व्यक्ति का समाज के प्रति दायित्व

March 1968

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समाज एक सम्पूर्ण शरीर है और हम सब उसके अंग अवयव हैं। जिस प्रकार शरीर का अस्तित्व अंगों के सहयोग पर निर्भर है, उसी प्रकार सम्पूर्ण शरीर की सहायता से अंग और अवयव भी स्वस्थ रहते हैं। यह दोनों अन्योन्याश्रित हैं। पारस्परिक सहयोग के अभाव में इन दोनों का ही अस्तित्व शंका में पड़ जायेगा।

व्यक्ति का समाज के प्रति वही दायित्व है जो अंगों का सम्पूर्ण शरीर के प्रति। यदि शरीर के विविध अंग किसी प्रकार स्वार्थी अथवा आत्मास्तित्व तक ही सीमित हो जायें तो निश्चय ही सारे शरीर के लिए एक खतरा पैदा हो जाए। सबसे पहले भोजन मुँह में आता है। यदि मुँह स्वार्थी बन कर उस भोजन को अपने तक ही सीमित रख कर उसका स्वाद लेता रहे और जब इच्छा हो उसे थूक कर फेंक दे, तो उसके इस स्वार्थ का परिणाम बड़ा भयंकर होगा। जब मुँह का चबाया हुआ भोजन पेट को न जाएगा तो कहाँ से उसका रस बनेगा और कहाँ से रक्त माँस, मज्जा आदि? इस क्रिया के बन्द हो जाने पर शरीर के दूसरे अंगों और अवयवों को तत्व मिलना बन्द हो जाएगा। वे क्षीण और निर्बल होने लगेंगे और धीरे-धीरे पूरी तरह अस्वस्थ होकर सदा-सर्वदा के लिए निर्जीव हो जायेंगे। पूरा शरीर टूट जाएगा और शीघ्र ही जीवन हीन होकर मिट्टी में मिल जाएगा। यह सब अनर्थ, एक मुँह के स्वार्थ-परायण हो जाने से घटित होगा।

इसी प्रकार यदि मुँह स्वार्थी न बने पेट स्वार्थी बन जाए। अपने में आए हुए भोजन को अपने पास ही जमा करता रहे और उसे पचा कर रस प्रक्रिया को अवसर न दे तो भी यही अनर्थकारी स्थिति उत्पन्न हो जायगी। हाथ पैर, मन, मस्तिष्क आदि भी यदि स्वार्थी बन कर यह सोचने लग जाएँ कि मेरे श्रम का, उपार्जन का सारा लाभ तो मुँह और पेट को होता है तो मैं यों दूसरों के लिए क्यों कमाता और परिश्रम करता रहूँ? क्यों न चुपचाप बैठकर आराम करूं। तो भी वही अनर्थकारी स्थिति पैदा हो जाएगी।

हाथ-पैर काम नहीं करेंगे, सम्पूर्ण शरीर को भोजन देने में असहयोग करेंगे, तो एक तो जड़मूल से भोजन ही न मिलेगा और यदि किसी प्रकार मिल भी जाए तो उसको पकाने खाने आदि की प्रक्रिया न चल सकेगी। शरीर भूखा रहेगा, उसकी आवश्यकता पूरी न होगी, वह शिथिल और अस्वस्थ रहने लगेगा। ऐसी दशा में न केवल अन्य अंगों को ही हानि होगी बल्कि स्वयं स्वार्थी हाथ-पैर आदि भी निर्जीव हो जायेंगे। शरीर का कोई भी अंग यदि दूसरे अंगों के साथ स्वार्थवश असहयोग पर उतर आए तो सारे शरीर का ही अस्तित्व खतरे में पड़ जाय और तब इस सामूहिक अनर्थ से वह स्वार्थी अंग अथवा अवयव भी बचा नहीं रह सकता।

व्यक्ति की स्वार्थपरता सामाजिक जीवन के लिए विष के समान घातक है। जो व्यक्ति सामूहिक दृष्टि से न सोच कर केवल अपने स्वार्थ, अपने व्यक्तिवाद में लगे रहते हैं, वे सम्पूर्ण समाज को एक प्रकार से विष देने का पाप करते हैं। ऐसे व्यक्तियों की आत्मा कभी भी शांत और सुखी नहीं रह सकती। शीघ्र ही उसका लोक तो बिगड़ ही जाता है, परलोक बिगड़ने की भूमिका भी तैयार हो जाती है। समाज में व्यक्तिगत भाव का कोई स्थान नहीं है। जिसने शक्ति, समृद्धि, सम्पन्नता अथवा पद प्रतिष्ठा के क्षेत्र में उन्नति तो कर ली है, किन्तु अपनी इन सारी उपलब्धियों को रखता अपने तक ही सीमित है, किसी भी रूप में समाज को उसका लाभ नहीं पहुँचता तो उसकी सारी उपलब्धियां, समृद्धियाँ और सफलताएँ हेय हैं। ऐसे स्वार्थी व्यक्ति का कोई विवेकशील व्यक्ति तो आदर की दृष्टि से देखेगा नहीं, मूढ़ और मतिमन्द लोग भले ही उसको आदर, सम्मान देते रहें।

