तेजौ वै गायत्री, ज्योतिर्वै गायत्री, गायत्र्यैव भर्ग

January 1971

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सभी यह चाहते हैं कि परिस्थितियाँ सुख-शान्ति से भरी पूरी हों। धरती का स्वर्ग का अवतरण, पुरातन कालीन वह कल्पना है जिसे साकार करने का सपना हर भावनाशील बुद्धिजीवी इन दिनों देख रहा है। सारे विश्व के समझदार कहे जाने वाले विज्ञजनों की निगाहें भविष्य पर टिकी हुई है। वे एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें युद्ध, पारस्परिक द्वेष, सम्प्रदाय-जन कलह एवं नैतिक मूल्यों के प्रति बढ़ती अनास्था को कोई स्थान न हो। तीसरी दुनिया के राष्ट्र तो अपनी वर्तमान की समस्याओं में इतने उलझे हैं कि उनके पास भविष्य के विषय में न सोचने का वक्त है, न सुविधाएं। फिर भी छुट-पुट प्रयास व्यवस्था तन्त्र एवं धर्मतन्त्र दानों ही मंचों से चलते रहे हैं। लेकिन पश्चिम जगत ने भविष्य के बारे में काफी कुछ सोचा है, योजनाएँ बनाई हैं एवं सन् 2000 की एक झाँकी देने का प्रयास किया हैं। इससे यह आभास होता है कि यदि प्रगति की वर्तमान तेज दौड़ यथावत रही तो भविष्य कैसा होगा ? इस विज्ञान को जिसमें साँख्यकीय गणनाओं एवं उपलब्ध तथा सम्भावित आँकड़ों के आधार पर चिन्तन किया जाता है, फ्यूजराँलाजा (भविष्य विज्ञान) नाम दिया गया है, जो पिछले एक दशक मात्र की ही उत्पत्ति है। यूटोपिया एक इसी प्रकार की विद्या है जिसमें वैज्ञानिक कल्पनाएँ करते हैं जो उपलब्ध तथ्यों को मूल आधार बनाकर की जाती है।

सड़ा हुआ अन्न यदि सम्भाल कर रखा जाय तो विष का रूप ले लेता है। उपलब्ध सुख-सुविधा के साधन दुरुपयोग करने पर संकट का स्वरूप ले लेते हैं। समृद्धि तन्त्र, जिसमें खाद्य व्यवस्था, जनसंख्या एवं स्वास्थ्य, उत्पादन-उपभोग व्यवस्था, ऊर्जा, शिक्षा जैसी सार्वजनीन व्यवस्थाएँ सन्निहित हैं, एक इसी आधार पर टिका है जिसे प्लानिंग (योजना) कहा जाता है। यदि दूरदर्शितापूर्ण संवर्धन और सदुपयोग निर्वाह के साधनों का न किया गया तो ये ही साधन भस्मासुर का रूप धारण करके विश्व को नष्ट कर डालेंगे। भविष्यविद् इसीलिए समय-समय पर मिल बैठकर विचार करते हैं एवं स्वर्णिम युग लाने के सही उपास आँकड़े के आधार पर सुझाते हैं।

पिछले दिनों तीन प्रख्यात अमरीकी चिन्तक जिन्होंने इस विषय पर कई पुस्तकें लिखी हुई, परस्पर मिलकर बैठे एवं अपने अध्ययन, चिन्तन व अनुमान के आधार पर बताया कि विश्व का भविष्य उज्ज्वल है। “दुनिया कहाँ जा रही है” इस शीर्षक से फिल्म बना रहे अमेरिकी टेलीविजन संवाददाता केल्विन सेर्ण्डस ने डॉ. मार्गरेटमीड (अब स्वर्गीय), हरमन काँन एवं विलीयम टामसन से साक्षात्कार लिया। “स्पाँन” पत्रिका (अप्रैल 1979) में प्रकाशित इस विचार मंथन पर सारे विश्व के बुद्धिजीवियों का ध्यान गया है। वस्तुतः अभी तक जिन-जिन बुद्धिजीवियों ने अपना चिन्तन दिया है, वह निषेधात्मक ही रहा है। इन तीनों भविष्यविदों ने आशावादी दृष्टिकोण से कई पुस्तकें भी लिख हैं व बताया कि समृद्धि तन्त्र अपना रास्ता बदलने में पूरी तरह से समर्थ है। उसे सही चिन्तन देने वाले मनीषी भी विश्व में हैं जो तीसरी दुनिया जिसमें भारत भी शामिल है, उसे उदित होकर एक स्वर्णिम युग अगले बीस वर्षों में लाकर दिखायेंगे।

