लोक शिक्षण के लिए एक क्रमबद्ध शिक्षण प्रक्रिया हमें खड़ी करनी है जिसमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक एवं सार्वभौम समस्याओं के सम्बन्ध में जनसाधारण का परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित किया जा सके और मान्यताओं को नई दिशा, नई चेतना—नई प्रेरणा दी जा सके। यह कार्य बड़ा और विस्तृत है। इसे स्वल्प कालीन पाठशालाओं के रूप में ही पूरा किया जा सकता है। इसके लिए प्रवचन, प्रशिक्षण प्रश्नोत्तर शैली तो प्रयुक्त होना ही चाहिए साथ ही एक पाठ्य−क्रम भी निर्धारित रहना चाहिए जिसके आधार पर जनसाधारण के लिए वर्तमान मान्यताओं को, वाँछनीयता, अवाँछनीयता को परख सकना सम्भव हो सके और यथार्थता को जानने, अपनाने का साहस हो सके।
लोक शिक्षण की समग्र आवश्यकता पूरी करने के लिए जगह जगह स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप कई प्रकार की सामयिक पाठशालाएँ चलाई जायेंगी।
(1)दो वर्षीय सामान्य शिक्षा कार्यक्रम जिसमें भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास, विज्ञान, कृषि, पशु−पालन, कुटीर−उद्योग, सामान्य ज्ञान का बहुउपयोगी भाग भी रहेगा जिससे स्कूली शिक्षा की दृष्टि से जूनियर हाईस्कूल स्तर का किन्तु उससे कई गुना अधिक एवं उपयोगी ज्ञान मिल सके। व्यक्ति एवं समाज के निर्माण विकास की अति महत्वपूर्ण शिक्षा तो इसके साथ ही अविच्छिन्न रूप से जुड़ी रहेगी आशा की जानी चाहिए कि यह शिक्षा किसी भी वयस्क, अवयस्क शिक्षार्थी को प्रौढ़ चिन्तन कर सकने योग्य बना सकेगी।
जहाँ पूरे समय के लिए ऐसे विद्यालय चल सकेंगे वहाँ वैसा प्रयास किया जायगा और बताया जायगा कि घिसी−पिटी, सड़ी−गली शिक्षा पद्धति के स्थान पर यह स्वल्पकालीन किन्तु सर्वांगपूर्ण शिक्षा प्रक्रिया कितनी अधिक प्रखर एवं कितनी अधिक उपयोगी है।
जहाँ पूरे समय के विद्यालय न चल सकेंगे वहाँ उसी शिक्षा को रात्रि पाठशालाओं के रूप में अथवा अन्य किसी सुविधा के समय में चलाया जायगा। आजीविका उपार्जन तथा अन्य कार्यों में व्यस्त व्यक्तियों को जो समय सुविधा का रहता है उसी में यह शिक्षण चलेगा। महिलाओं के लिए तीसरे प्रहर दो से पाँच बजे तक का ही समय सुविधा जनक बैठता है। बच्चों को स्कूली टाइम बचाकर सुबह या शाम का रखा जा सकता है। उनके लिए छुट्टी के दिन अधिक देर तक प्रशिक्षण की सुविधा रखी जा सकती है।
ऐसे विद्यालय हमें गाँव−गाँव चलाने हैं जिनमें बाल, वृद्ध, नर, नारी, शिक्षित, अशिक्षित सभी नव−जीवन की—नव−युग की तैयारी करने के लिए प्रेरणाप्रद मार्ग दर्शन प्राप्त कर सकें। सेवा−भावी अध्यापकों के द्वारा ही इनका सञ्चालन होगा। वेतन देकर तो पूरे समय वाले विद्यालय ही चल सकते हैं। हर दिन थोड़े समय चलने वाली पाठशालाएँ तो सेवाभावी सृजन सैनिकों के भाव भरे श्रमदान से ही चल सकेंगी।
इस पुण्य प्रयास को जन्म देने एवं अग्रगामी बनाने के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो इस अभिनव प्रक्रिया की रुप−रेखा जान सकें और तदनुरूप स्थानीय लोकशिक्षण व्यवस्था का श्रीगणेश एवं सुसंचालन कर सकें।
