शान्तिकुँज के स्थानीय प्रशिक्षण में पाँच प्रशिक्षण सत्रों की शृंखला मुख्य है, जिनकी चर्चा पिछले पृष्ठों पर की जा चुकी है। प्रवृत्तियाँ इन्हीं दिनों ऐसी आरम्भ की जा रही हैं जो अभीष्ट लक्ष्य की ही पूर्ति करेंगी पर उनका कार्य क्षेत्र स्थानीय नहीं व्यापक होगा। उनका स्वरूप भर इस आश्रम में देखा जा सकेगा। प्रभाव की प्रतिक्रिया बाहर जाकर देखनी होगी। ऐसे प्रयासों में तीन प्रमुख हैं, जिन्हें अगले ही दिनों हाथ में लिया जा रहा है। यह प्रयास हैं—(1) टैप रिकार्डरों के माध्यम से युगान्तरकारी गीत एवं प्रवचनों को घर−घर तक—जन जन तक पहुँचाया जाना। (2) जीवन विद्या की शिक्षा घर घर तक पहुँचाने वाले साहित्य का प्रकाशन। (3) फिल्म निर्माण द्वारा लोकरंजन और लोकमंगल का अद्भुत समन्वय।
इनमें से प्रथम कार्य तो आरम्भ भी कर दिया गया है। दो ओर से पौन−पौन घन्टे चलने वाले टैपों पर डेढ़ घन्टा बोलने वाले टैप इनके लिए प्रयुक्त होंगे। पहली बार में एक टैप पर बहुत ही प्रेरक दस गीतों को मधुर ध्वनियों और आवश्यक वाद्य सज्जा के साथ टैप कराया गया है और दस प्रवचन इस शिक्षा संचालक के पौन−पौन घन्टे के पाँच टैपों पर उतारे गये हैं। इनमें भी युग निर्माण मिशन की सभी आवश्यक प्रेरणायें भर दी गई हैं। कुल मिलाकर छः टैप हैं। इन्हें इसलिए विनिर्मित किया गया है कि अखण्ड ज्योति परिवार के कोई भी सदस्य उनकी नकल अपने टैपों पर उतार लें और अपने क्षेत्र में जहाँ भी उनकी पहुँच हो वहाँ उन्हें सुनायें। इस प्रकार प्रचार प्रवचनों की एक नई, किन्तु अत्यन्त प्रभावशाली शृंखला और भी चल पड़ेगी।
अखण्ड ज्योति परिवार के कितने ही सदस्यों के पास अपने टैप रिकार्डर हैं। उन्हें प्रायः मनोरंजन के लिए काम में लाया जाता है, अब उनका उपयोग लोकमंगल के लिए भी होना चाहिए। युगनिर्माण शाखा संगठनों को इसके लिए प्रेरणा दी जाती रही है कि वे अपने टैप रिकार्डर खरीद लेने का प्रयास करे। सक्रिय शाखाओं के आवश्यक कर्तव्यों में इस उपकरण को मँगा लेना भी सम्मिलित है। बहुतों ने मँगा लिये हैं, अन्य मँगाने के प्रयत्न में हैं। इन सभी टैप रिकार्डरों का उपयोग अनवरत रूप से जन−जागरण के लिए होना चाहिये। कुछ लोग यह उपकरण व्यक्तिगत रूप से भी मँगा सकते हैं और उसका उपयोग उपरोक्त प्रयोजन के लिए स्वयं करने या दूसरों से कराने में कर सकते हैं। इस दिशा में व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रयास किया जाना चाहिये कि नये टैप रिकार्डर खरीदे जाँय और जहाँ मौजूद हैं, वहाँ उनका उपयोग किया जाय।
शान्तिकुँज से वर्ष में दो बार—जनवरी और जून में छः छः महीने पश्चात् छः छः नये टैप भरे जाने की योजना है। इनमें एक संगीत का और पाँच प्रवचन के रहा करेंगे। वर्ष में दो टैप संगीत के और दस प्रवचनों के रहेंगे। इनमें 20 गायन और 20 प्रवचन होंगे। हर छमाई में अपने क्षेत्र में 10 गीतों को 10 प्रवचनों को सुनाया जाता रहे तो उतने से भी एक चेतना उत्पन्न हो सकती है।
