विद्या का मर्म इस तरह समझें

January 1971

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मानसिक घटनाक्रमों पर ही संसार का स्वरूप बनता है। इस तथ्य को भौतिक विज्ञान के मूर्धन्य वैज्ञानिक आइन्स्टीन ने भी स्वीकार किया है। मन के व्यापार भी स्वतन्त्र नहीं है, वरन् वे भी चेतन की प्रेरणाओं पर ही उछलते-कूदते हैं ? मनःक्षेत्र पर बनने बिगड़ने वाले दृश्य चेतन की ही स्फुरणाएं हैं। स्पष्ट है कि सृष्टि का मूल कारण चेतना है। जड़ पदार्थ भी अपना स्वरूप इससे ही प्राप्त करते हैं। पिण्ड में यह जीव चेतना और ब्रह्माण्ड में वही महती चेतना-परमात्मा के रूप में क्रियाशील है। वैज्ञानिक तथ्यों से भी स्पष्ट है कि जड़ से चेतन की नहीं वरन् चेतन से जड़ की उत्पत्ति हुई है।

उत्पत्ति एवं विकास की एक स्वयं में संचालित जड़ प्रक्रिया नहीं वरन् किसी अदृश्य सत्ता की व्यवस्थित एवं नियन्त्रित है। उपनिषद् में वर्णन आता है। ईशावास्यं मिंद सर्व सतकिंच जगत्याँ जगत”-अजन्मा अविनाशी परमात्मा अपनी माया द्वारा जगत के रूप में प्रकट होता है। भगवद्गीता के अनुसार प्रकृति और पुरुष जो चर-अचर विश्व के कारण हैं अनादि हैं, इसलिए सृष्टि की कारण सत्ता भी अनादि है। “प्रकृति पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।” गीता के अध्याय 4 में भगवान कृष्ण सृष्टि रचना के संदर्भ में वर्णन करते हैं कि “मैं अजन्मा अविनाशी एवं समस्त भूतों का स्वामी हूँ। प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी योग माया से जन्म धारण करता हूँ। स्पष्ट है कि अदृश्य चेतना ही दृश्य पिण्ड के रूप में प्रकट होती है।

पाश्चात्य वैज्ञानिकों में अर्बिन, स्पेन्सर आदि विकासवादियों ने मनुष्य को एक विकसित प्राणी के रूप में माना है। उनका कहना है कि कवास की प्रक्रिया प्रकृति में एक स्वसंचालित रीति से चल रही है। मनुष्य की जीव शास्त्र के क्रमबद्ध विकास की एक सीढ़ी है। जिसका उद्गम स्त्रोत मैटर है। किसी अन्य कारण सत्ता को न मानकर वे कहते हैं कि जड़-तत्व स्वयं में एक आविष्कार है। उनके प्रतिपादनों में इस बात का कहीं भी उल्लेख नहीं है कि जड़ का भी आदि स्त्रोत कहाँ है। उसकी उत्पत्ति कैसे हुई ?

डार्विन से लेकर अब तक के विकासवाद के प्रतिपादनों में अनेकों परिवर्तन आये है। कुछ वर्षों पूर्व डार्विन द्वारा प्रतिपादित जीव-उत्पत्ति सम्बन्धित सिद्धान्त की शताब्दी मनाने के लिए मूर्धन्य वैज्ञानिकों का दल न्यूयार्क में एकत्रित हुआ। सम्मेलन में ‘ज्यूलियन हक्सले’ ने विकासवादी दृष्टि (इवाल्यूशनरी विज्ञान) पर भाषण देते हुए कहा कि -“मानव की उत्क्रान्ति केवल जन्तु शास्त्र का भाग न होकर, मनोविकार का प्रकार है। वह साँस्कृतिक प्रक्रिया के अनुसार कार्य करती है। जिसके स्वयं परिवर्तनशील एवं उत्पादनशील मानसिक गतिविधियों एवं उनके परिणाम निहित है। अपने प्रतिपादन में हक्सले ने आगे कहा कि “यह गतिविधियाँ विकसित होकर नवीन क्षमता युक्त ज्ञानमय कोष, कल्पना कोष एवं श्रद्धामय कोष का रूप धारण करती हैं। जो केवल पदार्थ विज्ञान एवं मनोविज्ञान सम्बन्धी संगठनों तक सीमित न होकर तत्वज्ञान के क्षेत्र में प्रविष्ट कराती है। सृष्टा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उन्होंने कहा है, “अद्भुत प्राणी, मनुष्य एवं सृष्टि उस महाशक्ति की स्मृति प्रस्तुत करते हैं।