मई, जून की गर्मी की छुट्टियों में इसी स्तर के शिक्षा प्रेमियों के पन्द्रह−पन्द्रह दिन के तीन सत्र लगाये गये हैं। पहला रात्र 15 मई से 19 मई तक दूसरा 30 मई से 13 जून तक और तीसरा 14 जून से 28 जून तक चलेगा। इनमें अध्यापकों को अथवा उसी स्तर के अन्य लोगों को आमन्त्रित किया गया है।
जो स्कूली अध्यापक हैं वे इस प्रशिक्षण में एक नवीन शैली प्राप्त कर सकते हैं। सरकारी पाठ्य−क्रम में निर्धारित भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि सामान्य विषयों के साथ−साथ थोड़ी दार्शनिक दृष्टि का समावेश करते हुए इसी शिक्षा में से ऐसे प्रकाश सूत्र छात्रों को हृदयंगम करा सकते हैं जिनके आधार पर उनके मनःक्षेत्र में सच्चरित्रता, सज्जनता, समाज−निष्ठा, सेवाभावना एवं आदर्शवादिता जैसी सद्भावनाओं की सत्प्रवृत्तियों की जड़ें गहरी जमाई जा सकें। यह पद्धति अजनबी लगते हुए भी कठिन नहीं सरल है। उसका उपयोग बिना किसी अतिरिक्त श्रम के सामान्य स्कूली शिक्षा के साथ ही चलाया जा सकता है। अध्यापक लोग इस प्रयास को सहज ही गति दे सकते हैं और अपने राष्ट्रीय कर्त्तव्य का अधिक अच्छी तरह निर्वाह कर सकते हैं।
कि सी को इस असमंजस में पड़ने की जरूरत नहीं हे कि धर्म−निरपेक्ष सरकार इसमें किसी साम्प्रदायिकता की अथवा राजनैतिक दलबन्दी की गन्ध ढूंढ़ निकालेगी। जब वस्तुतः वैसा कुछ हैं ही नहीं—अपना सारा प्रयास चौराहे पर रखा जाने योग्य खुला खेल है तो फिर डरने की कोई बात नहीं। कहीं पूछ−ताछ हुई भी तो उसमें ऐसा कहीं कुछ नहीं मिलेगा, जिसे वर्तमान दिग्भ्रान्त सरकार की दृष्टि में भी अवाँछनीय ठहराया जा सके। चरित्र−निष्ठा और समाज−निष्ठा उत्पन्न करना न मनुष्य का अपराध है करना है, न भगवान का—न सरकार का। इस दिशा में हर कोई निर्भय और निश्चिंत होकर कदम बढ़ा सकता है।
अध्यापक वर्ग में इस स्तर के लोगों से इस दिशा में अधिक आशा रखी गई है और अपेक्षा की गई है। वे अपने बचे हुए समय में रात्रि पाठशालाएँ अथवा अवकाश के अन्य समय में स्वल्पकालीन कक्षाएँ चला सकते हैं। स्कूलों में अन्य विषयों की आदर्श शिक्षा वाले दृष्टिकोण का समावेश करते हुए अधिक आकर्षक एवं अधिक प्रभावशाली ढंग से पढ़ा सकते हैं। रिटायर होने के उपरान्त तो हर भावनाशील अध्यापक से यह आशा की जायगी कि वे जिस महत्वपूर्ण कार्य में अपने जीवन का बड़ा भाग लगा चुके उसी में बचा हुआ शेष जीवन अधिक उत्कृष्ट स्तर पर मातृभूमि को—मानव−जाति को—माता सरस्वती को—समर्पित कर दे और युग−परिवर्तन की, लोक−शिक्षण प्रक्रिया को गतिशील बनाने में शेष जीवन को परम पवित्र पूर्णाहुति के रूप में प्रस्तुत कर दें। उनके अनुभव, अभ्यास एवं कौशल का लाभ विश्व−मानव को इसी प्रकार मिल सकता है वे अपने जीवन की सच्चे अर्थों में धन्य इसी प्रकार बना सकते हैं।