टैप सुनने के लिए विशेष रूप से गोष्ठियाँ बुलाई जा सकती हैं। शान्ति कुँज द्वारा निसृत युगान्तरीय संवेदना को लोग सुनना पसन्द करेंगे। इसके लिए अवकाश का समय वे खुशी−खुशी देंगे। इन विशेष रूप से आमन्त्रित गोष्ठियों के अतिरिक्त जहाँ भी समारोह होते हैं वहाँ भी इनका उपयोग हो सकता है। व्यक्ति निर्माण के लिए जन्मदिवस आयोजनों का परिवार निर्माण के लिए षोड्श संस्कारों की—समाज निर्माण के पर्वोत्सवों की—विशेष अवसरों पर गायत्री यज्ञों समेत युगनिर्माण सम्मेलनों के शिविर आयोजनों की शृंखला प्रायः चलती ही रहती है। इन अवसरों पर टैप रिकार्डरों की सहायता से इन गीतों एवं प्रवचनों को सुनाया जा सकता है। सामान्य स्तर के औंधे−सीधे प्रवचनों की अपेक्षा निश्चय ही लोग यह पसन्द करेंगे कि माताजी के संरक्षण में उनकी प्रशिक्षित कन्याओं द्वारा गाये गये गीत और गुरुजी के प्रवचनों को सुना जाय। उनमें विचार और प्राण दोनों ही घुले रहने के कारण निस्सन्देह उन्हें उत्साहपूर्वक सुना जायगा और आशाजनक प्रभाव ग्रहण किया जायगा।
यदा−कदा, छुटपुट रूप से अनिश्चित समय पर टैपों की नकल कराने का झंझट नहीं उठाया जा सकता। इसमें तो एक टैक्नीशियन सदा सर्वदा के लिए ही घिरा बैठा रहेगा। नकल करने का एक निश्चित समय रहेगा। संभवतः वह दिसम्बर में रखा जाया करेगा, जिससे सभी टैप रिकार्डरों वाले आकार यह टैप यहाँ भेजकर शान्ति कुँज के टैपों की नकल करा लिया करेंगे। जो लोग आ नहीं सकें वे डाक से भेज और मँगा सकेंगे। यों निर्धारित छमाही जनवरी और जुलाई है पर टैप इससे पूर्व ही तैयार कर लिये जाया करें ताकि घोषित तिथि पर नकल करना भर बाकी रह जाय। गीत और प्रवचनों के बोल−विषय क्या हैं, इसकी सूचना डाक से दे दी जाया करेगी, ताकि उनकी नकल कराने न कराने की बात टैप रिकार्डरों वाले निश्चय कर सकें। जिन्हें नियमित रूप से इस योजना का सदस्य बनना है उन्हें अपने आपको शान्ति कुँज में पंजीकृत करा लेना चाहिए। उनका रजिस्टर रहेगा और उन्हें कब आना चाहिये, इसकी सूचना दी जाया करेगी। कारण कि हजारों टैप रिकार्डर पंजीकृत होंगे और एक साथ सभी को नकल करने का अवसर नहीं मिल सकता। थोड़े−थोड़े करके ही नकल क्रम चल सकता है, इसलिए समय भिन्न−भिन्न होंगे। शान्तिकुँज में ठहरने की व्यवस्था भी इतने लोगों की नहीं है। इस दृष्टि से भी समय भिन्न−भिन्न ही रखने पड़ेंगे। नकल कराने वालों की संख्या उनके लिए पृथक समयों का निर्धारण सदा विचारणीय रहेगा। इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि इस योजना के सदस्यों को पंजीकृत किया जाय और पंजीकरण का शुल्क पाँच रुपया वार्षिक रखा जाय। ताकि सदस्यता को चाहे जब भंग कर देने या चाहे जब चालू रखने की अव्यवस्था न फैले। जिनका सदस्य शुल्क जनवरी में न आयेगा