्षावृत्ति, कल्पना लोक की रंग−बिरंगी उड़ानें ही अब उन क्षेत्रों की उपलब्धियाँ हैं। ऐसी दशा में यह और भी कठिन है कि किस प्रकार किस आधार पर—किस वर्ग के लोगों को लोकसेवा की परमार्थ परायणता की ओर दुस्साहस भरे कदम बढ़ाने के लिए सफल आह्वान किया जाय। छाई तो हर दिशा में अन्धकारपूर्ण निराशा ही है फिर भी कुछ तो करना ही पड़ेगा। रास्ता कहीं से हो−किसी प्रकार तो निकालना ही पड़ेगा।
आशा−निराशा के झूले में देर तक झूलते रहने की अपेक्षा यह आवश्यक समझा गया है कि भारतीय संस्कृति का प्राण यदि किसी कोने में जीवित हो तो उसे पूरे चीत्कार के साथ आमन्त्रित किया जाय। ऐसा नहीं कि भारत भूमि पूरी तरह बंध्या और बंजर हो गई हो कहीं न कहीं इसमें जीवन होगा ही—कहीं तो प्राणों का स्पन्दन बचा ही होगा जहाँ उसका अस्तित्व शेष होगा वहाँ युग की पुकार पहुँचेगी ही और उस आह्वान का प्रत्युत्तर मिलेगा ही। अस्तु सजीव आत्माओं को संस्कृति की पुनः प्राण−प्रतिष्ठा के यज्ञ में अपने को अध्वर्यु उद्गाता बनाने के लिए दो कदम आगे बढ़ाकर आगे आने के लिए पुकारा गया है इसके लिए शान्ति−कुञ्ज द्वारा आमन्त्रण शंखनाद किया गया है। कह नहीं सकते कि गृहस्थ से निवृत्त—लोग आगे आवेंगे कि नहीं। इस स्तर के लोग लाखों की संख्या में मौजूद हैं, पर उनकी मनोभूमि जिस स्तर की बन चुकी है उससे कुछ बड़ी आशा करना व्यर्थ हैं। पकी लकड़ी कदाचित ही मुड़ती है। अधेड़ और ढलती आयु के गृह निवृत्त लोग कदाचित मिल जाते तो बहुत ही अच्छा होता पर पिछले दिनों का अनुभव बताता है कि उनका लोभ, मोह इस ढलती आयु में और भी अधिक प्रौढ़ हो चुका है। माला सटकाने का सरल समयक्षेप वे भले ही करलें−त्याग और बलिदान की कसौटी पर अपने को कसने और खरा उतरने की तेजस्विता वे एक प्रकार से खो ही बैठे हैं।
अब तक हमने कितने क्षेत्रों की देहरी पर इस संदर्भ में सिर पटका है किन्तु निराशा ही हाथ लगी है। देश में 56 लाख से अधिक पंजीकृत साधु बाबाजी हैं। उनमें से 56 भी लोक−मंगल के लिए मिल जाते तो भी कुछ काम चलता। पर उनमें से कुछ को भी स्वर्ग मुक्ति सिद्धि चमत्कार, मुफ्तखोरी और सस्ती अहंकारिता की क्षुद्रता से ऊपर उठाने में हमारे सारे प्रयत्न असफल हो गये। भूदेव कहलाने वाले ब्राह्मण वंश का परम्परागत उत्तरदायित्व क्या है यह हमने बार−बार सुझाया, समझाया और कहा जनमानस में जीवन जागृति के चेतना उत्पन्न करने में वे बहुत कुछ कर सकते हैं। पौरोहित्य कर्म से उनकी आजीविका चलती है और समय भी उसी में लगता है फिर यदि लोक−मंगल की प्रवृत्तियों को भी उसी में जोड़ दें तो क्या हर्ज है। उनकी सुविधा के लिए समूचे धर्म−तन्त्र को—युग की आवश्यकताओं को पूरा कर सकने योग्य प्रगतिशील बनाये रहने का सारा ढाँचा भी खड़ा कर दिया। सांगोपांग प्रक्रिया और पद्धति विनिर्मित करदी और