शक्ति और भक्ति के मूर्त-रूप गुरु गोविन्द सिंह

October 1965

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स्वधर्म और स्वराष्ट्र की रक्षा के लिये सन्त और सिपाही- दोनों के समन्वय की कल्पना, विश्व की एक अनोखी कल्पना है। अपने शिष्य के एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में तलवार पकड़ा कर मानवता की रक्षा का अजीब प्रयोग करने का श्रेय गुरु गोविन्द सिंह को है। गुरु गोविन्द सिंह पीड़ित मानवता के त्राता और सच्चे सुधारक थे। उनका सारा जीवन समाज में फैले हुये अज्ञान और अन्याय के विरुद्ध धर्म को उभारने और दुष्टता का नाश करने में लगा। वीर संत के रूप में वे भारतीय इतिहास के पन्नों में युगों तक अमर रहेंगे।

गुरु गोविन्द सिंह का जन्म जिस समय हुआ, उस समय जनता दोहरे कष्ट से पीड़ित थी। औरंगजेब के क्रूर शासन में लोग बुरी तरह पिस रहे थे, प्रतिदिन हजारों की संख्या में हिन्दू मुसलमान बनने के लिये विवश किये जाते थे, जो ऐसा नहीं करते थे, उन्हें राज्याधिकारी तंग करते और उनसे ‘जजिया’ कर वसूल किया जाता था। हिन्दू धर्म का नाम जबान पर लाने में भी लोग घबराते थे।

एक ओर राजनैतिक दबाव के कारण लोग दुःख पा रहे थे तो दूसरी ओर लोगों के जीवन में बड़ी निराशा छा रही थी। एक मनुष्य का दूसरे के प्रति विश्वास नहीं रहा था। आत्मीयता और स्नेह के बन्धन समाप्त हो गये थे। धर्म-कर्म की लोगों को स्वतन्त्रता न थी, फलस्वरूप धर्म-प्राण हिन्दू जनता भीतर ही भीतर घुटता हुआ सा अनुभव कर रही थी। जिसके पास जितने बड़े अधिकार थे, वे उतने ही निष्ठुर और निर्दयी होते थे। समाज की शाँति पूर्ण रूप से अविच्छिन्न हो चुकी थी।

गुरु गोविन्द सिंह का बचपन का नाम गोविन्द राम था। उनका जन्म 1706 की पौष सुदी सप्तमी को पटना शहर में हुआ। आप गुरु तेगबहादुर के इकलौते पुत्र थे। इनके जन्म के समय तेग बहादुर आसाम में थे। बाद में पंजाब में लौटने पर उन्होंने इनकी माता गुजरी समेत उन्हें पंजाब बुला लिया। यहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और उस समय की प्रचलित कुरीति के अनुसार सात वर्ष की अल्पायु में ही इनका विवाह कर दिया गया।

गुरु तेग बहादुर जिस समय औरंगजेब के अत्याचार से शहीद हुये थे, उस समय गोविन्द सिंह 15 वर्ष के थे। इस घटना ने उनके मर्म को झकझोर डाला। हिन्दुओं पर हो रहे मुसलमानों के नृशंस अत्याचारों के खिलाफ उनका हृदय विद्रोह कर उठा और उसी समय से एक शक्तिशाली संगठन बनाने के प्रयत्न में प्राण-पण में जुट गये। बीस वर्ष तक पहाड़ियों में रह कर शक्ति अर्जित करते रहे।

वे इस बात को जानते थे कि औरंगजेब के अत्याचारों से प्रजा को मुक्ति दिलाने के लिये सैन्य शक्ति ही पर्याप्त नहीं, वरन् जनता के मानसिक अवसाद का निराकरण कर, उनमें नैतिक बल भरना भी जरूरी है।

इसके लिये उन्होंने सेना को धार्मिक रूप देने का निश्चय किया। यह कार्य गोविन्द सिंह ने बड़ी दृढ़ता व निश्चयात्मक बुद्धि से पूरा किया।

बैसाख सुदी 1 संवत् 1726 को गुरु गोविन्द सिंह ने बैसाखी के मेले पर विशाल यज्ञायोजन रखा। इस अवसर पर उन्होंने धर्म की रक्षा के लिये उपस्थिति जनों से आत्मबलिदान के लिये आगे बढ़ कर आने का आवाहन किया। सारी सभा से ऐसे पाँच व्यक्ति सामने आये। इस संगठन को जातीय भेद-भाव से दूर रखने का स्पष्ट प्रमाण यही है। कि वह पाँचों आत्मदानी विभिन्न वर्ण के थे। उन्होंने सर्व-प्रथम इन जाट, खत्री और नाई आदि पाँच शिष्यों को दीक्षित किया और “सिख-धर्म” की नींव डाली। इस संगठन के पीछे उनका कोई साम्प्रदायिक उद्देश्य न था, यह घटना ही इस बात का प्रमाण है। संगठन तत्कालीन आवश्यकताओं की पूर्ति की दृष्टि से बना, जो समयोचित भी था।

जो लोग उनके जीवन और दर्शन से अनभिज्ञ हैं, वे उन्हें साम्प्रदायिक होने का दोष लगाते हैं। उन्हें समझना चाहिये कि गुरुगोविन्द सिंह वस्तुतः इन सारी संकीर्णताओं से बहुत ऊपर थे। वे सच्चे अर्थों में मनुष्यता का परित्राण करना चाहते थे। उन्होंने अपने जीवन उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुये स्वयं लिखा है :-