लोक शिक्षण लक्ष्य की पूर्ति के लिए पूरे समय के विद्यालयों अथवा थोड़े−थोड़े समय की पाठशालाओं का संस्थापन एवं संचालन किस आधार पर किया जा सकता है इसकी योजना, रूप−रेखा, विधि−व्यवस्था किस प्रकार चलाई और सफल बनाई जा सकती है इसी की सुविस्तृत जानकारी कराने के लिए यह पन्द्रह−पन्द्रह दिन वाले लोक−शिक्षा सत्र हैं। इनमें मात्र अध्यापकों को ही नहीं बुलाया गया है वरन् उन लोगों को भी बुलाया गया है जो अध्यापक तो नहीं हैं पर इस दिशा में समुचित योग्यता एवं अभिरुचि रखते हैं। कोई सम्पन्न व्यक्ति अथवा संस्था, संस्थान इस प्रयास की उपयोगिता अनुभव करे और वैसा कुछ करने की संवेदना एवं क्षमता अपने में पायें तो वे भी इन सत्रों में आ सकते हैं। इन सत्रों के आधार पर लोक शिक्षण चेतना का देशव्यापी आरंभ−विस्तार होगा और लोक मानस में अवांछनियताओं को निरस्त करने की—विवेकशीलता एवं प्रगतिशीलता की अभिनव चेतना का संचार होगा ऐसा विश्वास है।
इन पन्द्रह दिवसीय लोक शिक्षण सत्रों का एक और भी पक्ष है जिसे उपरोक्त आधार से भी कम नहीं कुछ अधिक ही महत्व दिया जा सकता है। वह है—लेखन प्रशिक्षण। गत वर्ष इसका सफल प्रयोग हो चुका है और यह अनुभव कर लिया गया है कि इस आधार पर युग की बौद्धिक भूख बुझा सकने योग्य लेखनी के धनी—अभिनव साहित्य सृजेता भी विनिर्मित किये जा सकते हैं।
कहना न होगा कि किसी देश, समाज का असली प्रतिबिम्ब साहित्य ही होता है। लोग जैसा पढ़ते हैं वैसा सोचते हैं और जैसा सोचते हैं वैसा करते हैं। जनसाधारण का क्रिया प्रवाह जिस उत्थान या पतन की दिशा में बढ़ता है उसी स्तर की प्रगति होती है। इस तथ्य को अच्छी तरह गम्भीरतापूर्वक समझा जा सके, समझ लिया जाय। हम पिछले लम्बे समय से अज्ञानान्धकार में भटकते रहे हैं—राजनैतिक पराधीनता के उत्पीड़न सहते रहे हैं इस दुर्गति ने हमारी आर्थिक, सामाजिक स्थिति ही नहीं चिन्तन की प्रतिभा, प्रखरता भी नष्ट कर दी है पिछड़ापन और अनौचित्य हमारी चिन्तन प्रक्रिया के साथ भयावह रूप से जुड़−जकड़ गया है। राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने के उपरान्त हमारा ध्यान इसी विकृति के परिशोधन पर केन्द्रित होना चाहिए था। गिरा को उठाने वाला, व्यक्ति और समाज के प्रत्येक क्षेत्र को परिष्कृत स्तर की प्रबल प्रेरणा देने वाला साहित्य, सृजा जाना चाहिए था और उसे घर−घर पढ़ाने एवं जन−जन को सुनाने का प्रयास किया जाना चाहिए था पर वैसा कुछ हुआ नहीं। सच तो यह है कि जो हुआ है वह उलटा हुआ है। स्वाधीनता प्राप्त होने के उपरान्त पिछले 28 वर्षों में जो लिखा गया है, जो छापा गया और बेचा गया है उस सबको इकट्ठा करके स्तर का निष्कर्ष निकाला जाय तो उसे दुखद, दुर्भाग्यपूर्ण ही कहना चाहिए। विनाशक और विघातक जितना सृजा—फैलाया गया है उसकी तुलना में परिष्कृत एवं सृजनात्मक नगण्य है। जब कि उसी की आवश्यकता अत्यधिक थी।
