आत्मा को देखें, खोजें और समझें

March 1968

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“य आत्मा पहतपाप्मा विजसरो विमृत्युर्विशो-कोर्विजिधत्सोऽपिपासः, सत्य कामः सत्य संकल्पः सोऽन्वेष्टष्यः, स विजितसितव्य।”

“जो निष्पाप जरा रहित, अमर्त्य, शोक रहित, भूख प्यास से रहित, सत्य काम, सत्य संकल्प है और जानने योग्य है, उसी आत्मा को जानता और खोजना चाहिये उसी की जिज्ञासा करनी चाहिये।”

आत्मा को क्यों खोजना चाहिए और उसकी ही जिज्ञासा क्यों करनी चाहिये? इसका उत्तर यही है कि संसार का वास्तविक तत्त्व आत्मा ही है। जो जन्म-मरण से रहित, शोक से मुक्त, नित्य और अविनाशी है। उसका ज्ञान हो जाने से मनुष्य उसी की भाँति ही भय, शोक, चिन्ता और मरण धर्म से मुक्त हो जाता है, अजर और अमर होकर संसार के लोगों एवं अनुभवों से ऊपर उठ कर चिर अविनाशी पद प्राप्त कर लेता है। इस नाशवान मानव जीवन की इससे बड़ी और इससे ऊँची उपलब्धि अन्य क्या हो सकती है?

मनुष्य एक ऐसा आनन्द प्राप्त करना चाहता है जो सत्य, अपरिवर्तनशील और अविनाशी हो। संसार के क्षण-भंगुर सुखों का उपभोग करने से उसकी यह प्यास पूरी नहीं होती। बल्कि इन उपभोगों से उसकी प्यास और भी बढ़ जाती है। उसे अन्त में अशाँति और सन्तोष का भागी बनना पड़ता है। इन्हीं नश्वर और मिथ्या भोगों में आनंद की खोज करता-करता वह जरा को प्राप्त करता है और फिर मृत्यु को। सारा बहुमूल्य जीवन योंही व्यर्थ में चला जाता है। इसी अवधि में वाँछित आनन्द की निधि रूप यदि आत्मा की खोज कर ली जाय, तब न तो जरा का भय रहे और न मृत्यु का। मनुष्य जीवन में भी उस शाश्वत आनन्द को पाता रहे और उसके बाद तो वह परमानन्दस्वरूप ही हो जाये।

हम सब जीवन में नाना प्रकार की सम्पत्ति, नाना प्रकार के पदार्थ ऐश्वर्य, साधन, उपकरण तथा वैभव आदि एकत्र करते हैं। इस संग्रह में निश्चय ही एक उद्देश्य होता है। यह पुरुषार्थ योंही किसी पागलपन से प्रेरित होकर नहीं किया जाता। और न यह सब संस्कार अथवा अभ्यासवश ही किया जाता है। इसके पीछे एक उद्देश्य एक मन्तव्य रहता है। यह मन्तव्य क्या होता है? वह होता है आनन्द की खोज। हम सबको यह भ्रम रहता है कि यदि हम किसी भाँति वैभवशाली बन जायें, हमारे पास धन और सम्पत्ति की बहुतायत हो जाये तो हम अवश्य सुखी हो जायें, हमारे लिये आनन्द की कमी न रहे। किन्तु क्या हमारा यह उद्देश्य पूरा हो पाता है? नहीं, निश्चित रूप से नहीं।

यदि धन, सम्पत्ति और वैभव विभूति से ही आनन्द के उद्देश्य की पूर्ति हो सकती होती तो इस विशाल संसार में न जाने कितने धन-कुबेर पड़े हैं। ऐसे-ऐसे धनवान इन धराधाम पर मौजूद हैं, जिनके धन वैभव की कोई गणना कोई परिमाण नहीं है, जिनकी नित्य-प्रति करोड़ों की आय है और जिनका आर्थिक साम्राज्य देश, देशान्तरों में फैला पड़ा है। वे सभी सूखी और संतुष्ट होने चाहिये थे। पर देखने में ऐसा आता है कि वे भी अन्य जन-साधारण की भाँति ही आनन्द के लिये लालायित रहते हैं। उस विपुल वैभव के बीच भी रोते-कलपते और शोक मनाते दृष्टि-गोचर होते हैं।

तथापि, इस निरर्थकता को देख सुन और अनुभव करने के बाद भी मनुष्य इन्हीं वैभवों की ओर ही दौड़ता रहता है। अपने जीवन की लगभग सारी अवधि इन्हीं वंचनाओं की प्राप्ति में लगा देता है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि रात दिन इन्हीं को लक्ष्य बना कर जुटे रहने से, इन्हीं के बीच रहने और इन्हीं का चिन्तन व्यवहार करते रहने से इनके साथ मनुष्य की आसक्ति और ममता का भाव जुड़ जाता है। धीरे-धीरे यह अभ्यास इतना गूढ़ हो जाता है कि जीवन का एक अंग ही बन जाता है।

