महिला जागरण युग की सबसे प्रमुख आवश्यकता

November 1974

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संख्या की दृष्टि से समाज में आधे नर होते हैं, आधी नारियाँ। इन्हीं दो पहियों पर मनुष्य जाति की गाड़ी प्रगति या अवगति की दिशा में लुढ़कती है। पक्ष तो विकसित रहे किंतु नारी पक्ष दुर्बल पिछड़ा पड़ा रहे तो आधे अंग को लकवा मार जाने की स्थिति बन जायगी और शेष स्वस्थ पक्ष भी बेकार हो जायगा। अपने देश की यही स्थिति है। पिछले अन्धकार युग का सबसे अधिक अभिशाप भारतीय नारी को भुगतना पड़ा है। विदेशी आक्रमणकारियों से शील रक्षा करने के लिए—अथवा सामन्तवादी दर्प, अहंकार की पूर्ति के लिए—नारी को बाधित बनाया गया। उस पर ऐसे प्रतिबन्ध लगाये गये जिनमें उसकी स्थिति आजीवन क्रीत दासी बनी रहने जैसी बन गई। उसके नागरिक अधिकार एक प्रकार से छीन ही लिये गये। भोग सामग्री के रूप में ही उसकी आवश्यकता रह गई। सो भी उससे उस पिछड़ी हुई रुग्ण, अशक्त, अविकसित स्थिति में कुछ बन नहीं पड़ा।

भारत में नर के, अतिरिक्त विशेषाधिकार हैं और नारी की दासों और बन्दियों जैसी आचार संहिता अलग है। मनुष्य जाति के दो समानान्तर पक्ष हैं और दोनों के कर्त्तव्य अधिकार समान हैं, इस तथ्य को अपने देश में पिछले दिनों प्रायः भुला ही दिया गया है। पर्दा प्रथा—सती प्रथा−−विधवा विवाह निषेध, कन्या जन्म को दुर्भाग्य पूर्ण माना जाना, लम्बे दहेज की माँग पूरी करने पर ही वधू को स्वीकार करना−उत्तराधिकार में उसे अँगूठा दिखाया जाना—शिक्षा एवं स्वावलम्बन के आधारों से वंचित रखा जाना, आजीवन दूसरों के नियन्त्रण में बाधित रहना जैसे कितने ही प्रचलन अब रूढ़ियां कुरीतियाँ नहीं माने जाते वरन् उन्हें परम्परा कहा जाता है और कई बार तो इन लज्जाजनक अन्यायों को शास्त्र वचन तक कहने एवं उसका समर्थन करने तक की धृष्टता की जाती है। पशुओं को उनका मालिक तिरस्कृत करने, पीटने या मार डालने को स्वतन्त्र है उनके शोषण उत्पीड़न की खुली छूट है। कोई दूसरा उस अनीति में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, इसी प्रकार ससुराल वाले किसी वधू के साथ कुछ भी व्यवहार कर सकते हैं दूसरों को, यहाँ तक उसके माता−पिता को भी इसे रोकने का अधिकार नहीं है। बात बढ़ा−चढ़ा कर नहीं कही जा रही है। अशिक्षा, पिछड़ेपन और कुरीतियों से दबे, घिरे भारत में तीन चौथाई नारियों को यही सब कुछ−−आज भी सहना पड़ रहा है। वे कितनी दुखी और असन्तुष्ट हैं—कितनी पिछड़ी, कितनी दुर्बल और कितनी पीड़ित, बाधित और कितनी असहाय हैं उसे कोई भी सहृदय व्यक्ति कहीं भी नारी समाज की मन की बातें जानकर—पूछ सुन कर सहज ही पता लगा सकता है।

पति या सास−ससुर की दृष्टि रखकर तो उन अभागिनों के साथ सहानुभूति नहीं उपजेगी, पर यदि किसी के पास पिता का हृदय हो और अपनी आँखों की पुतली का तेल इस प्रकार कोल्हू में पिलकर निकलता हुआ आँखों के सामने आये तो कहीं उसकी छाती फटे। किसी के पास तोतली बोली बोलने वाले बालक का हृदय हो और वह अपनी मम्मी को जल्लादी हन्टर खाकर सुबक−सुबक कर किसी कोने में बैठी रोती हुई देखे तो उसे इस प्रकार अवाक् स्तब्ध रहने की अनुभूति हो मानो यह संसार मात्र कसाइयों और क्रूर कर्माओं के लिए ही बना है उन्हीं से पटा पड़ा है। करुणा और ममता नाम के तत्व इस धरती पर शायद रचे ही नहीं गये हैं।