पत्र−पत्रिकाएँ ढेरों निकलती हैं। पुस्तकें पर्वत जितना कागज गलाती हैं। चित्र छापने में हजारों टन स्याही और न जाने कितना कागज प्रयुक्त होता है; पर इस सब का जन−मानस पर क्या प्रभाव पड़ता है—क्या प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है इसका निष्कर्ष निकाला जाता है तो गहरी निराशा हाथ लगती है और प्रतीत होता है कि हम उठ नहीं रहे गिर रहे हैं। साहित्य की गिरावट अन्ततः उस देश एवं समाज का सर्वतोमुखी पतन ही उपस्थित करेगी। जर्मनी, रूस, जापान, इसराइल जैसे देशों ने थोड़े ही समय में जो अपने देश के नागरिकों को लौह पुरुषों के रूप में बदल दिया उसका बहुत बड़ा श्रेय उन देशों की साहित्य चेतना को बिना किसी संकोच के दिया जा सकता है।
वैयक्तिक क एवं सामाजिक उत्कर्ष−अपकर्ष का बहुत बड़ा श्रेय उस क्षेत्र के साहित्य पर असंदिग्ध रूप से निर्भर रहता है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें दुर्भाग्य का रोना छोड़कर—सृजनात्मक कदम बढ़ाने के लिए आगे आना होगा। इसके अतिरिक्त अपकर्ष को उत्कर्ष में बदलने के अन्य प्रयास अपूर्ण एवं असफल ही बने रहेंगे। हमें समाज की हर समस्या को परिष्कृत स्तर पर सुलझाने वाले और व्यक्ति की प्रत्येक चिन्तन चेतना में आदर्शवादी मान्यताओं का समावेश करने वाले साहित्य का युद्ध स्तरीय प्रयास करना होगा। न केवल लेखन का वरन् प्रकाशन, विक्रय, वितरण का भी कार्य हाथ में लेना होगा। इसके लिए पूँजी जुटाने और संस्थान खड़े करने की दुस्साहसपूर्ण व्यवस्था भी जुटानी पड़ेगी।
इस संदर्भ में सबसे प्रथम चरण प्रगतिशील साहित्य सृजन कर सकने में समर्थ लेखनी के धनी लोगों की सेना खड़ी करनी पड़ेगी। वे लोग मिशनरी की तरह काम करेंगे। अपने अवकाश का समय निकाल कर अथवा ब्राह्मणों जैसा निर्वाह लेकर अपने श्रम और मनोयोग का—ज्ञान−सम्पदा का उपयोग ज्ञान−यज्ञ में आहुति देने की भावना के साथ करेंगे। आज पैसे वालों ने लालच के टुकड़े दिखाकर साहित्य क्षेत्र की प्रतिभा को खरीद लिया है और उन्हें कठपुतली की तरह नचाते हैं—जो चाहते हैं उचित−अनुचित लिखाते है। इस विषाक्त लेखन, प्रकाशन का लोक−मानस पर कैसा घातक प्रभाव पड़ रहा है, इसकी किसी को चिन्ता नहीं, हमारा मार्ग दूसरा होगा। यहाँ एक−एक पैसा जुटाकर निर्धन लोगों की अरुचि को भी प्रभावित कर सकने वाला सस्ते से सस्ता—प्रायः लागत मूल्य पर साहित्य प्रकाशित किया जाना है। ऐसी दशा में लेखकों को पोटले भर−भर नोट कहाँ से गिनाये जा सकेंगे। अधिकतर तो ऐसा साहित्य अवकाश के समय सेवा−साधना के रूप में ही लिखा जायगा। जिनके पास अन्य कोई आजीविका स्त्रोत न होंगे और पूरे समय इसी काम में जुटेंगे उन्हें ही ब्राह्मण स्तर का निर्वाह लेने का अधिकार है। वस्तुतः उच्चस्तरीय साहित्य सृजन सन्त और ब्राह्मण का ही काम है। हमें उसी स्तर के व्यक्ति ढूंढ़ने हैं—प्रशिक्षित करने हैं और उसी प्रकार के प्रयास आरंभ करने हैं। लेखन सत्र इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हैं।
