अनावश्यक आकाँक्षायें और उनका दूषित प्रतिक्रिया

March 1968

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आकाँक्षायें मनुष्य जीवन की प्रेरणा-स्त्रोत हैं। आकाँक्षाओं के अभाव में जीवन की गतिशीलता समाप्त हो जाती है। तथापि यही आकाँक्षायें जब विकृत हो जाती हैं तो सम्पूर्ण जीवन को अशाँति तथा असन्तोष की आग में जलने के लिए फेंक देती हैं।

आज-कल प्रायः हम सभी लोगों का जीवन संतोष तथा शाँति की सुख-शीलता से वंचित हो गया है। जीवन संघर्ष इतना बढ़ गया है कि इस पर बैठ कर दो मिनट सोच-विचार करने का समय भी नहीं मिलता। दिन-रात एक टाँग से भागते, दौड़ते, सुख-सन्तोष की सम्भावनायें लाने के लिए कोई प्रयत्न अछूता नहीं छोड़ते फिर भी विकल तथा क्षुब्ध ही रहना पड़ रहा है। जीवन की प्रेरणा- उसके सत्य तथा यथार्थ रूप के दर्शन ही नहीं होते। जहाँ और जिधर सुख-शाँति के लिए जाते हैं, उधर प्रतिकूल परिणाम ही हाथ आते हैं। ऐसे कितने लोग हो सकते हैं जो जीवन में अपेक्षित सुख-सन्तोष का साक्षात्कार कर पाते हों। आजीवन श्रम करते रहने, जीवन-रस सुखाते रहने और दौड़-धूप करते रहने पर भी रिक्तता, खिन्नता तथा सन्ताप की प्राप्ति निःसन्देह बड़े खेद तथा चिन्ता का विषय है। इसके आधार-भूत कारण की खोज निकालना, नितांत आवश्यक हो गया है।

इस असफलता पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने से तो इसी परिणाम पर आना होता है कि हमें लक्ष्य-पथ से भटका देने में हमारी स्वयं की विकृत आकाँक्षाओं का गहरा हाथ है। जो आकाँक्षायें जीवन की प्रेरणा स्त्रोत हैं वही विकृत हो जाने पर प्रवंचक बन कर जीवन के सहज तथा अभीष्ट पथ से हमें इधर-उधर ले जाकर अशाँति तथा असन्तोष के कंटकाकीर्ण मार्गों पर घसीट रही हैं। निश्चय ही जीवन में अभीष्ट सुख-शाँति पाने के लिए विकृत आकाँक्षाओं को संस्कृत तथा परिष्कृत करना होगा अथवा उन्हें अकल्याणकारी साथियों की तरह छोड़ ही देना होगा। जो प्रेरणा पाप बन कर अपने लिए भयानक हो उठे उसका परित्याग कर देना ही उचित है।

विकृत आकाँक्षायें बड़ी भयावनी होती हैं। उनका अभिचार शीघ्र ही मनुष्य को सत्पथ से भटका कर विपथ पर खींच ले जाता है। उसकी तृष्णा इतनी बढ़ा देता है कि असत्य सत्य और मरीचिका जल दिखलाई देती है। और मनुष्य उस बाज पक्षी की तरह मूढ़मति हो जाता है, जो जमीन पर पड़े काँच के टुकड़े में अपना प्रतिबिम्ब देख कर झपटता और उससे टकरा कर आहत हो जाता है। वास्तविकता की पृष्ठ-भूमि बहुत ही कठोर और कर्कश होती है। इस पर चल कर लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बड़ी ही दृढ़ता तथा सतर्कता एवं धैर्य की आवश्यकता होती है। किन्तु स्वार्थपूर्ण विकृत आकाँक्षाओं की माया मनुष्य को इतना कल्पनाशील तथा लोलुप बना देती है कि वह हर ध्येय को नितांत सरल तथा अपने योग्य मान लेता है।

इसका फल यह है कि वह अपनी महत्वाकाँक्षाओं के साथ शीघ्र ही आकाश में उड़ जाता है और शीघ्र ही वेग कम होने से नीचे पृथ्वी पर गिर कर आहत होता और कराह उठता है। जिस सुख-शाँति के लिए उसने उड़ान की थी, वह तो मिली नहीं उल्टा अशाँति, पीड़ा तथा असन्तोष का भागी बनना पड़ा। विकृत आकाँक्षाओं का विष बड़ा तीव्र होता है। इसका अभ्यस्त मनुष्य एक अजीब नशे से प्रमत्त रह कर जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर ही भागता फिरता रह कर अन्त में अशाँति तथा पश्चाताप के साथ विदा हो जाता है।

