जन मानस को मोड़ने वाली संगीत शिक्षा

November 1974

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अशिक्षित, पिछड़े हुए देहातों में रहने वाली भारत की बहुसंख्यक जनता को प्रगति की सर्वतोमुखी प्रेरणा देने के लिये दो ही आधार प्रधान रूप से फलप्रद हो सकते हैं, एक कथा कहानी का और दूसरा संगीत का उपयोग। हमें इन दोनों को ही साथ लेकर चलना होगा। भावनात्मक नव−निर्माण के लिए−−बौद्धिक नैतिक और सामाजिक क्रान्ति की आवश्यकता पूरी करने के लियेइन अस्त्र−शस्त्रों का उपयोग आवश्यक है।

कथा संस्मरणों के प्रेरक प्रसंग जुटाने के लिए मासिक युग−निर्माण योजना स्वतन्त्र रूप से निकाली जा रही है। जीवन चरित्रों की एक लम्बी सीरीज प्रकाशित की गई है। कितनी ही पुस्तकें इस प्रयोजन के लिये छापी गई हैं ताकि प्रवचन शैली में उनका समुचित समावेश करके जन−मानस के नव−निर्माण का प्रयोजन भली प्रकार पूरा किया जा सके।

संगीत की शिक्षा पुस्तकों से नहीं प्रत्यक्ष अभ्यास से ही हो सकती है। संगीत यों, एक साथ−साथ लम्बी साधना है। उसका अभ्यास करने के लिये अवकाश भी चाहिये और सुविधा भी। अपने देश की आज जो स्थिति है उसमें लम्बे समय के उपरान्त कल देने वाले किसी कार्य को हाथ में नहीं लिया जा सकता। वर्तमान स्थिति को आपत्तिकालीन मानकर उसका मुकाबला करने के लिये हमें युद्धस्तरीय तात्कालिक उपाय काम में लाने होंगे।

लोक−मानस में प्रगतिशील चेतना उत्पन्न करने के अति महत्वपूर्ण अस्त्र संगीत को हमें आज ही प्रयोग करना है और उसकी तैयारी की अवधि न्यूनतम रखनी है। ताकि अधिक सैनिक स्वल्प समय में कामचलाऊ प्रशिक्षण देकर लड़ाई के मोर्चे पर भेजे जा सकें और सर्वनाश पर तुले हुए शत्रु के दाँत खट्टे कर सकें।

संगीत शिक्षण की स्वल्पकालीन शिक्षा योजना इसी दृष्टि से बनाई गई है और तीन−तीन महीने के सत्रों की क्रम शृंखला कार्यान्वित की गई है। समय और उद्देश्य की संगति तो नहीं मिलती। इतनी बड़ी आवश्यकता इतने कम समय में कैसे पूरी हो सकती है यह बात सामान्य रूप से नहीं समझी जा सकती। इसके लिए उन कुशल इंजीनियरों का क्रिया−कलाप निकट से देखना होगा जो युद्ध कूच के लिये बढ़ती जा रही सेना के लिये दो ही दिन में नदी को पार कर करने योग्य पुल बनाकर खड़ा कर देते हैं। तीन महीने के संगीत सत्र शिक्षण को इसी स्तर का प्रयोग समझा जाय।

गायनों के मीटर और ध्वनि प्रवाह दस की संख्या में सीमित कर दिये गये है। उतने ही दायरे में विविध स्तर की प्रेरणाएँ देने वाले अभिनव गीत मिशन के गीतकारों से लिखाये गये हैं तथा जो अन्यत्र से मिले हैं वे संकलित किये गये हैं। अधिक समय अनेकानेक ध्वनियों में गाये जाने वाले विभिन्न मीटरों पर बने हुए गीतों के अभ्यास में लगता है। यदि उनकी संख्या सीमित हो तो अभ्यास में इतनी अधिक देर नहीं लगेगी।

पिछले जुलाई, अगस्त, सितम्बर के महिला जागरण सत्र में इस सुगम संगीत शिक्षा प्रक्रिया का प्रयोग किया गया और वह अपना लक्ष्य पूरा करने में सफल सिद्ध हुई। जिन महिलाओं का गला थोड़ा भी साथ देता था और जिनकी बुद्धि में थोड़ी सी भी पकड़ा थी वे तीन महीने में ही इस योग्य बन गई कि वे कीर्तनकार की—रामायण, कथावाचक की—भजनोपदेशक की कामचलाऊ आवश्यकता पूरी कर सकें। इसी अनुभव के उत्साह ने पुरुषों का पहला संगीत सत्र 1 अक्टूबर से आरम्भ कर देने के लिए साहस प्रदान किया है। अब तक काफी दिनों से यह योजना विचाराधीन चल रही थीं पर अब उसका श्रीगणेश कर ही दिया गया। प्रथम सत्र में थोड़े शिक्षार्थी लिये गये हैं। आशा की जानी चाहिए कि आगे अधिक सीटों का प्रबन्ध हो जाने से अब की अपेक्षा अधिक छात्रों को स्वीकृति दी जा सकेगी।

