प्रेम एवं परमात्मा

January 1971

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परिवर्तनशील सृष्टि के हर क्षण जीवन मृत्यु का संघात चल रहा है। सृजन में विनाश का क्रम अनिवार्य रूप से जुड़ा है। नये पौधे उगते हैं। जीव पैदा होते हैं, किन्तु देखते-देखते काल के गर्भ में समा जाते हैं। जीवन-मरण के इस चक्र को देखकर यह प्रश्न सदियों से मानव मन को आन्दोलित करता चला आ रहा है कि इन सबके पीछे सत्य क्या है ?

जीवन क्या है ? जड़ परमाणुओं का सम्मिश्रण मात्र या अन्य कुछ? विलास, वैभव एवं शक्ति के क्षणिक सुखों के प्रभाव के कारण उस प्रश्न को भले ही भुला दिया जाय, किन्तु उनका आवेश कम होते ही वह पुनः उठ खड़ा होता है। आदिकाल से ही मनुष्यों को सृष्टि प्रवाह के सत्य को जानने की आकाँक्षा रही है तथा जब तक इनका समाधान नहीं मिल जाता, बनी ही रहेगी। विज्ञान, मनोविज्ञान एवं दर्शन सभी अपने-अपने ढंग से इसका समाधान प्रस्तुत करते हैं।

प्रचलित मान्यताएँ तीन प्रकार की है

(1) शून्यवादियों के अनुसार सब कुछ शून्य है।

(2) विज्ञान के अनुसार जीवन जड़ तत्वों का सम्मिश्रण मात्र है जो तत्वों के संगठन-विघटन के साथ उत्पन्न तथा विनष्ट होता है।

(3) दार्शनिकों के अनुसार जीवन का आधार भौतिक तत्व नहीं है। इससे परे उसकी सत्ता है। वह अविनाशी है।

विश्व के सभी वैज्ञानिकों, दार्शनिकों, धर्मग्रंथों की मान्यताएँ इन तीनों के ही इर्द-गिर्द घूमती तथा अपने अपने स्तर पर प्रतिपादन करती है।

शून्यवादियों का मत है कि संसार परिवर्तनशील है। हर क्षण प्रत्येक कण में परिवर्तन हो रहा है। कोई वस्तु स्थायी नहीं है। इस कारण किसी चीज का अस्तित्व नहीं है। सब शून्य है। भूत-भविष्य अस्तित्व रहित है, वर्तमान ही सत्य है। शून्यवाद की यह मान्यता विचारणीय है।

सापेक्षवाद के सिद्धान्त के अनुसार भूत, वर्तमान एवं भविष्य का अस्तित्व एक-दूसरे के सापेक्ष है। वर्तमान का स्वतन्त्र अस्तित्व सम्भव नहीं। “भूत एवं भविष्य को स्वीकार किये बिना ‘वर्तमान’ की कल्पना नहीं की जा सकती। वर्तमान को स्वीकार करने का अर्थ है परोक्ष रूप में भूत एवं भविष्य को स्वीकार करना। इनकी मान्यता उसी प्रकार है जैसे माता-पिता के अस्तित्व को अस्वीकार करके सन्तान के अस्तित्व को स्वीकार करना। शून्यवाद के मत का एक पक्ष यह है कि प्रत्येक वस्तु का स्वरूप हर क्षण बदल रहा है। यह सत्य है। किन्तु मात्र परिवर्तन होते रहने के कारण से ही प्रत्येक वस्तु के अस्तित्व से इन्कार कर देना विवेक संगत नहीं है। यह मान्यता उसी प्रकार है जैसे यह कहा जाय कि एक बच्चे के शरीर में नित्य नये परिवर्तन हो रहे हैं। उसका स्वरूप एक-सा नहीं रहता। इसलिए बच्चे का अस्तित्व ही नहीं है। इस प्रकार का प्रतिपादन यदि कोई व्यक्ति करता है तो निश्चित ही उसको बुद्धिमान नहीं कहा जायेगा।

संसार का प्रतिभासित होने वाला स्वरूप मिथ्या है, इस सीमा तक तो बात ठीक भी है, किन्तु उनके पीछे चल रहे प्रवाह को ही इन्कार कर देना विवेक संगत नहीं है। प्रवाह ही जीवन है तो अनंत काल से प्रवाहित चला आ रहा है तथा अनन्त काल तक प्रवाहित होता रहेगा। पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तथा प्राणि जगत में उस चेतन-प्रवाह के अस्तित्व को इंकार कर दिया जाय तो भयंकर भूल होगी। शून्यता से गति असम्भव है। गति तो किसी चेतन कारण सत्ता से ही सम्भव है। जड़-वस्तुओं की हलचलों का जो कारण है वही चेतन प्राणियों के जीवन का आधार है। उसी को आध्यात्मिक भाषा में आत्मा कहा गया है। वह सबके परिवर्तन का, हलचलों का कारण है। उसकी प्रकाश किरणें ही वस्तुओं पर प्रतिबिंबित होकर उनके स्वरूप का आभास कराती हैं। सब परिवर्तनों का कारण होते हुए भी वह सदा अपरिवर्तित रहती है। शून्यवाद की मान्यता को यदि स्वीकार कर लिया जाय तो सृष्टि के कारणों की सन्तोषजनक व्याख्या सम्भव नहीं है।