मन की प्रसन्नता प्रफुल्लता क्या होती है—हँसना हँसाना कैसा होता है—आमोद−प्रमोद किसे कहते हैं इसकी अनुभूति कदाचित् ही किसी भाग्यवान नारी को होती है शेष को तो कोल्हू के बैल की तरह ही अनवरत श्रम और अनन्त तिरस्कार का भाजन बनकर ही मौत के दिन पूरे करने पड़ते हैं। अशिक्षा ने उनके मानसिक विकास को एक प्रकार से अवरुद्ध ही कर रखा है। परित्याग एवं विधवा बनने का संकट जब सामने आता है तो उन्हें सूझता नहीं कि अपना, अपने बच्चों का निर्वाह कहाँ और कैसे करें? स्वावलम्बी अर्थोपार्जन की क्षमता प्राप्त करने से तो उन्हें आरम्भ से ही रोका गया है। जब परकटे पक्षी की तरह ही रखा जाना है तो उड़ने की योग्यता क्यों विकसित होने दी जाय? निरीह और निर्बल को ही तो बन्धन में जकड़ कर रखा जा सकता है, उनके लिए इसी स्थिति की पूर्व योजना बनाकर रखी गई है जिसमें कि आज संयोग वश नहीं, योजनाबद्ध रूप में जकड़ी पड़ी हैं। इन प्रतिबन्धों ने उन्हें बौद्धिक पिछड़ेपन का शिकार बना दिया है। अन्धविश्वास, मूढ़ मान्यताएँ—निकम्मी प्रथा परम्परायें—संकीर्ण चिन्तन—संकीर्णता और खीज यही सब उनके पल्ले बँधा है। शारीरिक रुग्णता से भी दो कदम आगे उन्हें मानसिक रुग्णता घेरे हुए है।

नई पीढ़ियाँ माता के पेट से ही पैदा होती हैं—घर, परिवार का वातावरण महिलाएँ ही बनाती हैं—संस्कार स्वभाव और चरित्र का प्रशिक्षण घर की पाठशाला में ही होता है परिवार का स्नेह−सौजन्य पूरी तरह स्त्रियों के हाथ में रहता है यदि नारी की स्थिति सुसंस्कृत, सुविकसित स्तर की हो तो निस्सन्देह हमारे घर−परिवार स्वर्गीय वातावरण से भरे−पूरे रह सकते हैं उनमें रहने वाले लोग कल्पवृक्ष जैसी शीतल छाया का रसास्वादन कर सकते हैं। हीरे जैसे बहुमूल्य रत्न किन्हीं विशेष खदानों से निकलते हैं पर यदि परिवार का वातावरण परिष्कृत हो तो उसमें से एक से एक बहुमूल्य नररत्न निकलते रह सकते हैं और उस सम्पदा से कोई देश समाज, समुन्नत स्थिति में बना रह सकता है। देश की आधी जनसंख्या नारी है। यदि वह पक्ष दुर्बल और भारभूत बनकर रहेगा तो नर के रूप में शेष आधी आबादी की अपनी भारी शक्ति उस अशक्त पक्ष का भार ढोने में ही नष्ट होती रहेगी। प्रगति तो तभी सम्भव थी जब गाड़ी के दोनों पहिये साथ−साथ आगे की ओर लुढ़कते। एक पहिया पीछे की ओर खिंचे दूसरा आगे की ओर बड़े तो उससे खींचतान भर होती रहेगी हाथ कुछ नहीं लगेगा। प्रगतिशील देशों में नारी भी नर के कन्धे से कन्धा मिलाकर आगे बढ़ने की—अपने देश को आगे बढ़ाने की सुविकसित स्थिति में रहती हैं। फलस्वरूप वे बहुत कुछ कर गुजरती हैं पर हमारी प्रतिगामी परिस्थितियाँ तो वैसा कुछ बन पड़ने का अवसर ही नहीं आने देतीं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगी, मात्र पुरुषों को विकसित बनाने वाले सारे प्रयास अधूरे और असफल ही सिद्ध होते रहेंगे। यदि हमें सचमुच ही प्रगति की दिशा में आगे बढ़ना हो तो नारी को साथ लेकर ही चलना होगा। एकाँगी प्रयास कभी भी सफल न हो सकेंगे।