विकासवादी भी मटर से चेतन की उत्पत्ति पर अब सन्देह व्यक्त करने लगे है। उनकी मान्यताएँ बदल रही हैं। मनोविज्ञान एवं विज्ञान के दोनों ही क्षेत्रों में यह स्वीकार किया जाने लगा है कि स्वयं में गतिमान अदृश्य कारण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति का कारण है चैतन्य इनर्जी से बढ़कर विचारशील क्वस्टा को जड़ तत्व का कारण माना गया है। ऊर्जा, शक्ति जिस भी रूप में स्वीकार किया जाय वही सृष्टि की आदि कारण सत्ता है। परमात्मा, गोड, अल्लाह के नाम से विभिन्न धर्मों से उसको स्वीकार किया है।

विकासवाद की मान्यताओं में दोष यह रहा कि वह चेतन प्राणियों की उत्पत्ति का कारण मैटर को मानकर सन्तुष्ट हो गया। प्रयोग की कसौटी पर बसने के उपरान्त तथ्यों को स्वीकार करने वाले विज्ञान की यह मान्यता उपहासास्पद ही कही जायेगी। जड़-तत्वों के सम्मिश्रण से चेतन प्राणी की उत्पत्ति का प्रमाण अब तक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। निस्सन्देह विकासवादी पूर्वाग्रहों की मान्यताओं से ग्रसित रहे हैं। उन्होंने कभी यह नहीं सोचा कि कारण के बिना कार्य कैसे ? सृष्टा के बिना सृष्टि कैसी ? पर भारतीय ऋषियों ने सर्वप्रथम प्रश्न किया ।

‘नासतो विद्यते भावों ना भावों विद्यते सतः।”

अर्थात् - असत् का अस्तित्व और सत-चेतन का अभाव नहीं हो सकता। असत से अभिप्राय उनका जड़ से था तथा सत का चेतन से।

ऋषियों का सुनिश्चित मत था कि जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस तथ्य को जानने अनुभव करने के लिए उन्होंने प्रचण्ड साधना की। अनुभूतियों के आधार पर उद्घोष किया कि “सम्पूर्ण सृष्टि में एवं सर्व समर्थ चैतन्य सत्ता कार्य कर रही है। वही सृष्टि का आदि कारण है।

‘लेटर्स ऑफ अरविन्द’ में महर्षि का एक उदाहरण है - आत्म तत्व की मूलभूत चेतन तत्व है जिसका अस्तित्व है। यही गतिशील होकर सृष्टि की रचना करता है। सूक्ष्म एवं विराट् ब्रह्माण्ड मात्र उसकी ही अभिव्यक्तियाँ हैं।

“विजडम आफ गान्धी” में महात्मा गान्धी का कथन इस प्रकार है- किसी अज्ञात शक्ति ने व्यक्ति किया है। उसे मैं इन स्थूल नेत्रों से देख नहीं पाता । पर हर क्षण अनुभव करता हूँ।

तथ्य तो यह है कि दृश्य जगत की मूल कारण चेतन सत्ता है। उसकी चेतन तरंगों से ही जीवधारियों की उत्पत्ति हुई। वही अंश रूप में जीवों में व्यक्त होती तथा समष्टि रूप में सृष्टि का संचालन करती है। जब की उत्पत्ति नहीं होती है। वह तो प्रकृति के नियमों जीवन-मरण के बन्धनों से परे अविनाशी है। वह जब स्थूल रूप में व्यक्त होती तो कहा जाता है कि अमुक प्राणी की उत्पत्ति हुई। व्यक्तिकारण में विशेष प्रकार की परिस्थितियों का योगदान तो होता है, पर उस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनके ऊपर ही चेतना का अस्तित्व टिका है परिस्थितियों का मात्र इतना योगदान होता है कि वे चेतना के स्थूल कलेवर गढ़ने में सहयोगी होती हैं।

जड़−चेतन के सूक्ष्म विश्लेषण में भी मूल-तत्व के रूप में चेतना ही हाथ लगती है। इसकी पुष्टि विज्ञान की नवीनतम शोधों द्वारा भी हो चुकी है। परमाणु संरचना के क्वांटम सिद्धान्त विचारशील ‘क्वान्टा’ की स्वीकृति उसमें विद्यमान चेतना की ही पुष्टि है। यह इस बात का प्रमाण है कि जड़-चेतना सबका उद्गम स्रोत चेतन है।


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