क्षुद्रं हृदय दौर्बल्य त्यक्तोत्तिष्ठ परंतप

January 1971

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थलचर होने के नाते हम धरती की ऊपरी सतह पर पाये जाने वाले पदार्थों ओर प्राणियों के सम्बन्ध में ही थोड़ा बहुत जानते हैं। धरती की भीतरी परतों में पाई जाने वाली खनिज सम्पदा की भी खोजबीन की जाती है, इतने पर भी धरातल की थोड़ी नीची परतों में रहने वाली प्राणि- परिवार के सम्बन्ध में बहुत कम जानकारी मिल सकी है। सीधा सम्बन्ध जिनसे न हो उनके सम्बन्ध में उपेक्षा और अनभिज्ञता रहना स्वाभाविक भी है।

जलचरों की अपनी एक अनोखी दुनिया है। उसमें धरातल पर रहने वाले प्राणियों की तरह ही जलचर रहते हैं और अपने स्तर की साधन सुविधाएँ उसी क्षेत्र से प्राप्त करते हैं। उनकी संरचना भी ऐसी है कि उस क्षेत्र में निवास करने और आवश्यक सुविधा साधन उपलब्ध करने में किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव न करें।

जलचरों में मछली प्रधान है। उसकी विविधता देखकर भी आश्चर्य होता है फिर यदि अन्य जलचरों के बारे में अधिक जाना जा सके तो प्रतीत होगा कि प्राणि जगत उससे कहीं बड़ा है जितना कि हम देखते और जानते हैं।

विश्व की समग्र संरचना और उसमें पाये जाने वाले पदार्थों और प्राणियों की विविधता देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका सृजन कर्त्ता कितना कुशल, कितना कलाकार और कितना समर्थ हो सकता है।

समुद्र में पाये जाने वाले प्राणियों में स्पंज, मूँगा, बनाने वाले प्राणी, कीड़े, स्टारफिस-सीअरचिन, आक्टोपस, घोंघे, केकड़े, मछलियाँ बैक्टीरिया एवं डायटम पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त खतरनाक प्राणियों में व्हेल, मैनेटी, डोलमिन्स, समुद्री सर्प प्रमुख है। गहरे समुद्र में रहने वाले इन प्राणियों को पैलेजिक कहते हैं।

रीढ़ वाली मछलियों की अब तक 20,000 जातियाँ खोजी जा चुकी हैं। समुद्र में रहने वाली मछलियाँ समुद्री पानी के रंग के अनुरूप अपना रंग बदल लेती है। दिखने में हरी या नीली दिखायी पड़ती है। उनके मुँह नुकीले होते हैं जिससे वे आसानी से तैर सके। ईश्वर ने परिस्थितियों के अनुरूप सुरक्षा की कैसी व्यवस्था बनायी है इसे सहज ही इन समुद्री जीवों में देखा जा सकता है।

सील मछली 50 मील प्रति घन्टे की रफ्तार से चलती है। ‘टयूना’ नामक मछली 6 मील प्रति घन्टे की चाल से चलकर अपने 15 साल की उम्र में 10 लाख मील की यात्रा तय करती है। गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से बचने के लिए मछलियाँ निरन्तर तैरती रहती है। मछलियों की आँखों में पलकें नहीं होती हैं। यह एक रहस्य बना है कि मछलियाँ सोती है या नहीं। रात में मछलियाँ समुद्री सतह पर तैरती है किन्तु दिन में सूर्य की गर्मी से बचाव के लिए काफी गहराई में चली जाती है।

‘ईल’ मछली प्रत्येक वर्ष शरद ऋतु में यूरोप की नदियों को छोड़कर अटलाँटिक महासागर में लाखों की संख्या में आ जाती हैं। ये मछलियाँ ‘वरमूड़ा’ के निकट ‘सरगासो’ सागर में एकत्रित हो जाती हैं तथा यहीं अण्डे देकर मर जाती हैं। इन अण्डों से निकली मछलियाँ यूरोप के समुद्री किनारे के पास तीन साल तक घूमती रहती हैं तदुपरांत नदियों में चली जाती है।