उनका नाम काट दिया जायगा। इस नियन्त्रण से एक व्यवस्था बनी रहेगी और यह निश्चय रहेगा कि कितनों के लिए प्रबन्ध करना पड़ेगा। उसी हिसाब से टैक्नीशियन की स्थान आदि को व्यवस्था बनाई जाया करेगी। पंजीकरण शुल्क प्रायः टैप प्रवचनों का छपा सूचना पत्र तैयार कराने को डाक खर्च लगाने में और रजिस्टर आदि रखने में ही खर्च हो जायगा। उसे टैप तैयार कराने और उसकी नकल कराने का खर्च न माना जाय वह तो प्रायः हर टैप के पीछे दो तीन रुपया तक आ सकता है। यह सब कुछ पूर्ण निःशुल्क है। इस कार्य के लिए एक महंगे टैक्नीशियन का जो खर्च पड़ता है वह इस योजना के सदस्यों पर बिलकुल नहीं लादा गया है। उसे तो मिशन ही सहन करेगा। पंजीकृत शुल्क, मात्र व्यवस्था, सतर्कता और नियमितता बनाये रहने के लिए है।
आशा की जानी चाहिए जितने टैप रिकार्डर अखण्ड−ज्योति परिवार के लोगों के पास व्यक्तिगत हैं तथा शाखाओं के हैं उन्हें जल्दी ही पंजीकृत करा लिया जायगा ताकि उन्हें कब बुलाया जाना है, यह निश्चय करके सूचना भेजी जा सके। जहाँ सम्भव हो वहाँ नये टैप रिकार्डर खरीदने की तैयारी की जानी चाहिये।
शान्ति कुँज द्वारा दूसरी जो योजना हाथ में ली जा रही है वह जीवन साधना के सर्वांगीण प्रशिक्षण का साहित्य सृजन एवं प्रकाशन करने की है। व्यक्ति परिवार और समाज की विविध दिव्य धाराओं का संगम जब गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन तीर्थराज प्रयाग की तरह होगा तो उसका पुण्य फल सत्यपरिणाम देखते ही बनेगा। यह साहित्य एक निर्धारित पाठ्य क्रम का अंग होगा, जिसे स्थान−स्थान पर लोक शिक्षण की प्रक्रिया का अंग भी बनाया जा सकेगा।
तीसरी योजना फिल्म निर्माण की है। यह एक तथ्य है कि भारत के समस्त समाचार और विचार पत्रों के जितने पाठक हैं उससे कहीं अधिक लोग हर दिन सिनेमा देखते हैं। रेडियो प्रसारण सुनने वाले भी इन सिनेमा दर्शकों की अपेक्षा कहीं कम हैं। प्रचार का सबसे प्रमुख और सबसे व्यापक साधन इन दिनों फिल्म मंच ही बना हुआ है। इस मंच से जो सिखाया गया है−सिखाया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है जिसे सराहा जा सके, वह नगण्य है। ऐसी दशा में यही उचित समझा गया कि फिल्म निर्माण का एक समानान्तर मंच तैयार किया जाय जो अनुपयुक्त के मुकाबले उपयुक्त को रखकर जनता को यह निर्णय करने का अवसर दे कि उसे क्या अपनाना और क्या छोड़ना है। अभी तो अवाँछनीयता का एकाधिकार है। दूसरा पक्ष है ही नहीं तो जनता को मनोरंजन की आवश्यकता पूरी करने के लिए उसी को अपनाना पड़ता है जो प्रस्तुत है। जब चुनाव के लिए दो चीजें दो स्तर की होंगी तो निश्चय ही विवेक को किसे चुनना किसे छोड़ना यह निर्णय करने का अवसर मिलेगा।
