व्यक्ति और समाज निर्माण की सत्र–शिक्षा पद्धति

November 1974

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मानवी अन्तः चेतना को उच्च भूमिका में विकसित करने पर ही यह सम्भव है कि महत्वपूर्ण भौतिक एवं आत्मिक प्रगति की दिशा में अग्रसर हो सकें। प्रगति किसी भी दिशा में क्यों न की जाय उसमें धैर्य, साहस, शौर्य, व्यवस्था, नियमितता, तन्मयता, श्रमशीलता, दूरदर्शिता जैसे गुणों की आवश्यकता पड़ती है। भले ही कार्य चोरी−चालाकी जैसे निकृष्ट ही क्यों न हों उनमें भी सफलता उपरोक्त गुणों के आधार पर ही मिलेगी। यह सोचना सही नहीं है कि दुष्टता के आधार पर सफलताएँ मिलती है और अनैतिकता के सहारे ही प्रगति होती है। अनैतिकता और दुष्टता के फलस्वरूप आत्म प्रताड़ना, जन−तिरस्कार, राजदण्ड, सच्चे सहयोग का अभाव जैसे दुष्परिणाम ही सामने आते हैं। अनैतिक समझो जाने वाले मनुष्यों को जो सफलताएँ प्राप्त होती हैं वे उनमें भी पाये जाने वाले सद्गुणों के आधार पर मिलती हैं। दिशा भली थी या बुरी यह प्रश्न पीछे का है मूल बात यह है कि सद्गुण ही अभीष्ट परिस्थितियाँ आकर्षित करते हैं और उन्हीं के सहारे विभिन्न स्तर की सफलताएँ पा सकना सम्भव होता है। सद्गुणों के अभाव में किसी भी क्षेत्र में सफलता नहीं मिल सकती हैं यहाँ तक कि सफल चोर डाकू, छली, तस्कर भी नहीं बना जा सकता है। गुणों का नाम ही प्रतिभा है। उपार्जन और सम्वर्धन की शक्ति प्रतिभा में ही सन्निहित है।

मनुष्य का जीवन लक्ष्य सुख−शान्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हुए अपूर्णता से आगे बढ़कर पूर्णता को प्राप्त करना है। प्रखर परिष्कृत व्यक्तित्व एक प्रकार से बहुमूल्य पारस पत्थर है जो न केवल स्वयं यशस्वी होता है वरन् उसके संपर्क में आने वाला तुच्छ सा लोहा भी स्वर्ण के रूप में परिणत हो जाता है। एक व्यक्ति के संपर्क में आने वाले व्यक्ति भी अपने आप को धन्य बना लेते हैं। उसके प्रकाश एवं सहयोग का लाभ उठाकर प्रसन्नता पाते एवं समुन्नत बनते हैं। ऐसा गौरवास्पद जीवन स्वयं उस व्यक्ति की सुख−शान्ति को बढ़ाता है। व्यक्तित्व को प्रखर प्रतिभावान बनाता है और अपने संपर्क से समाज में स्वस्थ परम्पराएँ उत्पन्न करके सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त करता है। वस्तुतः परिष्कृत व्यक्तित्व ही किसी देश, समाज और युग की बहुमूल्य सम्पदा होते हैं।

सद्ज्ञान सम्पदा से यदि मनुष्य को सुसज्जित कर दिया जाय तो फिर वैयक्तिक और सामाजिक प्रगति के सतयुगी सत्परिणाम सर्वत्र बिखरे हुए दिखाई देंगे। सद्गुणों की विभूतियाँ भौतिक जीवन की अनेकानेक उपलब्धियाँ, स्मृद्धियाँ अनायास ही उगाती, बढ़ाती चली जायेंगी। अनेक उलझनें जो सुलझाये नहीं सुलझती परिष्कृत व्यक्तित्वों के निर्माण से अनायास ही हल हो जाती हैं और उन विपत्तियों की जड़ कट जाती है जो विभिन्न दिशाओं से खेदजनक संकटों के बादल जमा करती रहती हैं। हम जितनी जल्दी व्यक्तित्व को प्रखर बनाने वाले सद्ज्ञान की महिमा समझ लें उतना ही अच्छा है। इस दिशा में उठाया गया कोई भी कदम—कोई भी प्रयास मनुष्य जाति की समस्त संसार की अन्यतम सेवा सहायता करने वाला ही सिद्ध होगा।

