निर्दोष पर दया

January 1971

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उन दिनों पंजाब का शासन-संचालन कर रहे थे पंजाब केसरी महाराजा रणजीतसिंह। पड़ौसी देश के कवायलियों ने राजधानी पेशावर पर आक्रमण की योजना बनाई और 1500 चुने हुए सैनिकों के साथ धावा बोल दिया।

उस सीमा-क्षेत्र में नियुक्त सैन्याधिकारी के साथ 150 सैनिक थे। अपने से दस गुनी सेना से टकराने का साहस उसे नहीं हुआ। अपने कर्त्तव्य पर अडिग रहने तथा कुशलतापूर्वक शत्रु का सामना करने के स्थान पर उसने मैदान छोड़ कर भाग खड़े होने को ही बुद्धिमत्ता मानी।

अपनी सेना के पलायन का समाचार सुनकर पंजाब केसरी को क्षोभ हुआ। अपने राज्य की प्रतिष्ठा तथा सुरक्षा दोनों को आघात पहुँचाने वाले इस अनुचित आचरण से वे विचलित तो हुए, किन्तु अपने वीर स्वभाव के अनुरूप उन्होंने सूझ-बूझ तथा धैर्य से काम लिया। सम्पूर्ण परिस्थितियों पर विचार कर उन्होंने सेनापति को दण्डित करने के स्थान पर उसे अपनी दुर्बलता को समझने और समाप्त करने की प्रेरणा देना उचित समझा। एक कुशल प्रशासक के नाते उन्हें रणक्षेत्र की स्थिति, अपनी सेना की क्षमता तथा उसके संचालन का कौशल सभी भली-भाँति ज्ञात था। सीमा पर नियुक्ति सैन्य दल की संख्या से भी वे अवगत थे।

150 सैनिकों की संख्या को कम समझते हुए सीमा प्रहरी सैन्यधिकारी भाग खड़ा हुआ था। सो महाराजा रणजीतसिंह ने भी 150 सैनिक ही साथ लिये और युद्ध स्थल पर जा पहुँचे।

अपनी रणनीति, युद्ध-कौशल तथा साहस भरे शौर्य एवं तेजस्वी नेतृत्व के कारण 150 सैनिकों के द्वारा ही महाराजा रणजीतसिंह उन पन्द्रह सौ कबायलियों की घेराबन्दी करने, उन्हें हताश एवं पराभूत करने में सफल हुए। निर्भीक तथा कुशल सेनापति के मार्गदर्शन में पंजाबी सैनिकों में उत्साह उमड़ चला था और अपने से दस गुनी सेना भी उन्हें भारी नहीं मालूम पड़ी। कबायलियों के छक्के छूट गये तथा वे अपनी जान बचाकर भागे। विजय-पताका फहराते हुए महाराजा वापिस आये।

अपने ऐसे अदम्य, साहस, शौर्य, उत्साह, धैर्य, सूझ-बूझ एवं कुशलता के कारण ही महाराजा रणजीतसिंह पंजाब-केसरी कहलाये थे। एक कुशल प्रशासन तथा वीर योद्धा तो वे थे ही, आत्मसंयम और विवेकपूर्ण सन्तुलन के भी वे धनी थे। कोई दर्पोद्धत राजा होता तो रणभूमि छोड़ने वाले सैन्य-अधिकारी को क्रुद्ध हो दण्डित करता। ऐसी स्थिति में अपमानित सेनापति अपनी कमी का तो विचार क्यों करता ? मानवीय स्वभाव की दुर्बलता के कारण प्रतिशोध की भावना उसमें भड़क सकती थी। वह शत्रु-पक्ष से जा मिलता और युद्ध-क्षेत्र के तथा पंजाब की सेना के रहस्य उन्हें बता देता। दुरभिसन्धि रच डालता। तब शत्रु का मुकाबला करना और उसे पराभूत करना अधिक कठिन हो जाता। या फिर उस अधिकारी को दण्डित करने से सेना के एक हिस्से में भय, असन्तोष का भाव फैल सकता था।

यह सब न हो पाता तो भी दण्ड-व्यवस्था करने में लगने वाला समय, सीमा पर खड़े शत्रु का आगे बढ़ने, फैलने का अधिक मौका तो दे ही देता।

उतनी ही सेना लेकर शत्रु को पराभूत कर जब पंजाब-केसरी राजधानी लौटे तो सेनापति के हृदय में तब तक इस प्रत्यक्ष आचरण द्वारा साहसिकता का पाठ वैसे ही अंकित हो चुका था। महाराजा ने लज्जित करने के स्थान पर बुलाकर उसे समझाया तथा भविष्य में साहसपूर्वक कर्त्तव्य पथ पर अडिग रहने की सलाह दी।

सच्चे सद्भाव तथा स्वयं के आचरण से पुष्ट यह परामर्श उस सैन्याधिकारी के हृदय पर जीवन भर के लिए अंकित हो गया।


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