आस्तिकता का अर्थ और स्वरूप गहराई से न समझ सकने वाले संसार के कतिपय समाजों ने उसे एक निरर्थक ईश्वरवाद मान कर अपने से बहिष्कृत कर नये नैतिक स्वरूप का प्रवर्तन किया और आशा की कि इस प्रकार अपने समाज में स्थायी सुख-शाँति और सामान्य सदाचार को मूर्तिमान करने में सफल हो सकेंगे। किन्तु उनकी यह आशा पूरी होती नहीं दिखलाई दी।
इस नये प्रयोग को समाजवाद, राष्ट्रवाद अथवा साम्यवाद के नाम से पुकारा गया और कहा गया कि यदि समाज के लोग अपनी निष्ठा को न दिखने वाले ईश्वर की ओर से हटा कर इन यथार्थवादों में लगायें तो समाज में स्थायी सुख-शांति की स्थापना हो सकती है। पिछले पचपन-पचास वर्ष से इस नई विचार-धारा का परीक्षण एवं प्रयोग साम्यवादी कहे जाने वाले देशों में होता चला आ रहा है। किन्तु उसका परिणाम देखते हुए यही मानने पर मजबूर होना पड़ता है कि यह प्रयोग सफलता से आभूषित न हो सका। उदाहरण के लिए साम्यवाद की मूलभूमि रूस को ही ले लिया जाये और देखा जाये कि क्या उसका समाज अपनी नवीन आस्थाओं के आधार पर अपने जनसमूह के लिये वह वांछित सुख-शाँति अर्जित कर सका है, जिसके लोभ से उसने उनका प्रवर्तन किया था?
राष्ट्रवाद और समाजवाद का भरपूर शिक्षण एवं प्रशिक्षण देने के बावजूद भी क्या उसके समाज में वह मानवीय सदाचार प्रौढ़ हो सका है, जो सुख-शाँति का मूल-आधार है? यदि सच पूछा जाये तो वहां अपराधों की संख्या अधिक ही है, अपेक्षाकृत उन समाजों के जो अब भी आस्तिकता और ईश्वर में आस्था रखते हैं। भ्रष्टाचार मिटाने और सदाचार लाने के लिए राजदण्ड को कठोर से कठोर बना दिया गया है, दुष्प्रवृत्तियाँ रोकने के लिए उत्पीड़न और रक्तपात भी कम नहीं किया जाता तब भी मन्तव्य की सिद्धी होते नहीं दिखती।
ऊपर से देखने में तो ऐसा ही लगता है कि दमन, नियंत्रण और प्रतिबन्धों ने जनता का हृदय परिवर्तित कर दिया है। लोग समाजवाद और राष्ट्रवाद की दुहाई भी देते हैं। भ्रष्टाचार आदि अहितकर प्रवृत्तियों के प्रति घृणा भी दिखलाते हैं। किन्तु वास्तविकता यह है कि लोगों में खुल खेलने का साहस तो कम हो गया है पर भीतर-ही-भीतर अनैतिकता की आग बराबर सुलगती रहती है, जो अवसर पाकर भय और आतंक को एक ओर ठेल कर जब-तक प्रकट होती रहती है। यह तो सच्चा सुधार नहीं माना जा सकता।
दमन, दण्ड और आतंक के भय से यदि ऊपर-ऊपर से किन्हीं सदाचारों का प्रदर्शन करते रहा जाय और भीतर ही भीतर उसे मजबूरी अथवा अत्याचार समझा जाये तो उसे सच्ची सदाचार प्रवृत्ति नहीं माना जा सकता। सच्चा सदाचरण तो तब माना जायेगा जब बाह्य के साथ मनुष्य का हृदय भी उसे स्वीकार करे। अक्सर आने पर और कोई भय अथवा प्रतिबन्ध न रहने पर भी लोग सहर्ष उसकी रक्षा करें। आतंक से प्रेरित मनुष्य का कोई भी गुण, गुण नहीं बल्कि एक याँत्रिक प्रक्रिया होती है। जिसका न कोई मूल्य है न महत्व।
नये प्रयोग के अगुआ रूस में ही आये दिन शीर्षस्थ नेताओं को देशद्रोही ठहरा कर या तो मौत के घाट उतारा जाता है अथवा निर्वासित कर दिया जाता है, एक दिन के देशभक्त दूसरे दिन समाज-विरोधी करार दे दिए जाते हैं। यह घटनायें क्या प्रकट करती हैं? यही तो कि या तो अपदस्थ नेता ने भ्रष्टाचार का प्रमाण दिया है अथवा दूसरे पक्ष में वैसा करके अनैतिकता का परिचय दिया है। दोनों स्थितियों में बात एक जैसी ही है। अर्थात् उक्त समाज में वह सदाचार विकसित नहीं हुआ है जिसकी आशा से नास्तिकता परक समाजवाद अथवा राष्ट्रवाद का नया प्रयोग किया गया था।
