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March 1968

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पार-दर्शक मन

मन का मैल मन में ही दबाते चले जाने से मन विषाक्त हो जाता है। उसकी प्रतिक्रिया मनुष्य जीवन में बड़ी खराब और कुरूप होती है। क्या ही अच्छा होता यदि हमारा मन पार-दर्शक होता- शीशे की तरह आर-पार होता। यदि ऐसा होता तो हम कितने सुखी रहते, कितने निर्मल होते। क्योंकि पार दीखने वाले शीशे में मैल ज्यादा दिन तक निभता नहीं। मन की बुराइयां भी प्रकट कर देने से मन के कुसंस्कारों का अन्त हो जाता है, और स्वच्छता को प्रवेश के लिये स्थान मिल जाता है। -सम्राट लुई,


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