अपनों से अपनी बात - हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू

January 1971

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अखण्ड-ज्योति परिवार के प्रज्ञा परिजनों ने युग परिवर्तन की मशाल जलाने और ज्योति जगाने में अग्रगामी भूमिका निभाई-इस तथ्य और सत्य से विज्ञ समुदाय का हर व्यक्ति भली-भाँति अवगत है। विगत 43 वर्षों की लम्बी अवधि पर दृष्टिपात करने से इसी निष्कर्ष पर पहुँचाना पड़ता है कि ‘अखण्ड-ज्योति’ की गणना लोकरंजन के लिए प्रचार विज्ञापन या उपार्जन के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं के परिवार में नहीं हो सकती। उसका उदय अवतरण एक सुनिश्चित मिशन के रूप में- एक लक्ष्य विशेष के लिए हुआ था। यह कहने में कोई अत्युक्ति या दपोक्ति नहीं है कि इस लम्बी अवधि में व्रतशील तीर्थयात्री की तरह उसने प्रयाण क्रम को बिना थके-बिना डरे डगमगाये-अनेकानेक विघ्न बाधाओं को झेला और गतिशीलता को अनवरत जारी रखा है।

भागीरथी प्रयत्नों ने अदृश्य और दूरवर्ती गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारा था। इस गाथा का एक छोटा उदाहरण नव सृजन की प्रवृत्ति प्रेरणा को जन-जन के मन-मन तक उमँगते देखने से मिल सकता है। समुद्र मंथन से चौदह रत्न निकले। खदानें खोदने से मणिमुक्तक हाथ लगे हैं। उसी घटना क्रम का एक छोटा रूप यह है कि प्रज्ञा परिवार के परिजनों में से सहस्रों की संख्या लाँघ कर लाखों तक पहुँचने वाली सृजन शिल्पियों की विशालकाय चतुरंगिणी-भारत को महाभारत बनाने के दुहरे मोर्चे पर प्राण-पण से जूझती हुई दृष्टिगोचर हो रही हैं। अनौचित्य का उन्मूलन और सृजन का संवर्धन देखने में परस्पर विसंगत लगते हैं और एक साथ करने में कठिन असम्भव प्रतीत होते हैं, पर समय ने जब दुहरी और अनमेल जिम्मेदारी कन्धों पर रख ही दी तो उसे वहन करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग भी नहीं रहता।

इतिहास में इस प्रकार का भार वहन करने वाले और भी कई हुए हैं। परशुराम को फरसा और फावड़ा चलाने में समान कौशल दिखाना पड़ा था। उन्होंने अनाचार को निरस्त करने की तरह ही खन्दकों को समतल बनाने और मरुक्षेत्रों में उद्यान लगाने में समान अभिरुचि और तत्परता दिखाई थी। द्रोणाचार्य की पीठ पर शस्त्र और छाती पर शास्त्र लदे रहे। उन्होंने सदाशयता को सींचने और दुष्टता को निरस्त करने के अनमेल प्रयासों की संगति बिठाई समन्वित नीति अपनाई थी। अखण्ड-ज्योति का प्रज्ञा परिवार प्रायः उसी मार्ग पर चलता और उज्ज्वल भविष्य के लक्ष्य तक जा पहुँचने के लिए समग्र साहस सँजोये हुए बढ़ता रहा है। प्रयास कितने बन पड़े और कितने सफल हुए इसका लेखा-जोखा रख सकना दूरवर्ती लोगों के लिए कठिन है। मूक साधना की प्रवृत्ति और उपलब्धि का पर्यवेक्षण मात्र अति निकटवर्ती लोगों के लिए ही सम्भव है। जो इस स्थिति में है वे जानते हैं कि विगत 43 वर्षों में धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित करने और जन मानस को उलटने की दिशा में कितनी उत्साहवर्धक सफलता मिलती चली गई हैं। यों, जो करने में पड़ा है उसकी तुलना में उपलब्धियों को नगण्य भी कहा जा सकता है।