नारी जागरण भारत की सबसे प्रथम और सबसे प्रमुख आवश्यकता है। इसकी पूर्ति के लिए विशालकाय और दूरगामी कार्यक्रम बनाने पड़ेंगे। सरकारी स्कूलों में कन्या शिक्षा का प्रयास चल रहा है—महिला कल्याण के लिए भी सरकारी और गैर सरकारी प्रयत्न हो रहे हैं आँसू पोंछने की दृष्टि से और आशा का दीपक सँजोये रहने की दृष्टि से उनका भी कुछ न कुछ उपयोग ही है पर बात उतने भर से बनेगी नहीं हमें नारी जागरण का समग्र राष्ट्र को प्रभावित करने वाला—रचनात्मक कदम बढ़ाना पड़ेगा अन्यथा आधे राष्ट्र की सर्वतोमुखी प्रगति का अत्यन्त जटिल अतीव विस्तृत और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न हजार वर्षों में भी हल न हो सकेगा। इसके लिए गैर सरकारी प्रयत्न ही प्रधान भूमिका सम्पन्न कर सकते हैं।

इस दिशा में प्रथम कदम यह होना चाहिए कि नारी जागरण में अभिरुचि रखने वाली महिलाओं का आह्वान किया जाय और उनमें से जो इस कार्य के लिए उपयुक्त हों उन्हें प्रशिक्षित किया जाय। शान्ति कुँज ने अखण्ड−ज्योति परिवार की ऐसी ही सजग, सजीव, सक्षम एवं भावनाशील महिलाओं को आमन्त्रित किया है। उन्हें अपने निज के घर−परिवारों का एक आदर्श संस्थान के रूप में विकास करना होगा—अपना निज का व्यक्तित्व निखारना होगा और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में नारी−जागरण का संगठित एवं क्रमबद्ध विकास अभियान आगे बढ़ाना होगा।

इस प्रयोजन का प्रशिक्षण करने के लिए तीन−तीन महीने की व्यवस्था शान्ति कुँज में विगत छै महीने से चल रही है। जुलाई, अगस्त, सितम्बर का प्रथम सत्र सफलता पूर्वक सम्पन्न हो गया। जिन दिनों यह अंक पाठकों के हाथ में पहुँचेगा उन दिनों अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर वाला सत्र चल रहा होगा। यह क्रम भविष्य में भी अविच्छिन्न रूप से चलता रहेगा। स्थान सम्बन्धी सीमित साधन रहने से एक बार में तीस से चालीस तक ही प्रौढ़ महिलाओं का शिक्षण सम्भव है। कन्या शिक्षा का एक वर्षीय क्रम भी तो चल रहा है वे भी बीस के करीब इन दिनों हैं। इस प्रकार पचास के लगभग कन्याओं और प्रौढ़ महिलाओं की ही शिक्षा यहाँ सम्भव है। पुरुषों के जीवन साधना सत्र—भजनोपदेशक सत्र—वानप्रस्थ सत्र, लोक शिक्षा सत्र भी तो चलते हैं उनमें उलट−पुलट होती रहती है पर सौ का औसत उनका भी बना रहता है। डेढ़ सौ शिक्षार्थी और मिशन के कार्य संचालक कार्यकर्त्ताओं के स्थायी निवास से अधिक स्थान यहाँ बिलकुल भी नहीं है। ऐसी दशा में नारी जागरण के लिए सहस्रों महिलाओं का निरंतर शिक्षण अभीष्ट होने पर भी उसकी व्यवस्था सीमित ही रखनी पड़ रही है।

महिला जागरण सत्र तीन−तीन महीने के हैं। उनमें अखण्ड−ज्योति परिवार के सदस्यों को अपनी महिलाएँ भेजनी चाहिए। शिक्षार्थी महिलाओं की कम से कम आठवें दर्जे की शिक्षा योग्यता होनी चाहिए उनका शारीरिक, मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होना आवश्यक हैं। बच्चों समेत रहने की व्यवस्था नहीं है। केवल वे ही महिलाएँ इस शिक्षण में स्थान पा सकेंगी जिनके बच्चे अपने घरों पर रह सकते हैं। जिनमें चेतना, श्रमशीलता सृजन क्षमता एवं नारी जागरण की दिशा में कुछ करने की लगन है, उन्हीं को भेजा जाना चाहिए। बेकार का कूड़ा ठेल देने से तो यहाँ अव्यवस्था ही फैलेगी और उस शक्ति का आय व्यय होगा जिसका लाभ लेकर कोई सुयोग्य महिला अपना और अपने समाज का कुछ कहने लायक हित साधन कर सकती थी।