यह भी प्रलोभन दिया कि इस प्रकार उनका पौरोहित्य−कथा वाचन−कर्मकाण्ड विवेकशील लोगों में भी स्थान पालेगा और आजीविका बढ़ाने के साथ−साथ यशस्वी होने का भी अवसर मिलेगा। पर वे प्रयास भी अरण्य रोदन ही सिद्ध हुए। आज सुविधाजनक सस्ती और बिना सिरदर्द की आजीविका को छोड़कर नये झंझट में पड़ने के लिए उनमें से कोई तैयार न हुआ। यही बात ढलती आयु के−गृह निवृत्त लोगों के सम्बन्ध में है। वे नाती−पोते खिलाते रहने और बहू−बेटों की गालियाँ खाने में ही पूर्ण सन्तुष्ट लगते हैं। बहुत हुआ तो सस्ती मुक्ति लूटने के लिए एकाध माला सटका लेने कहीं तीर्थयात्रा में भटक आये और औघड़ बाबा का ब्रह्मज्ञान सुन लिया उनके लिए परमार्थ के लिए इतना ही सन्तोषजनक है वे इससे आगे बढ़ने के स्वार्थ को परमार्थ में बदलने की बात गले नहीं उतार पाये। अस्तु वहाँ भी फिलहाल तो निराशा ही हाथ लगी है। सम्भव है समय के थपेड़े अथवा युग प्रवाह के उभार साधुओं, पुरोहितों और गृह निवृत्तों को अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य करें−−सम्भव है सुदूर भविष्य में कभी उपयोगी सत्ताएँ उन क्षेत्रों में उगें पनपें। भूमि तो तीनों ही उपजाऊ हैं। कभी सघन वर्षा होने लगी तो हरियाली इस क्षेत्रों में भी उग सकती है। पर आज तो यहाँ बंजर और रेगिस्तान ही दीख रहा है।
इन विकट परिस्थितियों में आपत्ति धर्म को पूरा करने के लिए उन लोगों को पुकारा गया है जिनकी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ अभी पूरी नहीं हुई; जिन्हें अपने कुटुम्ब का पालन करने के लिए रोज कुँआ खोदना और रोज पानी पीना पड़ता है। किन्तु यह कठिनाई होते हुए भी जिनके भीतर उच्चस्तरीय भावनाओं की कमी नहीं है जो देश, धर्म समाज संस्कृति के पतन पर दुखी हैं और कुछ करना चाहते हैं किन्तु विवशता उन्हें करने नहीं देती। ऐसे लोगों से उनकी स्थिति के साथ ताल−मेल बिठाते हुए यथासम्भव कुछ समय दान लोक−मंगल के लिए देते रहने के लिए बुलाया गया है।
प्रसन्नता की बात है कि वह आह्वान निरर्थक नहीं हुआ—अनसुना नहीं किया गया। गत वर्ष लगभग 200 वानप्रस्थ प्रशिक्षित किये गये थे और कार्य क्षेत्र में भेजे गये थे। वे सभी इसी स्तर के थे। वे सदा के लिए पूरा समय तो नहीं दे सकते पर प्रथम बार दो महीने का और भविष्य में हर वर्ष एक−एक महीने का समय तो किसी प्रकार निकाल सकने की व्यवस्था बनाने के लिए तत्पर हो ही गये, उनके द्वारा जो काम हुआ वह असाधारण रूप से आशातीत रूप से सफल एवं सन्तोषजनक रहा है। कार्य क्षेत्र में जाकर उन्होंने गजब की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की हैं—जागृति की नई लहरें उग आई हैं। आशा की नई ज्योति चमकायी है, इस स्तर के वानप्रस्थ जहाँ भी गये हैं जिन क्षेत्रों में भी भेजे गये हैं वहाँ से अत्यन्त सन्तोषप्रद समाचार आये हैं।
