धरती माता को बाँझ न बनाया जाये?

January 1971

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मनुष्य का ही क्यों, सृष्टि के प्रत्येक कण का अस्तित्व सन्तुलन पर टिका है। वह सन्तुलन भंग होते ही अस्तित्व बिखरने लगता है।

प्रश्नोपनिषद् में कहा है-

“ प्राणाग्नयएवास्भिन् ब्रह्मपुरे जागृति”।

अर्थात्- इस ब्रह्मपुरी यानी शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्नियों के रूप में जलता है।

प्राण और प्राणाग्नि में वही अन्तर है, जो अंगारे और धधकती लपटों में होता है। जीवधारी मात्र को प्राणी कहते हैं। प्राण मूलतः संस्कृत शब्द है।

अन् (प्रणाने) धातु जीवन चेतना की द्योतक है। इसी ‘अन्’ धातु से ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘प्राण’ शब्द की व्युत्पत्ति होती है। इस अर्थ में प्राण जीवन सत्ता का, ‘एक्जिस्टेंस’ का पर्याय है। जो है (दैट एक्जिस्टस) वह प्राण है। यही प्राण जड़ जगत में शक्ति-तरंगों के रूप में और चेतना जगत में विचारणा एवं सम्वेदना के रूप में संव्याप्त है।

जब यह प्राण विशेष प्रखरता के साथ सक्रिय होता है, जब उसकी इस प्रज्वलित सक्रियता, प्रखरता को प्राणाग्नि कहते हैं। इसे ही प्राणों की चमक कह सकते हैं। क्रिया क्षेत्रों में यही प्राणाग्नि ओजस्विता, शौर्य, पराक्रम साहसिकता के रूप में प्रकट होती है। यही बौद्धिक क्षेत्र में चिन्तन की प्रखरता, तेजस्विता, मनस्विता के रूप में सामने आती है। वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है-

“प्राणों वैयशोबलम्” अर्थात् प्राण ही यश और बल है। इसका भी यही तात्पर्य है कि प्राणों की सक्रियता ही बल के रूप में सामने आती हैं, वही चतुर्दिक् यश, विस्तार का कारण बनती है।

प्राण रहा भी, पर यह प्रखर न रहा तो विशेष कार्य नहीं हो पाते। सघन गतिविधियां, विशिष्ट हलचलें प्राणाग्नि द्वारा भी सम्भव होती है। मन्द प्राण तो जैसे-तैसे जीवन का संकट खींचता भर रहता है। उसमें आवेगः गति, त्वरा प्राणाग्नि के ही कारण देख जाती है।

यही प्राणाग्नि मन के सकंल्प, बुद्धि, विवेक, चित्त की प्रखरता, विवेक की जागरुकता, समर्थ धारणा शक्ति और “सुपरईगो”............. प्राणाग्नि के ही रूप है। शरीर में यही प्राणाग्नि शरीर की विद्युत के रूप में सक्रिय है। इस प्रकार प्राण जहाँ मात्र हैं यानी ‘एक्जिस्टेन्स’ भर है, वहीं प्राणाग्नि शरीर की विद्युत और मन, बुद्धि की चेतन-ऊर्जा है। स्वामी विवेकानन्द ने इसे ही ‘लेटेन्ट लाइट” कहा है। डिवाइन लाइट’ भी इसे ही कहा जाता है। प्राणों की यह चेतन-ऊर्जा ही व्यक्तित्व को आलोकित करती है। पुरुषार्थ शक्ति यही है। साहस और उत्साह इसी के प्रकाश है। संकल्पशक्ति, तत्परता और दृढ़ता के रूप में यह व्यक्तित्व को गतिशील रखती है। इसकी कमी से जीवन-उत्साह शिथिल हो जाता है, हताशा-अवसाद व्यक्ति को दबोचे रहते हैं।