ऊपर कहा जा चुका है महिला जागरण शिक्षा के दो पक्ष हैं एक अपना और अपने परिवार का पुनर्निर्माण दूसरा समीपवर्ती संपर्क क्षेत्र में संगठित रूप से रचनात्मक कार्य करने होंगे। विशेष रूप से प्रौढ़ महिला शिक्षा के लिए उन्हें तीसरे प्रहर दो से पाँच बजे तक की एक पाठशाला की व्यवस्था करनी पड़ेगी। महिला जागरण के लिए साक्षरता का—शिक्षा प्रसार का कदम पहला है। इसके बिना व्यक्ति परिवार से सम्बन्धित अगणित समस्याओं का स्वरूप और हल समझना उनके लिए सम्भव न हो सकेगा। तोते की तरह उन्हें कौन बैठा−बैठा पढ़ाता रहेगा। अभीष्ट ज्ञान का उपार्जन तो पुस्तकों द्वारा ही सम्भव है। इसके लिए उनका शिक्षित होना आवश्यक है। स्त्रियों को तीसरे प्रहर ही घर के काम−काज से थोड़ा समय मिलता है। इसी समय उन्हें किसी कार्य के लिए एकत्रित किया जा सकता है, अस्तु प्रौढ़ महिला शिक्षा की व्यवस्था उसी समय होगी। शान्ति कुँज में प्रशिक्षित महिलाएँ सेवा साधना के रूप में अपने अपने यहाँ ऐसी ही प्रौढ़ महिला पाठशालाएँ चलाया करेंगी।

इस पाठ्य क्रम के लिए जल्दी ही पाठ्य पुस्तकें लिखी और छापी जा रही हैं जिनसे न केवल साक्षरता की आवश्यकता पूरी होगी वरन् मानव−जीवन से सम्बन्धित विशेषतया नारी को प्रभावित करने वाली—घर−परिवार सम्बन्धी प्रायः सभी जानकारियों का समावेश और उलझनों का निराकरण दिया हुआ होगा। यह पाठ्य पुस्तकें साहित्य ज्ञान बढ़ाने—दृष्टिकोण परिष्कृत करने और अभिनव जीवनयापन की दिशा देने का दुहरा लाभ प्रस्तुत करेंगी।

संगीत का सामान्य ज्ञान—भाषण कला—रामायण कथा के माध्यम से समग्र लोक शिक्षण का अभ्यास, महिला जागरण की विभिन्न प्रवृत्तियों का संचालन—सिलाई, साबुन, खिलौने, मोमबत्ती, बिस्कुट बनाना, घरेलू शाक वाटिका, टूट−फूट की मरम्मत, जैसी कुटीर उद्योग शिशु पालन, भोजन के जीवन तत्व सुरक्षित रखने वाली परिष्कृत पाक विद्या, आसन, प्राणायाम, हलके व्यायाम और खेल−कूद, लाठी चलाने और कवायद का अभ्यास, गृह प्रबन्ध, परिवार में स्नेह सन्तुलन, पारस्परिक सद्व्यवहार, शिष्टाचार, मितव्ययी अर्थ व्यवस्था, प्रमोद−विनोद का वातावरण बनाये रहने की कला, शोभा−सज्जा, रोगी परिचर्या, धातृ विद्या आदि कितने ही महत्वपूर्ण विषय शान्ति कुँज की तीन महीने की शिक्षा में पढ़ाये जाते हैं। इन्हीं विषयों को प्रशिक्षित महिलाएँ अपने−अपने यहाँ प्रौढ़ महिला विद्यालय स्थापित करके पढ़ाया करेंगी। इस प्रकार वे पाठशालाएँ महिलाओं को शिक्षित, जागृत और सक्षम बनाने के तिहरे उद्देश्य की पूर्ति करेंगी।