छावनी बनाने से लेकर सैनिकों की भर्ती और शिक्षा का प्रबन्ध सामान्य समय में स्थिर शान्ति काल में होना है। लड़ाई छिड़ जाने पर तो एक ही बात ध्यान में रहती है जो साधन मौजूद है उन्हीं के सहारे आक्रान्त को धकेलने और सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए जो सम्भव हो कर गुजरा जाय। विगत 43 वर्षों से अखण्ड-ज्योति ने कुन्ती की तरह अपना परिवार सृजा सँजोया, पर अब तो समय के आह्वान पर उन सभी को कृष्ण के नेतृत्व में महाभारत की सृजन योजना में निछावर होने के लिए तिलक लगाना और विदा करना ही एक मार्ग है। सामान्य समय और आपत्ति काल का अन्तर तो समाधान ही होता है। एक में सामान्य निर्धारण चलता रहता है, पर दूसरे अवसर पर अन्यत्र से सामर्थ्य समेट कर एक ही केन्द्र पर नियोजित करनी होती है। आग बुझाने और दुर्घटना से निपटने को प्राथमिकता देनी होती है भले ही उस कारण नियमित क्रिया-कलापों में व्यतिरेक ही उत्पन्न क्यों न होता हो।

युग सन्धि के प्रस्तुत बीस वर्ष ऐसे हैं जिन्हें अभूतपूर्व-अनुपम एवं अद्भुत अप्रत्याशित कहा जा सकता है। इतिहास में खण्ड विनाश और सण्ड सृजन के घटनाक्रमों का ही उल्लेख मिलता है। समूची मनुष्य जाति के लिए एक ही समय जीवन-मरण का असमंजस उत्पन्न हुआ हो, ऐसा अवसर अब से पूर्व कभी भी नहीं आया। इतनी विकट समस्याएँ और इतनी विघातक विभीषिकाएं एक साथ मनुष्य के सम्मुख चुनौती बन कर एक साथ आई हो, ऐसा भूतकाल खोजने पर भी नहीं मिलता।

प्रभात काल की उदीयमान किरणें सर्वप्रथम पर्वतों के उच्च शिखर पर चमकती है। धरती पर तो वे बाद में उतरती हैं। सृष्टा की सन्तुलन योजना में व्यापक अनौचित्य को निरस्त करने और सत्प्रवृत्तियों को सींचने के उभयपक्षीय उपक्रम समान रूप से सम्मिलित हैं। प्रेरणाओं का परिवहन मनीषा करती रही है। ‘उमँगें पुरुषार्थ बनकर सामने आती है। व्यापक परिवर्तन की भूमिका निभाने में महामानवों को ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना होता है। इसी आदर्शवादी साहसिकता के कारण वे स्वयं धन्य बनते और अन्य असंख्यों को उबारने का श्रेय पाते हैं।

सौभाग्यवान वे हैं जो इस श्रेय प्रतियोगिता में घुड़ दौड़ लगाते और बाजी जीतकर विजय श्री का वरण करते हैं। श्रेयाधिकारी बनने के लिए सर्वोत्तम अवसर युग सन्धियों का ही होता है। उसे पहचानने वाले और हाथ से न जाने देने वाले ही स्वनाम धन्य बने हैं। हनुमान, अंगद, नल, नील बनने का सौभाग्य हर सदाशयी सेवा भावी को नहीं मिल सकता है। अर्जुन और भीम से भी अधिक कुशल बलिष्ठ समय-समय पर होते रहें है, पर उपयुक्त समय पर उपयुक्त भूमिका निभाकर वे जिस प्रकार धन्य बने वैसा सौभाग्य अन्यान्यों को कहाँ मिल सका ? धनिकों में अशोक, हर्षवर्धन, मान्धाता, भामाशाह जितने सम्पन्न कभी कहीं न हुए हों ऐसी बात नहीं है। इन महान मानवों की गरिमा इतिहास के स्वर्णाक्षरों में इसलिए अंकित है कि उनने समय को पहचाना और उपयुक्त समय पर उपयुक्त कदम उठाने का साहस जुटाया। यों जराजीर्ण होने पर जीवित रहने अथवा मरने पर आँख मूंदते ही लाख करोड़ की सम्पदा उत्तराधिकारी दर्प पूर्वक हड़प लेने और उस उपलब्धि को अधिकार जताते हुए मूंछें ऐंठते हैं।