भले ही उनकी योग्यता, भाषण शैली अनुभवी नेता का स्थान ग्रहण करने की न रही हो पर स्वल्पकालीन मात्र एक महीने की शिक्षा और उनकी निजी भाव उत्कृष्टता ने मिलकर एक चमत्कार ही उत्पन्न कर दिया। अब हमें पूरा और पक्का विश्वास हो गया है कि साधु, पुरोहित और गृह निवृत्त लोग भले ही अपनी माँद में घुसे रहें नवयुग की आवश्यकता नई पीढ़ी के भावनाशील किन्तु गृह उत्तरदायित्वों में बँधे जकड़े लोगों से भी पूरी की जा सकती है, अस्तु हमारा सारा ध्यान अब इसी वर्ग के युग की पुकार पूरी करने के लिए आह्वान करने पर केन्द्रित है। आपत्ति धर्म को निबाहने के लिए हमें गृहस्थों में से ही अल्पकालीन वानप्रस्थ लेकर उस महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए आगे बढ़ना होगा। गतवर्ष के सफल प्रयोग ने हमारा उत्साह और भी अधिक बढ़ा दिया है।
ऐसा ही आपत्ति कालीन आपद् धर्म का थाईलैंड में भी सफल प्रयोग हुआ। उस देश में बौद्ध धर्म है। भिक्षु पुरोहित वहाँ के धर्माधिपति थे। उनके पाखण्ड प्रमाद से जनता ऊब गई तो नया प्रचलन किया गया कि सुयोग्य व्यक्तियों में से प्रत्येक एक वर्ष के लिए बौद्ध भिक्षु बने और संघ विहारों में रहकर आत्मोत्कर्ष एवं लोक−मंगल की समानान्तर साधनाओं में निरत रहे। इस अनुशासन को वहाँ के राजा भी मानते हैं। फलतः वहाँ अवैतनिक, सुयोग्य एवं भावनाशील लोकसेवियों की बड़ी संख्या उपलब्ध रहती है और उनके द्वारा समाज कल्याण की विविध प्रवृत्तियाँ पूरे उत्साह के साथ चलती रहती हैं। इसी आधार पर वह छोटा सा देश हर क्षेत्र में असाधारण प्रगति करके बड़े देशों को आश्चर्यचकित करने की उच्च स्थिति में रह रहा है।
यही प्रयोग हम लोग करने जा रहे हैं। गतवर्ष के प्रथम परीक्षण ने हमारा उत्साह कई गुना बढ़ा दिया है और अब अधिक भावावेश और गम्भीरतापूर्वक उन लोगों को आमन्त्रित कर रहे हैं जो मानव जीवन की गरिमा तथा उसके साथ जुड़ी हुई वेश, धर्म, समाज, संस्कृति की जिम्मेदारी को समझते हैं। जो व्यक्तिगत एवं पारिवारिक आवश्यकताओं को भी ध्यान में रखते हुए लोक−मंगल के लिये कुछ अनुदान प्रस्तुत करने के लिए आतुर हैं। ऐसे लोगों को कहा गया है कि वे प्रथम बार दो महीने का समय प्रशिक्षण के लिए निकालें और भविष्य में हर साल एक महीना दिया करें। ऐसे लोगों को “कनिष्ठ वानप्रस्थ” कहा जायगा। उनका संन्यास योगतप सीमित समय के लिए होगा नियत अवधि पूरी करके वे पुनः अपने कार्य पर लौट जाया करेंगे।
