स्वर्ग से भी महान्-तप लोक

January 1971

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सम्पदा, मेहनत और समझदारी का अपना-अपना महत्व है। इनके सहारे भौतिक सुविधा एवं प्रगति के आधार बनते हैं। इनके सहारे भौतिक सुविधा एवं प्रगति के आधार बनते हैं। किन्तु जीवन इतना ही सीमित नहीं है। उसकी गहरी परतों में भाव-सम्वेदना का इतना ऊंचा स्थान है कि उनकी तुलना में और किसी उपलब्धि को रखा नहीं जा सकता।

भाव संवेदनाएं यों सुविधा सफलता मिलने पर प्रसन्नता स्तर की उभरती हैं और कष्ट, हानि या प्रतिकूलता की स्थिति में व्यथा के रूप में सामने आती हैं। मिलने में सुख और वियोग में दुःख प्रतीत होता है। इनमें पर भी यह सभी अनुभूतियों मानसिक स्तर की एवं परिस्थितियों से सम्बन्धित होने के कारण कुछ ही समय ठहरती है। समय के साथ वे घटनाएँ बदलती एवं पिछली बनते ही महत्व हीन होने लगती हैं। ऐसी दशा में सुखद एवं दुःखद अनुभूतियाँ भी भीनी पड़ने लगती हैं। कुछ समय उपरान्त तो उनका महत्व ही चला जाता है, यहाँ तक कि वे विस्मृति के गर्त में गिरकर विलीन भी हो जाती है। स्वजनों के मरण वियोग में कभी मर्मान्तक व्यथा होती है और लगता है कि इस विछोह जन्य कष्ट में जीवित रह सकना किस प्रकार सम्भव हो सकेगा। इतने पर भी समय के साथ वह व्यथा धुँधली होती जाती हैं, यहाँ तक कि मुद्दतों तक उनका स्मरण भी नहीं आता। यही बात विवाह, पुत्र जन्म, चुनाव जीत, बड़ा मुनाफा जैसे सुखद अवसरों के सम्बन्ध में भी है। उन क्षणों में तो वे हर्षातिरेक उत्पन्न करती हैं, पर समय बीतते-बीतते उनकी कोई छाप मन पर नहीं पड़ती। आवेश उतरते ही सब कुछ शान्त हो जाता है।

भौतिक कारणों से उत्पन्न होते रहने वाले भले-बुरे आदेशों को भाव-संवेदना नहीं कहा जा सकता है। वे तो लोक व्यवहार मात्र होते हैं। किन्तु अन्राल की गहराई में अवस्थित आस्थाएँ एवं अनुभूतियाँ यदि उत्कृष्टता पर अवलम्बित हों तो वे निरन्तर आनन्द देती रहेगी। उनसे सन्तोष भी मिलेगा और उल्लास भी।

वस्तुओं एवं परिस्थितियों का उज्ज्वल पक्ष देखना और उसके सौंदर्य से पुलकित होना, मनुष्य शरीर में पाये जाने वाले देवत्व का लक्षण है। यह दिव्य दृष्टि हर किसी के भाग्य में नहीं, पर जिन्होंने उसे संस्कार वश अथवा प्रयत्नपूर्वक पाया हैं, वे हर परिस्थिति में सुखद सम्वेदनाओं का अनुभव करते और एक अनुपम सरसता का हर घड़ी रसास्वादन करते पाये जाते हैं।

प्रकृति का सौंदर्य देख सकने वाली आंखें यदि किसी को मिल सकें जो उसे आकाश के बादल और सितारे अँधेरे और उजाले, अरुणोदय और इन्द्र धनुष जैसे दृश्यों को देखकर जमीन पर से स्वर्ग देख सकने जैसा आनन्द मिलेगा। वृक्ष, वनस्पतियाँ, नदी और सरोवर, पहाड़ और झरने कितने सुन्दर होते हैं, इसे देखने के लिए कवि कलाकार और चित्रकार की आंखें चाहिए। धरती पर विचरते पशु-पक्षी कितने चित्र विचित्र के होते हैं और अपनी हलचलों से मन को कितना गुदगुदाते हैं। इसका अनुभव बाल सुलभ दृष्टि ही कर सकती है जो चलते, बोलते खिलौनों से खेलते हुए फूले नहीं समाते।

अपनी काया कितनी सुन्दर और कितनी मृदुल है उसका दर्पण में चेहरा निहार कर कोई भी देख सकता है। जीव से स्वाद, आँखों से दृश्य, मुख से वाणी, कान से श्रवण आदि ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से समय-समय पर तरह-तरह के रसास्वादन करते रहने के अवसर मिलते हैं। हाथ-पैरों के सहारे मनचाही चेष्टाएँ करने और सफलताएँ पाने का जो अवसर मिलता है वह अभ्यस्त ढर्रे के कारण सामान्य लगता है पर यदि तटस्थ होकर उसे देखा जाय तो उपलब्ध सौभाग्य को सराहते-सराहते मन न भरे।