योजना यह है कि भारतीय संस्कृति के मूल स्वरूप को इस रूप में प्रस्तुत किया जाय कि वह आज की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो सके और विश्व संस्कृति के रूप में—मानव संस्कृति के रूप में मान्यता प्राप्त कर सके। इसके लिये अपने गौरवास्पद साँस्कृतिक इतिहास को कलात्मक किन्तु प्रेरक आदर्शवादी परम्पराओं के साथ प्रस्तुत करना पड़ेगा। इस प्रयोजन की पूर्ति करने वाले कथानकों से हमारा पुराण साहित्य एक विशालकाय समुद्र की तरह बिखरा पड़ा है उसमें से मन चाहे मोती—कितनी ही बड़ी संख्या में बीने जा सकते हैं और उन आधारों को लेकर व्यक्ति और समाज को बदल देने वाले—भटकाव को दिशा निर्देश देने वाले अगणित ऐसे कथानक निकल सकते हैं जिनके आधार पर फिल्म बनाये जाते रहें और लोकरंजन के साथ−साथ लोक−मंगल का प्रयोजन बहुत सरलता और सफलता के साथ सम्पन्न किया जाता रहे।
यों पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंगों पर कितने ही फिल्म बने और चले हैं। धार्मिक, तीर्थयात्रा—परक कितने ही फिल्म सामने आये हैं पर उनमें निरुद्देश्य कथा प्रसंग ही भरे पड़े हैं। दिशा और प्रेरणा मिलने की अपेक्षा उनसे चमत्कारवाद से अन्धविश्वास जैसी प्रतिगामी मान्यतायें ही दर्शकों के मन पर जमती हैं। ऐसा कुछ भी उनमें नहीं होता जिससे दर्शक की अन्तरात्मा आदर्शवादी चेतना अपनाने के लिये हुलसें−उमँगें। अपने प्रयास इस क्षेत्र में सर्वथा अभिनव एवं अद्भुत ही होंगे यह कहने की आवश्यकता नहीं। चिर प्राचीन को चिर नवीन के साथ जिस प्रकार हर क्षेत्र में संयुक्त किया गया है वही समन्वय इस फिल्म निर्माण प्रक्रिया में भी होगा। इसके द्वारा क्रान्तिकारी परिणाम उत्पन्न होने की आशा की जा सकती है।
यदि पाँच फिल्में एक बारगी बन जाँय तो उसी पैसे की उलट−पलट होती रह सकती है और नये−नये फिल्म बनते रह सकते हैं। पाँच फिल्मों में लगी पूँजी से यह कार्य अनवरत रूप से चलता रह सकता है और उससे एक सौ फिल्म बनाने जैसी असम्भव लगने वाली महत्वाकाँक्षा पूरी की जा सकती है। नवीन किन्तु स्फूर्तिवान संगीतकार अभिनेता, कलाकार उस नियमित कार्य के लिये उचित पारिश्रमिक देकर रखे जा सकते हैं। अपने गरीब प्रयास को अन्धाधुन्ध पैसा वसूल करने वाले प्रख्यात कलाकारों के लिए जाने की तनिक भी आवश्यकता नहीं। हम मिशनरी भावना से काम करने वाले लोग उचित निर्वाह देकर भी प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें पूरे मन से पूरा श्रम करने के लिये रजामन्द कर सकते हैं। आखिर हर क्षेत्र में हमें सेवाभावी और आदर्शवादी लोग प्रचुर परिमाण में मिल रहे हैं तो इस क्षेत्र में ही क्यों निराश होना पड़ेगा। हम उन सभी तथ्यों का उपयोग करेंगे जो फिल्म की लागत दूसरों की तुलना में कहीं अधिक सस्ती बना सकें साथ ही इस निर्माण की उत्कृष्टता एवं आकर्षक लोकप्रियता को भी अक्षुण्ण बनाये रह सके।
