अपने छिपे महापुरुष को जगाइये

March 1968

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शायद आपने अपने अन्दर यह पता लगाने का प्रयत्न कभी नहीं किया कि वहाँ कोई विचारक, कलाकार, नेता, समाज-सेवक, कोई बड़ा व्यापारी अथवा कोई महान व्यक्ति तो छिपा नहीं बैठा है? हाँ, आपने अवश्य ही इस बात में प्रमाद बर्ता है। अन्यथा आप आज इस साधारण स्थिति में न पड़े होते। अवश्य ही अब तक आप समाज, सेवा, कला अथवा वाणिज्य के माध्यम से अपना महत्वपूर्ण स्थान बना कर मानव जीवन को काफी दूर तक सफलता की ओर बढ़ा चुके होते।

भला आप अपने भीतर छिपे महापुरुष अथवा विशिष्ट व्यक्ति को खोज भी कैसे सकते थे? यह कर्तव्य तो तभी पूरा हो सकता था जब आप उसके लिये कुछ समय देते। एकान्त में जाकर और दुनिया की सामान्य बातों से दूर होकर थोड़ी देर अपने को महत्वपूर्ण व्यक्ति समझ कर गम्भीरतापूर्वक विचार करते, और अपने से बार-बार यह प्रश्न करके उत्तर माँगते कि क्या मैं ऐसा ही साधारण एवं स्वार्थपूर्ण जीवन बिताने और महत्वहीन मौत मर कर दुनिया से चले जाने के लिये ही संसार में आया हूँ। क्या केवल इस कमाने खाने और मर जाने भर के लिये ही मैंने अपने जन्म एवं पालन-पोषण द्वारा माता का शारीरिक और पिता का आर्थिक संस्थान जर्जर कर डाला है?

आपके इन तीखे प्रश्नों को बार-बार सुन कर आपके अन्दर का सोया हुआ विशिष्ट व्यक्ति अवश्य ही जाग कर यह उत्तर देता- ‘‘नहीं महाशय! ऐसा नहीं है, आप संसार में कुछ अच्छा, ऊँचा और कल्याणकारी काम करने के लिये ही आये हैं। आप मुझे अपने साथ लीजिए मेरे महत्व का मूल्याँकन एवं उपयोग कीजिए और देखिये कि आप समाज के ए क महान् व्यक्ति बन सकते हैं।’’

विश्वास रखिये संसार के प्रत्येक मनुष्य के भीतर कोई-न-कोई महान पुरुष सोया पड़ा रहता है। आपके अन्दर भी है। यदि ऐसा न होता तो एक साधारण ही नहीं दीन-हीन मजदूर का एक अपढ़ पुत्र अब्राहमलिंकन संसार का महान व्यक्ति न हो पाता। एक साधारण जिल्द साज की नौकरी करने वाला लड़का माइकल फैराडे संसार का आश्चर्यजनक वैज्ञानिक न होता। साधारण वकील के स्तर से महात्मा गाँधी विश्व-बन्धु बापू न हो पाते और दो पैसे की रोटी पर जीवन चलाने वाले स्वामी रामतीर्थ अध्यात्म क्षेत्र के महारथी और एक कारखाने में छोटी-सी नौकरी करने वाला लड़का फोर्ड संसार का महानतम उद्योगपति एवं धनकुबेर न हो पाता।

मनुष्यों का यह आश्चर्यजनक विकास और चकित कर देने वाली उन्नति प्रमाणित करती है किसी भी मनुष्य के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है कि आगे चल कर वह जीवन के किस शिखर पर पदार्पण करेगा। संसार के सारे मनुष्यों में वे सारी क्षमतायें तथा विशेषतायें सन्निहित रहती हैं, जो किसी एक में भी हो सकती हैं और जो उन्नति पथ पर किसी का संवहन करने वाली होती है। आवश्यकता केवल अपने अध्यवसाय द्वारा उन्हें जगाने और काम में लाने की होती है। शक्तियों का उपयोग शक्तियों को बढ़ाता है, और बढ़ी हुई शक्तियाँ मनुष्य को उत्तरोत्तर उन्नति की ओर अग्रसर करती रहती हैं।

मनुष्य जब अपने को कर्तव्य कर्मों की शान पर चढ़ाता है, परिश्रम एवं पुरुषार्थ की आग में तपाता है तो उसके भीतर सोया पड़ा नेता, समाज सुधारक, लेखक, धर्मप्रचारक, वैज्ञानिक, कलाकार, सन्त अथवा उद्योगपति जाग कर ऊपर उभर आता है।