चिरकाल से इस मान्यता से प्रभावित रहने के कारण अखण्ड−ज्योति द्वारा—गायत्री तपोभूमि द्वारा—युग−निर्माण योजना द्वारा विविध प्रयत्न सद्ज्ञान सम्वर्धन के लिए किये जाते रहे हैं। धर्म और अध्यात्म के दर्शन और व्यवहार में जो विसंगतियाँ, विकृतियाँ घुस पड़ी हैं उन्हें निरस्त करने का अनवरत प्रयत्न किया गया है और मानवी जीवन दर्शन का शाश्वत परिष्कृत सार्वभौम एवं सर्वोपयोगी स्वरूप क्या हो सकता है यह बताने का प्रयास किया जाता रहा है। इसी प्रयोजन के लिए विचार क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति और प्रचण्ड अभियान चलाया जाता रहा है। प्रचारात्मक, रचनात्मक एवं संघर्षात्मक शतसूत्री कार्यक्रमों की प्रक्रिया को सुसंगठित रूप से व्यापक बनाया जाता रहा है। इस दिशा में आशातीत सफलता भी मिली है।

अब उस शृंखला में एक कड़ी और जोड़ी जा रही है−जीवन निर्माण कला की—संजीवनी विद्या की व्यावहारिक शिक्षा व्यवस्था। उसे शान्ति−कुञ्ज हरिद्वार से आरम्भ किया गया है। इस आश्रम की स्थापना चार वर्ष पूर्व ही हुई है। इस स्वल्प अवधि में आवश्यक इमारत बन चुकी और वे साधन एकत्रित किये जा चुके जिनसे व्यक्ति निर्माण की शिक्षा का शुभारम्भ किया जा सके। यों इस प्रशिक्षण का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है ओर उसके लिए उससे भी अधिक साधन चाहिए जितने कि शिक्षा क्षेत्र को प्राप्त हैं। शिक्षा से विद्या की गरिमा एवं उपयोगिता निश्चित रूप से अधिक है। इसलिए कम से कम उतने साधन तो विद्या क्षेत्र को मिलने ही चाहिए जितने कि विभिन्न प्रकार के शिक्षालयों को इमारतों के—शिक्षकों के—उपकरणों के रूप में उपलब्ध हैं। पर वह सौभाग्य का दिन अभी दूर ही मालूम पड़ता है जबकि सद्ज्ञान की—विद्या की—आवश्यकता को गम्भीरता पूर्वक समझा जायगा और उसे मानव जाति की सबसे बड़ी आवश्यकता समझ कर अभीष्ट साधन जुटाने को सर्व प्रथम स्थान दिया जायगा। अभी तो मनुष्य की सारी आकाँक्षाएँ पेट और प्रजनन पर केन्द्रित हैं। वासना और तृष्णा की पूर्ति के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। लोभ और मोह अपनी परिधि से आगे की कुछ बात सोचने ही नहीं देता। ऐसी सघन अंधियारी में आशा की एक किरण फूटे तो वह भी कम नहीं। एक छोटा प्रयोगात्मक प्रयास आरम्भ किया जाय तो वह भी उत्साह वर्धक है। श्रीगणेश छोटे रूप में हो जाय तो छोटा बीज बोने और छोटे अंकुर फूटने पर यह प्रतीक्षा भी की जा सकती है कि यह शुभारंभ कभी विशालकाय वट वृक्ष के रूप में परिणत हो सकेगा।

