दस−दस दिन के जीवन सत्रों का बीस फरवरी से शुभारम्भ

November 1974

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संजीवनी विद्या का सर्वतोमुखी शिक्षण प्राप्त करने के लिए—उसका विचार मंथन करते हुए भावी परिवर्तन की पृष्ठभूमि बनाने के लिए—सिद्धान्तों को व्यवहार रूप में परिणत करने की विधि−व्यवस्था विनिर्मित करने के लिए गम्भीर चिन्तन−मनन की आवश्यकता रहेगी। इसके लिए समय चाहिए। जीवन साहित्य पढ़ने के लिए—उपयोगी मार्ग−दर्शन सुनने, समझने के लिए—उनको कार्य रूप में परिणत करते समय आने वाली कठिनाइयों का समाधान करने के लिए दूरदर्शी एवं गम्भीर ऊहापोह की आवश्यकता है। यह कार्य समय साध्य है। उतावली में जादू की छड़ी घुमाकर परिष्कृत जीवन को योजना बनाना और उसे कार्य रूप में परिणत करने की बात पक्की करने के लिए भारी बौद्धिक श्रम करना पड़ेगा और गम्भीर दूरदर्शिता का उपयोग करना पड़ेगा। यह सुनिश्चित रूप से कायाकल्प साधना है। उसका समय साध्य होना स्वाभाविक है।

सरकार आगामी पंचवर्षीय योजना बनाने के लिए एक स्वतन्त्र आयोग नियुक्त करती है और उस विचारणा को प्रामाणिक एवं परिपक्व स्थिति तक पहुँचाने के लिए प्रचुर धन और श्रम नियोजित करती है। प्रगतिशील जीवन की योजना भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, भले ही उसे व्यक्ति विशेष के लिए प्रयुक्त किया जा रहा है। इसके लिए भी समुद्र−मंथन जैसा विचार−मंथन अभीष्ट है जिसमें से 14 या न्यूनाधिक रत्न निकाले जा सकें। बदली हुई परिस्थितियों के साथ ताल−मेल बिठाते हुए आदर्शवादी जीवन प्रक्रिया का निर्धारण करना है।

प्राचीन काल की स्थिति में उपयुक्त समझे जाने वाले कथा−पुराणों को, शास्त्र निर्देशों एवं आप्तवचनों को आधार मानकर आज का प्रगतिशील जीवन नहीं जिया जा सकता। उसके लिए सनातन आदर्शों की रक्षा करते हुए सामयिक तथ्यों का समावेश करना आवश्यक है। इस अनोखी एवं अभूतपूर्व प्रक्रिया के अजनबी लगने वाले सिद्धान्तों को पचाने और उन्हें अपनाने के लिए आवश्यक साहस सँजोया और कार्यक्रम बनाना बहुत उथल−पुथल से भरा है। उसका शिथिलीकरण कुछ समय की अपेक्षा करता है।

इन दिनों हर व्यक्ति बहुत व्यस्त है। आर्थिक पारिवारिक तथा दूसरी समस्याएँ इतनी उलझी हुई हैं कि उनसे फुरसत निकालना—विशेषतया लम्बे समय के लिए इन दिनों बहुत ही कठिन है। अस्तु लम्बे समय तक घर छोड़कर बाहर रहना हर किसी के लिए सम्भव नहीं। वैसी परिस्थितियाँ किन्हीं विरलों की ही होती है। फिर भी जो आवश्यक है—महत्वपूर्ण है उसे अपनाने के लिए किसी भी प्रकार समय तो निकालना ही पड़ेगा। जीवन विद्या की शिक्षा का सांगोपांग विद्यालय खोला जाय तो उसका शिक्षा काल पाँच वर्ष न सही तो एक वर्ष तो होना ही चाहिए। पर इन दिनों सर्व साधारण को अपनी व्यस्तता में से इतना समय निकालना असम्भव हैं।

बहुत विचार करने के बाद न्यूनतम समय दस दिन का निर्धारित किया गया है। इससे कम से कम काम चलाऊ शिक्षण−परामर्श एवं निर्धारण सम्भव नहीं हो सकता। शिक्षा से अधिक लोग लाभ उठा सकें−इसके लिए लोगों के पास कम समय होने की ही एकमात्र कठिनाई नहीं है। शान्ति−कुञ्ज में स्थान भी इतना कम है और उसके शिक्षा साधन इतने स्वल्प हैं कि वहाँ अधिक लोगों को रखा या पढ़ाया भी नहीं जा सकता। थोड़े स्थान—थोड़े साधन में—अधिक लोग लाभ उठा सकें इसके लिए भी स्वल्प समय के शिक्षण की बात ही बनती है। शिक्षार्थियों को सुविधा और शिक्षण केन्द्र के साधनों का ध्यान रखते हुए इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ा है कि शिक्षा काल दस−दस दिन का रखा जाय और उसके लिए सत्र पद्धति अपनाई जाय।

