आध्यात्मिक काम-विज्ञान - 2

January 1971

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यह सच है कि अपने पुरुषार्थ के बलबूते मनुष्य बहुत कुछ कर सकता है, पर इसके साथ यह तथ्य भी अनिवार्य रूप से जुड़ा है कि मानवी पुरुषार्थ की एक सीमा है। सफलता-असफलता में उपलब्ध परिस्थितियों एवं अन्यों के सहयोग की भी आवश्यकता पड़ती है। जिस भू-भाग पर मनुष्य निवास करता एवं उसके अनेकानेक अनुदानों का लाभ उठाता है वह भी स्वतन्त्र एवं स्वावलम्बी नहीं है। पृथ्वी सम्पदा का एक बड़ा भाग अन्य ग्रहों की कृपा से प्राप्त होता है। सूर्य की अनुकम्पा से ही पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व बना हुआ है। जीव-जन्तु, पेड़-पौधे सूर्य ऊर्जा से ही जीवन धारण करते हैं। अजस्र अनुदान का यह क्रम रुक जाय तो पुरुषार्थी होते हुए भी मनुष्य कुछ भी नहीं कर सकता। समस्त पशु-पक्षी, वनस्पति एवं मनुष्य जाति का अस्तित्व संकट में पड़ जायेगा। भूलोक का अन्तर्ग्रही ही अनुदान उनके आपसी सन्तुलन पर निर्भर करता है। ग्रहों के आपसी असन्तुलन का प्रभाव पृथ्वी एवं इस पर निवास करने वाले जीव एवं वनस्पति जगत पर असाधारण रूप से पड़ता है। अतएव मानवी भविष्य एक सीमा तक अंतर्ग्रही सन्तुलन पर निर्भर करता है। ग्रहों की प्रकृति में आये विक्षोभ समस्त सौर मण्डल को प्रभावित करते हैं। प्राणि जगत की शारीरिक एवं मानसिक स्थिति तो प्रभावित होती है, पृथ्वी का सन्तुलन एवं सम्पूर्ण पर्यावरण भी विक्षुब्ध हो उठता है। फलतः अनेकों प्रकार के प्रकृति प्रकोप दृष्टिगोचर होते हैं।

इस तथ्य की पुष्टि विज्ञान जगत में भी होने लगी है। ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाली वैज्ञानिक पत्रिका नेचर के सम्पादन एवं प्रसिद्ध खगोलवेत्ता जानग्रिबिन तथा नासा अन्तरिक्ष शोध संस्थान के वैज्ञानिक स्टीफन प्लगमेण्ट ने सम्मिलित रूप से “द जुपीटर एफेक्ट” नामक पुस्तक लिखी है। पुस्तक में सौर मण्डल के ग्रहों की स्थिति गति एवं पृथ्वी के वातावरण एवं जीव-जगत पर पड़ने वाले उनके प्रभावों का वर्णन है। गणना के अनुसार इन खगोलवेत्ताओं ने घोषणा की है कि सन् 1682 में सौर मण्डल के नौ ग्रह सूर्य के एक ओर पंक्तिबद्ध होंगे, उस समय सूर्य की गति एवं स्थिति में असामान्य परिवर्तन होंगे। उसका प्रभाव पृथ्वी के वातावरण एवं मौसम पर पड़ेगा। पृथ्वी के परिक्रमा पथ में गतिरोध होने की सम्भावना है। फलतः विश्व के अनेकों स्थानों पर तीव्र भूकम्प आयेंगे मौसम में अप्रत्याशित परिवर्तन होंगे। इस आकस्मिक असन्तुलन में मानवजाति सामंजस्य बिठा पाने में असमर्थ होगी। प्रतिकूल वातावरण अनेकों नये रोगों को जन्म देगा। भूकम्प, बाढ़ सूखा के त्रिविधा प्रहार से अपार जन-शक्ति एवं धन शक्ति नष्ट होगी।

ग्रिबिन एवं प्लेगमेण्ट के अनुसार नौ ग्रहों के एक सीधे में आने से पृथ्वी पर चुम्बकीय सक्रियता बढ़ जायेगी। साथ ही सूर्य में चुम्बकीय असन्तुलन से सौर ज्वाला की लपटें दिखाई पड़ सकती है। पृथ्वी का आयनोस्फियर बदल सकता है तथा अंतर्ग्रही संचार व्यवस्था में व्यतिक्रम उत्पन्न हो सकता है। पृथ्वी पर जलवायु का नियन्त्रण सूर्य द्वारा होता है। सूर्य में सर्वाधिक धब्बे उस समय दिखाई देंगे, जब नौ-ग्रह सूर्य के एक ओर पंक्तिबद्ध होंगे। इस अवधि में सूर्य शक्ति पृथ्वी पर अधिक मात्रा में आने से नदियों एवं सागरों का पानी तेजी से भाप में बदलने लगता है। ध्रुवीय हिमखण्डों के पिघलने की गति बढ़ जाती है। सूर्य में उथल-पुथल से जीव-जन्तुओं के व्यवहार में भी असाधारण अन्तर आता है। मानसिक सन्तुलन बिगड़ने से दुर्घटनाएँ अधिक होतीं तथा युद्ध आदि की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।