ऐसे संकीर्ण एवं स्वार्थपरायण व्यक्ति ही समाज के शोषक, शत्रु और अहित-चिन्तक कहे जाते हैं। वे अपने साधनों के बल पर समाज का अधिकाधिक शोषण करते हैं और इससे गरीबी, द्वेष, ईर्ष्या और कुत्सा का विष फैलता है। ऐसे व्यक्ति समाज के अस्वस्थ अंग होते हैं जो अपने दोष से सारे समाज के स्वास्थ्य और सुख चैन पर घातक आघात किया करते हैं। ऐसे असामाजिक एवं असहयोगी लोगों की जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है।

समाज को पीछे धकेलने वाले, अविश्वास, सन्देह, धोखे-बाजी, भ्रष्टाचार, लूट खसोट, ठगी, शोषण, संघर्ष आदि के जितने भी अपराध-परक दोष होते हैं, वे सब एक स्वार्थ एवं व्यक्तिवाद की भावना से ही जन्म लेते हैं। उसके कारण ही पनपते, बढ़ते और समाज में संघर्ष, अशाँति और असुविधा की परिस्थितियाँ पैदा करते हैं। स्वार्थ परायणता को सारे पापों की जड़ मानना चाहिये। सुखी, सम्पन्न और विचारशील समाज का निर्माण तभी हो सकता है, जब उसके सदस्य संकीर्ण व्यक्तिवाद को छोड़ कर व्यष्टिवाद के व्यापक दृष्टिकोण को अपनाते हैं। समाज में जब तक पारस्परिक सहयोग, सहानुभूति, सौजन्य, त्याग, सेवा और संगठन की भावना का आविर्भाव नहीं होता उसका सामूहिक विकास नहीं होता।

कुछ थोड़े से व्यक्ति सारी सभ्यता और मनुष्यता को ताक पर रख कर यदि समृद्धिशाली बन भी जाते हैं, तो उससे समाज का तो हित नहीं होता है उस व्यक्तिवादी को भी सुख-चैन नसीब नहीं होता। वह अपने वैभव, अपनी समृद्धि को अपने तक सीमित किए सर्प की तरह उसकी रखवाली किया करता है। ऐसा पापी व्यक्ति समाज में संघर्ष और विघटन उत्पन्न कराने वाला सिद्ध होता है। संकीर्ण स्वार्थ से दूषित व्यक्ति सौ पापियों का एक पापी माना जाता है। वह समाज का सदस्य नहीं शत्रु होता है।

ऐसे समाज विरोधी स्वार्थियों की भर्त्सना करते हुए वेद में कहा गया है-

“मोघमन्नं विदन्ते अप्रचेता” सत्यं ब्रवीमि वद इति स तस्य, न आर्यमणं पुष्यति नोसखयं, केवलाघो भवति केवला दी।”

स्वार्थ पूर्ण संकीर्ण मनोवृत्ति वाले व्यक्ति के पास का संग्रहित धन, धन संग्रह नहीं किया, वरन् अपनी मृत्यु को ही संग्रह कर लिया है। जो अपने भाई, बहन को कुछ नहीं देता, जो अपना ही ध्यान रखता है, अपने लिए ही संग्रह करता है, वह केवल पाप रूप है, चोर है।

सारा धन, सारा वैभव और सारी विभूतियाँ जो किसी मनुष्य के पास आती हैं, सब समाज से ही आती है, कहीं आकाश से सहसा नहीं टपक पड़तीं। यदि सर्वथा सत्य कहा जाए तो- तो कहना होगा कि जिसके पास जो कुछ भी है, उसमें उस व्यक्ति का कुछ नहीं होता, वह सब समाज की ही सम्पत्ति होती है। मनुष्य जब पैदा होता है तब वह अपने साथ कुछ भी नहीं लाता और जब संसार से जाता है तब भी साथ कुछ नहीं ले जाता। समाज की सम्पत्ति समाज के ही पास छूट जाती है। जन्म लेने के समय बच्चा नितान्त असहाय एवं असमर्थ होता है। उसकी रक्षा और वृद्धि, परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष किसी न किसी रूप में समाज द्वारा ही की जाती है। समर्थ होकर वह समाज की सहायता से उन्नति करता और समृद्ध बनता है।

यदि समाज उसके साथ सहयोग करना छोड़ दे तो शीघ्र ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। अब ऐसी स्थिति जो व्यक्ति समाज से पाई विभूतियों को उसके अर्थ में यापन नहीं करता और जबरदस्ती उन्हें अपनी समझ कर अपने तक ही सीमित रख कर स्वार्थ परायण बना रहता है, तो निश्चय ही उसे चोर और कृतघ्न कहा जायेगा। इस कृतघ्नता के पाप से बचने के लिए मनुष्य को स्वार्थ नहीं परमार्थ को ही प्रश्रय देना चाहिये।