समय आलस प्रमाद में और वैभव दर्प विलास में गँवाने वालों की कमी नहीं। पर वे दूरदर्शी विरले ही होते हैं, जो निर्वाह की न्यूनतम आवश्यकता जुटाने में थोड़ी सी सामर्थ्य खर्च करने के उपरान्त अपना पुरुषार्थ सत्प्रयोजनों में नियोजित करके अपना एवं असंख्यों का चिरस्थायी हित साधन करते हैं। दुर्व्यसनों और विग्रहों में-ललकों और तृष्णाओं में सामान्य जनों की जीवन सम्पदा गलती-जलती रहती है। इस अपव्यय की फूल झड़ी जलाने में कई कौतूहल बनाते और बाल-विनोद जैसा मोड़ मनाते देखे जाते हैं, पर उन असामान्यों की संख्या नगण्य जितनी होती है जो सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म का नगण्य जितनी होती है जो सुर दुर्लभ मनुष्य जन्म का महत्व समझते और उसका उपयोग महान प्रयोजनों में करने की दूरदर्शिता अपनाते हैं। ऐसे ही थोड़े लोग उस ऐतिहासिक अवसर को समझने और पकड़ने में समर्थ होते हैं जिसमें देवी आह्वान उतरते और संपर्क में आने वालो के लिए अलभ्य वरदान जैसे सिद्ध होते हैं।

अखण्ड-ज्योति परिवार में प्रज्ञा परिजनों की सौभाग्य भरी दूरदर्शिता देर-सवेरे में कोटि-कोटि कण्ठों द्वारा इसलिए सराही जायेगी कि उनने अँधेरे में दीपक जलाने जैसा साहस दिखाकर अपनी विशिष्टता एवं वरिष्ठता का परिचय दिया। साहस के धनी अनेकों होते हैं। उद्दण्ड आतंकवादी, दस्यु आततायी आये दिन दुस्साहस बरतते और दुष्टता करते देखे जाते हैं। यों इसे भी साहसिकता ही कहा जायेगा। लुटेरे और हत्यारे इसी स्तर के होते और दैत्य दानव कहलाते हैं। इन पर लोकभर्त्सना और आत्मप्रताड़ना ही बरसती है। समाज और शासन का दण्ड पाते और ईश्वरीय कोप का नरक सहते हैं। तात्कालिक सफलताएँ जो उनके पल्ले पड़ती है, नरक जैसी घिनौनी और जहर जैसी विषैली सिद्ध होती हैं। ऐसे लाभ कुछ ही समय में नस-नस को बेधने वाले अभिशाप बनकर सामने आते हैं।

यहाँ चर्चा उस साहसिकता की हो रही है जो लोक प्रवाह से अलग हटकर अपना रास्ता बनाती है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रिया-कलाप अपनाने की बात सामान्यजनों से नहीं बन पड़ती वे प्रचलन के प्रवाह में ही बहते रहते हैं और अधिकाँश लोगों के अधिकाँश जीवनक्रम में व्यवहृत होने वाले ढर्रे को अपनाने के अतिरिक्त और कुछ सोचते करते बन ही नहीं पड़ती। सच्चे अर्थों में शूरवीर वे हैं जिनने मानवी गरिमा को समझा और तद्नुरूप स्वतन्त्र चिन्तन और स्वतन्त्र कर्त्तव्य अपना कर महामानवों जैसी वरिष्ठता का मार्ग अपनाया। ऐसे ही लोग प्रकाश स्तम्भ की तरह उफनते समुद्र में भी अपना शिर उठायें-अस्तित्व बनाये रहते हैं। उधर से निकलने वाली जलयानों में डूबने से बचा सकने वाला मार्गदर्शन कर सकना इन्हीं के भाग्य में बदा होता है। मानवता ऐसे ही नर-रत्नों को जन्म देकर कृत-कृत्य होती है।