अध्यापक स्तर के लोग प्रायः ग्रेजुएट जितनी शिक्षा प्राप्त होते हैं, सफल लेखक बनने के लिए इस स्तर का अध्ययन आवश्यक है। स्वाध्यायशील और चिन्तन के ऊहापोह में गहरी दिलचस्पी रखने वाले—लेखक के लिए अनायास ही कुछ प्रयास करते रहने वाले ही अपनी रुचि विशेषता एवं अध्ययन क्षमता के आधार पर ही लेखक बन सकते हैं। जो चाहे वही लेखक बन तो सकता है पर उसके लिए दीर्घकालीन अध्यवसाय की आवश्यकता पड़ती है। अध्यापक स्तर के वे लोग जिनकी शिक्षा ग्रेजुएट समकक्ष है अधिक आसानी से और कम समय में लेखन की क्षमता उपलब्ध कर सकने में सफल हो सकते हैं। इसलिए लोक शिक्षण सत्र में ही इस शिक्षा व्यवस्था को भी सम्मिलित कर दिया गया है जिसे जून 74 के पन्द्रह−पन्द्रह दिवसीय दो सत्रों में सम्पन्न किया गया था। इस वर्ष अधिक व्यस्त समय और अधिक श्रम करे ऐसा पाठ्य क्रम बनाया गया है जिसमें पन्द्रह दिन जितनी स्वल्प अवधि में ही लोक शिक्षण की विधि−व्यवस्था और लेखन के लिए तथ्यों को हृदयंगम किया जाना आवश्यक है उन्हें सार रूप से किन्तु गम्भीरतापूर्वक समझा दिया जायगा। लेखन के लिए प्रतिदिन अभ्यास करना होगा और उसमें जो त्रुटि रहेंगी उन्हें बताते हुए यह भी बताया जायगा कि इससे भी अच्छा किस प्रकार लिखा जा सकता है। सिद्धान्त और व्यवहार का उभयपक्षीय समावेश रहने से शिक्षार्थी अधिक स्पष्ट रूप से यह जान सकेंगे कि उन्हें सफल लेखक बनने के लिए क्या−क्या करना होगा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अखण्ड−ज्योति और युग−निर्माण योजना का जो साहित्य लिखा गया है उसका अपना स्थान हैं और अपना स्तर। जिसके हाथों से वह सब सृजा जाता रहा है उसी के मुख से उसके अनुभवों के सार−सूत्र के रूप में जो शिक्षण किया जायगा वह निरर्थक नहीं हो सकता। उसमें कुछ ऐसी विशेषताएँ जुड़ी होंगी जो न तो अन्य व्यक्तियों से सीखी जा सकती हैं और न किन्हीं पुस्तकों में लिखी मिलती हैं। पन्द्रह दिन का ही सही पर वह इतना सारगर्भित होगा जो शिथिल और अव्यवस्थित रूप से कुछ ज्यों−त्यों पन्द्रह वर्ष तक करते रहने की अपेक्षा अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। लोक शिक्षण पक्ष में आधा समय और लेखन शिक्षण में आधा समय विभाजित करके रखा गया है। प्रतिदिन पूरे आठ घण्टे मनोयोगपूर्वक शिक्षार्थियों को श्रम करना होगा। इसमें वे चार घण्टा नित्य लोक शिक्षण की और चार घण्टे लेखन−कला की शिक्षा प्राप्त किया करेंगे।
यह शिक्षण की बात हुई। वे लाभ सहज स्वाभाविक है जो शान्ति कुँज के वातावरण में अनायास ही मिलते हैं। आत्म−परिष्कार की उपासनाएँ—जीवन−साधना की प्रेरणायें—उच्चस्तरीय प्रगति के लिए तेजस्वी प्रकाश—शोक−संताप से घिरी परिस्थितियों का समाधान आदि न जाने कितने अनुदान हैं जो शान्ति कुँज में आने वाले अनायास ही प्राप्त करते रहते हैं। वे सब उपलब्धियाँ
इतनी महत्वपूर्ण है कि जो घोषित लोक शिक्षा सत्र एवं लेखनी सत्र की सम्मिलित प्रशिक्षण प्रक्रिया से किसी भी प्रकार हलके दर्जे की नहीं हैं।
आशा की जानी चाहिए कि जिन्हें उपरोक्त वर्ग के शिक्षण में अभिरुचि होगी वे अभी से उसकी तैयारी करेंगे और अपना स्थान सुरक्षित करा लेंगे। विशेषतया यह सत्र अध्यापक स्तर के परिजनों के लिए लगाया गया है और उसी वर्ग के लोगों को आग्रहपूर्वक आमंत्रित किया गया है।