मनुष्य इन्हीं उपकरणों, साधनों और सामग्रियों को ही सर्वस्व मान बैठता है। युग-युग का, जन्म-जन्म का अभ्यास छूटना सरल नहीं होता। वह स्वभाव बन जाता है और तब मनुष्य उसकी निस्सारता और हानियों को जानता, मानता हुआ भी उन्हीं की ओर उत्सुक बना रहता है। दूसरी बात यह कि इस सबसे परे जो अविनाशी और चिदानन्दमय आत्म-तत्व है उससे उसका परिचय नहीं होता। जिसको वह जानता ही नहीं उसके प्रति आकर्षित होने का प्रश्न ही नहीं। आकर्षण तो उसी के प्रति होता है जिस का ज्ञान होता है और जिससे पहचान होती है। साँसारिक वैभव और भोगों से परे भी एक ऐसा सत्य तत्व है जिसे आनन्द का निवास माना गया है- यदि मनुष्य को यह ठीक-ठीक पता चल जाये तो वह आनन्द की प्राप्ति के लिये उसकी ओर भी आकर्षित हो। दो चीजें सामने होने पर ही तो कोई एक को छोड़ कर दूसरी या एक के साथ अन्य का भी चुनाव कर सकता है। और तब जो उसके लिये अधिक उपयोगी हो उसे ही ग्रहण कर दूसरी को छोड़ सकता है।

केवल एक साँसारिक वैभव के सामने होने और संभव मानने के कारण मनुष्य उन्हीं को दौड़-दौड़ कर पकड़ता है और उन्हीं में आनन्द की खोज करने का प्रयत्न करता है। असफल होता है- लेकिन फिर उन्हीं को पकड़ता और फिर असफल होता है। आत्मा का ज्ञान न होने से यह प्रक्रिया उसके लिए एक विवशता बनी हुई है। यदि आत्मा की प्राप्ति हो जाये तो निश्चय ही उसके इस स्वभाव में परिवर्तन हो जाये और तब उसका उद्देश्य भी पूरा हो जाये।

नश्वरता संसार का नियम है। इसकी कोई चीज भी स्थिर अथवा अविनाशी नहीं है। इसी नियम के अनुसार उपार्जित किया हुआ वैभव भी संध्या की छाया की तरह नष्ट हो जाता है। आज है कल नहीं रहता। और यदि किसी के पास युक्ति के आधार पर कुछ अधिक समय तक बना भी रहता है तो उसके नाश हो जाने का भय दुःखी बनाता रहता है। भोग-विलास, जिनमें डूब कर मनुष्य बड़ा आनन्द मनाता है, शीघ्र ही मनुष्य को नष्ट कर स्वयं भी नष्ट हो जाते हैं।

यौवन के ढलते और जरा के आते ही संसार के भोग दुर्बल हो जाते हैं। उनका झूठा आनन्द भी ले सकने योग्य मनुष्य नहीं रह पाता। तब उनका ध्यान शेल की तरह शालता है। यदि मनुष्य प्रारम्भ में ही इनको निस्सार मानकर इनका व्यसन न पाल ले, इनसे आसक्ति न जोड़ ले तो बहुत हद तक इस मानसिक दुःख से बच सकता है। पर अज्ञान के कारण वह स्वभावतः ऐसा कर नहीं पाता।

मनुष्य आनन्द के लिये जिन साँसारिक सम्पदाओं का आधार लेता है उनमें आनन्द तो क्या पाता है, उल्टे उनके वियोग, अस्थिरता और परिवर्तनशीलता के साथ उनके विनाश की सम्भावना से बेचैन और दुःखी रहता है। सारा जीवन इस जाने वाले पदार्थों को रोकने में ही समाप्त कर देता है और एक दिन स्वयं भी शरीर छोड़ कर अनजान दिशा में चला जाता है। जिन पदार्थों को भोला मनुष्य सत्य समझ कर पकड़ता है, वे सब स्वप्न की तरह असत्य सिद्ध होते हैं। साँसारिक भोगों में दिखने वाला आनन्द कृत्रिम प्रकाश की तरह है। और तब जीवन में विषाद का घना अन्धकार छा जाता है, जिसमें भटकते हुए ठोकरें खाने के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

यही कारण है कि मनीषियों ने साँसारिक सिद्धियों से परे अविनाशी एवं अपरिवर्तनशील आनन्द की निधान आत्मा को ही खोजने और पाने के महत्व पर अपना मत दिया है। आत्मा सत्य है, नित्य है, ज्योति-स्वरूप और आनन्दमय है। उसको पा लेने पर फिर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता और जान लेने पर कुछ जानना नहीं रहता। मनुष्य के पुरुषार्थ की सार्थकता साँसारिक सुखों के उपकरण और उपादान संचय करने में नहीं है बल्कि आत्मा को प्राप्त करने के प्रयत्न में है।