मनुष्यों की व्यक्तिगत आकाँक्षा, अभिरुचि, योग्यता की दिशा में काफी भिन्नता होती है। समाज की आवश्यकताएँ भी बहुमुखी हैं। इसे देखते हुए व्यक्ति निर्माण—परिवार निर्माण और समाज निर्माण की विविध आवश्यकताओं को सन्तुलित रूप से पूरा कर सकने की दृष्टि से शिक्षा व्यवस्था सत्र पद्धति से बनाई गई है और उसमें विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति का समन्वय किया गया है। हो तो यह भी सकता था कि किसी एक ही विषय को हाथ में लिया जाता पर जीवन बहुमुखी है—समाज बहुमुखी है। एकांकी शिक्षा योजना अपूर्ण ही रहती और शरीर का एक अंग पुष्ट शेष दुर्बल रहने पर जिस तरह निराशाजनक स्थिति रहती है वही बात एकांगी एक क्षेत्रीय शिक्षा की होती। इन सब बातों पर विचार करते हुए फिलहाल मानव समाज की पाँच महती आवश्यकताओं की पूर्ति में योगदान दे सकने योग्य शिक्षा प्रक्रिया का शान्ति−कुञ्ज में श्रीगणेश किया गया है।

इन दिनों जो वर्ग चल रहे हैं वे निम्न प्रकार हैं।

(1)जीवन साधना—धर्म और अध्यात्म का प्रयोजन दर्शन और व्यवहार इस प्रकार समझना जिससे मनुष्य का दृष्टिकोण ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की आदर्शवादिता के अनुरूप ढल सके। उसकी अभिरुचि, आकाँक्षा उस स्तर की ढल जाय कि चरित्रवान बनने में ही उसे सफलता, बुद्धिमत्ता और प्रसन्नता अनुभव होने लगे। दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के दुष्परिणामों को वह भी भली प्रकार अनुभव करे और उनसे आग एवं विष की तरह बचे रहने की जागरूकता बरते। संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊँचा उठे और सामाजिक कर्त्तव्यों की पूर्ति के लिए अपने समय एवं धन का एक अंश निरन्तर लगाता रहे। लोकमंगल के लिए किये गये प्रयास को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ की पंक्ति में ही सम्मिलित कर ले। आज की परिस्थितियों में मनुष्य के सामने प्रस्तुत उलझनों को कैसे सुलझाया जाय और परिष्कृत परिस्थितियाँ बनाने का प्रयत्न किस प्रकार किया जाय—सुसंस्कृत जीवन का आरम्भ और विकास कैसे किया जाय यही इस शिक्षा वर्ग का स्वरूप है। योग−साधना के समकक्ष ही जीवन साधना को समझना और उसके लिए उसी स्तर पर प्रबल प्रयास करना इस वर्ग के छात्रों को सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप से सिखाया जायगा, इस मार्ग पर चलते हुए आने वाली कठिनाइयों की जानकारी एवं उनसे निबटने की कुशलता से इस वर्ग के छात्र भली प्रकार परिचित हो सकेंगे।

(2) वानप्रस्थ प्रशिक्षण—जिन व्यक्तियों की पारिवारिक जिम्मेदारियाँ पूरी या हल्की हो गई हैं उन्हें अपनी ढलती आयु का अधिकाँश समय निस्वार्थ भाव से लोकमंगल के लिए समर्पित करना चाहिए। यह मान्यता भारतीय धर्म की मूल्य मान्यताओं का प्रमुख अंग है। आश्रम धर्म में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, संन्यास का जो स्थान है उससे भी अधिक वानप्रस्थ का है। ढलती उम्र के हर व्यक्ति को अपना यह परम पवित्र कर्त्तव्य निबाहना चाहिए और समाज के अनुदानों से लाभान्वित होने का ऋण लोकमंगल के लिए जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग लगा कर चुकाना चाहिए। उस आदर्श को पुनर्जीवित करने और उसका सरल, सुलभ एवं व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करने की शिक्षा वानप्रस्थ शिक्षण सत्र के अंतर्गत आती है।

आज निस्वार्थ, कुशल, अनुभवी एवं भावना सम्पन्न लोक−सेवियों की बड़ी संख्या में अत्यधिक आवश्यकता है ताकि हर क्षेत्र में फैली हुई विकृतियों का निराकरण किया जा सके। प्रगति के लिए अवरुद्ध मार्गों को खोला जा सके।