स्व. डॉ. मार्गरेटमीड ‘अमेरीकन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री’ को अध्यक्षा रही, नृतत्व विज्ञान पर उनका गहरा अध्ययन था एवं उन्होंने ‘कमिंग आफ एनएज’ ‘कल्चर एण्ड कमिटमेण्ट’, ‘ए स्टडी ऑफ जेनरेशन गैप’ नामक बेस्टमेलर पुस्तकें लिखीं। श्री हरमन काँन ‘हडसन इस्टीट्यूट के निदेशक हैं एवं ‘वर्ष 2000 तथा ‘आगामी दो सौ साल’ नामक पुस्तकों से काफी ख्याति पा चुके हैं। भविष्य विज्ञान के तीसरे विशेषज्ञ विलियम दूरविन थामसन ने ‘एट दी एज ऑफ हिस्ट्री’, डार्कनेस एण्ड स्केटर्ड लाइफ एवं ‘ऐसेज ऑफ फ्यूचर’ नामक पुस्तकें लिखी है। उन्होंने प्रमुख दार्शनिकों, बुद्धिजीवियों कलाकारों तथा वैज्ञानिकों की एक मिली-जुली संस्था बनायी है जिसका उद्देश्य है आगामी भू-मण्डलीय संस्कृति का अध्ययन एवं सुनियोजित निर्धारण।

डॉ. मार्गरेटमीड के अनुसार यद्यपि आधुनिक जगत को संस्कृति, जाति लिंग, पीढ़ियों एवं धर्म मतों की विभिन्नताओं एवं उनमें बढ़ रहे तनावों का सामना करना पड़ रहा है तथापि विकेन्द्रीकृत औद्योगीकरण का एक स्वरूप एवं सार्वभौम विश्व संस्कृति का एक मंच अगले दिनों तीसरी दुनिया से उभर कर आने वाला है जो पाश्चात्य जगत का भी मार्गदर्शन करेगा। उनके अनुसार भविष्य कोई ऐसी चीज नहीं है जो अस्तित्व में न आ चुकी हो। वस्तुतः इक्कीसवीं शताब्दी में प्रवेश कर जो पीढ़ी भविष्य को फैसला करेगी वह आज जन्म ले चुकी है। इसी कारण हमारी आज की योजनाओं, हमारे चिन्तन, व्यवस्था, सम्बन्धी सुझावों का एक सुनिश्चित प्रभाव इस पीढ़ी पर पड़ ही रहा हैं। इसे हम रोक नहीं सकते। अगली पीढ़ी अमेरिकी ग्लैमर की नकलची नहीं होगी अपितु वह इन दबावों तथा तनाव के मध्य से गुजर कर-तपकर विकेंद्रीकरण एवं प्राकृतिक जीवन-व्यवहार को की अपना आदर्श बनायेगी।