अपने भीतर सोये महापुरुष अथवा विशिष्ट व्यक्ति के लिये उद्बोधक कर्म न करके जो व्यक्ति प्रमाद, आलस्य, अविद्या अथवा अकर्मों में लगे रहते हैं, वे साधारण से अधिक सामान्य स्थिति में तो उतर सकते हैं किन्तु असाधारण स्थिति की ओर कदापि नहीं बढ़ सकते। विशिष्ट व्यक्तित्व के लिए जिन कठोर कर्मों तथा अखण्ड पुरुषार्थ की आवश्यकता है, उनकी पूर्ति भोग-विलास से भरी और ढीली-पोली जिन्दगी में नहीं की जा सकती। जिन महत्वाकांक्षियों को अपनी विशिष्टता में विश्वास और समाज में सम्मानपूर्ण स्थान की लगन होती है वे नियम संयम से आबद्ध एवं व्यवस्थित जीवन को स्वीकार कर परिश्रम के लिये दिन को दिन और रात को रात नहीं समझते। उन्हें घाम का ताप, शीत का कम्पन और वर्षा की बूँदें प्रभावित नहीं कर पातीं और नाहीं उनको पथ का कोई प्रलोभनपूर्ण अवरोध ही विरमा पाता है।

एक बार चल कर यदि वे विश्राम करते हैं, तो अपने लक्ष्य की छाया में, अपने उद्देश्य की तलहटी और मंजिल की मीनार पर। बीच में उनके लिये विश्राम का कोई भी स्थल नहीं होता और न भटका देने वाले प्रवंचक विश्राम भवनों की मरु-मरीचिका में वे विश्वास ही करते हैं। उन्हें तो लगन, उमंग और उत्साह का ऐसा नशा चढ़ा रहता है, जो जीवन में पूर्णता प्राप्त किये बिना उतरता ही नहीं।

अपने प्रति हमारा अपना दृष्टिकोण भी हमारे अन्दर सोये पड़े महान व्यक्ति को जगाने में सहायक होता है। जिस मनुष्य की अपने प्रति जिस प्रकार की ऊँची-नीची भावना होती है, उसका भविष्य भी उसी प्रकार का बनता चला जाता है। हमारे अर्धचेतन में वैसी ही शक्तियाँ उठ खड़ी होती हैं और उसी प्रकार की प्रेरणा देकर उस ही दिशा में अग्रसर करती रहती हैं, जिसके अनुरूप हमारी भावना होती है। यदि हमारे अपने प्रति हमारा निज का दृष्टिकोण उत्साह एवं आशा भरा है तो निश्चय ही वैसी ही सृजनात्मक शक्तियाँ प्रबुद्ध होकर हमारी सहायता करने लगेंगी।

इसके विपरीत यदि हमारा दृष्टिकोण निराशा एवं निउत्साहपूर्ण है तो निश्चय ही ऐसी आसुरी शक्तियों का जागरण होगा, जो आलस्य, अज्ञान, अवज्ञा तथा उपेक्षा दोष जागृत कर हमारी गति को अवरुद्ध बनाये रखेंगी। अपने को दिन-दिन आगे बढ़ाने के लिये अपने प्रति आशा एवं विश्वास का दृष्टिकोण रखिये। कभी भूल कर भी ऐसा न सोचिए कि आपकी शक्ति न्यून है आपके साधन नगण्य हैं, आपकी योग्यता अपर्याप्त है अथवा आप में साहस की कमी है। ऐसे हीन दृष्टिकोण और दीन भावना से भीतर का विशिष्ट व्यक्ति महत्वहीन होकर मर जायेगा और तब आपके विकास की कोई सम्भावना शेष न रहेगी।

संसार के सारे महापुरुष प्रारम्भ में हमारे आप जैसे ही साधारण श्रेणी तथा साधारण योग्यता एवं क्षमताओं के व्यक्ति रहे हैं। इतना होने पर भी उन्होंने अपने प्रति अपना दृष्टिकोण नीचा नहीं बनाया, निराशा की भावना को पास नहीं आने दिया। आत्म-विश्वास, उत्साह एवं अविरत अध्यवसाय के बल पर वे कदम-कदम आगे बढ़ते और बढ़ते ही गये यहाँ तक उन्होंने अपना महान-से-महान मनोनीत लक्ष्य प्राप्त ही कर लिया। आत्म-हीनता की भावना बहुत बड़ा अभिशाप है। यह जीवित को मृत तथा चेतन को जड़ बना कर अपंग कर देती है। आत्म-हीनता की भावना आते ही जीवन में सर्वत्र निराशा का अन्धकार घेर लेता है।

निराश व्यक्ति की नई शक्तियाँ जगाना तो दूर उल्टे उसकी जागरूक शक्तियाँ, कार्य क्षमतायें, आगे देख सकने की दृष्टि तथा परिस्थितियों का अध्ययन कर सकने वाली सूझ-बूझ तक समाप्त हो जाती है। ऐसे निराश व्यक्ति में न तो साहस शेष रहता है और न समाज में कोई व्यक्ति उसकी सहायता करने के लिये उत्साहित होता है। निराशा एवं दुर्दैव का साथ माना गया है। निराशा का अन्धकार आते ही मनुष्य को दुर्दैव का प्रकोप धर दबाता है।