वहीं क्यों जर्मनी, इटली, स्पेन, चीन आदि उसी विचार-धारा के देशों में तो सामाजिक एवं राष्ट्रीय सदाचार लाने के लिये प्रचण्ड अधिनायकवाद का अवलम्बन लिया गया और जनता का हृदय बदलने के लिए लोभहर्षक रक्तपात तक किया गया, किन्तु उसका फल, अशाँति, संघर्ष, असंतोष के सिवाय कुछ भी न निकला। आये दिन नेताओं में मार-काट और छीना-झपटी के समाचार आते रहते हैं। जब नये प्रयोगवादी देशों के शीर्षस्थ नेताओं के सदाचार की यह दशा है तो जनसाधारण का नैतिक स्तर क्या होगा, इसका अनुमान कर सकना कठिन नहीं है।
आशा की गई थी कि समाज के बुरे लोगों और उसके विरोधियों का दमन के बल पर कुचल डालने से जनता का हृदय परिवर्तन हो जायेगा और वह अच्छे रास्ते चल पड़ेगी। कुछ ही समय में समाज में सुख-शाँति की स्थायी स्थापना हो जायेगी। किन्तु यह केवल एक अत्याचार बन कर रह गया। उससे किसी वाँछित फल की उपलब्धि न हो सकी।
जनता का सुधार तो दूर स्वयं समाज के अगुओं में ही परस्पर विश्वासघात, भय, निष्ठुरता और आशंका के दोष समाहित हो गये। लोभ, स्वार्थ और अधिकार की लिप्सा ने उन्हें हद-दर्जे का ईर्ष्यालु, प्रतिस्पर्धी और निर्दयी बना दिया। यह नास्तिकता परक समाजवाद, राष्ट्रवाद अथवा साम्यवाद के नये प्रयोगों की असफलता के लक्षणों के सिवाय और कुछ नहीं है।
वास्तविक सदाचार के बीज आस्तिकता के ही पवित्र आँचल में रहते हैं। नास्तिकता से प्रेरित अन्य विचारों अथवा भावनाओं में नहीं। सर्वसाक्षी एवं सर्वशक्ति मान ईश्वर में विश्वास रखना ही एकमात्र ऐसा उपाय है जो सत्प्रवृत्तियों को किसी नीति अथवा प्रयोग के रूप में नहीं, वरन् मानव-जीवन भी मूलभूत आधार-शिला के रूप में हृदयंगम करने के लिये प्रेरणा देता है। ईश्वर के महत्व और उसकी सर्वोपरि सत्ता में मनुष्य की आत्मा स्वभावतः विनम्र रहती और आस्था रखती है। मनुष्य की सत्ता की भाँति उसकी सत्ता के प्रति ईर्ष्या, द्वेष, स्पर्धा अथवा घृणा नहीं रखती। जहाँ मनुष्य, मनुष्य के बल-प्रेरित नियमों एवं प्रतिबन्धों में विवशता का अनुभव करता है वहाँ प्रभु के दिए प्रतिबन्धों को एवं नियमों को शिरोधार्य करने में गौरव तथा सुख अनुभव करता है।
परमात्मा सत्य एवं शिव रूप है अस्तु उसमें विश्वास रखने वाला उसकी इच्छा का अनुगमन करने वाला आस्तिक कोई भी ऐसा काम करने से विरत ही रहने का प्रयत्न करेगा जो उसके मान्य परमात्मा के नियमों के विरुद्ध हो। सदाचार ही एक ऐसी प्रवृत्ति है जिसका आधार लेकर चलने से आरोग्य कामों की सम्भावना नहीं रह जाती। इसीलिए आस्तिक व्यक्ति बहुधा सदाचारी ही देखे जाते हैं।
आस्तिक व्यक्ति उपयोगिता-अनुपयोगिता की कसौटी पर कस कर मानवीय नैतिकता की महत्ता को कम या अधिक नहीं करते। उनकी दृष्टि में नैतिकता का महत्व एवं मूल्य निश्चित और स्थिर रहा करता है। उपयोगिता और अनुपयोगिता के आधार पर नैतिक नियमों की अदली-बदली करते रहने से सदाचार जीवन का आधार न रह कर एक साधारण-सा नियम मात्र रह जाता है जिसको आवश्यकतानुसार तोड़ डालने में कोई संकोच नहीं किया जाता।
उदाहरण के लिए माँसाहार को ले लीजिए। जहाँ आस्तिक व्यक्ति इसके प्रति एक स्थिर नैतिक भाव रखता है और किसी परिस्थिति में उसका प्रयोग पाप मानता है। वहाँ नास्तिक भौतिकवादियों की दृष्टि में इस सदाचार को कोई निश्चित महत्व नहीं होता, उपयोगिता अनुपयोगिता की दृष्टि से वह बढ़ता-घटता रहता है। इस विचारधारा के लोग जब आर्थिक, स्वाद अथवा किसी अन्य दृष्टि से माँसाहार की उपयोगिता स्वीकार कर लेते हैं तो फिर इसके पीछे निरीह प्राणियों की हत्या का जो पाप सन्निहित रहता है उसकी ओर उनका ध्यान नहीं जाता। वे निरापराध प्राणियों को मर्मांतक पीड़ा देकर उनका प्रणाघात करने में कोई हानि नहीं मानते और कुतर्क द्वारा विरोधियों का शमन करने का प्रयत्न करते हैं।