डॉ. हारमैने कान पिछले दिनों भारत की यात्रा कर चुकें हैं। उनका कहना था कि “भारत के बीस प्रतिशत व्यक्ति आधुनिक खण्ड में है जो तेजी से प्रगति कर रहे हैं, चालीस प्रतिशत अर्ध आधुनिक खण्ड में हैं जहाँ रबर टायर युक्त बैलगाड़ियां प्रयुक्त होती हैं एवं कस्बों में छोटे-छोटे उद्योग हैं, शेष चालीस प्रतिशत प्रगति की दिशा में अग्रसर है। यह एक अच्छा लक्षण है। जब इस देश की तुलना औद्योगीकरण की दृष्टि से प्रगतिशील देशों से की जाती हैं तो निष्कर्ष यहीं निकलता है कि भारत जैसे अर्ध औद्योगीकृत राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल है। संसाधनों की उपलब्धि की अब चरमसीमा है। आज पश्चिमी देशों में तकनीकी ध्वंसकारी एवं आक्रामक होने की स्थिति में आ गयी है। वास्तव में आज दुनिया की आबादी को बड़ी तकनीक से बनायी गई ज्यादा तादाद में चीजों की जरूरत नहीं है जरूरत है कि ज्यादा तादाद में व्यक्ति वस्तुओं का निर्माण करें ताकि अधिक से अधिक लोगों के लिए जीविकोपार्जन के साधन जुटाये जा सकें। इस प्रकार के गाँधीवादी अर्थशास्त्र की वे वकालत करते हैं व कहते हैं “मेरे अपने हिसाब से आप (भारतीय) काफी अच्छी प्रगति कर रहे हैं।

हरमैने कान के अनुसार “तीसरी दुनिया का अर्थ विकसित एवं विकासशील देश) अपराध यह है कि वह अपनी समस्याओं के द्वारा चीजों को न देखकर पाश्चात्य जिन्दगी की लगभग नकल कर रहा है, उसके लिए पश्चिमी दुनिया के मूल्य ही उनके लिए सर्वोच्च मूल्य हैं। पर स्थिति बदलेगी। विश्व के 30 प्रतिशत गरीब क्षेत्रों में इतनी प्रगति हो जायेगी जो कि रोमन साम्राज्य के सर्वश्रेष्ठ काल के निवासियों की थी।”

डॉ. थामसन के अनुसार “अगले दिनाँक खाद्यान्नों एवं भौतिक साधनों की विपुलता पर नहीं, मानवी चेतना की सम्पूर्ण क्रान्ति पर एक विचार पूर्व से उठकर आयेगा। मानवी संस्कृति के विकास की दृष्टि से, आदेशों की दृष्टि से एवं सारे विश्व के लिए भूतकाल में रही उसकी भूमिका की दृष्टि से भारत ही विश्व संस्कृति का नेतृत्व करेगा। “टायनबी” को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं कि पश्चिम के भौतिकवाद का पूर्व के अध्यात्मवाद से साँस्कृतिक सामंजस्य एवं भविष्यवाणी है जो निश्चिततः सत्य होकर रहेगी। “पूर्व के अध्यात्मवादी, भौतिकता के समन्वित एक संस्कृति का विकास अगले दिनों इस प्रकार करेंगे जिससे समग्र विश्व संस्कृति का एक उत्कृष्टतम उदारवादी स्वरूप उभर कर आयेगा। इसे वे “पैथेगोरियन सिन्थेसिस” नाम से सम्बोधित करते हैं।

जिस प्रकार विज्ञान के क्षेत्र में पिछले तीन दशकों में अभूतपूर्व क्रान्ति आयी है, कुछ उससे अधिक ही साँस्कृतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में परिवर्तन सम्भावित है, ऐसी कल्पना थामसन ने वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर टिकी है।

अमेरिका में अर्थ विशेषज्ञों में प्रथम पंक्ति में गिने जाने वाले लिन्डन एच लाराँच एवं अन्य अमेरिकी विशेषज्ञों का कम्प्यूटर अध्ययन में आधार पर यह अनुमान है कि वर्तमान औद्योगीकरण की व्यवस्था, आणविक ऊर्जा के सदुपयोग एवं तकनीकी ज्ञान की दृष्टि से प्रखर बुद्धि जीवियों की प्रचुरता के कारण भारत अगले 40 वर्षों में ‘सुपर पावर’ की श्रेणी में आ जायेगा और अमेरिका एवं रशिया से भी पहला उसका नाम होगा। प्रकारान्तर से यह श्री हरमन काँन के कथन की ही पुष्टि है। इस कम्प्यूटर प्रोग्राम का नाम था” - 1980-2020 तक भारत का औद्योगीकरण पिछड़े देश से 40 वर्ष में विकसित देशों के रूप में रूपांतरण”। अगस्त 1980 के अन्तिम सप्ताह में पी.टी. आय को दी गयी एक भेंट में श्री लाँराच ने भारत के भविष्य को उज्ज्वल बताया व कहा कि ‘अपनी साँस्कृतिक गरिमा एवं आध्यात्मिक परम्परा के कारण भारत सारे विश्व का नृतत्व करने की स्थिति में आ चुका है। वर्तमान राजनैतिक एवं आर्थिक हलचलों से किसी को आशंकित नहीं होना चाहिए। (स्टेट्समेन 8 सितम्बर 1980)।