प्रथम बार में एक महीना शान्ति−कुञ्ज में उनका शिक्षण होगा जहाँ उन्हें अपने व्यक्तित्व को−−चिन्तन एवं स्वभाव को लोकसेवी की महान् परम्परा के अनुरूप परिष्कृत करने का विशेष रूप से शिक्षण दिया जायगा और यह सिखाया जायगा कि युग की आवश्यकता पूरी करने के लिए उन्हें विचार क्रान्ति का−−नैतिक क्रान्ति का—सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किन प्रचारात्मक, रचनात्मक और संघर्षात्मक प्रवृत्तियों के साथ करना होगा। संगइन−वक्तृत्व−संचालन, नेतृत्व एवं व्यवस्था से सम्बन्धित अनेकों सूत्र एवं उतार−चढ़ाव लोकसेवक के ज्ञान एवं अनुभव अभ्यास में रहने चाहिए उनकी सांगोपांग जानकारियाँ इस एक महीने की स्वल्प अवधि में अत्यन्त कुशलतापूर्वक पूरी कराने का प्रयत्न किया जाता है। हर रोज दस−दस घण्टे शिक्षण अभ्यास में संलग्न रहकर शिक्षार्थी उसे पूरा भी कर लेते हैं और इस योग्य बन जाते हैं कि कार्य क्षेत्र में जाकर उन्हें उपहासास्पद न बनना पड़े।
युग−निर्माण योजना की हजारों शाखाएँ समस्त भारत−वर्ष में फैली हुई हैं। उनमें हर वर्ष वार्षिकोत्सव करने की−दस−दस दिवसीय शिविर शिक्षण की व्यवस्था चलाई गई है। गायत्री यज्ञों के साथ−साथ युग−निर्माण सम्मेलन होते हैं। कार्यकर्त्ताओं और जनता के प्रबुद्ध वर्ग के नवनिर्माण अभियान को आगे बढ़ाने के लिए व्यावहारिक शिक्षण दिया जाता है इसका कार्यक्रम भी इन्हीं आयोजनों के साथ जुड़ा रहता है। यह मात्र समारोह ही नहीं होते उस अवसर पर अगले वर्ष की कार्यविधि भी निर्धारित की जाती है। इन आयोजनों का सञ्चालन, मार्ग−दर्शन करने के लिए यह कनिष्ठ वानप्रस्थ दो−दो की टोली में भेजे जाते हैं। एक−एक महीने की इस अवधि में उन्हें दस−दस दिन के तीन आयोजनों का सञ्चालन करना पड़ता है। इस प्रकार शान्ति−कुञ्ज में मिली बौद्धिक, सैद्धान्तिक एवं कार्य क्षेत्र में मिली व्यावहारिक क्रियात्मक शिक्षा के संयोग से उनका दो मास का प्रशिक्षण पूरा हो जाता है इसके बाद वे इस योग्य बन जाते हैं कि भविष्य में कहीं भी उन्हें आयोजनों के सञ्चालन के लिए—रचनात्मक प्रवृत्तियाँ आरम्भ कराने एवं गतिशील बनाने के लिए भेजा जा सके। हर साल एक महीने का समय उन्हें इसी प्रयोजन के लिये देते रहना पड़ता है।
इस वर्ष वानप्रस्थों को रामायण का आधार मानकर उसी के संदर्भों से बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक स्तर की समस्त गुत्थियों को सुलझाने वाली एक विलक्षण शैली का प्रशिक्षण किया जायगा। रामायण की लोकप्रियता के साथ युगानुरूप प्रगतिशीलता को जोड़ देने का यह एक अभिनव प्रयोग है। रामायण कथाओं के−भागवत सप्ताह स्तर के समारोह एवं एक मास तक चलने वाले रात्रि कथा प्रसंगों के रूप में स्थान−स्थान पर प्रवचन व्यवस्थाएँ चलाई जायेंगी। सम्मेलनों और विशेष आयोजनों में भी युगान्तरकारी विचारधारा को रामायण का सहारा लेकर ही प्रस्तुत किया जायगा। यह एक अभिनव एवं अद्भुत प्रयोग है। वानप्रस्थ इस शिक्षण को प्राप्त कर सहज ही कुशल धर्म प्रवक्ता की—युग−निर्माण के अनुरूप जन−मानस ढालने की—प्रक्रिया में पारंगत हो सकेंगे। इस नवीनता को ध्यान में रखते हुये जो वानप्रस्थ गतवर्ष शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं उन्हें भी आमन्त्रित किया गया है। नये शिक्षार्थी तो इस शिक्षा को प्राप्त करेंगे ही।