शार्क के शरीर में हड्डियाँ नहीं पायी जाती। हड्डियों की पूर्ति ‘कार्टिलेज’ करता है। शार्क मछली को चलती-फिरती ‘नासिका’ कहा जाता है। कठिन परिस्थितियों में भी शार्क जीवित रहती है। यह सबसे अधिक खतरनाक मछली है। सफेद शार्क से नाविकों को सदा खतरा बना रहता है। ‘लैमन शार्क’ एक प्रकार का द्रव निकालती है। यह द्रव आदमी के चमड़े को जला सकता है। अब तक कुल 25000 समुद्री जातियाँ मछलियों की पहचानी जा चुकी है।

सृष्टा ने बुद्धि, भाव-संवेदनाओं की दृष्टि से मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाया। अपनी इस विशेषताओं के कारण ही वह सृष्टि का मुकुट मणि कहलाता है। किन्तु अन्य प्राणियों में भी ऐसी विशेषताएँ दी हैं जिन्हें देखकर मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ होने का दम्भ टूट जाता है।

व्हेल समुद्र में रहने वाला एक भीमकाय जन्तु है। अथाह समुद्र में तैरते हुए यह एक छोटा द्वीप सा प्रतीत होता है। इसकी लम्बाई 100 फुट से लेकर 165 फुट तक पायी जाती है। एक साधारण व्हेल किसी दस मंजिली इमारती के बराबर होती है। 12 से लेकर 15 फुट तक मोटी व्हेल का वजन सामान्यतः 120 टन से 150 टन तक होता है। इस प्रकार लगभग हाथी से 20 गुना वजन इसका होता है।

एक व्यक्ति का हृदय हाथ की मुष्टिका के बराबर होता है जबकि व्हेल का एक कार के बराबर होता है। व्हेल का हृदय 50 से 70 लीटर तक स्वच्छ रक्त पूरे शरीर में छोड़ना है। व्हेल के शरीर में 2.000 से 3500 हजार लीटर तक तेल पाया जाता है। एक व्हेल की औसत आयु 500 वर्ष होती है।

जन्म के दो वर्ष बाद से व्हेल शिशु प्रजनन के योग्य हो जाता है। एकबार में मादा एक या दो बच्चे देती है बच्चा जन्म के पूर्व 11 माह तक माँ के गर्भ में विकसित होता है। जन्म के समय शिशु का वजन लगभग 8 टन होता है। प्रतिघंटा 8 पौण्ड की दर से वजन में वृद्धि होती है। नवजात व्हेल शिशु की लम्बाई 27 फीट होती है। कुछ माह के बाद इसकी लम्बाई दूनी हो जाती है। एक शिशु 500 से लेकर 600 लीटर तक माँ का दूध पीता है।

व्हेल का सुरक्षा यन्त्र उसकी पूँछ है। एक लम्बी बस की आकार को यह पूँछ नाविकों को सदा भयभीत करती रहती है। पूँछ की फटकार चार पाँच मील के क्षेत्र में सुनायी पड़ता है। अच्छे से अच्छे, मजबूत जहाज इसकी टक्कर से बच नहीं पाते हैं उसका मुख एक बड़े प्रवेश द्वारा के समान दिखायी पड़ता है।