प्राणाग्नि विकृत अनियन्त्रित हो उठने पर व्यक्ति को जिलाये रखने के स्थान पर उसे जलाकर राख कर देती है। प्राणाग्नि की विकृति या दिशाहीनता ही आवेश, उद्विग्नता, दर्पातिरेक हठधर्मिता या कुटिलता, अधोगामिता के रूप में सामने आती है। दुराचरण, क्रोधावेग, कटुवचन, कलह-दुर्भाव प्राणाग्नि के दुरुपयोग का ही नाम है। जो शक्ति सदाचार-सत्प्रवृत्तियों में लगाई जा सकती है, जिससे बल, बुद्धि और यश-विस्तार हो सकता है।

शरीरस्थ प्राण-विद्युत को तो विज्ञान ने भी खोज निकाला है। 25 वोल्ट से 60 वोल्ट तक का विद्युत बल्व जला सकने योग्य बिजली की मात्रा प्रत्येक शरीर में न्यूनाधिक अनुपात में पाई जाती है। हाथों, आँखों और हृदय क्षेत्र में इसकी सक्रियता कुछ अधिक सघन होती है। ट्राँजिस्टर के ‘नोव’ को हाथ की अँगुलियाँ छुआकर बजाये तो आवाज तेज हो उठती है। उँगलियाँ हटाने पर आवाज पहले जैसी हो जाती है। आँखों की विद्युत-शक्ति ही त्राटक साधना में पूँजीभूत कर उपयोगी बनाई जाती है। डिप्नोटिज्म में इसी विद्युत शक्ति को प्रखर और वशीभूत बनाना होता है।

शरीर विद्युत का असन्तुलन भी अनेक विग्रह खड़े कर देता है। सत्रहवीं सदी में एसेक्स की एक वृद्धा प्राण-विद्युत सहसा धधक उठी और वह अपनी झोंपड़ी में झुलस कर जल मरी। डेली टेलिग्राफ लन्दन ने एक बार एक ट्रक ड्राइवर के ट्रक के भीतर ही अपनी सीट पर जल जाने की खबर छापी थी। इसी प्रकार ‘रेनाल्ड न्यूज’ ने पश्चिमी लन्दन की एक खबर छापी कि एक व्यक्ति वहाँ सड़क से जा रहा था ,तभी सहसा उसके भीतर से लपट निकली और वह वहीं झुलस कर सिमट गया।

ओहियो की एक फैक्टरी का मालिक परेशान था। उसके यहाँ आठ बार आग लग चुकी थी। इस अग्निकाँड का कारण ज्ञात नहीं हो पा रहा था। आखिर उसने वैज्ञानिक जासूसी का व्यवसाय करने वाले ब्रुकलिन के प्राध्यापक रोबिन बीच से मदद माँगी। प्रोफेसर बीच फैक्टरी पहुँचे। सभी कर्मचारियों को एक स्थान पर एकत्र किया गया। इलेक्ट्रोड और वोल्ट मीटर से जुड़ी एक धातु पट्टिका पर इनमें से हर एक को एक-एक कर चलाया गया। सभी उस पर चलकर जाते रहे। वोल्टमीटर की सुई औसत बिन्दुओं के बीच डोलती रही। तभी एक महिला-कर्मचारी का क्रम आया। उसने जैसे ही धातु पट्टिका पर पाँव रखा, वोल्टमीटर की संकेतक सुई उच्च बिन्दु पर जा टिकी। आग का कारण समझ में आ गया। इस महिला की भीतरी विद्युत-शक्ति की अधिकता ही इसका कारण थी। उसका विभाग बदल दिया गया और ऐसे ‘सेक्शन’ में भेज दिया गया, जहाँ आग पकड़ने वाली वस्तुएँ नहीं थी। फैक्टरी में आग लगने का सिलसिला समाप्त हो गया।

कुछ वर्षों पूर्व लन्दन में एक डिस्कोथिक में नाच रहे एक प्रेम-युगल का सारा आनन्द महा शोक में बदल गया। युवक के साथ थिरक रही सुनहरे बालों वाली युवती सहसा चीख पड़ी। लोग जहाँ के तहाँ रुक गये। सामने लड़के के सुनहरे केश आग की लपटों में लहरा रहे थे। लड़के ने आग बुझाने की कोशिश की, तो उसके हाथ जल गये और भी कई लोगों ने प्रयास किया तथा हाथ जहां बैठे। कुछ क्षणों बाद वह उन्नीस वर्ष की युवती राख की ढेरी में बदल गई। यह प्राण विद्युत के विस्फोट का ही परिणाम था। इसके पहले चेम्सफोर्ड में ऐसी ही एक घटना 20 सितम्बर 1638 को घटित हुई थी और एक महिला देखते देखते नीली लपटों में खो गई थी।