वैज्ञानिक पर्यवेक्षणों से इस तथ्य का उद्घाटन हुआ है। कि जिन दीनों अन्तर्ग्रही असन्तुलन बढ़ता है, सूर्य में धब्बे अधिक दिखायी पड़ते हैं। फलतः प्रकृति प्रकोपों में भी वृद्धि होती है। भूकम्प अतिवृष्टि, अनावृष्टि, तूफान, महामारी जैसी घटनाएँ सूर्य कलंकों की अवधि में ही अधिक घटित होती हैं।

अमेरिका वैज्ञानिक एन्ड्रयू डगलस ने अपने शोध के उपरान्त निष्कर्ष निकाला कि सूर्य कंलकों तथा वृक्षों की वृद्धि में परस्पर घना सम्बन्ध है। ‘डगलस’ ने ‘सेक्वोडया’ नामक वृक्ष जिसकी आयु 6500 वर्ष से भी अधिक है, पर पिछले 1000 वर्षों के सूर्य कंलक चक्र एवं उसके प्रभाव का पता लगाया है। उनके अनुसार सूर्य की अधिकतम सक्रियता पिछले 30 वर्षों में सन् 1928, 1933, 1947, 1959, 1966 में रही है। इन्हीं वर्षों में सर्वाधिक प्रकृति विक्षोभ उत्पन्न हुए है। वर्ष 1966 में चीन, भारत, अफगानिस्तान, इटली, पाकिस्तान, बुल्गारिया, चैकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी सोवियत संघ आदि देशों के अनेकों स्थानों पर भयंकर बाढ़ आयी एवं भूकम्प के झटके महसूस किये गये।

रूसी वैज्ञानिक चिजावस्की ने पिछले 400 वर्षों में पड़े सूर्य-कंलकों का विशद अध्ययन किया। उनका कहना है कि महामारियों की लहर सूर्य कंलकों में तेजी आने के तीन वर्ष बाद आती है। इन कंलकों का मनुष्य स्वास्थ्य एवं पृथ्वी के वातावरण से सीधा सम्बन्ध है। नवीन वैज्ञानिक खोजों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि शरीर थाइराइड, एड्रीनल, पिट्यूटरी आदि नलिका विहीन ग्रन्थियों को मनुष्य के विचारों, कल्पनाओं एवं भावनाओं से सीधा सम्बन्ध है। सौर मण्डल के ग्रह मनुष्य के विचारों एवं भावनाओं को प्रभावित करते हैं, जिनके फलस्वरूप अन्तर्ग्रंथियों पर भी प्रभाव पड़ता है।

सर्वविदित है कि तेज धूप में अधिक देर से बैठने पर उत्तेजना तथा चाँदनी रात में आह्लाद की अनुभूति होती है। यह सूर्य और चन्द की ग्रंथियों पर प्रतिक्रिया का ही परिणाम है। मनोचिकित्सकों का कहना है कि अमावस्या एवं पूर्णिमा के दिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। पागलपन, विक्षिप्तता, कामुकता उत्तेजना जैसे मनोरोगों की बहुलता इन्हीं दिनों देखी जाती है। हत्या, आत्महत्या, जैसी घटनाएँ भी इस अवधि में अधिक होती है। प्रकृति प्रकोप भूकम्प आदि की घटनाएँ अधिकांशतः इस अवधि में ही घटित हुई हैं।

प्रसिद्ध अमेरिकी वैज्ञानिक जान हेनरी नेल्सन ने अन्तर्ग्रही प्रभावों का लम्बे समय तक अध्ययन किया। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि पृथ्वी के वातावरण एवं इस पर निवास करने वाले जीवों पर सूर्य, चन्द्र, मंगल, शनि, बृहस्पति एवं शुक्र आदि ग्रहों के प्रकम्पनों का निश्चित रूप से प्रभाव पड़ता है। भौतिक विज्ञान के सम्वेदनात्मक सहकम्पन सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए नेल्सन कहते हैं कि “ग्रहों की विशिष्ट स्थिति पृथ्वी पर चुम्बकीय तूफान उत्पन्न करने के साथ-साथ मनुष्य के सूक्ष्म ज्ञान तन्तुओं को कम्पिक करते हैं। जिनके फलस्वरूप एक विशिष्ट प्रकार की उत्तेजक विचार शृंखला चल पड़ती है। फलतः मनुष्य में आक्रमण, हिंसा आदि की प्रेरणा उठती है। मस्तिष्क का सन्तुलन डगमगा जाता है। सूर्य कंलकों के समय यह असंतुलन और भी बढ़ जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि जिस समय नौ-ग्रह सूर्य के एक ओर एक सीधी रेखा में होंगे, उस समय मनुष्य जाति में मनोविक्षोभ चरम सीमा पर होगा। तृतीय विश्वयुद्ध की सम्भावना भी इसी आधार पर की जा रही है।


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