अखण्ड-ज्योति ने ऐसे ही मणि मुक्तकों को जहाँ-तहाँ से ढूंढ़ा और हीरक हार की तरह उन्हें कलात्मक ढंग से गूँथ कर युग देवता की सौंदर्य सज्जा को बढ़ाया है। दूसरे शब्दों में उसे ऐसी पुष्प वाटिका की उपमा भी दी जा सकती है जिसमें एक से एक सुन्दर सुरभित फूलों को खिलते-महकते देखकर दर्शकों का मन हुलसता है। इस खिली पीढ़ी का विशिष्ट सौभाग्य यह है कि उनका उपयोग वेश्या ग्रहों में नहीं देवमन्दिरों में ही होता चला रहा है। आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टि से सामान्य होते हुए भी दृष्टिकोण, चरित्र एवं सृजन अभियान में योगदान की दृष्टि से अपने को असामान्य स्तर पर सिद्ध किया है। इस प्रतिपादन मूल्याँकन की प्रामाणिकता यह है कि उस छोटे से समुदाय के प्रयास पराक्रम से युग निर्माण योजना बनी-बढ़ी और इस स्थिति तक पहुँची कि उसे असन्तुलन को सन्तुलन में बदल सकने में समर्थ माना और विश्व मानव के भाग्य निर्धारण में उसका योगदान अद्भुत समझा जा रहा है। ‘पिछले 43 वर्षों की दृढ़ता, गतिशीलता और सफलता को देखते हुए यह आशा बँध चली है कि प्रस्तुत विभीषिकाओं से जूझने और उज्ज्वल सम्भावना मूर्तिमान करने में उसकी सुनिश्चित भूमिका होगी।

इन सभी संस्थानों में न्यूनतम दो कार्यकर्ता रहेंगे, एक स्थानीय प्रवृत्तियों चलाने के लिए दूसरा समीपवर्ती सात गाँवों के कार्यक्षेत्र में घर-घर अलख जगाने-युग साहित्य पढ़ाने-युग चेतना पहुँचाने-तथा जन्म दिवसोत्सव के माध्यम से परिवार संस्था में नव सृजन का वातावरण बनाने वाले आयोजन करते रहने के लिए। कार्यकर्ताओं का निर्वाह महिलाओं द्वारा स्थापित धर्म घटों के मुट्ठी फण्ड से तथा दस सूत्री कार्यक्रम चलाने के लिए पुरुषों द्वारा दस पैसा नित्य वाले ज्ञान घटों की राशि से चलते रहेंगे। बूँद-बूँद से घड़ा भरने वाली उक्ति के अनुसार जनमानस में युगान्तरीय चेतना के लिए श्रद्धा समर्थन उत्पन्न कर लेने के उपरान्त प्रज्ञा संस्थानों की अर्थव्यवस्था को सुसन्तुलित बने रहने के लिए आवश्यक किन्तु बनने में कठिन देखते हुए भी क्रम सरल से सरलतम बनता चला जायेगा। जो कार्य धन कुबेर भी नहीं कर सकते, जिस भार को उठा सकना किसी सुसम्पन्न सरकार के लिए भी सम्भव नहीं हो सकता वे जन सहयोग के सहारे अनायास ही पूर होते चले जायेंगे।

सभी प्रज्ञा संस्थानों में शिक्षा संवर्धन की, दो-दो घण्टों की तीन कक्षाएँ नियमित रूप से चलेंगी एक प्रौढ़ों के लिए दूसरी महिलाओं के लिए तीसरी बालकों के लिए। सायंकाल स्वास्थ्य शिक्षण एवं खेलकूद आसन प्राणायाम। रात्रि में नव-सृजन का वातावरण बनाने वाली पौराणिक ऐतिहासिक कथा-गाथाएँ। आरम्भिक दिनों में ही कार्यक्रम सभी छोटे बड़े प्रज्ञा संस्थानों का हैं। जैसे ही उन्हें अधिक जन समर्थन और प्रत्यक्ष सहयोग मिलने लगेगा वैसे ही उन दस सूत्री कार्यक्रमों को स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप गतिशील किया जाता रहेगा। युग सन्धि के दूसरे वर्ष में जिन दस गतिविधियों को अग्रगामी बनाया जाना है उनमें से पाँच सृजनात्मक हैं पाँच सुधारात्मक। सृजनात्मकों में है-

(1) शिक्षा विस्तार, (2) स्वास्थ्य संवर्धन (3) स्वच्छता श्रमदान (4) गृह उद्योग (5) हरीतिमा विस्तार।

सुधारात्मकों में है- (1) नशा निवारण (2)शादियों में होने वाले अपव्यय का प्रतिरोध (3) हरामखोरी, कमजोरी का तिरस्कार (4) फिजूल खर्ची फैशन की रोकथाम (5) अवांछनीयताओं का उन्मूलन।

