जो सिर काटे अपना

March 1968

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ज्ञान प्राप्ति के लिये अति उत्सुक एक भक्त के आग्रह से एक दिन कबीर ने कहा- वत्स, पैर के नीचे की शिला को उठा। शिष्य ने तुरन्त शिला उठाई। शिला के नीचे भौंयार था। दोनों भीतर घुसे। अन्दर एक दरवाजे पर लिखा था। ‘अपने कान काटने वाला इस दरवाजे को खोल सकेगा।’

कबीर ने अपने दोनों कान काट डाले। वह दरवाजा खुला और कबीर अन्दर गये और पुनः दरवाजा बन्द हो गया। भक्त ने खोलने का प्रयत्न किया तो अन्दर से आवाज आई कि मैंने जैसा किया वैसा करने पर ही द्वार खुलेगा। भक्त भी कान काट कर अन्दर गया। दूसरे दरवाजे पर इसी प्रकार लिखा था। कबीर नाक काट कर अन्दर घुस गये। भक्त ने भी अनुसरण किया और वह अंदर दाखिल हुआ। तीसरे पर लिखा था। ‘जिसको अन्दर आना हो वह पहले अपना सिर काटे’ कबीर तो सिर उड़ा कर अन्दर चले गये पर भक्त बाहर ही रहा। नाक, कान, और मस्तक जाने के बाद क्या उपयोग? वह इसी विचार से डूबा हुआ था कि उसे नींद आ गई।

जब नींद खुली तो वहाँ दूर से कबीर आते दिखाई दिये। ‘क्या मेरी राह देख रहे हो?’ कबीर ने पूछा। ‘मैं तो कुछ समझ ही नहीं सका गुरुदेव! यह रहस्य सरलता से समझ में आने लायक नहीं है।’

‘तो क्या गुरुदेव, मेरे नाक-कान क्या अब सदा के लिये गये?

‘वे तो गये ही, इसमें क्या सन्देह?’

‘पर भगवन्! आपके तो कान-नाक पूर्ववत् हो गये हैं। मेरी भी पूर्ववत् कीजिये न प्रभु!’

यह कैसे हो सकता है? सिर काटा होता, तो सब अंग मेरे समान पूर्ववत् हो जाते।’


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