आश्चर्य की ही बात है कि इस प्रयोजन के लिए पूँजी के नाम पर एक पैसा भी हाथ में न होने पर भी यह विश्वास किया जा रहा है कि निकट भविष्य में यह मात्र कल्पना न रहेगी, वरन् कोई न कोई ऐसा आधार बन जायगा, जिससे फिल्म निर्माण जैसी महंगी योजना को भी कार्यान्वित किया जा सके। हम सदा से असम्भव समझे जाने वाले कार्य हाथ में लेते रहे हैं और साधन विहीन स्थिति में भी दुस्साहस पूर्ण कदम उठाते रहे हैं। असफलता का मुख कदाचित ही कभी देखना पड़ा है। युग की पुकार यदि जनमानस को अवाँछनियता के चंगुल से छुड़ा कर वाँछनीयता की दिशा में घसीट ले जाने के लिये—फिल्म निर्माण को कार्य को आवश्यक समझ रही हो तो उसे भी इसलिये अपूर्ण न रहने दिया जायगा कि अपने हाथ खाली हैं और साधनों का सर्वथा अभाव है। आकाँक्षा की प्रबलता यदि सदुद्देश्य की दिशा में चल रही हो तो उसकी पूर्ति के लिये दैवी साधन जुटते रहे हैं—जुटते रहेंगे।
कुछ फिल्मों के कथानकों की बात इन दिनों मस्तिष्क में चल रही है। जैसे—
(1)भगवान के दस अवतारों की संयुक्त कथा, उनके द्वारा सामयिक अवांछनियताओं का निराकरण करने के लिए—वाँछनियताओं की स्थापना करने के लिए—लोक उत्साह जगाने का नेतृत्व किया जाना। इस आधार पर आज की स्थिति में ईश्वरीय मार्गदर्शन का पुनः स्मरण कराया जाना और यह बताया जाना कि आज की स्थिति में वे प्रेरणायें किस प्रकार हमारा क्या मार्ग−दर्शन करती हैं।
(2) सप्त ऋषियों द्वारा अपनाई गई सात अति महत्वपूर्ण लोक−निर्माण की सत्प्रवृत्तियों का संचालन। उनके क्रिया−कलापों और सत्परिणामों का चित्रण। आज की स्थिति में उन प्रवृत्तियों को अपनाकर युग की आवश्यकता पूरी करने की प्रेरणा। ऋषियों को जादूगर के रूप में प्रस्तुत न करेगा उन्हें लोक नेतृत्व के लिये अपने निज के जीवन का तथा क्रिया कलापों का निर्धारण करना। आज के साधु−ब्राह्मणों के लिए तथा लोक−सेवियों के लिये लोकोपयोगी अभियानों के संचालन का सही मार्गदर्शन।
(3) ब्रह्मा, विष्णु, महेश, दुर्गा, गणेश आदि के रूप में भगवान का लोक−मंगल की अनेक प्रवृत्तियों का प्रस्तुतीकरण। अनीति को निरस्त करने और नीति धर्म को प्रोत्साहित करने वाली परोक्ष दैवी सहायताओं का सूत्र संचालन। देवताओं की मनुष्य में देवत्व उदय करने की और धरती पर स्वर्गीय सतयुगी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की अनवरत अभिरुचि। इसी आधार पर प्रस्तुत अनेक देव चरित्रों का समन्वयीकरण।
(4) भारत के प्रमुख तीर्थ स्थानों के निर्माण आरम्भ की वे आदर्शवादी कथायें जिनकी स्मृति में इन तीर्थ स्थानों की आधार शिला रखी गई। प्राचीन काल में तीर्थ स्थानों में महामनीषियों द्वारा संचालित लोक शिक्षण का स्वरूप। तीर्थ यात्रियों की पद यात्रा से राष्ट्रीय एकता एवं धर्म चेतना का अभिवर्धन। तीर्थ स्थानों में जाकर यात्रियों का अपनी उलझनों के सुलझाव का हल प्राप्त करना तथा नई चेतना लेकर लौटना। तीर्थों का लोक−शिक्षा केन्द्रों के रूप में अतीव गरिमा सम्पन्न होना। यह सब कुछ तीर्थ इतिहासों के कथानकों के आधार पर प्रस्तुत किया जायगा।