इसी प्रकार की विकृत आकाँक्षाओं के नशे-बाज एक सज्जन का उदाहरण है कि उनको राजनीति में आगे बढ़ने की धुन सवार हुई। अपनी इस धुन को पूरा करने के लिये वे विगत दस पंद्रह वर्षों से लगे हैं, किन्तु हर बार असफलता की पीड़ा पाने पर भी अभी उससे बाज न आये हैं। यद्यपि न तो कोई लक्ष्य है और न कोई उपयोग फिर भी उन्हें एम.एल.ए. बनने की धुन है। इसके लिए वे दो-बार चुनाव के मैदान में हार चुके हैं। पर घर की काफी पूँजी फूँक चुके हैं, किन्तु फिर भी उनकी वह धुन नहीं हुई।

जब मिलते हैं अपनी असफलता का ही रोना रोते हैं, एक नई अशाँति, नया असंतोष उन्हें घेरे रहता है। आर्थिक नुकसान तथा पराजय की ग्लानि काँटे की तरह उनके हृदय में कसकती रहती है। अपनी इस सनक में काफी स्वास्थ्य खराब कर चुके हैं, फिर भी न जाने क्यों एम.एल.ए. पद के लिए पीछे पड़े हैं।

जब-जब इन सज्जन से कहा गया कि आपकी यह इच्छा जब आपको किसी प्रकार सुख-चैन से रहने नहीं देती, हर बार प्रयत्न में असफलता और हानि उठानी पड़ी है, फिर क्यों उसके पीछे पड़े हैं? जबकि न तो उसका आपके लिए कोई उपयोग है और न वह जीवन के लिये कोई आवश्यक ही है। इस पर उनका जो उत्तर रहा है वह विचारणीय है। बोले-

“क्या करें, राजनीति का यह नशा ही कुछ ऐसा है, जो कोई दशा क्यों न हो जाय, छुड़ाये नहीं छूटता। सोच रहा हूं कि किसी प्रकार चुनाव जीत जाता, एम.एल.ए. बन कर एक बार विधान सभा पहुँच पाता तो बात बन जाती, पराजय का कलंक धुल जाता। और अब तक जो हानि हुई है वह मिनटों में पूरी हो जाती। इसलिए बार-बार असफल होने पर भी इसके पीछे पड़ा हुआ हूँ। कभी तो समय आयेगा ही और हमारे लिए भी समाज में सम्मान और समृद्धि का द्वार खुल जायेगा।’’

कहना न होगा कि इस प्रकार की विकृत आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति दया के पात्र हुआ करते हैं। ऐसे ही विकृत आकाँक्षा वाले अपने जीवन के सहज सुन्दर मार्ग से भटक कर उन रास्तों पर पड़ जाते हैं, जहाँ उनकी सारी सुख-शाँति छीन ली जाती है। जिन आकाँक्षाओं का कोई उद्देश्य नहीं, कोई उपयोग नहीं अथवा जिनके पीछे कोई हितकर प्रेरणा मौजूद न हो, वह मृग-मरीचिका के सिवाय और क्या कहीं जायेंगी? निश्चित ही है कि जब-जब मनुष्य की आकाँक्षायें नशे का रूप धारण कर लेती हैं, तब वे उसे उस नशे-बाज की तरह बना देती हैं जो मदाँध होकर नाली में गिरता रहता है किन्तु अपना सुधार नहीं करता। यह बात दूसरी है कि शराब का नशे-बाज गन्दी नाली में गिरता है और आकाँक्षाओं का नशे-बाज अशाँति एवं असन्तोष के दल-दल में।

वास्तविक आकाँक्षायें तो वही कही जायेंगी जिनके पीछे कुछ उद्देश्य, हित, आदर्श, आवश्यकता अथवा उपयोगिता की प्रेरणा मौजूद है। योंही किसी लोभ-लालच अथवा स्वार्थ से प्रेरित होकर ऊट-पटाँग आकाँक्षाओं को पाल लेना कोई बुद्धिमान है? यह तो उसकी कबाड़ी जैसा काम है जो अपने घर में जगह-जगह से उठा कर तमाम निरर्थक और निरुपयोगी वस्तुओं का ढेर लगा लिया करता है।

आकाँक्षायें जीवन की प्रेरणा स्त्रोत अवश्य हैं किन्तु उनको समझने, परखने के लिए विवेक की भरी अपेक्षा है। अपने हृदय में पालने से पहले अपनी आकाँक्षाओं की परीक्षा कर लेना और यह समझ लेना परम आवश्यक है कि इनमें कोई यथार्थ तथा उपयोगी तत्व भी अथवा यह केवल वह माया-जाल है जो मनुष्य के सहज सुन्दर जीवन को भुलावे की राहों पर भटका देता है और मनुष्य अपनी सहज शाँति, मानसिक व्यवस्था और बौद्धिक संतुलन खो बैठता है।

किन्हीं स्वार्थ और प्रलोभनपरक आकाँक्षाओं के पीछे भागते फिरना बुद्धिमानी नहीं है। मनुष्य की जिन आकाँक्षाओं के पीछे एक मात्र स्वार्थ बुद्धि की प्रेरणा होती है वे आकाँक्षायें निकृष्ट स्तर की ही होती हैं और निकृष्टता, किसी श्रेयता और श्रेष्ठता का सम्पादन कर सकेगी यह सर्वथा असम्भव ही है। श्रेय और श्रेष्ठता की संवाहिका उच्च, निर्लोभ तथा निःस्वार्थ आकाँक्षायें ही होती हैं।