न्यूजीलैण्ड के कई द्वीपों के बीच में कई खतरनाक खाड़ियाँ हैं जहाँ बड़ी-2 नुकीली चट्टानें अभागे जहाजों का शिकार करती थीं, इन चट्टानों से टकराकर कई समुद्री जहाज नष्ट हो गये। अब से कोई 80 वर्ष पूर्व एक डाल्फिन मछली ने जहाजों के पथ-प्रदर्शन का काम शुरू कर दिया। वह शीघ्र ही मल्लहों में लोकप्रिय हो गयी। मल्लाह डाल्फिन के पीछे 2 चलने लगे। एकबार दो समुद्री जहाज एक ही खतरनाक क्षेत्र की ओर बढ़ रहे थे। डाल्फिन के लिये समस्या पैदा हो गई कि किसे बचाये ? अपनी विवेक बुद्धि से उसने तीव्र गतिमान जहाज के पथ-प्रदर्शन का निर्णय लिया। उसे सुरक्षित क्षेत्र में पहुँचा का डाल्फिन बिजली के तेजी से पलटी वे चट्टानों से कुछ ही दूर दूसरे जहाज को टकराने से बचा लिया।

डाल्फिन को मछलियों से अधिक मनुष्य से प्यार है। न्यूजीलैण्ड के एक तट पर एक डाल्फिन मछली की प्रतिमा स्थापित है जो आपोजैक नामक मछली की स्मृति में निर्मित की गई है। वह तैराकों में बहुत लोकप्रिय थी। लोगों के साथ वाटरपोलो खेलती, नौसिखिये तैराकों को सहारा देकर बचाती व छोटे 2 बच्चों को पीठ पर सैर कराती थी। एक दिन वह एक तीव्र गतिमान नाव से टकराकर मर गई। प्रतिमा उसके मित्रों ने उसकी याद बनाये रखने के लिये स्थापित की है।

डाल्फिन समुद्र का अत्यन्त बुद्धिमान जीव है। इसका मस्तिष्क मानव मस्तिष्क से बड़ा है। मनुष्य में व उसमें इतना ही फर्क है कि उसके मानव जैसे हाथ-पैर नहीं हैं, बोलने की विशेषता उसमें नहीं है।

होनोलूलू के अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिकों ने एक अन्य डाल्फिन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि वह वायरलैस के सन्देश समझ लेती थी। उसके शरीर के साथ एक रिसीवर बाँध दिया गया था। जब केन्द्र से इसे कोई सन्देश भेजा जाता तो वह तत्काल उसका पालन करती थी।

डाल्फिन तीस विभिन्न आवाजें निकाल सकती है। मनुष्यों की तरह वह कहकहे लगा सकती है, स्त्रियों की तरह चीख सकती है व शिकार पकड़ने में सफल होने के बाद बिल्ली की तरह म्याऊँ कर सकती है।

कौटुम्बिकता एवं सामाजिकता इनका एक प्रमुख गुण है। यदि कोई मछली बीमार पड़ जाये तो बस्ती की सारी मछलियाँ उसका हाल पूछने आती हैं व शिकार लाकर देती है, जहाँ इसके लिये उन्हें भूखा न रहना पड़े।

जीवन में सम्प्रेषणशीलता का बड़ा महत्व है। इसी के माध्यम से पौधों से लेकर जीव तक अपनी किस्मों, मित्र या शत्रु की पहचान या उनके अस्तित्व का पता लगाते हैं। समुद्री जीवों के अनेकानेक रूपों या व्यवहारों की जानकारी होने पर हमें चकित रह जाना पड़ता है।

समुद्री इन रहस्यमय जीवों का विशद अध्ययन करने के बाद यह पता चल है कि एक लम्बी अवधि तक समुद्र में रहने के बाद प्रजनन के उद्देश्य से प्रेरित होकर ये अपनी पुरानी जगह वापस लौट आती है। विशाल समुद्र से नदी में वापस आना कठिन कार्य है परन्तु यह पता चला है कि कुछ रासायनिक तत्व उन्हें सही रास्ता ढूंढ़ने में काफी मदद करते हैं। यह प्रवास चर्या सहज ही हमें पक्षियों में होने वाले ‘माइग्रेशन’ प्रक्रिया का स्मरण दिला देती है। वैज्ञानिकों ने प्रवास में रहने वाली मछलियों की मानसिक लहरों का तुलनात्मक अध्ययन कर गन्ध के महत्व की जानकारी प्राप्त की हैं।