(5) पुराण काल के महापुरुषों के आदर्श चरित्रों और उनके द्वारा जनकल्याण के लिए किए गये कार्यों का चित्रण। हरिश्चन्द्र, दधीचि, शुनिशेष, प्रहलाद, कर्ण, जनक, चरक, सुश्रुत आदि अगणित महामानवों के चिन्तन एवं कर्तृत्व का ऐसा निर्माण जो आज की स्थिति में ही हमें कुछ करने की प्रेरणा दे सके—रास्ता बता सके। इन महापुरुषों के अलग अलग फिल्म न बनाकर उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं को एक ही शृंखला में आबद्ध किया जाय ताकि कार्यक्रमों की भिन्नता रहते हुए भी महामानवों का लक्ष्य एक ही रहने की बात स्पष्ट हो सके।
(6) रामायण का—रामावतार का इस प्रकार चित्रण जिसमें प्रत्येक पात्र को आदर्शवादी परम्पराओं के विविध पक्षों का निर्वाह करते हुए दिखाया जाय। रामायण की गरिमा और रामचरित्र की महत्ता को इस आधार पर प्रस्तुत किया जाय उस संघ का प्रत्येक सदस्य तत्कालीन अवांछनियताओं के विरुद्ध लोहा लेने के लिए उतारू था और अपने कर्तृत्व का उदाहरण प्रस्तुत करके जनसाधारण को अपनी जीवन नीति निर्धारित करने की प्रेरणा दे रहा था। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का—उनके संपर्क परिकर के प्रत्येक सदस्य का कर्तृत्व मर्यादाओं की स्थापना में अनुपम योगदान। रामायण को भक्ति ध्यान तक सीमित न रखकर उसे जनकल्याण का हर क्षेत्र प्रभावित करने वाले प्रबल प्रयास के रूप में प्रस्तुतीकरण।
(7) कृष्णावतार एवं महाभारत के प्रमुख प्रसंगों का—पाण्डवों के महान संघर्ष का अमर इतिहास। तत्कालीन घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत किया जाय कि उसमें बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक अवांछनियताओं का उन्मूलन करने के लिये सर्वतोमुखी संघर्ष का ऐसा स्वरूप प्रस्तुत किया जाय जो इस समय के लिये ही नहीं सदा सर्वदा के लिए मार्ग दर्शक कहा जा सके। वैयक्तिक और सामाजिक विकास के जिन अनेकानेक तथ्यों को महाभारत प्रकाश में लाना है उनका कुशलता पूर्वक चित्रण। श्रीकृष्ण चरित्र में योगेश्वर और क्रान्तिकारी तत्वों का अद्भुत समन्वय।
(8) सन्त चरित्र तुलसी, सूर, कबीर, नानक, दादू, रैदास, चैतन्य, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, एकनाथ, नामदेव, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, समर्थ रामदास तुकाराम, मीरा आदि सन्तों के चरित्र मात्र पूजा पाठ तक ही सीमित नहीं थे, उन्होंने अपनी भक्ति को लोक शक्ति के रूप में किस प्रकार परिणत किया और धर्म एवं अध्यात्म को मानकर अपने समय की समस्याओं को हल करने में किस प्रकार नेतृत्व किया इसका अविज्ञात किन्तु वास्तविक चरित्र−चित्रण। एक कथा शृंखला में इन सभी सन्तों को कड़ियों के रूप में प्रस्तुत किया जाना।