बच्चों वाली महिलाएँ भी अपने घर में या पड़ौस के किसी मकान में ऐसी पाठशालाएँ चला सकती हैं। तथा संगठन का, लोक शिक्षण का कार्य हाथ में ले सकती हैं। साप्ताहिक सत्संगों में संगीत प्रवचन का समावेश करके उनके द्वारा जागृति का सूत्र संचालन हो सकता है। इनमें कथा−कीर्तन का पुट भी रह सकता है। इसी प्रकार वे जन्म−दिन, विवाह−दिन, पुँसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, विद्यारम्भ और मुण्डन संस्कारों की पुण्य परम्परा स्वयं ही करती रह सकती है। इन धर्मायोजनों में न केवल परिवारों में धार्मिक वातावरण बनेगा वरन् परिवार निर्माण की अति महत्वपूर्ण दिशाओं और प्रेरणाओं से भी उन परिवारों को परिचित प्रशिक्षित किया जा सकेगा। यह नारी जागरण का कार्यक्रम व्यस्त महिलाएँ भी थोड़ा−सा समय निकाल कर अपने−अपने संपर्क क्षेत्र में आसानी से चला सकती हैं। जो हरिद्वार से यह सब सीख कर आयेंगी वे प्रथम प्रयास एवं आदर्श संस्थापन के रूप में अपने घर परिवार को तो वैसा बनायेंगी ही जैसा कि वे औरों को बनाना सिखाना चाहती हैं। इस प्रकार लोक−सुधार के साथ−साथ आत्म−सुधार का लाभ भी जुड़ा रहेगा। इसमें स्वार्थ परमार्थ दोनों का समन्वय है।

जैसी शिक्षा व्यवस्था शान्ति कुँज में है वैसी ही हर क्षेत्र में होनी चाहिए ताकि उन क्षेत्र की सजग महिलाओं को आसानी से प्रशिक्षित किया जा सके और प्रस्तुत कार्यक्रम को व्यापक विस्तार दिया जा सके। इसके लिए ऐसी महिलाओं की आवश्यकता है जो शिक्षित, सुयोग्य होने के साथ−साथ पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्त हों, जिनमें महिला जागरण के लिए अपना जीवन समर्पित होने की लगन हो और अपना पूरा समय, मन इसी पुण्य प्रयोजन के लिए लगा सकें।

जिनके बच्चे बड़े और स्वावलम्बी हो गये—बिना बच्चों वाली विधवाएँ अथवा परिक्तताएँ इस प्रयोजन के लिए अधिक उपयुक्त हो सकती हैं। कितनी ही वयस्क कन्याएँ अविवाहित रहकर अपना जीवन लोक साधना के सर्वोपरि कार्य−महिला जागरण के लिए समर्पित करना चाहती हैं वे भी देशव्यापी महिला जागरण आन्दोलन के विविध प्रयासों को आगे बढ़ा सकती हैं और उनकी सहायता से शान्ति कुँज जैसे अनेकों ट्रेनिंग सेन्टर हजारों केन्द्रों में चलाये जा सकते हैं। परिवार के उत्तरदायित्वों से मुक्त महिलाओं को इस प्रयोजन के लिए प्रोत्साहित और प्रशिक्षित करना एक बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए ही हमें अपनी खोज−बीन जारी रखनी चाहिए। कम से कम इतना तो हर अखण्ड−ज्योति पाठक का मन होना चाहिए कि उनके घर परिवार में से एक सुयोग्य महिला इस पुण्य प्रवृत्ति में किसी न किसी प्रकार भाग ले सके और युग−परिवर्तन के इस महान चरण में अपना कुछ योगदान किसी न किसी रूप में दे सके।

महिला जागरण सत्र में तीन महीने की शिक्षा अवधि का भोजन व्यय तो उन्हीं को वहन करना चाहिए, इसके उपरान्त यदि समर्पित जीवन के लिए कोई निवृत्त महिला तैयार होगी तो उनके भोजन, वस्त्र की निर्वाह व्यवस्था मिशन करेगा। नौकरी तो किसी को भी नहीं दी जा सकेगी।

मला जागरण की प्रवृत्ति कितनी उपयोगी, कितनी आवश्यक और कितनी महत्वपूर्ण है इस तथ्य पर जब विचार करते हैं तो लगता है कि इससे बढ़कर भारत जैसे देश में प्रमुखता देने योग्य और दूसरा कोई कार्य नहीं है। नई पीढ़ियों का स्तर सुयोग्य महिलाएँ ही बना सकती हैं परिवारों का वातावरण सुख−शान्तिमय बनाना उन्हीं के हाथ में है। राष्ट्र की आधी पददलित शक्ति को यदि उभार दिया जाय तो देखते−देखते देश की समर्थता सहज ही दूनी हो सकती है। हमारे मुँह पर लगा हुआ नारी उत्पीड़न का कलंक सहज ही धुल सकता है। अखण्ड−ज्योति परिवार के हर सदस्य को इस संदर्भ में कुछ करने की बात सोचनी ही चाहिए और जो उससे बन पड़े उसके लिए साहसिक कदम बढ़ाना ही चाहिए।


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