यदि जड़ परमाणुओं के संगठन एवं हलचल मात्र से शरीर का गठन हो जाता है, तो वह कौन-सी शक्ति है जो परमाणुओं में हलचल उत्पन्न करती तथा उनको परस्पर संगठित करके सुन्दर शरीर में रूपांतरित करती है। वह कौन-सी शक्ति है जो प्रकृति के कुछ परमाणुओं को लेकर एक प्रकार के शरीर तथा दूसरे से भिन्न प्रकार के शरीर बना देती है। विज्ञान के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। यह कहना कि आत्मा की शक्ति जीवन का कारण भौतिक तत्वों के परमाणुओं के विभिन्न संघातों का प्रतिफल है, अविवेक पूर्ण है। यदि यह सत्य है तो वैज्ञानिक उन तत्वों को जिनसे शरीर बना हैं, को लेकर जीव का निर्माण क्यों नहीं कर डालते हैं।

अब तक की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ स्वयं साक्षी हैं कि प्रयोगशालाएँ एक क्षुद्र जीव का निर्माण नहीं कर सकीं। स्पष्ट है कि आत्मा जड़-परमाणुओं के परस्पर संघात का प्रतिफल नहीं वरन् एक स्वतन्त्र सत्ता है। जो शक्ति प्रकृति के तत्वों को लेकर सुन्दर शरीर के रूप में रूपांतरित करती तथा जो शरीर के अन्दर चेतना के रूप में व्यक्ति होती है, दानों एक हैं। पिण्ड के अन्दर आत्मा तथा ब्रह्माण्ड में वह परमात्मा के रूप में क्रियाशील है। शारीरिक हलचलों का कारण होते हुए भी वह शरीर से परे है। शरीर के गठन, विघटन से उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता है। वह सदा एक रूप में बनी रहती है।

चेतना के अस्तित्व को इन्कार करने तथा जड़ वस्तुओं के साथ उसकी नश्वरता की मान्यता प्रतिपादित करने के स्थान पर यदि सत्य को जानने का प्रयास करें तो स्पष्ट होगा कि वस्तुतः जड़ का ही अपना अस्तित्व नहीं है। जिसे हम जड़ जगत कहते हैं। वह वस्तुतः शक्ति की एक अवस्था विशेष ही है।

उस अविनाशी तत्व हो जो सदा एक रूप बना रहता है। दार्शनिकों ने आत्मा कहा है। जीवन का वही आधार है। जीवन-मृत्यु से वह रहित है। शरीर के अवयवों के नष्ट होने पर भी वह बना रहता है। उसका निश्चित रूप नहीं है। देश-काल की सीमाओं से वह परे है। शरीर उसका देश नहीं, आयु उसका काल नहीं। काल का आरम्भ तो मन से होता है देश भी मन के अंतर्गत है। मन से-अतीत देश काल के निमित्त से वह परे है। वह अनादिकाल से विद्यमान है तथा अनन्त काल तक बनी रहेगी। वह स्वयं अनन्त है। परिवर्तन असीम वस्तुओं में होता है। आत्मा में परिवर्तन असम्भव है।

यह मान्यता ही आस्तिकता है। जीवन की व्यापकता एवं आत्मा की अमरता ही सत्य है। इस सत्य का अनुसंधान एवं उसमें अनुभूति के लिए किया जाने वाला प्रयत्न साधना है। साधना के सोपान पर चढ़ते हुए ही जीवन-मृत्यु के संघात के पीछे चल रहे सृष्टि प्रवाह के सत्य को जाना एवं अनुभव किया जा सकता है।

सैद्धान्तिक समाधान दार्शनिक विवेचनाओं, द्वारा हो भी जाय तो भी मन को सन्तोष नहीं मिल सकता। सत्य को जानने एवं अनुभव करने के लिए साधना के प्रयोग-परीक्षणों से होकर ही गुजरना होगा। वास्तविक सत्य की अनुभूति तभी सम्भव है। यह दिव्य दृष्टि एवं संवेदन क्षमता आत्म परिष्कार के फलस्वरूप भीतर से उभरती और ऊपर से बरसती है। इसी के माध्यम से उस यथार्थ को जान सकना सम्भव होता है जो इस विश्व का तात्विक स्वरूप एवं आधारभूत कारण है।


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