पारिवारिक उत्तरदायित्वों को बिना किसी प्रकार क्षति पहुँचाये पूरा या आँशिक समय आत्म−कल्याण की—लोक−मंगल की साधना में किस प्रकार लगाया जा सकता है इसका व्यावहारिक मार्ग सुझाना और बौद्धिक क्रान्ति, नैतिक क्रान्ति एवं सामाजिक क्रान्ति के अभियान में—व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण के महाप्रयास में—जिस तरह लगना है उसका स्वरूप समझाना और उसकी योग्यताएँ उत्पन्न करना इस वानप्रस्थ शिक्षा का स्वरूप है।

(3) महिला जागरण वर्ग—भारत के अशिक्षित—बाधित, असमर्थ और पिछड़े हुए नारी वर्ग को ऊँचा उठाये बिना वस्तुतः राष्ट्रीय प्रगति रुकी ही पड़ी रहेगी। आधी जनसंख्या नारी की होती है। उस वर्ग में शिक्षा दस प्रतिशत की भी नहीं है। पर्दाप्रथा, सामाजिक प्रतिबन्ध, अशिक्षा और कैदी जैसी सीमित जिन्दगी जीते रहने के कारण उनका पिछड़ापन बढ़ता ही गया है। शिक्षा और सुधार की जो थोड़ी सी चमक दिखाई पड़ती है वह मात्र शहरों में ही है। देहातों में नारी की स्थिति दयनीय है उसे उठाने के लिए भारत के भावनाशील एवं शिक्षित नारी समाज को ही आगे आना पड़ेगा।

नारी जागरण में अभिरुचि रखने वाली शिक्षित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जा रही है कि वे अपने यहाँ नारी शिक्षा संवर्धन के लिए प्रौढ़ महिला पाठशाला अपने−अपने स्थानों में चलायें। उनका संगठन बनायें। साप्ताहिक सत्संगों एवं विचार−गोष्ठियों का आयोजन करें और यह बतायें कि घर−परिवार को सुविकसित बनाने के अपने मूल प्रयोजन को नारी किस प्रकार अधिक सफलता पूर्वक संपन्न कर सकती हैं। इस शिक्षण में सम्मिलित होने वाली छात्राएँ गृह प्रबन्ध, बच्चों को सुसंस्कृत बनाना, पारिवारिक स्नेह, सौजन्य की अभिवृद्धि करना—अर्थ सन्तुलन और गृह सज्जा में निपुण होना—परिवार का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य सम्भालना—हँसी−खुशी का वातावरण बनाना, प्रस्तुत समस्याओं को सुलझाना, शिक्षा एवं स्वावलम्बन की दृष्टि से प्रगति करना आदि विषयों को इस वर्ग की महिलाएँ सीखती है। संगीत, प्रवचन, धर्म−शिक्षा, गृह−विज्ञान, परिवार का सर्वतोमुखी विकास—सिलाई आदि कितने ही गृह−उद्योग−घरेलू शाकवाटिका−सर्व सुलभ व्यायामों का अभ्यास, सात्विक एवं सन्तुलित पाक विद्या की जानकारी आदि महत्वपूर्ण विषयों को इनकी शिक्षा का प्रधान अंग रखा गया है।

(4) युग गायक शिक्षा—जन जागरण के लिए—जन−मानस में सद्भावनाओं को उभारने का बहुत कुछ कार्य संगीत की सहायता से हो सकता है। गीत अभिनय के साथ यदि लोक−जागरण के लक्ष्य को जोड़कर रखा जाय तो उससे जन साधारण को आकर्षक मनोरंजन के साथ−साथ सहज सुलभ रीति से अति महत्वपूर्ण प्रेरणाएँ प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है।

युग गायक वर्ग के लोग भारत के पिछड़े अशिक्षित और यातायात के साधनों से रहित छोटे देहातों में बिखरे भारत में नव−जीवन का सन्देश जितनी अच्छी तरह सुना सकते हैं, उतना और कोई नहीं कर सकता। भजन संगीतों के साथ जुड़ी हुई प्रेरणाएँ कथानकों के रूप में भी प्रस्तुत की जाती हैं तो वे और भी हृदयग्राही एवं प्रभावशाली बन जाती हैं। इस कला में प्रवीण होने की शिक्षा युग गायक वर्ग के शिक्षार्थी प्राप्त करते हैं। लोकरंजन के साथ−साथ वे लोक−मंगल की आवश्यकता भी पूरी करते हैं। इस स्तर के अधिकाधिक व्यक्तियों को उत्पन्न करना और उन्हें कार्यक्षेत्र में भेजने की सुविधा देना इस शिक्षा का स्वरूप है।