उपयोगितावादी इस प्रकार के नास्तिक लोग ही इससे आगे बढ़ कर मनुष्यों के सुख-दुख में पाप-पुण्य का विचार न करके उपयोगिता का ही दृष्टिकोण रखते हैं। जो व्यक्ति चिड़ियों के शिकार में माँस के लाभ और मनोरंजन की उपयोगिता को महत्व दे सकता है वह इसी नीति के आधार पर अवसर आने पर मनुष्यों का शिकार भी करने लगे तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। संसार में जो भी आततायी और अत्याचारी हुए हैं और जिन्होंने मानव जाति का भयानक संहार किया है उन्होंने अपनी दृष्टि में उस नाहक रक्तपात की भी कोई-न-कोई उपयोगिता ही मानी है। आज के महायुद्ध तो उपयोगिता के नाम पर ही लड़े जाने लगे हैं। इस प्रकार का उपयोगितावाद मनुष्य को स्वार्थी एवं अवसरवादी ही बना सकता है, आदर्श सदाचारी नहीं। यह शक्ति और यह निष्ठा किसी सच्चे आस्तिक में ही सम्भव हो सकती है, जिसके लिए सदाचार का मूल्य जीवन के आधार के रूप में होता है, उपयोगिता के रूप में नहीं।
आस्तिकता का जन्म सदाचार से हो सकता है, किन्हीं को बड़े भौतिक लाभ न हों, फिर भी इसके द्वारा जो आध्यात्मिक लाभ होते हैं उनकी तुलना संसार के समस्त वैभव के साथ भी नहीं की जा सकती। उसके असंख्यों अभौतिक लाभ हैं। स्वर्ग और मुक्ति का प्राप्त होना, भव-बंधनों से छूटना, जीवन, जन्म का वास्तविक सुख मिलना, आत्म-बल, आत्म-शक्ति और आत्मानन्द के साथ ईश्वर की करुणा, उसकी कृपा आदि ऐसी उपलब्धियाँ हैं, जिनकी तुलना में भौतिक विभूति न केवल नगण्य ही हैं, बल्कि हेय भी हैं। आस्तिकता के आधार पर ईश्वर की महती कृपा पाकर जब जीवन के दुःखों से अनायास ही छुटकारा पाया जा सकता है, तो सुख-सुविधा के लिए अनैतिक आधार पर वैभव इकट्ठा करने के लोभ की कोई उपयोगिता नजर नहीं आती।
आस्तिकता का भौतिक जीवन में कोई उपयोग नहीं है- यह बात किसी प्रकार भी मान्य नहीं है। क्या संसार के परम आस्तिक भक्तजनों को कोई साँसारिक लाभ हुए ही नहीं? उन्हें भोजन, वस्त्र, मान सम्मान आदि साँसारिक उपलब्धियों में से किस बात की कमी रही है? यह बात दूसरी है कि उन्होंने भौतिक विभूतियों के प्रति अनासक्त रह कर ही उनका उपयोग किया है, साँसारिक उपभोगवादियों की तरह जीवन का लक्ष्य बना कर भोग नहीं किया है। वह ऐसा करते भी क्यों? जब उनकी उच्च एवं परिपक्व आस्तिकता ने उनके हृदय में अहेतुक आनन्द का सागर लहरा दिया था, तो वे इन नश्वर भोगों की ओर क्या तो आकृष्ट होते और क्या लालायित।
संसार में स्थायी सुख शाँति के लिए नित्य नये प्रयोगों एवं परीक्षणों को छोड़ कर यदि सदा सर्वदा के परखे और प्रामाणिक, सदाचार मूलक आस्तिकता का उपाय ग्रहण किया जाये, इसको ही मनुष्यों के हृदय में प्रेरित एवं स्थिर बनाया जाये, तो कोई कारण नहीं कि मानव जाति का हृदय अनुकूल दिशा में परिवर्तित न हो जाये और संसार में सत्प्रवृत्तियों के प्रवर्तन के आधार पर स्थायी सुख-शाँति न विराजने लगे। आस्तिकता का गुण मनुष्य को न केवल सदाचारी, सद् विचारी सदा संयमी ही बना देता है बल्कि आगे बढ़ कर वह जीव से ईश्वर, लघु से महान, अणु से विभु और मनुष्य से देवता बना देता है। ऐसे देवत्व प्राप्त मनुष्यों की बहुतायत से पृथ्वी पर स्वर्ग की रचना हो जायेगी, क्योंकि स्वर्ग का निवास ही किसी को देवता नहीं बनाता बल्कि देवताओं की विद्यमानता ही स्थान को स्वर्ग बनाती है।