परमार्थ वृत्ति के अभाव में समाज और व्यक्ति दोनों नष्ट हो जाते हैं। व्यक्तिगत लाभ, स्वार्थ सिद्धि और समृद्धि के लिये मनुष्य कितना भी क्यों न करे, वह कितना ही सम्पन्न, शक्तिशाली और वैभवशाली क्यों न बन जाये। किन्तु परमार्थ और दूसरों के प्रति त्याग, प्रेम, सहायता, सहयोग एवं सहानुभूति की भावना के अभाव में वह समाज के लिये उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकता। और जो उसके लिये उपयोगी नहीं, समर्थ होकर सहायक नहीं वह समाज पर एक कलंक मात्र है। ऐसे कलंक रूप स्वार्थी व्यक्ति न केवल समाज के लिये ही घातक होते हैं बल्कि उनका स्वयं का भी विकास रुक जाता है। क्योंकि समाज के साथ ही व्यक्ति और व्यक्ति द्वारा ही समाज का विकास सम्भव है। आत्म-कल्याण और सामाजिक हित के लिए मनुष्य को स्वार्थी नहीं, परमार्थी होना चाहिये।

अनेक बार अनेक लोग व्यक्तिवाद से प्रेरित होकर यह दावा करने का साहस करने लगते हैं कि उन्होंने अपना विकास अपने प्रयत्न एवं पुरुषार्थ के बल पर किया है- समाज ने उनकी कोई सहायता नहीं की, बल्कि पीछे खींचने कह ही प्रयत्न किया है। ऐसे लोग, शायद कुछ ऐसे लोगों को ही समाज समझने की भूल करते हैं, जिन्होंने उन्हें प्रत्यक्ष सहयोग नहीं दिया होता है। सोचने का यह विचार-कोण समीचीन नहीं। कुछ इने-गिने लोग ही समाज नहीं होते। समाज एक विशाल और व्यापक संस्था है। पूरा समाज जिसका असहयोग करने लगता है उसका विकास तो दूर, जीना भी दूभर हो जाता है।

ऐसे लोगों को अपने विचार-कोण बदल कर यह समझना चाहिये कि व्यक्ति और उसका व्यक्तित्व समाज से पृथक कोई वस्तु नहीं है। जिस प्रकार किसी वृक्ष के फल मनुष्यों द्वारा की गई उसकी सेवा और सुरक्षा का ही परिणाम होता है, उसी प्रकार मनुष्य की सारी सफलता भी समाज की कृपा का ही परिणाम होता है। यद्यपि समाज के अंतर्गत वे भी आते हैं, तथापि माता-पिता को यदि छोड़ भी दिया जाये तब भी मनुष्य के विकास में समाज का बहुत हाथ रहता है। मनुष्य जिसके बीच बढ़ता, पढ़ता और अनुभव प्राप्त करता है वह सब समाज ही तो होता है।

वह जो कुछ सीखता समाज में सीखता है और जो कुछ पाता है समाज से पाता है। कोई भी वस्तु जो जीवन विकास के लिए आवश्यक होती है, समाज के सामूहिक प्रयत्न द्वारा ही बनाई जाती है। उदाहरण के लिए अन्न ही ले लीजिए- इसे सभी लोग नहीं उगाते लेकिन उपयोग सभी लोग करते हैं। अन्न का उत्पादन किसान किया करते हैं। किन्तु वे जिन साधनों और उपकरणों से कृषि का काम करते हैं, उनका उत्पादन अन्य लोग किया करते हैं। एक हल बनने में ही न जाने कितने लोगों का श्रम तथा मस्तिष्क लगा करता है, तब कहीं जाकर वह तैयार हो पाता है।

ऐसे ही वस्त्र, पुस्तकें मकान और अन्य सुविधा तथा आवश्यकता की सारी चीजें, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से पूरे समाज के सम्मिलित प्रयत्न तथा सहयोग का ही परिणाम होती हैं। जिसको खाने-पीने, रहने और पढ़-लिख कर विकास करने का अवसर मिला है उसे भूल कर भी यह न सोचना चाहिये कि उसने अपना विकास अपने अकेले दम पर कर लिया है।

व्यक्ति तथा समाज वस्तुतः एक ही वस्तु हैं। दोनों का विकास दोनों पर समान रूप से निर्भर है। कोई एक बात पूरे समाज से एक साथ कह सकना सम्भव नहीं, इसलिए वह उपायों द्वारा व्यक्तियों से ही कही जाती है। व्यक्ति को सामाजिक बनने को कहने का अर्थ यही है कि वह बात पूरे समाज से कही गई है। व्यक्ति यदि आपको सुधार कर समाज अर्थात् दूसरे लोगों का हितैषी और सहयोगी बन जाय तो यह समझना चाहिये कि पूरा समाज ही वैसा बन गया। व्यक्तिवादी बन कर केवल स्वार्थ में ही लगे रहना असामाजिकता है। इससे व्यक्ति तथा समाज दोनों की हानि एवं अकल्याण होता है। इसी अमंगल को बचाने के लिए मनुष्य को स्वार्थी नहीं परमार्थी और व्यक्तिवादी से सामाजिकवादी बन कर लोकहित के काम करते ही रहना चाहिए।


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