(9) भारत के ऐतिहासिक महापुरुषों और उनके क्रिया−कलापों का दिग्दर्शन चाणक्य, चन्द्रगुप्त, शिवाजी, प्रताप, गुरु गोविन्दसिंह, तात्याटोपे, भामाशाह, लक्ष्मीबाई, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राममोहन राय, स्वामी दयानन्द आदि के प्रेरणाप्रद मध्यकालीन इतिहासों का क्रमबद्ध चित्रण और उनके स्मारकों के साथ जुड़ी हुई प्रेरणाओं का उभार।
(10) भारतीय नारियों और बालकों का मानवता वादी परम्पराओं के निर्वाह में अनुपम योग दान, कुन्ती, मदालसा, सीता, सावित्री, शकुन्तला, पन्ना धाय आदि की गौरव गाथायें। रोहिताश्व, प्रहलाद, ध्रुव, गोरा, बादल, फतेसिंह, जोरावर आदि बालकों के महान कर्तृत्वों का हृदयस्पर्शी चित्रण।
एक फिल्म में कई कथानकों, घटनाओं या व्यक्तियों का चरित्र चित्रण सम्मिलित करना अटपटा नहीं लगेगा वरन् उससे उनका आकर्षण और भी अधिक बढ़ जायगा। मूल कथानक एक समूची सुव्यवस्थित कथा के रूप में होगा। भिन्न−भिन्न कथानक उसी संदर्भ में अलग अलग कड़ियों के रूप में जुड़ते चले जायेंगे। इस प्रकार उसमें बिखरापन प्रतीत नहीं होगा वरन् एक ही माला में गुथे हुए मोतियों की तरह अनेक सन्दर्भों का समावेश हो जाने में उसकी सुन्दरता, विविधता एवं संक्षेप में अनेक विषयों की जानकारी होने का एक नया प्रयोजन पूरा होगा। कथा का आदि और अन्त तो उसी क्रम से होगा जिस तरह अन्य साधारण कहानियों का होता है। बीच−बीच में आने वाले प्रसंग अन्यान्य घटना क्रमों एवं चरित्रों के महत्वपूर्ण भाग दिखाते चले जाया करेंगे। अपनी यह एक नई किन्तु अधिक उपयोगी और अधिक आकर्षक शैली होगी।
पिछले पृष्ठों पर जिन दस कथानकों का चित्रण है। इनमें से दसों न सही पाँच भी प्रथम प्रयास में एक साथ बन सके तो फिर यह आशा की जा सकती है कि भारत की महान संस्कृति का स्वरूप समझाने वाले अनेक आधार एक से एक बढ़कर कथानकों के आधार पर प्रस्तुत किये जा सकेंगे और उसी पूँजी की उलट−पुलट होते रहने से सौ फिल्म बन जायेंगे; यदि ऐसा सम्भव हुआ तो हम देखेंगे कि भारतीय जनता को अपनी गरिमामयी परम्पराओं से किस प्रकार परिचित प्रशिक्षित किया जा सकता है और उनसे लोक मानस का काया कल्प करने में कितनी महत्वपूर्ण सहायता मिल सकती है। साधन कब इस ओर कदम बढ़ाने की इजाजत देते हैं प्रतीक्षा केवल इसी बात की है। आशा की जानी चाहिये आज भले ही इस संदर्भ में घोर अन्धकार ही सामने क्यों न हो पर कल कहीं न कहीं से, किसी न किसी प्रकार प्रकाश किरणों का उदय होगा और युग की पुकार पूरी करने के लिए इस अति कठिन किन्तु अति आवश्यक कार्य को भी पूरा किया जा सकेगा।
टैप रिकार्डरों की योजना कार्यान्वित कर दी गई है। पुस्तक प्रकाशन सन् 75 के मध्य तक आरम्भ होने की आशा है। फिल्मों के सम्बन्ध में आवश्यक खोज−बीन की जा रही है और वे सब तैयारियाँ करके रखी जा रही हैं जिनके हाथ में रहने से जब भी पूँजी का प्रबंध हो जाय तभी तत्काल कदम बढ़ाने में कोई कठिनाई न रहे।