(5) लोक−शिक्षण सत्र—जीवन जीने की कला—परिवार का परिष्कार एवं समाज निर्माण के विविध उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने की संजीवनी विद्या अपने देश के हर नागरिक को दी जानी चाहिए। विशेषतया छात्र वर्ग को। क्योंकि भविष्य में उन्हीं को देश का नेतृत्व अपने हाथ में लेना है और गाँधी, जवाहर, पटेल जैसे लौह पुरुषों के रूप में विकसित होना है। यह कार्य अध्यापक या उसी स्तर की रुचि क्षमता रखने वाले लोग आसानी से कर सकते हैं। स्कूली पाठ्य−क्रमों में चरित्र−निष्ठा एवं सामाजिकता, आदर्शवादी उत्कृष्टता का समावेश पढ़ाने वाला सहज ही करता रह सकता है। अपने अध्यापकों को हमें इस कला से प्रशिक्षित करना चाहिए। यह पन्द्रह−पन्द्रह दिन के तीन सत्र गर्मी की छुट्टियों में इसी प्रयोजन के लिए लगाये गये हैं। पहला सत्र 15 मई से 29 तक। दूसरा 30 मई से 13 जून तक। तीसरा 14 जून से 28 जून तक चलेगा। इनमें अध्यापक वर्ग के लोग ही लिए जायेंगे और वे सामान्य अध्यापक से कहीं ऊँचे उठकर अध्यापक की भूमिका निबाह सकने में समर्थ हो सकेंगे।

साथ ही इन लोगों को लेखन कला का अभ्यास भी कराया जाय ताकि वे पत्र−पत्रिकाओं में छप सकने योग्य लेख लिख सकें। युग की आवश्यकता पूरी कर सकने योग्य साहित्य का सृजन कर सकें। यह एक अति महत्वपूर्ण कला है जो मात्र उच्च शिक्षा से नहीं आती वरन् इसका अभ्यास अनुभवी हाथों के नीचे रहकर करना पड़ता है। लोक−शिक्षण सत्रों के छात्रों की एक कक्षा प्रतिदिन इसी प्रयोजन के लिए चलेगी। उन्हें न केवल सैद्धान्तिक रूप से वरन् हर दिन कुछ लिखने—संशोधन करने और दिशा देने का क्रम भी चलेगा। आशा की जानी चाहिए कि इस स्वल्प अवधि में भी शिक्षार्थी कुशल लेखक बन सकने की क्षमता विकसित करके जायेंगे और न केवल लोक−शिक्षण के क्षेत्र में वरन् लेखन के क्षेत्र में भी कुछ कहने लायक काम कर सकेंगे।

से प्रत्येक शिक्षा को सर्वांग पूर्ण बनाने के लिए उसे कम से कम एक−एक वर्ष का बनाया जाना आवश्यक था। पर प्रयासों को स्वल्प समय में द्रुतगामी बनाने—थोड़े समय एवं साधनों में अधिक व्यक्तियों को प्रशिक्षित करके कार्य क्षेत्र में उतारने—की बात को ध्यान में रखते हुए इसी निर्णय पर पहुँचना पड़ा कि प्रशिक्षण को विद्यालय स्तर का नहीं सत्र स्तर का चलाया जाय। स्थान की असुविधा को ध्यान में रखते हुए एक के बाद एक सत्र चलाये जाँय। आरम्भ इसी नीति को अपनाकर किया गया है।

जीवन साधना सत्र वर्ष में सात महीने चलेंगे—फरवरी, मार्च, अप्रैल और जुलाई से अगस्त, सितम्बर, अक्टूबर तक वे दस−दस दिन के होंगे।

वानप्रस्थ सब वर्ष में दो−दो महीने के होंगे। एक महीना बौद्धिक शिक्षण प्राप्त करना पड़ेगा और एक महीने कार्यक्षेत्र में व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजे जाया करेंगे। शान्ति−कुञ्ज में उनका एक−एक महीने का शिक्षण नवम्बर, दिसम्बर, जनवरी में चलेगा। तीन सत्र होंगे।