लोक सेवियों की संख्या, साधनों की मात्रा- परिस्थितियों की अनुकूलता के आधार पर कार्यक्रम भी बढ़ते जायेंगे। अभी दस है। अगले दिनाँक 20 होगे। फिर वे क्रमशः 30, 40, 50, 60 होते हुए शत सूत्री योजना तक पहुंचेंगे और हर स्तर का व्यक्ति हर स्थिति में रहते हुए भी यह अनुभव करेगा कि वह इस शतसूत्री योजना के कार्यक्रम में कुछ न कुछ योगदान दे सकता है। जन-जन को सृजन प्रयोजनों में लगाने से ही सुविस्तृत धरातल पर फैले हुए अनाचार अज्ञान से जूझना और सद्भाव सत्प्रयास को व्यवहार में उतारना सम्भव हो सकेगा।

युग सन्धि का प्रथम वर्ष बीजारोपण वर्ष था। उसमें प्रज्ञा संस्थानों की स्थापना को बीज माना गया और उन स्थापनाओं पर जोर दिया गया। जहाँ इमारतें नहीं बन सकती थी वहाँ निजी घरों में एक कमरा प्राप्त करके उसी में प्रज्ञा मन्दिर बनाने की योजना चलाई गई है। उसे सर्वत्र अत्यन्त उत्साहपूर्वक अपनाया गया है। प्रज्ञापीठें प्रायः दो वर्ष में 2400 बनी, पर यह प्रज्ञा मन्दिर अगले तीन महीनों में ही प्रायः उतनी ही संख्या में और भी बनने जा रहे हैं। कुछ ही महीने की स्वल्प अवधि में इन पाँच हजार निर्माण को देखते हुए यह आशा बँधती है कि देश के 7 लाख गाँवों के लिए हर सात गाँव पीछे एक प्रज्ञा संस्थान का बनना और उनकी संख्या का एक लाख तक जा पहुँचना असम्भव नहीं है-समय, साध्य एवं श्रम साध्य भले ही हो।

युग सन्धि पर्व पर प्रज्ञा परिजनों को क्या सोचना और क्या जानना-मानना चाहिए। इसका प्रतिपादन अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर मिलता है। अब समय के प्रगति क्रम ने प्रत्येक जागृत आत्मा को कुछ नये कर्तव्य और उत्तरदायित्व सौंपे है। उनका स्वरूप, निर्वाह एवं उपक्रम जानने के लिए ‘पाक्षिक युग निर्माण का पढ़ना भी उतना ही आवश्यक हो गया है जितना अखण्ड-ज्योति का दोनों का परस्पर पूरक और अन्योन्याश्रित समझा जाय। उसे मँगाने, पढ़ने और पढ़ाने में उतना ही उत्साह अपनाया जाय जितना कि अब तक अखण्ड-ज्योति के लिए प्रदर्शित किया जाता रहा है। ‘पाक्षिक युग निर्माण’ गायत्री तपोभूमि मथुरा से निकलता है और उसका चन्दा आठ रुपया वार्षिक है। जो परिजन उसके सदस्य न हों नये वर्ष जनवरी से ही उसे मँगाने लगें।

युग सन्धि का दूसरा वर्ष ‘ परिपोषण वर्ष” है। जो गत वर्ष बोया गया है वह अब अंकुरित हो चला। उसे सोचने की आवश्यकता पड़ रही है। गर्भस्थ बालक भ्रूण स्थिति में चुपचाप बैठा रहता है, पर प्रसव के उपरान्त बाहर आते ही उसके लिए दूध, कपड़ा गरम पानी, सफाई, सुरक्षा आदि के अनेकानेक साधन जुटाने पड़ते हैं। बीजारोपण वर्ष की स्थापनाएँ अब अपना परिपोषण चाहती है अन्यथा सरकार वृक्षारोपणों की तरह उपेक्षा के गर्त में गिर कर यह स्थापनाएँ भी निष्क्रिय एवं उपहासास्पद बनती चली जायेगी। जिन स्वप्नों को साकार करने के लिए इन प्रज्ञा केंद्रों की स्थापना की गई है उन्हें फलता फलता बनाने के लिए मात्र खाद, पानी जैसे साधनों की ही नहीं कुशल किसानों और मालियों की भी जरूरत पड़ेगी। स्मरण रखने योग्य है कि पेड़ पौधों से लेकर पालतू पशु-पक्षियों-बालकों, परिजनों को ही नहीं सत्प्रवृत्तियों को सींचने के समय मनोयोग एवं श्रम सीकरों की भी आवश्यकता पड़ती है। वस्तुतः सिंचाई का वास्तविक स्वरूप वही है। परिपोषण के लिए खाद, पानी से ही काम नहीं चलता। साधनों की तरह संरक्षकों को अपना समय सहयोग भी देना पड़ता है।