परिवार को भाव-सम्वेदनाओं का स्वर सप्तक कहा जा सकता है, जिसमें से कितने मधुर स्वर निकलते हैं। वे जब लयबद्ध होकर बजते हैं जो लगता है उस स्वर लहरी से जीवन का कण-कण लहराने और लहलहाने लगा। वात्सल्य, मैत्री, श्रद्धा, कृतज्ञता, सहकारिता सुविधा, अपनत्व की कितनी ही अनुभूतियों का आनन्द इस छोटे से गुलदस्ते में मिलता है इसे कोई पारिवारिकता की अनुभूति कर सकने वाला ही अनुभव कर सकता है। साधारण लोग तो सराय में रहने और किराया चुकाने वालों की तरह दिन गुजारते रहते हैं। आनन्द जब भीतर ही नहीं, तो बाहर कहाँ सी दिखे।

बढ़ने, सुनने, सीखने, सिखाने, कमाने, खर्चने, जुटाने और सोने के अपने-अपने आनन्द है जो उपलब्धियों की सुन्दरता और सरसता का अनुभव कर सकें, मात्र उन्हीं को यह प्रतीत होता है कि जीवन कितना सुन्दर और कितना सुखद है। शेष तो ऐसे ही खीजते-खिजाते दिन काटते और रोते-कलपते विदा होते हैं।

दूसरों की परिस्थितियों और भावनाओं में अपने आपको पिरोकर उनके जैसी सम्वेदनाओं का रसास्वादन कर सकते हैं। दुःखी के साथ करुणा और सहानुभूति और उदार सेवा सहायता के रूप में आत्मीयता अनुभव करने पर एक प्रकार का आनन्द मिलता है और सुख योग्यता, तत्परता आर अनुकूलता के साथ तादात्म्य जोड़ते हुए अनुभव होता है, मानो हम स्वयं ही उन उपलब्धियों का आनंद ले रहे हैं। सिनेमा देखते समय पात्रों की स्थिति के अनुरूप कई व्यक्ति हँसते, रोते देखे गये हैं। उन घटनाक्रमों के साथ अपनत्व जोड़ लेने पर दर्शकों को असाधारण आनन्द आता है। खिलाड़ियों के पराक्रम भी उन्हीं को सुखद लगते हैं जो उस क्रीड़ा विनोद के साथ अपनत्व जोड़ सकें। अन्यथा उस उछलकूद में समय और श्रम गँवाने के अतिरिक्त और कुछ दिखता ही नहीं।

प्रतिभा एवं सम्पदा के आधार पर मनुष्य का मूल्याँकन होता है। वस्तुतः उसकी विशिष्टता उदार भाव सम्वेदनाओं के आधार पर आँकी जानी चाहिए। इसी आधार पर मनुष्य स्वयं उल्लसित रह सकता है और अपने उल्लास को साथियों, समीपवर्तियों पर बखेरता रह सकता है। फूल खिलते हैं तो सारा क्षेत्र महकाते है और सुन्दरता से भरा पूरा दिखता है।

भावनाओं में आत्मीयता सर्वोपरि है। प्रेम इसी को कहते हैं। उदारता, सेवा और सहानुभूति का सम्मिश्रण रहने से आत्मीयता प्रेम बन जाती है। जिससे भी प्रेम किया जाता है वह सुन्दर और सुखद लगता है। साथ ही ऐसा व्यवहार भी बन पड़ता है जिससे प्रेम-पात्र को उपयोगी उत्कर्ष का अवसर मिलता रहे।

प्रेम ही एक मात्र ऐसी भाव-सम्वेदना है जिससे स्वजन सहचरों को नहीं प्रकृति के जीव-जन्तुओं, प्राणियों और वनस्पतियों तक को वश में किया जा सकता है। सुधारा, संवारा जा सकता है।

कैलीफोर्निया के विलक्षण सन्त श्री लूथर बरबैक अपना प्रेम साधना में इतने सिद्ध हस्त हो गये कि प्रकृति के कण 2 और अणु 2 से वे प्यार करने लगे और प्यार बाँटने लगे। उसकी आत्मीयता से प्रभावित होकर वनस्पति को भी गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन लाने को मजबूर होना पड़ा।

श्री लूथर बरबैक के बगीचे में जो भी वृक्ष है, पेड़-पौधे हैं उनसे वे पुत्रवत् आत्मीयता रखते थे। इससे उनके बगीचे में काँटे रहित गुलाब उगते हैं और दिन में कुमुदिनी खिलती है।

अख़रोट के वृक्ष 32 वर्ष की अपेक्षा 17 वर्ष में अपनी सामान्य ऊँचाई से बड़े होकर अच्छे फल देने लगते हैं।

इनके बगीचे में ही बिना काँटे का सेहुड़ उगा हुआ है। जब कोई इनसे गुलाब या सेहुड़ अथवा किसी पौधे की कलम आदि लेने आता है तो वे बड़े प्यार से पौधों को बेटे की तरह समझाते कि तुम जहाँ भी रहोगे वहाँ ईश्वर का काम करोगे।

वृक्ष वनस्पतियों के कांटों का उनके क्रोध और असंतोष का संस्कार ही उनने माना है।


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