देश भर में नव−निर्माण की—लहर अगले दिनों प्रखर बनाई जानी है। इसलिये कितनी ही रचनात्मक प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाना पड़ेगा। पुस्तकालयों, वाचनालय, चलते−फिरते पुस्तकालय, प्रौढ़ पाठशालाएँ, व्यायामशालाएँ, घरेलू शाक वाटिकाएँ—सामूहिक श्रमदान से स्वच्छता, सार्वजनिक स्थानों का निर्माण, जीर्णोद्धार—विद्यालय की स्थापना, कुटीर उद्योग, सुरक्षा स्वयंसेवक दल, वृक्षारोपण, गौ संवर्धन आदि कितनी ही लोकोपयोगी प्रवृत्तियों का व्यापक रूप से सञ्चालन किया जाना है। संघर्षात्मक कार्यक्रमों में सामाजिक कुरीतियों, अन्ध−विश्वासों अनैतिक प्रचलनों का उन्मूलन प्रमुख है। दहेज, मृतकभोज, बड़ी दावतें, बहुसन्तति प्रजनन, नशेबाजी, माँसाहार, देवताओं के नाम पर पशु−बलि, अशिक्षा, गन्दगी, भूत−पलीत, भाग्यवाद, भिक्षा व्यवसाय, छुआ−छूत, ऊँच−नीच, बाल विवाह, अनमेल विवाह, पर्दाप्रथा, रिश्वत, जमाखोरी, मुनाफाखोरी मिलावट, गुण्डागर्दी, अपराधी मनोवृत्ति आदि समाज में फैली हुई अगणित दुष्प्रवृत्तियों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उपाय सोचे जायेंगे और कदम बढ़ाये जायेंगे।
राजनैतिक संघर्षों में अन्य अनेक राजनैतिक दल उलझे हुए हैं वे अपने ढंग से उस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। हम उस दिशा में दिलचस्पी रखते हुये भी दर्शक मात्र हैं। देश की सर्वांगीण प्रगति के लिये मात्र राजनीति ही सब कुछ नहीं है। उसके लिये अन्य क्षेत्रों में भी बहुत कुछ किया जाना है। अन्य क्षेत्र प्रायः सूने पड़े हैं। हमें उन्हीं उपेक्षित किन्तु राजनीति से भी महत्वपूर्ण कार्यों को हाथ में लेना है। हमारा कार्य क्षेत्र कितना ठोस, कितना व्यापक, कितना आवश्यक, कितना महत्वपूर्ण और कितना सत्परिणामदायक है इसे आज नहीं तो कल समझा जायगा। वानप्रस्थों को इन्हीं रचनात्मक प्रवृत्तियों का—विकासोन्मुख चेतनाओं का संचालन अभिवर्धन करना है। नव−निर्माण के इन्हीं प्रयोजनों की पूर्ति के लिए नई पीढ़ी के भावनाशील लोगों को आमन्त्रित किया गया है।
यों समय का सभी को अभाव रहता है। आर्थिक और पारिवारिक जिम्मेदारियाँ— नियत व्यवसाय एवं नौकरी से छुट्टी न मिलना, समय निकालने की गुंजाइश नहीं रहने देती। यह सब अपने स्थान पर सही होते हुए भी यह कहा जा सकता है कि जिन्हें अपने उच्चस्तरीय कर्त्तव्यों का ज्ञान है—समाज और संस्कृति के लिये दर्द है वे किसी न किसी प्रकार समय निकाल ही लेंगे, बीमारी जैसी कोई आपत्ति आने पर भी तो अवकाश निकालना पड़ता है। चोरी, अनावृष्टि जैसी कोई दुर्घटना घटित होने पर भी तो आर्थिक घाटा सहना पड़ता है। धर्म कर्त्तव्यों की पुकार को भी यदि वैसी ही स्थिति मान लिया जाय तो किसी न किसी प्रकार कनिष्ठ वानप्रस्थ के लिए प्रथम बार दो महीने का और भविष्य में हर साल एक महीने का समय आसानी से निकल सकता है। समय की माँग का पूरा करने के महान प्रयोजन को जो महत्व देगा उसे फुरसत न मिलने की शिकायत न करनी पड़ेगी।