शान्ति−कुञ्ज में व्यक्ति और समाज निर्माण की बहुमुखी प्रवृत्तियाँ चलती हैं। एक व्यक्ति को अन्न, जल, वस्त्र, मकान, दवा, रोशनी, सफाई आदि की अनेक व्यवस्थाएँ जुटाकर निर्वाह की आवश्यकता पूरी करनी पड़ती है। इसी प्रकार व्यक्ति और समाज का समन्वित विकास करने का कार्यक्रम लेकर चलने वाली हमारी योजना के लिए भी बहुमुखी प्रयत्नों और प्रशिक्षणों की आवश्यकता पड़ती है। शान्ति−कुञ्ज में इसीलिए किसी एकांगी शिक्षण तक सीमित रहने की अपेक्षा बहुमुखी बहुस्तरीय प्रशिक्षण का संतुलित क्रम चलाया गया है। सृजन सेना के सैनिक वानप्रस्थों का प्रशिक्षण, महिला जागरण शिक्षा, युग गायकों की तैयारी, लेखनी के धनी साहित्य सृजनकर्त्ताओं का उत्पादन, लोक−शिक्षा का श्रीगणेश आदि कितने ही अन्य शिक्षण भी शान्ति−कुञ्ज में कठिनाई से डेढ़−दो सौ व्यक्तियों के ठहर सकने योग्य स्थान में चलते हैं। उनके लिए एक को बन्द करके दूसरे को चलाने की नीति अपनानी पड़ती है अन्यथा इतनी प्रवृत्तियाँ लगातार कैसे चलती रखी जा सकती हैं।

जीवन विद्या उपरोक्त सभी प्रवृत्तियों की तुलना में अति महत्वपूर्ण और प्राथमिकता पाने योग्य है अस्तु उसके लिए साल में छै महीने का समय निर्धारित किया गया है। फरवरी, मार्च, अप्रैल और जुलाई, अगस्त, सितम्बर इन छै महीनों में 10−10 दिन के कुल मिलाकर 18 सत्र चलाये जा सकेंगे और औसतन 100 शिक्षार्थी हर सत्र में रखकर वर्ष में दो हजार व्यक्तियों को शिक्षा दी जा सकेंगी। 55 करोड़ की आबादी वाले भारत में व्यक्तित्व पुनर्निर्माण की आवश्यकता और शिक्षण की इतनी स्वल्प संख्या की तुलना करते हुए यह जलते तवे पर बूँद पड़ने की तरह नगण्य है तो भी इसके पीछे आशा की नवीन किरणें विद्यमान हैं। यह बीज भविष्य में वट−वृक्ष की तरह विकसित भी हो सकता है जिसकी बहुत कुछ सम्भावना है।

इस बार 14 फरवरी तक वानप्रस्थ सत्र चलेंगे। 16 का बसन्त पर्व है। तीन−चार दिन उसमें लग जाते हैं। 20 फरवरी से यह जीवन सत्र चलेंगे और 10 मई तक जारी रहेंगे जुलाई, अगस्त, सितम्बर में वे इसके पश्चात होंगे।

इनकी शिक्षा पद्धति का क्रम इस प्रकार है।

प्रायः एक घण्टा नित्य उच्चस्तरीय योग साधनाओं की साधना।

एक प्रवचन प्रातःकाल डेढ़ घण्टे का।

आवश्यक स्वाध्याय।

मध्याह्नोत्तर दूसरा प्रवचन शिक्षार्थियों की विभिन्न उलझनों का समाधान करने के लिए।

व्यक्तिगत परामर्श।

हर दिन भाषण कला की शिक्षा तथा अभ्यास।

शिक्षा काल में जीवन विद्या के प्रायः सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला जायगा और शिक्षार्थी को इस योग्य बनाया जायगा कि वह भावी जीवन को परिष्कृत स्तर का बना सकने में समर्थ हो सके। इसके साथ−साथ प्रातःकालीन साधना में उन योगाभ्यासों का गहरा अभ्यास कराया जायगा जो पिछले दिनों प्राण प्रत्यावर्तन में प्रयुक्त होते रहे हैं। इसी प्रकार हर दिन भाषण देने का अभ्यास कराते हुए शिक्षार्थी को इस योग्य बनाया जायगा कि वह अपनी बात खुले दिल से बिना संकोच, झिझक के कहीं भी कह सके। गोष्ठियों और सभा, सम्मेलनों में भली प्रकार अपने विचार व्यक्त कर सकें। इस प्रकार योगसाधना तथा प्रवचन प्रवीणता के दो और भी वर्ग जुड़ जाने से जीवन विद्या की दस दिवसीय शिक्षा और भी अधिक उपयोगी एवं महत्वपूर्ण बन गई है।

शिक्षार्थियों में अधमरे, सड़े−गले, सनकी, दुर्व्यसनी, उद्दंड और आवारा किस्म के लोग न घुस पड़ें इसलिए उनकी पात्रता और शालीनता प्रमाणित करके भेजने की आवश्यकता अनुभव की गई हैं। उपयुक्त पात्रों पर ही उपयुक्त श्रम की सार्थकता हो सकती है इसलिए इस संदर्भ में यथासम्भव अधिक सतर्कता से ही काम लिया जायगा। सुशिक्षित, शालीन, अनुशासन प्रिय, सज्जन प्रकृति के निर्व्यसनी लोगों को ही इस प्रशिक्षण के लिए आमन्त्रित किया गया है। आशा है इसी स्तर के लोगों के आवेदन पत्र जीवन सत्र के लिए भेजे जायेंगे।


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