व्हिटले (इंग्लैंड) का नागरिक जोनहार्ट 31 मार्च 1608 को अपने घर में बहन के साथ बैठा था। सहसा उस बहन ने शरीर से आग की लपटें निकलने लगीं। जोनहार्ट ने उसे कम्बल से लपेट दिया, तत्काल नीचे दौड़ कर पास ही रह रहे डाक्टर को बुला लाया। पर इसी बीच कम्बल, कुर्सी समेत बहन आग में स्वाहा हो चुकी थी।

मनुष्य के भीतर की आग के तेजी से धधक उठने की इन घटनाओं की पुष्टि वैज्ञानिक भी कर चुक है। यद्यपि वे अभी तक इसका समाधान कारक हल नहीं खोज सके है।

मनुष्य शरीर में स्थित प्राण-विद्युत के इन आकस्मिक विस्फोटों के कारणों का और उन्हें रोक सकने के उपायों का पता तो वैज्ञानिक ही लगा सकते हैं और वे लगा भी लेंगे। परन्तु ऐसे विस्फोट तो विरल ही होते हैं। वे मानव जाति की उतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी कि भीतर प्राणाग्नि के दुरुपयोग से उत्पन्न समस्याएँ।

शरीर, मन, बुद्धि अन्तःकरण में क्रियाशील इस प्राणाग्नि के दुरुपयोग से व्यक्ति ऊपर चर्चित आकस्मिक विस्फोटों की तरह पूरे तौर पर भले ही न जले, किन्तु भीतर ही भीतर वह दग्ध, क्षत-विक्षत होता रहता है। शरीर-शक्ति का दुरुपयोग, आहार-बिहार के नियमों की अवज्ञा, बहुमूल्य, जीवनी-शक्ति को काम-विकार की नालियों में बहाना-ये प्राणाग्नि के वे दुरुपयोग हैं, जिनमें व्यक्ति का बल छीजता और ओजस् घटता है।

कटु वजन, पर निन्दा, असत्य-कथन, वाग्धल वाणी द्वारा प्राणाग्नि को गलत ढंग से खर्च करने के उदाहरण हैं। जिनसे व्यक्ति स्वयं भी जलता है, दूसरों को भी जलता है। दहकते अंगारों जैसे, तपी हुई छड़ जैसे, जलाने और दागे छोड़ने वाले शब्द बोलने वाले को भी उत्तप्त करते हैं और जिसके लिये कहे जाते हैं, उसे भी जलाते हैं। शरीर-शक्ति का अवाँछित उपयोग स्वयं का बल घटाता है और पास-पड़ौस में भी विकृति-विक्षोभ बढ़ाता है।

बड़े पैमाने पर स्पष्ट दिखाई दे सकने वाली हानियाँ तो शरीर की आग से जल उठने की घटनाओं जैसी ही विरल होती हैं। भीषण दुष्परिणाम तो कभी-कभी ही समाने आते हैं। किन्तु प्राणविद्युत से असन्तुलन से, उसके ‘लोक’ करने लगने से स्वयं को तथा संपर्क क्षेत्र के लोगों को तेज झटके लगने के वैसे उदाहरण नित्य ही देखे जा सकते हैं जैसे लन्दन की ही किशोरी जेनीमार्गन के शरीर में विद्युत-शक्ति के ‘लीक’ होने पर देखे गये थे।