जहाँ तहाँ तुम धर्म विथारो। दुष्ट देखियत पकर पछारो॥ याही काज धरा हम जनम। समझ लेहु साधु सब मरम॥

अर्थात्-धर्म के अशुद्ध रूप और उसे बिगाड़ने वालों का संहार करने के लिये ही मेरा जन्म हुआ है, सज्जन पुरुषों को निश्चय पूर्वक यह जान लेना चाहिये।

आपने ऐसी अनेक सामाजिक रूढ़ियों को खतम किया, जिनसे समाज में विकार उत्पन्न होते थे। रहन-सहन, खान-पान, व्यवहार तथा आचरण में उन्होंने क्रान्तिकारी परिवर्तन किये, जिनका प्रभाव आज भी सिखों में स्पष्ट देखा जा सकता है।

पर धर्म के मामले में गुरु गोविन्द सिंह चट्टान की तरह अडिग थे। उनका संकल्प अपरिवर्तनशील था। “प्राण जाय पर धर्म न जाय” की नीति पर ही उनका सम्पूर्ण जीवन आधारित था। उनकी इस धर्म-निष्ठा का प्रभाव उनके प्रत्येक समीपवर्ती पर था। इसका प्रमाण उनके वीर पुत्रों ने दिया, जिनकी गौरव-पूर्ण गाथा कहने और सुनने में आज प्रत्येक भारतीय का सिर ऊँचा हो जाता है।

गुरु गोविन्द सिंह सिख-संगठन को मजबूत बनाने के प्रयत्न में लगे थे, इसकी सूचना पाते ही औरंगजेब ने उन पर हमला का दिया कुछ पहाड़ी राजे भी औरंगजेब के साथ हो गये। यह युद्ध आनन्दपुर की गढ़ी में हुआ। मुसलमानों की भारी सेना के कारण उनके प्रायः सब सैनिक मारे गये, पर वे अपने पच्चीस चुने हुये सैनिकों के साथ बाहर निकल आये। इस बीच किसी को पता न चल पाया। उनकी माता गुजरी तथा पुत्र अजीतसिंह और फतेह सिंह रसोइये गंगा राम के साथ छूट गये। रसोइये न दोनों बेटों को लालच वश वजीर खाँ को, जो अभी चमकौर के युद्ध से लौटा था, सौंप दिये। चमकौर के युद्ध में भी उनके जुझारसिंह और जोरावर सिंह शहीद हुये थे। यही धमकी वजीर खाँ ने इन बेटों को भी दी और उन्हें प्रलोभन दिया कि यदि वे धर्म परिवर्तन स्वीकार कर लें तो उन्हें मुक्ति ही नहीं अच्छी जागीर भी दी जा सकती है। पर सपूत बेटों को यह स्वीकार न हुआ। “चोटी सिर के साथ जायेगी” यह उनका प्रण था। पौष वदी 13 सं. 17-62 को दोनों बालक जीवित दीवार में चिन दिये गये, किन्तु उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार न किया। उनकी वृद्ध माता ने भी इसी तरह आत्माहुति दे दी, पर इससे वे किंचित भी विचलित न हुयीं। आप लेश-मात्र भी दुःखी न हुये और कहने लगे-

“भगवान तेरी अमानत जो बच्चों के रूप में मेरे पास तैंने रखी थी तेरे हुक्म से ही लौटा दी गई हैं।” इसी तेजस्विता तथा आत्म-त्याग की भावना द्वारा उन्होंने कायरों को भी महावीर बना कर दिखा दिया।

गुरु गोविन्द सिंह राजनैतिक विषमता से लड़े, साथ ही सामाजिक दुर्बलता से भी लड़े। उनके जीवन में शौर्य ही न था, सत्य-प्रेम, सेवा, सहायता और कठिनता भी उसी मात्रा में विद्यमान थी। दीन-दुखियों की सेवा करने में भी वे सदैव तत्पर बने रहे। अपने शिष्यों को उन्होंने भीख माँगकर खाने से सदैव दूर रहने की शिक्षा दी, जो आज भी अधिकाँश में उसी रूप में पालन की जा रही है। उन्होंने कहा-”मेरे शिष्य कभी निष्क्रिय न बैठे, दूसरों का न खायें।”

हिन्दू धर्म के प्रति उनके हृदय में कितनी श्रद्धा और विश्वास का भाव था, यह उनके कृत्यों से पता चलता है। देश की सोई हुई आत्मा को जगाने और वीरता के भाव भरने के लिये उन्होंने गीता, रामायण, महाभारत आदि का सरल भाषा में अनुवाद कराया। और भी अनेक धर्म-ग्रन्थ जो केवल उच्चवर्णों की ही विरासत समझे जाते थे, उनका सरल भाषा में अनुवाद करा कर सर्व-साधारण को लाभ देने योग्य बनवाने का गुरुतर कार्य उन्होंने विद्वान पण्डितों से पूरा कराया।

गुरु गोविंद सिंह जी गुरु द्रोणाचार्य की प्रति-मूर्ति थे। उनके एक हाथ में धर्म, दूसरे में कर्म था। शक्ति और भक्ति की, शौर्य और ज्ञान की जो प्रतिभा गुरु द्रोणाचार्य में थी, ठीक वहीं गुरु गोविन्द सिंह में थी। उन्होंने भारतीय इतिहास में अपने चरित्र की गाथा जोड़ कर उसके गौरव को बढ़ाया और उसकी शानदार परम्परा को जीवित रखा।


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