इसका मूल कारण स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि तकनीकी ज्ञान की दृष्टि से इस समय सर्वाधिक सम्पन्न भारतवर्ष है। यदि उसकी मूर्धन्य प्रतिभाएँ अपने कार्यक्षेत्र की परिधि को पूरे देश में फैला दें, ग्रामीण क्षेत्रों में अलब्ध उत्पादन में समर्थ संसाधनों का उचित उपयोग कर लें तथा अनियोजित व्यवस्था से होने वाले अपव्यय को रोकने में सहायता देने लगें तो न केवल, भारत प्रथम श्रेणी के राष्ट्र की गिनती में होगा वरन् वह सारे विश्व को दिशा दे सकने में समर्थ हो सकेगा।

ऐसा अनुमान है कि सन् 2020 में भारत को श्रमिकों की कुल संख्या 23 एवं 24 करोड़ के बीच होगी जो कि अमेरिका, रशिया, पूर्व एवं पश्चिम यूरोप की सम्मिलित श्रमिक से अधिक ही होगी। यदि उपलब्ध भूमि (उपजाऊ) का सत्तर प्रतिशत भी सिंचित कर दिया गया तो अन्न का उत्पादन एक खरब टन प्रति वर्ष के लगभग जा पहुँचेगा। यदि यह हो जाता है, तो भारत सारे विश्व को अन्न देने की स्थिति में होगा यह सारी कम्प्यूटर स्टडी एक आशावादी स्वरूप प्रस्तुत करती है। पर यह सब तभी सम्भव है जब उन सावधानियों पर भी ध्यान दिया जाये जिस पर इन अर्थशास्त्रियों ने मात्र इशारा किया है। वे हैं बढ़ती जनसंख्या पर समुचित नियन्त्रण, संसाधनों के दोहन के औचित्य अनौचित्य पर विचारपूर्ण चिन्तन, एक बहुत बड़ी आबादी के लिए साक्षरता की व्यवस्था का निर्धारण एवं एक सुनियोजित तकनीकी बुद्धिजीवी समुदाय की क्षमता के उचित उपयोग की व्यवस्था का निर्माण।

मनुष्य गलती करता है। पर भूल सुधारना भी उसकी एक सहज प्रवृत्ति है। अगले दिनों भूल समझने व सुधारने का ही अभियान चलेगा। इस बात को भविष्यवेत्ता कह रहे हैं ग्रहगणित वाले ज्योतिषी भी यही कर रहे हैं। वैज्ञानिक (फ्यूक्रोलाजिस्ट) कह रहे है तथा कम्प्यूटर तक ऐसी सम्भावनाएँ दे रहा हैं। अगले दिन भोगवादी, नास्तिकता की पक्षधर बुद्धिवादिता को उन दिग्गजों द्वारा नाकों चने चबाने को विवश किया जायेगा जो ऐसे ही विपत्ति के समय पर अवतरित होते रहे हैं।

आदर्शवादी तत्वज्ञान एवं सृजनात्मक युग प्रवाह को गति देने के लिए युग मनीषा को आगे आना ही होगा। चाहे इसे अध्यात्म आन्दोलन कहा जाये या पुनर्निर्माण आन्दोलन, विश्व संस्कृति की स्थापना करने के लिए ऐसी प्रक्रिया अवश्य ही क्रियान्वित होगा। यह एक सपना नहीं, विधाता की क्रमबद्ध सुनियोजित क्रिया-पद्धति है। इसे सम्पादित करने के लिये मानवी संस्कृति के उद्गम केन्द्र भारत को ही नेतृत्व करना होगा।


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