यह जड़-चेतनमय जितना भी जगत दृष्टिगोचर होता है, इसका अपना अस्तित्व कुछ भी नहीं है। आत्मा के आधार पर ही इसका अस्तित्व निर्भर है। आत्मा ही मानव-जीवन का चरम सत्य है। आत्मा के प्रकाश में ही बाह्य संसार और मानव-जीवन का अस्तित्व प्रतिभासित होता है। आत्मा के पटल पर ही संसार और दृश्य जीवन का छाया नाटक बनता-बिगड़ता रहता है। संसार और कुछ भी तो नहीं, केवल आत्मा की अभिव्यक्ति और उसका ही विस्तार है। आत्मा एक चिरन्तन सत्य है। इससे पृथक् जो कुछ है वह असत्य है, भ्रमपूर्ण है और अग्राह्य है। वेदों में जिस “असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतंगमय”- का घोष किया गया है उसका संकेत साँसारिकता से ऊपर उठ कर आत्मा की ओर ही अभियान करने का है। क्योंकि आत्मा ही ज्योति रूप है, आत्मा ही शिव रूप है और वही अमृत रूप भी है। निश्चय ही मनुष्य को ऐसी कल्याणकारी आत्मा को पाने का प्रयत्न करते ही रहना चाहिये।

आत्म-जिज्ञासा से रहित जीवन भार स्वरूप ही बना रहता है। आत्म-जिज्ञासा से रहित मनुष्य को भय की कल्पनायें और पाप की भावनायें कभी चैन से नहीं रहने देतीं। यदि सुखी, शाँत और संतुष्ट जीवन बिताने की कामना है तो जीवन में आत्म-जिज्ञासा को स्थान देना ही होगा। उसकी खोज करनी ही होगी। जितना समय मनुष्य अहंकार के पोषण में लगाता है, साँसारिक उपलब्धियों की लालसा में व्यतीत करता है, यदि उसमें से कुछ निकाल कर आत्मा की खोज में लगाये, तो मंगल मार्ग पर बहुत कुछ आगे बढ़ सकता है।

अहंकार के वशीभूत होकर शारीरिक संतुष्टि तक सीमित रहने वाले अपनी भूल को तब समझ पाते हैं, जब जीवन में पतझड़ का समय आ जाता है और शरीर पीले पत्ते की तरह गिर जाने की स्थिति में होता है। उस पटाक्षेप के समय उसे निश्चय ही संसार की असारता, असत्यता और भंगुरता का ज्ञान और आत्मा की चिरंतनता और अविनश्वरता की प्रतीत होती है। तब समय निकल चुका होता है। उस अन्तिम समय में कुछ भी कर सकने का अवसर नहीं रहता। उस समय हाथ मल-मल कर पछताने के सिवाय और कुछ भी शेष नहीं रह जाता। उस समय इस पश्चाताप के साथ संसार छोड़ने पर विवश होना पड़ता है कि जिस सत्य की खोज के लिये सुरदुर्लभ मानव-जीवन मिला था, उसकी उपेक्षा कर, हाय, हम संसार की तुच्छ बातों में ही लगे रहे! हमने वह सब कुछ किया, जो नहीं करना था और वह कुछ भी नहीं किया जो कर्तव्य था। उस घड़ी उस आत्मा की उपेक्षा करने वाले व्यक्ति की क्या दशा होती होगी? उसके हृदय में किस भयानक पछतावे और विवशता की आग जलती होगी, इसे तो वही बतला सकते हैं जिन्होंने उस स्थिति का भोग किया है अथवा जो आगे चल कर एक दिन करेंगे।

कितना अच्छा हो कि मनुष्य आवश्यकता भर अपने साँसारिक कर्तव्य करता रहे और बाँकी का समय अध्यात्म मार्ग से आत्मा की खोज करने में भी लगाता रहे, तो उसके लोक-परलोक एक साथ बनते चलें। इस द्विमुखी साधना में जरा भी कठिनाई नहीं है। आत्म-जिज्ञासु व्यक्ति संसार में रमता हुआ भी उसकी अंधेरी वीथियों में नहीं भटकने पाता। उसकी वह जिज्ञासा उसके साथ रह कर प्रकाश का काम करती है। सांसारिकता कर्तव्यों के बाद वह उसको उसी प्रकाश मार्ग पर लौटा लाती है, जिसका अनुसरण इस वेद वाक्य को चरितार्थ कर देता है-

“असतो मा सद्गमय” “तमसो मा ज्योतिर्गमय” “मृत्योर्माअमृतं गमय”

और तब मनुष्य का न केवल वर्तमान जीवन बल्कि भूत भविष्यत् के भी सारे जीवन धन्य हो जाते हैं।


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