लन्दन के प्रसिद्ध स्नायु-चिकित्साविद् डॉ. जान ऐश क्राफ्ट ने मार्गन के बारे में सुनने पर उसकी जाँच करनी चाही। उन्होंने सुन रखा था कि इस लड़की की प्राण-विद्युत बहुत अधिक है और उसे छूने वाले को तेज झटका लगता है। वे पहुँचे ओर बड़ी गर्म जोशी से जेनी से हाथ मिलाया। पर परीक्षण और अनुभव का मौका उन्हें नहीं मिल सका। हाथ मिलाते ही उन्हें तेज झटका लगा। वे दूर फर्श पर गिरे और बेहोश हो गये। उपचार के बार होश आया। इस लड़की में यह स्थिति 1650 तक रही। तब तक उसके संपर्क में जो भी आया, उसे तेज झटके के साथ धराशायी होना पड़ा। यहाँ तक कि एक युवक जिसे जेनी खुद भी चाहती थीं, उसे छूने के चक्कर में दूर जा गिरा और घायल हो गया। परिणामस्वरूप फिर कभी उसकी ओर लौटकर देखा तक नहीं।

ऐसी घटनाओं की जाँच करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि शरीर के सेल के नाभिकों का आवरण थोड़ा ढीका हो जाने पर उसमें निहित शरीर विद्युत ‘लीक’ करने लगती है और तब वह अनियन्त्रित मात्रा में शरीर में दौड़ने लगती है। शरीर के कोशों की ऐसी ढील और विद्युत-शक्ति के ‘लीक’ होने की घटनाएँ भले यदा-कदा ही सामने आएं, पर जिनकी मन, बुद्धि, अंतःकरण में क्रियाशील प्राण-विद्युत निरन्तर ‘लीक’ होती रहती है, ऐसे ढीले-पीले व्यक्तित्वों की समाज में कभी नहीं, भरमार ही दिखाई पड़ती है। उनके संपर्क में जो भी आता है, वह उनके कटुवचनों, कुचालों, दुर्भावनाओं और दुर्व्यवहार के रूप में ‘लीक’ हो रही प्राण-विद्युत और झटकों से आहत हो जाता है।

दूसरों ओर जो लोग इस प्राण-विद्युत सदुपयोग करते हैं वे कोलरोडों के डब्ल्यू, पी. जोन्स की तरह स्वयं भी सुख-शान्ति पाते हैं, दूसरों को भी लाभ पहुँचाते हैं। जोन्स अपनी इसी विद्युत क्षमता से धरती पर नंगे चलकर भू-गर्भ की अनेक धातुओं के भण्डार की सही-सही जानकारी दे देते हैं। ऐसी क्षमताओं से सम्पन्न अनेक लोग आये दिन नहीं लगती। उन्हें स्वयं भी इस परोपकार से प्रसन्नता होती हैं, दूसरों को भी वे उपयोगी एवं महत्वपूर्ण लगते हैं।

आन्तरिक क्षेत्र में क्रियाशील प्राण-शक्ति से सदुपयोग से मिलने वाले लाभ तो और भी कई गुना अधिक है। साहस, शौर्य, बौद्धिक प्रखरता, सत्संकल्प और सक्रियता सही दिशाधारा में नियोजित किये जाने पर प्रगति, उत्कर्ष, सफलता, सन्तोष और शान्ति के शतमुखी अनुदानों की वर्षा करती है। शाँखायन-सूत्र में कहा गया है-

“प्राणोऽस्मि प्रज्ञात्या

अर्थात्-प्राण रूप प्रज्ञा में है। इस प्राण-प्रज्ञा के द्वारा सत्संकल्प, सत्कर्म, सद्ज्ञान और सद्भाव के आधार पर जीवन सके सदुद्देश्यों की प्राप्ति ही प्राणाग्नि का अभिवर्धन एवं सदुपयोग है।

जीवन में उत्कृष्टताओं की उपलब्धि इसी जीवन्त प्राण-शक्ति द्वारा होती है। इसे ही प्रतिभा कहा जाता है। जीवट, प्रखरता और जोखिम उठा सकने की साहसिकता, प्राणी की इसी लपट का परिणाम है। उसे सन्तुलित, नियन्त्रित एवं सही दिशाधारा में सुनियोजित करना ही जीवन की सार्थकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118