परिजनों का पालन ही नहीं, निर्माण भी

October 1965

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हमारी, आये दिन अनेक ऐसे व्यक्तियों से भेंट होती रहती है जो गृह-कलह, पुत्रों की स्वेच्छाचारिता, धर्मपत्नी से विचार न मिलने का दुःख प्रकट किया करते हैं। उनके घरों में धन और साधनों का अभाव रहता हो सो बात नहीं, सम्पन्न परिवारों में भी यह दुर्दशा सामान्य हो गई है। इसका एक ही कारण है परिवार और उसके सदस्यों के निर्माण पर ध्यान न देना। धन, मकान जायदाद आदि का उत्तराधिकार परिजनों को दे जाना उतना महत्व नहीं रखता, जितना उनको सद्गुणी, सुशील बनाना महत्व रखता है। चरित्र के साँचे में ढाले गये कम साधनों में भी पूर्ण प्रसन्नता का जीवन व्यतीत कर लेते हैं। दुर्गुणी व्यक्तियों के लिये तो सम्पन्नता अभिशाप ही सिद्ध होती है।

देवदास एक सम्पन्न परिवार का स्वामी था, घर में किसी बात की कमी न थी। धन, रुपया, मकान, स्त्री, बच्चे आदि किसी बात की कमी न थी पर उसका घर सुखी न था। सब आपस में खींचातानी रखते थे, भाई-भाई में नहीं बनती थी। सास-बहुओं में नहीं पटती थी। घर कोलाहल से भरा रहता था, शान्ति का नाम निशान तक न था।

देवदास एक सन्त के पास गया और जाकर बोला-भगवन्! मैंने खूब धन कमाया, मुझे किसी बात की कमी नहीं, फिर भी परिवार वालों से तंग आ गया हूँ। महाराज! बताइये क्या मेरी ग्रह-दशा ठीक नहीं है अथवा किसी ने कोई तान्त्रिक प्रयोग कर दिया है?

सन्त ने खूब विचार किया और उत्तर देने के लिये देवदास को शाम तक के लिये रोक लिया।

सन्त की कुटी के आगे से प्रतिदिन कुछ स्त्रियाँ लकड़ियों को बोझ लेकर गुजरती थीं और उधर थोड़ी देर तक बैठकर सुस्ताया करती थीं। नियमानुसार वे आज भी आईं। उनकी दशा पहले दिन जैसी ही थी। किसी का बोझ अधखुला, किसी की लकड़ियाँ उलझी हुईं। कई बेचारी अब तक दो-दो तीन-तीन बार बोझ बाँध चुकी थीं पर बोझ थे कि बार-बार अस्त-व्यस्त हो जाते थे। उन्हें सम्भालना कठिन था। स्त्रियों के मुख भी उसी तरह अस्त-व्यस्त और मुरझाये हुये थे।

उनमें एक सोलह वर्ष का बालक भी था। बोझ तो औरों से उसका छोटा था पर करीने के साथ बँधा हुआ। एक एक लकड़ी सुन्दर ढँग से सजाई हुई। सब एक मजबूत रस्से से बँधी हुई, क्या मजाल कि कोई लकड़ी इधर-उधर खिसक जाय। छाया में बैठते ही स्त्रियाँ आराम करने के बजाय अपने बोझ ठीक करने में लगी थी और वह बालक उनकी इस कमजोरी की चुटकी ले लेकर हँस रहा था।

महात्मा ने देवदास को बुलाया और बताया- देखो भाई, इन स्त्रियों की तरह अधिक से अधिक लकड़ियाँ काट लेने में ही सफलता नहीं वरन् उन्हें इस बच्चे की तरह सुदृढ़ और सुव्यवस्थित ढंग से बाँधना भी चाहिए। आपकी असफलता का रहस्य भी ऐसा ही है। अब जाओ और उसे सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न करो, तभी आपकी कठिनाई दूर हो सकती है।

देवदास की तरह परिवार बना लेना कोई कठिन बात नहीं है। बच्चे तो पशु-पक्षी भी पैदा कर लेते हैं। धन उत्तराधिकार में बिना परिश्रम भी मिल सकता है। पर इन सब से पारिवारिक व्यवस्था का कोई सम्बन्ध नहीं है। परिवार में स्वर्गीय सुख का वातावरण उतारने के लिये उसका निर्माण आवश्यक है। आपके घर में कम व्यक्ति हों, कम रुपया पैसा हो, कम जमीन हो तो भी कुछ हर्ज की बात नहीं। यदि आप परिवार के निर्माण पर ध्यान देते हैं तो आप निश्चित मान लीजिये कि आर्थिक तंगी में भी बड़ा सुख प्राप्त कर सकते हैं।

कुछ मनुष्यों का ऐसा विश्वास हो जाता है कि अमुक दोष, त्रुटि, अमुक न्यूनता मेरे परिवार में आ गई है। मैं विवश हूँ। क्या कर सकता हूँ। अब तो कोई भी मेरे कहने पर नहीं आते। यह गलत विचारधारा हैं। मनुष्य स्वभाव, गुण और चरित्र को जब जैसे चाहे आत्म बल से नये मार्गों में मोड़ सकता है। विवशता की गलत विचारधारा मन से निकाल देने में ही लाभ है। आप फिर से परिजनों के उत्थान में प्रवृत्त हूजिये। अभी भी आप में वह शक्ति और क्षमता है, जिससे परिजनों का निर्माण आप भली भाँति कर सकते हैं।