महिला जागरण सत्र तीन−तीन महीने के चलते हैं। (1) जनवरी, फरवरी, मार्च (2) अप्रैल, मई, जून (3) जुलाई, अगस्त, सितम्बर (4) अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर। वे निरन्तर चालू रहेंगे। उन्हें कभी बन्द नहीं किया जायगा यह सब शृंखला अनवरत रूप से जारी रहेगी।

यही बात भजनोपदेश सत्रों के सम्बन्ध में है वे भी तीन तीन महीने के क्रम से महिला जागरण सत्रों के समानान्तर चला करेंगे वर्ष में चार सत्र होंगे। महीनों का क्रम वही है जो महिला सत्रों का है।

लेखन सत्र गर्मी की छुट्टियों में रहेंगे। इनमें प्रायः अध्यापक वर्ग के लोग आते हैं। स्कूल, कालेजों की छुट्टियाँ गर्मी के दिनों में दो महीने की होती हैं। इसमें डेढ़ महीने की अवधि में इस प्रकार के दो सत्र चलेंगे; प्रत्येक तीन−तीन सप्ताह का। 15 मई से 7 जून तक पहला सत्र और 8 से 30 जून तक दूसरा। इस सत्र में न केवल लेखन की शिक्षा रहेगी वरन् साथ ही यह भी बताया जायगा कि अपने छात्रों में नैतिक, चारित्रिक एवं सामाजिक उत्कृष्टता के बीजाँकुर कैसे बो सकते हैं। उनके अभिभावकों के साथ संपर्क बनाकर नई पीढ़ी को सर्वतोमुखी प्रगति में समर्थ बनाने के लिए क्या परामर्श दे सकते हैं। यह अध्यापक लोग अपनी शिक्षा शैली में चरित्र−निष्ठा और समाज−निष्ठा का पुट देते रहें। छुट्टी के दिनों उनकी विशेष सत्र कक्षाएँ चलाते रहें—छात्रों के अभिभावकों को समय−समय पर विशेष परामर्श एवं मार्ग−दर्शन के लिए आमन्त्रित करते रहें तो उस सुगम प्रक्रिया से भी नवयुग को समीप लाने के लक्ष्य में भारी सहायता मिल सकती है। यह सब किस प्रकार सम्भव हो सकता है इसका प्रशिक्षण तीन−तीन सप्ताह के इन सत्रों में लेखन सत्र के शिक्षार्थी प्राप्त कर सकते हैं। आवश्यक नहीं कि सभी अध्यापक वर्ग के हों। लेखन में और नव−जागरण अभियान में अभिरुचि रखने वाले कोई भी व्यक्ति जो ग्रेजुएट स्तर की शिक्षा प्राप्त किये हुए हों इस शिक्षण में सम्मिलित हो सकते हैं।

युग−निर्माण योजना के सदस्य—अखण्ड−ज्योति के परिजन लाखों की संख्या में है। आरम्भ में उसी परिवार के लोगों को उपरोक्त पाँचों वर्गों में प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की गई है। वे लोग नव निर्माण मिशन की विचारधारा एवं कार्य−पद्धति से परिचित हैं, वे मिशन के साहित्य को पढ़ते रहते हैं और विचारों को सुनते रहे हैं अस्तु इनके लिए इस प्रशिक्षण का महत्व समझना और प्रस्तुत मार्ग−दर्शन को हृदयंगम करना अपेक्षाकृत सरल है। वे लोग जो मिशन से सर्वथा अपरिचित हैं उन्हें कितनी ही प्रेरणाओं को समझने, ग्रहण करने में काफी कठिनाई पड़ेगी। इसलिए शिक्षार्थियों को फिलहाल अखण्ड−ज्योति परिवार के सदस्यों में से ही लिया जा रहा है। हर किसी को भी प्रवेश करने की व्यवस्था तब बनेगी जब बड़ी संख्या में आने वाले शिक्षार्थियों के लिए भी यहाँ स्थान एवं साधनों का प्रबन्ध हो जायगा।


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