थोड़ी बहुत आकाँक्षायें सभी में होती हैं। इस संसार में सर्वथा इच्छाशून्य हो सकना सम्भव नहीं है। आकाँक्षायें जीवन का चिन्ह हैं, अग्रसर होने की प्रेरणा हैं। मनुष्य में इनका होना स्वाभाविक ही है। फिर भी अकल्याणकारी इच्छाओं को मनुष्य की स्वाभाविक आकाँक्षाओं में स्थान नहीं दिया जा सकता है। मानिये, यदि कोई चोरी, मक्कारी, लूट-पाट और दूसरों का शोषण करके धन प्राप्त करने की आकाँक्षा करता है, किसी भी अनीति और अन्यायपूर्ण प्रयत्नों से धनाढ्य बनना चाहता है तो क्या उसकी यह आकाँक्षा उचित और स्वाभाविक मानी जायगी? नहीं कदापि नहीं। यह तो आकाँक्षा नहीं है। इसको तो उसकी आसुरी और आततायी वृत्ति ही कहा जायेगा।

इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति में स्थान पाने, अपना प्रभाव जमाने की आकाँक्षा रखता है और उसे मूर्तिमान करने के लिये निर्बल एवं असहाय व्यक्तियों को सताता उनको ताड़ना देता है, और इस प्रकार अपना आतंक फैलाता है तो क्या उसकी यह आकाँक्षा उचित कही जायेगी? यह तो एक मात्र उसका पागलपन ही माना जायेगा। समाज में स्थान पाने, लोगों को प्रभावित करने के लिये तो सेवा, परोपकार और सहयोग, सहायता एवं सद्-व्यवहार तथा सदाचरण का ही मार्ग निर्धारित किया गया है। इससे विपरीत मार्ग पर चल कर उद्देश्य की पूर्ति के लिये प्रयत्नशील होने वाला व्यक्ति तो समाज का शत्रु ही माना जायेगा।

तब भला वह उसके सम्मान और श्रद्धा का पात्र किस प्रकार बन सकता है? समाज में गुण्डों, लफंगों और धूर्तों का भी जिक्र होता है। किन्तु यह उनकी नामवरी नहीं, बदनामी ही होती है। जिसके प्रभाव में आतंक अथवा भय का पुट हो, जिसका नाम घृणा, तिरस्कार और अपमान के साथ लिया जाये वह समाज में प्रभाव पाने का आकाँक्षी कैसा? वह तो बुद्धिहीन मूर्ख ही है, जो अपने लिये अपनी विकृत आकाँक्षा की प्रेरणा से विनाशकारी परिस्थितियां सृजन कर रहा है।

मनुष्य की वे आकाँक्षायें ही वास्तविक आकांक्षायें हैं, जिनके पीछे स्वयं उसका तथा समाज का हित सन्निहित हो। जो आकाँक्षायें समाज अथवा अपनी आत्मा की साधक न होकर बाधक होती हैं, वे वास्तव में दुष्प्रवृत्तियाँ ही हुआ करती हैं, जो लोभ और मोहवश आकाँक्षा जैसी जान पड़ती हैं। विनाशात्मक आकाँक्षायें रखने वाले व्यक्ति रावण, कंस, दुर्योधन जैसे दुष्ट महत्वाकाँक्षियों के ही संक्षिप्त संस्करण होते हैं जो जीवन में एक बूँद भी सुख-शाँति और सन्तोष नहीं पा सकते और मरणोपरान्त युग-युग तक धिक्कारे जाते रहते हैं।

आज की हमारी अशाँति, असन्तोष और सन्ताप से भरी हुई जिन्दगी का मुख्य कारण हमारी विकृत आकाँक्षायें ही हैं, जो लोभ की मरु-मरीचिका और मोह की मृग-तृष्णा में भटकती हुई उस पथ पर नहीं आने देतीं, जिस पर स्वर्गीय शाँति, निसर्ग सन्तोष और अप्रतिहत शीतलता के दर्शन हो सकते हैं। अपनी आकाँक्षाओं की परीक्षा कीजिये, उन्हें सत्य एवं यथार्थ की कसौटी पर परखिये, हित-अहित की तुला पर उनका मानाँकन करिये और जो भी बाधक आकाँक्षायें हो उन्हें तुरन्त अपनी मनोभूमि से निकाल बाहर करिये। उचित, उपयोगी और रम्य, रंजक आकाँक्षाओं को पालिये उनकी पूर्ति के लिये अबाध प्रयत्न एवं अखण्ड पुरुषार्थ करिये, सुन्दर, शिष्ट और सुशील मार्ग का अवलम्बन कीजिये और तब देखिये कि आपके जीवन में स्थायी और अक्षय सुख-शाँति का समावेश होता है या नहीं?


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