आपके लिये यह आवश्यक है कि प्रत्येक सदस्य के साथ सच्चाई का व्यवहार किया कीजिये। ऐसा होता है कि जो अपने अधिक नजदीकी रिश्ते होते हैं, उनकी भलाई और सुख का अधिक ध्यान दिया जाता है और दूसरों का कम। बेटे की शिक्षा और उसके कपड़ों पर अधिक व्यय करते है, जब कि छोटे भाई के लिये वैसा नहीं करते। अपनी धर्म पत्नी के लिये अच्छी किस्म की साड़ी लाते हैं, घर की स्त्रियों को कम अच्छी। कभी-कभी यह काम आप चोरी-छिपे भी करते हैं, पर विश्वास कीजिये सच्चाई उस सूर्य की तरह है, जिसे बहुत देर तक बादलों की ओट में नहीं रख सकते। चालाकी एक न एक दिन खुलती अवश्य है और फिर उसके फल स्वरूप लड़ाई-झगड़े, दंगे-फसाद भी होते हैं।

यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा सच्चाई और ईमानदारी का व्यवहार करे तो सर्वप्रथम उसका प्रयोग आपको स्वयं ही करना पड़ेगा। आप छल करेंगे, बच्चा अवश्य करेगा, आप झूठ बोलेंगे, बच्चा अवश्य झूठ बोलेगा। उसे जैसा वातावरण मिला है, उससे बाहर जायेगा कैसे? आप अपने परिजनों को सद्गुणी बनाना चाहते हों तो कृपया यह अभ्यास पहले अपने जीवन से ही प्रारम्भ करिये, तभी कुछ सफलता मिल सकेगी अन्यथा परिवार निर्माण का आपका स्वप्न अधूरा ही रहेगा।

बच्चों को श्रमशील बनाना आपका काम है। यह रुचि बच्चों में प्रकृतिदत्त होती है। छोटी अवस्था में ही बच्चों में कुछ न कुछ करते रहने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति को अच्छी दिशा दे दी जाय तो बच्चे स्वयं परिश्रमशील बन जाते हैं। जब उन्हें कोई मार्ग-दर्शन नहीं मिलता तो ही वे बुराइयों की खटपट शुरू करते, बुरे बनते और दुष्परिणाम भुगतते हैं। आप अपने परिवार के प्रत्येक व्यक्ति को कुछ रचनात्मक कार्य दिया करें और उससे उत्पन्न होने वाला फल भी उन्हें दे दिया करें, इससे उनकी रचनात्मक क्रियाशीलता विकसित होती रहेगी। जो व्यक्ति दिन भर काम करे और उसका मूल्य न मिले तो संभव है, वह गड़बड़ पैदा करे। इसलिये श्रम के साथ संपत्ति का उचित बंटवारा रखना भी उन्हें बताइये। सद्गुणों की अभिवृद्धि के साथ स्वजनों में यह श्रमशीलता का भाव भी आप उत्पन्न कर सकें तो यह आपकी बड़ी और सार्थक देन होगी।

परिवार में स्वच्छता और सफाई का महत्व भी कम नहीं। इससे हमारे आचरण प्रभावित होते हैं और परिजनों की मानसिक स्थिति का निर्माण होता है। स्वास्थ्य और रोग से रक्षा तो इसके स्थूल लाभ हैं। वस्तुतः स्वच्छता और सफाई से मनुष्य की कार्य-क्षमता बढ़ती है और अच्छे गुणों का विकास होता है।

घर की स्वच्छता की जिम्मेदारी घर के सदस्यों को सौंप दीजिये। कम से कम प्रति रविवार के दिन तो घर की सामूहिक सफाई होनी ही चाहिये। व्यक्तिगत सफाई का भी ध्यान न भूलें। सबके स्नान, साबुन आदि की व्यवस्था भी रहनी चाहिये।

सत्यनिष्ठा, सद्गुणों के प्रति रुचि, श्रमशीलता और स्वच्छता, सफाई के चार बहुमूल्य हीरे परिवार को देने के पश्चात् उन्हें अनुशासन में रहने का ढंग और सिखा दीजिये। परिवार में एक बच्चे से लेकर बूढ़े तक सबको अनुशासन का, नियमबद्धता का जीवन जीना चाहिये। ऐसा कोई भी कार्य उन्हें न करना चाहिये, जिससे परिवार की प्रतिष्ठा में धक्का लगता हो। शिष्टाचार, सद्भाव और परस्पर एक दूसरे का अवस्था के अनुसार सम्मान होना चाहिये। परिवार में अभिवादन करने और बड़ों की आज्ञा मानने की भी प्रथा अनिवार्य रूप से चलती रहनी चाहिए। यह सब अनुशासन के अंतर्गत आती हैं, इनका पालन भी कड़ाई के साथ ही होना चाहिये।

ये पाँच नियम ऐसे हैं, जिनसे परिवार के सदस्य उसी तरह व्यवस्थित और संबद्ध बने रहते हैं, जैसे कोई लकड़ियों का बोझ भली प्रकार बाँधकर सुविधापूर्वक कोसों तक लेता चला जाता है। इन नियमों में बंधे हुये परिवार विशृंखलित न होकर बहुत काल तक सुसंगठित बने रहते और सुख का जीवन जीते रहते हैं।

युग-निर्माण आन्दोलन की प्रगति


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