अखण्ड-ज्योति परिजनों ने सदा से प्रज्ञा परिजन की भूमिका निभाई और नव सृजन के लिए नियमित रूप से योगदान दिया है। अब बढ़ती हुई आवश्यकताओं को देखते हुए उसमें अधिकाधिक अभिवृद्धि की आवश्यकता है। युग सन्धि पर्व का जागृत आत्माओं को विशेष रूप से यह आह्वान आमन्त्रण है कि वे निर्वाह और परिवार के दो उत्तरदायित्वों में एक तीसरा “नवनिर्माण” और सम्मिलित करें। नई सन्तान बढ़ने पर साधनों के विभाजनों में उस नये सदस्य का हक भी सम्मिलित कर लिया जाता है। जो है उसी में से मिल बाँटकर नये सदस्य को भी हिस्सा दिया जाता है। जागृत आत्माओं को यही करना होगा। यदा-कदा दान पुण्य कर देने से काम नहीं चलेगा। समय और साधनों की सम्पदा को अब तीन हिस्सों में विभाजित करने-तीन मदों में बाँटने की बात सोचनी चाहिए।

सृजन प्रयोजन के लिए असंख्यों नये काम आगे आ रहे हैं। उनमें से प्रत्येक का विस्तार हो रहा है। इस बढ़ोत्तरी की एक ही माँग है-युग शिल्पियों का अधिक अनुदान।’ इसकी पूर्ति प्रज्ञा परिजनों को स्वयं ही करनी होगी। जनता से चन्दा माँगने और समर्थकों से सहयोग अर्जित करने का औचित्य है। पर यह ध्यान रखने योग्य है कि अपना उदाहरण प्रस्तुत करने से ही जन-साधारण में उदार सेवा साधना के लिए उत्साह उत्पन्न किया जा सकता है। स्वयं पीछे रहा जाय और दूसरों से लम्बी चौड़ी आशा लगाई जाय तो उसमें सफलता कदाचित ही कभी-छोटी सी मात्रा में मिल पाती है। आदर्शवादी उत्साह उत्पन्न करने के लिए तो श्रेय साधकों को स्वयं ही आगे बढ़ना होता है और अपना उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें भी सहयोग देने के लिए सहमत किया जाता है।

आठ घण्टा उपार्जन के लिए सात घण्टा सोने-सुस्ताने के लिए-पाँच घण्टा नित्य कर्म और परिवार के लिए इस प्रकार बीस घण्टे में उपार्जन एवं कुटुम्ब के उत्तरदायित्व भली प्रकार निभ सकते हैं। शेष चार घण्टे युग संधि के बीस वर्षों में सृजन संवर्धन के लिए लगने चाहिए। इसी प्रकार घर के सदस्यों में एक -प्रज्ञा अभियान’ को सम्मिलित करके उसके हिस्से के साधन नव सृजन के लिए नियोजित होने चाहिए। उतना न बन पड़े तो महीने में एक दिन की आजीविका इस निमित्त लगाकर शेष से अर्थ सन्तुलन बिठाना चाहिए। जिन लोगों के पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे हो चुकें, वे वानप्रस्थ की धर्म परम्परा अपनायें। जिनके पास गुजारे के लिए मौजूद है वे दस दिनों अधिक कमाने की बात सोचने की अपेक्षा अर्जित से काम चलाने और अपना समय, समय की माँग पूरी करने में लगायें। जिनके छोटे गृहस्थ है और परिवार के अन्य सदस्य कुछ कमा सकते हैं उन के लिए उचित यही है कि जो कमी पड़ती हो उसे सृजन योजना से लेकर अपनी समर्थता का उपयोग उस पुण्य-प्रयोजन में लगने दे, जिस पर विनाश को निरस्त करने और उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने की आशा केन्द्रित हो रही है। युग धर्म का निर्वाह करने के लिए जागृत आत्माओं को यह कदम उठाने ही चाहिए, उठाने ही पड़ेंगे।


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