यह स्पष्ट रूप से समझ लिया जाना चाहिए। शौकीनों के लिये तरह तरह की कलाएँ सीखकर अपना और अपने मित्र, कुटुम्बियों का मनोरंजन करते रहने के लिये संगीत सिखाने का हमारा इरादा बिलकुल भी नहीं है। व्यक्तिगत शौकीनी की पूर्ति के लिये अनेक लोग अपने ढंग से अपनी−अपनी सुविधाएँ जुटाते हैं वैसा ही उन्हें भी करना चाहिए। शांतिकुंज में चल रहे अन्य प्रशिक्षणों की तरह संगीत सत्र का भी यही उद्देश्य है कि सीखे हुए लोग युग गायक की भूमिका निबाहें अपने जीविकोपार्जन कार्यों से बचा हुआ अवकाश का समय वे अपने क्षेत्र में जन−जागृति के लिये लगाया करें। उनकी संगीत शिक्षा का—लाभ जन−मानस को ऊँचा उठाने में एक महत्वपूर्ण आधार मिलने के रूप में उपलब्ध होगा। जिनके मन में ऐसी सेवा भावना उठती हो—जो अपनी संगीत उपलब्धि से लोक−मंगल की दिशा में समाज को कुछ अनुदान देने की उदारता उमँगती हो उन्हीं की इन संगीत सत्रों में आने की सार्थकता है। वस्तुस्थिति को और भी अधिक स्पष्ट करने की दृष्टि से इस शिक्षण का नाम संगीत सत्र न रखकर भजनोपदेशक सत्र कर दिया है ताकि शिक्षार्थी को विदित रहें उसका यह प्रयास एक युग−गायक बनने के लिये है समाज को नवचेतना एवं नव प्रेरणा देने के लिये उसने अपनी योग्यता विकसित करने का कदम बढ़ाया है।

एक बात और भी स्पष्ट है कि संगीत हर किसी को नहीं आ सकता। इसके लिये गले की मधुरता—स्वरताल को पकड़ सकने की आवश्यक सूझ बूझ और लय−ताल को समझने की सूक्ष्म बुद्धि आवश्यक है। इसीलिये हर क्षेत्र से पूछा गया है कि पिछले दिनों वे अपनी संगीत अभिरुचि को कार्य रूप में परिणित करने के लिये क्या कुछ प्रयत्न करते रहे हैं और उन प्रयासों में कितने सफल−असफल रहे हैं। शिक्षार्थियों को यह निर्णय स्वयं ही करना चाहिये या अपने समीपवर्ती किन्हीं संगीत ज्ञाता से पूछकर यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि वे इस शिक्षा के लिये उपयुक्त हैं या नहीं। मात्र उत्साह के आधार पर संगीत क्षेत्र में सफल नहीं हुआ जा सकता उसकी प्रकृति प्रदत्त मूल क्षमता उस स्तर की होनी चाहिये तभी प्रयत्न और परिश्रम सार्थक हो सकेगा। अपने गले तथा संगीत सम्बन्धी पकड़ की उपयुक्तता सम्बन्धी सन्तोष करने के पश्चात् ही आवेदन पत्र भेजना उचित है। आमतौर से ‘टैस्ट’ के बाद ही ऐसे प्रशिक्षणों में भर्ती की जाती है। वह प्रयोजन उधर ही पूरा कर लिया जाय और उपयुक्त शिक्षार्थी ही आवें तो उस थोड़ी अवधि में भी यहाँ की अति उपयोगी शिक्षण प्रक्रिया का समुचित लाभ उठाया जा सकेगा।

हारमोनियम, ढोलक, तबला, मंजीरा, घुंघरू, चिमटा, ढपली, करताल आदि बाजों का कामचलाऊ प्रशिक्षण किये जाने की बात इन तीन महीने में इतनी बन जाती है कि आगे जाकर उस आधार पर जारी रखा गया अभ्यास संगीत क्षेत्र में किसी को भी निपुण सुयोग्य बना सकता है।

हमारे गीत प्रेरक, विचारोत्तेजक मार्ग−दर्शक और समय की पुकार के अनुसार जन मानस को मोड़ने वाले होने चाहिए। इसी प्रकार के गीत शिक्षार्थियों को सिखाये जाते हैं कि जहाँ भी जाँय अच्छे कीर्तनकार की—तुलसीकृत एवं राधेश्याम रामायण कथा वाचक की आवश्यकता पूरी कर सकें। अच्छे कीर्तनकार सिद्ध हो सकें और जनजागरण के उपयुक्त गीतों से लोक−मानस झंकृत कर सकें।

हमारा लक्ष्य प्रधानतया देहात है तो भी यह शिक्षण शहरी अथवा सुशिक्षित वर्ग के लिये कम आकर्षक नहीं है। उसे गँवारु नहीं कहा जा सकता। उसका स्तर बनाये रखने की पूरी पूरी सतर्कता रखी गई है। गायन के साथ−साथ जुड़ी हुई है। अभिनय का भी सामान्य ज्ञान कराया जायगा। ताकि शिक्षार्थी जहाँ अवसर हो वहाँ अधिक आकर्षक साँस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत कर सकें। समय ही बतायेगा कि युग−परिवर्तन में इस छोटे से प्रयास ने कितना अधिक योगदान दिया है और अपनी कितनी सार्थकता सिद्ध की है।


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