गृहस्थ में रहकर वानप्रस्थ संन्यास आश्रम की—ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ण की समन्वित अनुभूति कितनी दिव्य होती है उसका रसास्वादन करने का अवसर यदि किसी को मिलता है तो वह एक अद्भुत और अनुपम आनन्द प्राप्त करने का सौभाग्य उपलब्ध करता है। तीर्थयात्रा पर्यटन, प्रवास एक मनोरम प्रेरणाप्रद दिव्य दर्शन प्राप्त करने के लिये लोग अक्सर लालायित रहते हैं और उस नवीनता को प्राप्त करने के लिये किसी न किसी प्रकार समय निकालते हैं, खर्च का प्रबन्ध करते हैं। कनिष्ठ वानप्रस्थ योजना के लिये कुछ समय निकालना उन सब मनोरंजन प्रयासों से कहीं अधिक आकर्षक प्रफुल्लता एवं नव−जीवन प्रदान करने वाला है। मनोविनोदों में केवल बाहरी प्रसन्नता प्राप्त होती है किन्तु इस दिव्य प्रयास में अन्तःकरण का कण−कण हर्षोल्लास से भर जाता है।
पतन के गर्त में निरन्तर गहरी धँसती जा रही है—सामूहिक आत्मघात के प्रयास में जुटी हुई मनुष्य जाति को इस धरती पर अपना अस्तित्व बनाये रहने योग्य बनाने के लिए जिन आज प्रबल प्रयासों की आवश्यकता है; उनमें वानप्रस्थ चेतना को पुनर्जीवित करना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। समय के प्रवाह को मोड़ने के लिये अनेकों उच्चस्तरीय कर्मवीरों की आवश्यकता है वे इसी खदान में से निकलेंगे। नाम यश के लिये मरने वाले बकवासी नेता अभिनेता अपनी उथली उछल−कूदों से कोई कहने योग्य सत्परिणाम उत्पन्न नहीं कर सकते इसके लिये भागीरथों, हरिश्चन्द्रों, दधीचों की परंपरा अपनाने वाले महामानवों की आवश्यकता पड़ेगी। उस प्रयोजन को पूरा करने के लिये अब सूर्य−चन्द्र नहीं निकलते तो हम छोटे−छोटे दीपकों को ही आगे आकर निविड़ अन्धकार की चुनौती स्वीकार करनी चाहिए। अपने परिवार के सद्−गृहस्थों को ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपनी व्यस्तता को निरस्त करके विश्व−मानव का उज्ज्वल भविष्य बनाने के लिये अपने आपको पूरे या अधूरे समय के लिये समर्पित करना चाहिये आखिर सीमा सुरक्षा के लिये लाखों बलिदानी वीर अभी भी जान हथेली पर रखकर आगे आते ही हैं−− फिर भावनात्मक नव−निर्माण का क्षेत्र ही क्यों सूना अधूरा पड़ा रहे?
आशा की जानी चाहिए कि अखण्ड−ज्योति परिवार की जीवन्त आत्माएँ युग की पुकार को पूरा करने के लिए संस्कृति की गौरव गरिमा को पुनर्जीवित करने के लिये आगे आवेंगी और नवम्बर से फरवरी तक चलने वाले वानप्रस्थ शिक्षण सत्रों में उनकी बड़ी संख्या में भर्ती होगी।