कुछ जाति की मछलियाँ आपस में आवश्यक सामाजिक सूचनाएं देने के लिये रासायनिक विधि का प्रयोग करती हैं इन मछलियों में अपनी जाति, मित्र तथा दुश्मन, कामभावना एवं दूसरों की स्थिति पहचानने की अजब शक्ति होती है।

जापान के लोग समुद्र की तली पर ‘सरगैसो’ नामक घास की खेती करते हैं, जिससे दवाइयां बनायी जाती हैं। इन लोगों को ‘ऑक्टोपस’ से सतर्क रहना पड़ता है क्योंकि इनका निवास समुद्र के तली में होता है। मादा ऑक्टोपस एक बार में 40000 से 50000 तक अण्डे देती है। अण्डों से बच्चे जन्मते ही सूर्य प्रकार की ओर भागते हैं।

ऑक्टोपस की 100 से अधिक जातियाँ पाई जाती हैं, सामान्य ऑक्टोपस 3 फुट के हुआ करते हैं कुछ इतने छोटे हैं जो उँगली के नाखून पर बैठ सकते हैं। भूमध्य सागर में पाये जाने वाले ‘ऑक्टोपस’ के टेन्टेकिल्स साठ फुट तक होते हैं जबकि प्रशान्त महासागर में पाये जाने वाले ऑक्टोपस के 50 फुट लम्बे टेन्टेकिल्स पाये गये इससे सामान्यतः यह अनुमान है कि इसकी लम्बाई 110 फुट तक होती है।

‘मेरान स्टियर्क्स’ जो फ्लोरिडा के निकट ‘पाम बीच स्थित ‘मेरिन बायोलॉजिकल लैबोरेटरी’ के अध्यक्ष हैं, का कहना है कि मुझे ऑक्टोपस से दिलचस्पी इसलिए हुई कि उसमें गिरगिट की तरह रंग बदलने की क्षमता है और आंखें मनुष्य जैसी होती है तथा आश्चर्य जनक चतुरता होती है।

‘फ्रेडरिक ड्यूमा’ और जे. बाई. कास्टो. ने सागर जल में साहसों की कहानी ‘दी साइलेन्ट वल्ड’ में लिखा है कि एक दिन मैंने एक छोटे ऑक्टोपस को पकड़ा पकड़ते ही वह जेट विमान की गति से भागने लगा और लाल रंग की पिचकारी जैसी छोड़ी। इनकी एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि ये 1 इंच के आठवें हिस्से की जितनी कम जगह में से अपने शरीर को निकाल सकता है।

‘एडवर्ड रिकेटस और ‘जैक केतविन ने अपनी किताब ‘विटवीन पैसिपिक टाइडस’ में लिखा है कि ऑक्टोपस की आंखें बिलकुल आदमी जैसी विकसित होती हैं तथा बिना रीढ़ के हड्डी वाले किसी भी प्राणी से बड़ा और अधिक कार्यक्षम मस्तिष्क होता है। मनुष्य जैसी पाँच ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति एवं नियन्त्रण क्षमता मनुष्य जैसी होती हैं तथा मैस्कुलर क्षमता तो बहुत बढ़ी-चढ़ी हुआ करती है।

धरती के प्राणियों के सम्बन्ध में हम कुछ जानते हैं। जलचरों की थोड़ी सी जानकारी भी मिलने लगी है। यह ज्ञान जितना ही बढ़ेगा और रहस्यों की गहराई में उतरने का जितना अवसर मिलेगा उसी अनुपात से सृष्टि और उसके सृष्टा की विचित्रताएँ समझते और उसके सौंदर्य को निहार कर पुलकित होते चले जायेंगे।


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