यदि हम आशापूर्ण दृष्टिकोण से अपने अन्दर बैठे महापुरुष पर विश्वास लेकर आगे बढ़ते हैं तो हमारे सामने ऐसे मार्ग आप से खुलते चले जायेंगे, जिन पर चल कर अभीष्ट लक्ष्य तक आसानी से पहुँचा जा सकता है। लक्ष्य सिद्धि का विश्वास और उसकी दुरूहता अथवा दूरी की अकल्पना मनुष्य के मार्ग को बहुत कुछ सुखद एवं सरल बना देता है। विश्वास से जिस मनोबल का जन्म होता है, उसमें बड़ी प्रेरक एवं सृजनात्मक शक्ति होती है। वह मनुष्य को भय, शंकाओं एवं सन्देहों से दूर रख कर उमंग एवं उत्साह से भरपूर बनाये रहता है। इतने सम्बलों का भंडार लेकर चलने वाला ऐसा कौन-सा अभागा यात्री होगा जो अपने लक्ष्य तक पहुंचे बिना बीच में ही थक कर बैठ जाये।

निश्चय जानिये आपके अन्दर भी एक महापुरुष सोया पड़ा है। उसे वाँछित साधन एवं साधना द्वारा प्रबुद्ध कीजिये और समाज में अपना वह महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कीजिये, जो कहीं न कहीं पहले से ही सुरक्षित रक्खा है। आज आप जिस विषय-वासना की कीचड़ में पड़े हैं, जिस भोग-विलास अथवा दिखावे का जीवन अपनाये हुये हैं, उसे त्यागिये और अपने अनुरूप उच्च विचारधारा-उदात्त कार्यशैली और उन्नत जीवन-लक्ष्य चुनिये। केवल इन्द्रिय सुख में भूले हुये आप अपने बहुमूल्य जीवन को कौड़ी मोल लुटा रहे हैं।

इसी जीवन का कुछ अंश यदि आप समाज सेवा, अध्ययन एवं परोपकार में लगा दें तो वह दिन दूर नहीं रहे जबकि समाज आपको सर आँखों चढ़ा कर आपको अपना मार्गदर्शक मान ले। उठिये और ऋषिकेश की तरह आज ही शुभारम्भ का पाञ्चजन्य फूँक दो और कुप्रवृत्तियों की कौरवीय सेना को निरस्त कर डालिये। आप से ऐसी आशा कैसे की जा सकती है कि संसार के उन हजारों महापुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर आगे नहीं बढ़ेंगे जो प्रारम्भ में आप जैसे ही साधारण एवं सामान्य स्थिति के रहे हैं।

अपने मस्तिष्क को स्वार्थ-परक चिन्तन से मुक्त कर उज्ज्वल एवं उदात्त विचार-धारा को स्थान दीजिये। जो बुद्धिमान व्यक्ति समृद्धि एवं सिद्धि की दिशा में अपनी चिन्तन धारा को उन्मुख कर लेते हैं, वे मानो एक ऐसा पुण्य प्रतिपादित करते हैं जिसका सुफल उन्नति एवं यश के रूप में ही प्रतिफलित होता है।

यह संसार कर्मभूमि है। मनुष्य कर्म करने के लिये ही इस धराधाम पर अवतरित हुआ है। कर्म और निरन्तर कर्म ही सिद्धि एवं समृद्धि की आधार शिला है। कर्मवीर, कर्मयोगी तथा कर्मठ व्यक्ति कितनी ही निम्न स्थिति सामान्य श्रेणी और पिछड़ी हुई अवस्था में क्यों न पड़ा हो आगे बढ़ कर, परिस्थितियों को परास्त कर अपना निर्दिष्ट स्थान प्राप्त ही कर लेता है। कर्म की गति काल भी रोक सकने में असमर्थ है। उठिये अपना लक्ष्य प्राप्त करके दिशा देखिये कि वह किधर आपकी प्रतीक्षा कर रही है। अपने उद्योग को उद्यत और कर्म-शक्ति को चैतन्य कीजिये और यह मान कर जीवन पथ पर अभियान कीजिये कि आप एक महापुरुष हैं, आपको अपने अनुरूप अपने चरित्र बल पर समाज में अपना स्थान बना ही लेना है।

ईश्वर की सबसे बड़ी देन, सबसे महत्वपूर्ण प्रसाद- अपने मस्तिष्क को विकृतियों से निरामय बनाइये। उसमें विवेक एवं सद्बुद्धि का दीप प्रज्ज्वलित कीजिये, उसको निर्माण की दिशा में लगाइये और देखिये कि आपका निरामय एवं निर्विकार मस्तिष्क आपको कैसी-कैसी सृजनात्मक योजनायें प्रदान करता है। पतन के गर्तों, अवृत्ति के कुण्डों, निराशा की अंधेरी घाटियों से किस प्रकार जागरूक पुण्य प्रदर्शक तथा प्रहरी की तरह बचाये रहता है। आप बुद्धि तथा विवेक के प्रकाश में निर्विघ्न अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते चले जाइये। असफलता के त्रास अथवा विरोधों के भय से अपना अग्रगामी पग पीछे न हटाइये। आपको अपने अनुरूप स्थान मिलेगा। ऊंचा तथा महत्वपूर्ण स्थान मिलेगा-क्योंकि आप महान पुरुष हैं और अपनी महानता, अपने विशिष्ट व्यक्तित्व को अपने आचरण द्वारा व्यक्त ही करेंगे।


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